रविवार, 22 जनवरी 2023

मुंशी प्रेमचंद

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यह जमाना चाटुकारिता और सलामी का है तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत (मुफ़्त) भी न पूछेगा।


- मुंशी प्रेमचंद


स्रोत : कायाकल्प


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अब सब जने खड़े क्या पछता रहे हो। देख ली अपनी दुर्दशा, या अभी कुछ बाकी है। आज तुमने देख लिया न कि हमारे ऊपर कानून से नहीं, लाठी से राज हो रहा है। आज हम इतने बेशरम हैं कि इतनी दुर्दशा होने पर भी कुछ नहीं बोलते।


- मुंशी प्रेमचंद


[ स्रोत : समर यात्रा से .. ]


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मुंशी प्रेमचंद बहुत ही हसमुँख स्वभाव के थे, उनकी हँसी मशहूर थी। एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक व्याख्यान के उपरान्त एक छात्र ने उनसे पूछा- “आपके जीवन की सबसे बङी अभिलाषा क्या है?”


प्रेमचंद जी अपनी चिरपरिचित हँसी के साथ बोले- “मेरे जीवन की सबसे बङी अभिलाषा ये है कि ईश्वर मुझे सदा मनहूसों से बचाये रखे।”


प्रेमचंद जी 1916 से 1921 के बीच गोरखपुर के नोरमल हाई स्कूल में  में असिस्टेंट मास्टर  के पद पर रहे और इसी दौरान “सेवा सदन” सहित चार उपन्यासों की रचना की ।


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मुंशी प्रेमचंद 1935 के नवंबर महीने में दिल्ली आए। वे बंबई से वापस बनारस लौटते हुए दिल्ली में रुक गए थे। उनके मेजबान ‘रिसाला जामिया’ पत्रिका के संपादक अकील साहब थे। उन दिनों जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी करोल बाग में थी। उसे अलीगढ़ से दिल्ली शिफ्ट हुए कुछ समय ही हुआ था। प्रेमचंद और अकील साहब मित्र थे। जामिया में प्रेमचंद से मिलने वालों की कतार लग गई। इसी दौरान एक बैठकी में अकील साहब ने प्रेमचंद से यहां रहते हुए एक कहानी लिखने का आग्रह किया। ये बातें दिन में हो रही थीं। प्रेमचंद ने अपने मित्र को निराश नहीं किया। उन्होंने उसी रात को जामिया परिसर में अपनी कालजयी कहानी ‘कफन’ लिखी। वो उर्दू में लिखी गई थी। कफन का अगले दिन जामिया में पाठ भी हुआ। उसे कई लोगों ने सुना। ये कहानी त्रैमासिक पत्रिका ‘रिसाला जामिया’ के दिसंबर,1935 के अंक में छपी थी। ये अंक अब भी जामिया मिलिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में है। ‘कफन’ को प्रेमचंद की अंतिम कहानी माना जाता है। 1936 में उनकी मृत्यु हो गई।


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