फिर शीतलहर / प्रेम रंजन अनिमेष
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खबरों को भी पीछे छोड़ कर
फिर आ गयी शीतलहर
बदहवास बेखबर
वह गयी ही थी
विदा होकर अभी
कि फिर आ पहुँची
यह तो अच्छा
कि अब पहले से
मौसम और उसके बदलने का
चल जाता पता
फिर भी आदमी
क्यों नहीं
कर पाता
जो वह कर सकता
जबकि मालूम है
भेड़ें तैयार
निछावर करने को
अपने रोंये रोंये
और सदियों से दबे
कोयले बेताब निकलने को
धरती की खोह से
सुलगने दहकने के लिए
क्यों जा रहा
चूल्हे से ताव
जबकि माँ अब भी
बैठी पास पकाने बनाने की खातिर
दादी अँगीठी बोरसी जोरती
आग तापने जुगाने के वास्ते
परिजन घेरे उसे
कि जाये नहीं वह कहीं
रह जाये
जहाँ रहनी चाहिए आँच
होना चाहिए भाव
वही सबसे अधिक अभाव
क्या फिर जलाये नहीं जा सकते
अहर्निश अलाव
कि कुछ तो कम हो
सर्द हवाओं का प्रभाव
और पिघले भीतर रगों तक
बर्फ का जमाव
शीतयुद्ध समय समाप्ति की
हो चुकी घोषणा बहुत पहले
फिर भी क्यों
हाल माहौल ऐसा
क्या फिर हिमयुग की ओर
जा रहा संसार
या अब वक्त ऐसा
कि रुत हो चाहे कोई
बोलेगी हर तरफ
इति को ले जाती
अति की तूती
ऐसा आलम
जिसमें सम
या मध्यम
नहीं कहीं
या हो भी
तो उसकी
कोई कद्र नहीं
देह में होती
सबसे अधिक धाह
आह कराह में आग
और आँच उन दिलों में
जो धड़कते दूसरों के लिए
मैं बस चाहता इतना
पूछना सबसे
और अपने आप से
कि जहाँ जहाँ शीतलहर
क्या चलायी नहीं जा सकती वहॉं
प्रीतलहर...?
🔥
( आने वाले कविता संग्रह *' अवगुण सूत्र '* से )
✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*
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