अजनबी इक चेहरे में
चेहरा देखा तुम्हारा-
खुल गये अध्याय कितने
बंद पुस्तक के दुबारा।
पूर्व की खिड़की खुली,
छँटने लगा खुद ही अँधेरा,I
रश्मि-रथ पर चढ़ा आता
दिख रहा अद्भुत सबेरा;
रौशनी की बाढ़-सी
आने लगी चहुंओर से ज्यों
इक नदी इतनी बढ़ी कि
खो गया यह-वह किनारा।
खुल गये संदर्भ कितने
देह के, मन के मिलन के,
खुल गये गोपन सभी
संसार के सुंदर सृजन के;
इस जगह इस मोड़ पर
अब प्रश्न बेमानी हुए कि
कौन आया दौड़ता-सा
और किसने था पुकारा।
गंध का संसार केवल
रह गया चहुंओर अपने,
एक मिलकर हो रहे हैं
सच हमारे और सपने;
बिन्दु में ब्रह्माण्ड के
दर्शन सहज होने लगे हैं,
क्षीर-सागर में स्वयं
मिलने लगी है एक धारा।
* * *
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