कविता :
#धान_कूटती_हुई_औरतें
ढेंकी में
धान कूट रही हैं औरतें!
अलसुबह
रात की काली चादर फाड़कर
सूरज के ऊपर चढ़ने से पहले
वे कूट लेना चाहती हैं
ज़रूरत भर धान।
धूप निकलते ही
देर रात तक
आँखें फोड़ते हुए
उसीने गए धान को
घड़ों से निकाल कर
सूखने के लिए
ओटे पर पसारती हैं औरतें
ऐसे, जैसे पसार रही हों वे
सुख और समृद्धि
समूची पृथ्वी के लिए।
फूस की छत से
लटक रही डोरी को पकड़कर
बनाती हैं वे अपना संतुलन
और पूरी ताकत के साथ
मारती हैं लात
ढेंकी की दुम पर
ऐसे, जैसे एक ही वार में
वे कुचल देना चाह रही हों
अपने दुर्दिन के साँप को।
बैलों के खूँटों पर लौटने से पहले
सूखकर खनखनाते हुए
धान के दानों को
बड़े जतन से बुहारती हैं औरतें
और जमा करती हैं उन्हें
खँचिया, सूप और दउरा में।
ढेर की शक्ल में
अपनी मेहनत का ईनाम देख
भीतर तक
भीग जाती हैं औरतें।
रंभाती हुई गाय की आवाज़ पर
बछड़े की रस्सी खोलती हुई
औरतों के स्तनों में भी
अनायास उतर आता है दूध।
थनों को अच्छी तरह फेनाने के बाद
बछड़े को पकड़कर
गाय के सामने ले आती हैं औरतें
और दुलराती हैं ऐसे,
जैसे दुलरा रही हों वे
पूरी सृष्टि को।
अपने आदमी के हाथों से
दूध- भरी बाल्टी लेकर
देर तक निहारती हैं औरतें,
जैसे हिसाब लगा रही हों
कि पास-पड़ोस के घरों में
बेचने के बाद
उनके बच्चों के हिस्से में
दूध की कितनी मात्रा आएगी।
धान कूटती हुई औरतें
धान के साथ-साथ
कूटती हैं अपने दुख
अपनी तकलीफ
और अपने संताप को भी।
धान को
चावल के सफेद दानों में बदलते देख
उनकी आँखें
खुशी से फैल जाती हैं।
कल्पना में ही
उन्हें दिखाई देने लगता है O
आँच पर चढ़ा
खदकता हुआ भात
जिसकी प्रतीक्षा में
उनके बच्चे
अभी भी
लेदरा- कथरी में दुबके पड़े हैं
खाली पेट को
दोनों हाथों से दबाए हुए।
धरती का सीना फाड़कर
उनके आदमी
उगाते हैं धान के जिन दानों को
कूटते वक़्त
उन दानों पर भी
रहम नहीं करतीं ये औरतें।
ढेंकी में धान कूटती हुई
आत्मविश्वास से भरी ये औरतें
कितनी सुंदर लग रही हैं --
बिल्कुल मेरी माँ और दादी जैसी!
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