मंगलवार, 17 जनवरी 2023

द्रौपदी हूँ मैं... / कात्यायनी...........

 सुनाती हूँ आज व्यथा कथा अपनी

हाँ द्रौपदी हूँ मैं / सुनाती हूँ आज व्यथा कथा अपनी...

सैरन्ध्री अग्निसुता भी नाम हैं मेरे ही

कहते हैं कृष्णा भी मुझे / सखी हूँ मैं कृष्ण की...

कोई कहता / अवतार हूँ मैं इन्द्राणी का 

जन्म हुआ जिसका प्रतिशोध की अग्नि से

इसीलिए कहलाई याज्ञसेनी भी...

कोई कहता / हूँ पूर्व जन्म की मुद्गलिनी इन्द्रसेना 

वैधव्य प्राप्त हुआ जिसे अल्पायु में...

कोई कहता / पिछले जन्म की नलयिनी हूँ मैं

नल और दमयन्ती की पुत्री लाडली बिटिया...

पर क्या यही सब अपराध थे इतने महान मेरे 

कि रौंदा गया बार बार आत्मा को मेरी ?

प्रतिशोध की अग्नि से उत्पन्न होना

क्या इच्छित रहा होगा मुझे ?

जीत कर स्वयम्वर में बाँट दिया पाँच भाइयों के मध्य

बनाकर वस्तु उपभोग की / विलासिता की...

कर दिया विदीर्ण हृदय को मेरे

एक स्त्री ने ही / जो स्वयं थी अपराधिनी उस पुत्र की

बिना ब्याहे ही जन्म देकर प्रवाहित कर दिया था जिसे नदी में

छिपाने को दुष्कर्म अपना...

मन में भरा था उल्लास जिसके नव दुलहिन की प्रथम रात्रि का

उमंग में भर कर रहे थे जो नर्तन

डाल दीं बेड़ियाँ उन्हीं पाँवों में / नाम पर संस्कारों के...

अब थी मैं पत्नी पाँच पुरुषों की

नहीं था अधिकार देखने का किसी अन्य पुरुष की ओर

और सहर्ष सगर्व किया स्वीकार नियति को मैंने अपनी...

पाँचों भाइयों की थीं अन्य पत्नियाँ भी

कह सकते हो मैं थी सौभाग्यवती इतनी 

कि मिला अगाध स्नेह पाँच पाँच पतियों का...

लेकिन मैं कहूँगी / मेरे हिस्से आया पौरुष बंटा हुआ... 

हाँ की थी मैंने प्रार्थना शंकर की पाँच बार

मिले पति सर्वगुण सम्पन्न मुझे / कौन नहीं करता...

पर मिला अभिशाप पाँच पतियों का / रूप में वरदान के...

हर बार लगाया गया मुझे ही दाँव पर

कभी नाम पर स्वयंवर के / तो कभी नाम पर राज्य के...

क्या अधिकार था पतियों का मेरे / लगाने का दाँव पर मुझे अकेली को 

जबकि थीं अन्य रानियाँ भी उनकी / जो नहीं थीं शापित मेरी तरह

जो नहीं बाँटी गई थीं पाँच पुरुषों में / नहीं बनाया गया था जिन्हें देवी...

हाँ कहा था मैंने अन्धे को पुत्र को अन्धा

पर क्या सत्य नहीं था यह ?

आँख से अन्धे पिता ने मूँदे हुए थे नेत्र मन के / पुत्रमोह में

और माता ने बाँध ली पट्टी आँखों पर

देने को छूट काली करतूतों को पुत्र की...

और महावीर अर्जुन तुम / जिसके गाण्डीव के एक तीर से फूट उठती थी वसुधा के हिय से अमृत की धारा

क्या टूट कर बिखर गया था गाण्डीव तुम्हारा / कष्ट से मेरे अपमान के...?

भीम तुम / बहुत बड़े गदाधारी थे न 

कर सकते थे जो समस्त ब्रह्माण्ड का भी भेदन

क्या वह भी रहा गया था बनकर काष्ठ का एक खण्ड मात्र...?

महाराज युधिष्ठिर / आप तो थे धर्म की प्रतिमूर्ति

किस अधिकार से किया आपने ये अधर्म

लगाने का दाँव पर मेरी अस्मिता को

जबकि हार चुके थे सर्वस्व अपना द्यूतक्रीड़ा में...?

वाह पितामह / झुका कर बैठ गए थे आप भी नेत्रों को अपने 

इतना मोह सिंहासन की अर्चना का / कि बन बैठे अधर्मी...?

मौन रहकर किया था आपने भी वही पाप

कम नहीं था अपराध आपका किसी दुःशासन से...

किन्तु दण्ड मिला मुझे सभी के कुकृत्यों का ऐसा

कि भरी सभा में किया गया प्रयास करने का निर्वसन...

न होता अगर सखा मेरा / या अनसुना कर देता वह भी प्रार्थना को मेरी

रह जाता बनकर मूक सुनकर चीत्कार मेरा

कौन ढकता तन एक रजस्वला नारी का...?

क्योंकि पति कहलाने वाले पाँचों पुरुष तो

बैठ रहे थे सर झुकाए कायर बने...

क्यों धर्म राज्य के नाम पर किया इतना बड़ा छल साथ मेरे 

कभी पिता ने / कभी पतियों ने...

किया गया अपमान बार बार आत्मा का मेरी...

किया गया प्रयास तोड़ने का बार बार स्वाभिमान को मेरे...

और देखो मुझे / फिर भी मैं खड़ी रही स्तम्भ बनी साथ पाण्डवों के

चलती रही अनवरत अन्तिम प्रयाण तक साथ उनके

क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ / सदाचारिणी पतिव्रता

और गर्व है स्त्री होने पर स्वयं के...

हाँ, द्रौपदी हूँ मैं / सुनाती हूँ आज व्यथा कथा अपनी...

क्योंकि मैं हूँ प्रतीक समूची नारी शक्ति का

नारी / जो है स्वयं प्रकृति रूपा / मातृरूपा...

-------------------कात्यायनी...........

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