गुरुवार, 26 जनवरी 2023

रवींद्र बाबू के साहित्य से).......

 कलकत्ता के दो सेठों ने नाविकों से शर्त बदी कि जो अपनी नाव से हुगली पहले पार कर लेगा, उसे पुरस्कार मिलेगा। रात का समय तय हुआ। दोनों नाविकों ने अपने-अपने ख़ेमे के नाव खेने वालों को ख़ूब दारू पिलाई और रात दस बजे से नावें बढ़ने को तैयार। हुंकार भरी और नाव खेने लगे। सुबह का सूरज उगते ही दोनों नौकाओं के मुख्य नाविक ने शंख ध्वनि की। पर यह क्या, शंख ध्वनि एक साथ हुई। दोनों ने परदा हटा कर देखा तो पाया कि दोनों नावें समानांतर खड़ी हैं। और झांका तो पता चला कि दोनों नावें उसी किनारे पर हैं, जहां से चली थीं। नाविक नीचे उतरे तो देखा, कि अरे नावें तो खूँटे से ही बँधी रह गईं। भारत के समाज का यही हाल है। हुँकारा तो खूब भरते हैं लेकिन धर्म और समुदाय तथा जाति के खूँटे से अपनी नावें खोल नहीं रहे।


(रवींद्र बाबू के साहित्य से)

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