रविवार, 15 जनवरी 2023

धूप के अक्षर' केवल अभिनंदन ग्रंथ भर नहीं है-1/ अरविंद सिंह

 '


@अरविंद सिंह 


 "जब नसों में पीढ़ियों की, हिम समाता है 

       शब्द ऐसे ही समय तो काम आता है

           बर्फ पिघलाना जरूरी हो गया, चूंकि

               चेतना की हर नदी पर्वत दबाता है

                  बालियों पर अब उगेंगे धूप के अक्षर 

                       सूर्य का अंकुर धारा में कुलबुलाता है"

                       

                       (- ऋषभदेव शर्मा)


 


नौजवान शायर शौहर खतौलवी से कवि ऋषभदेव शर्मा बनने तक की यह साहित्यिक यात्रा, दरअसल  साहित्य, संस्कृति और हिंदी की सेवा भर नहीं है। बल्कि उत्तर भारत से, उस दक्षिण भारत का मिलन भी है। जो भाषा के सवाल पर, क्षेत्रीयता के सवाल पर भ्रमित देश को कभी एक नंगा फ़कीर जोड़ने चला था। जब एक तरफ उत्तर में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हो रही थी, तो सुदूर दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभाओं की स्थापना, महात्मा गांधी के कर कमलों से हो रही थी। हिंदी की ताकत और उसकी समन्वयकारी शक्ति की पहचान महात्मा ने आजादी के आंदोलन के प्रारम्भिक दौर में ही कर लिया था। जिसके परिणाम स्वरूप दक्षिण भारत में तमिल, तेलुगू, कन्नड़ जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का मिलन हिंदी से हो रहा था। यह मिलन भले राजनीतिक कारणों से महात्मा के माध्यम से हो रहा था, लेकिन यह भाषाई आधार पर एक महा-मिलन था, आर्य भाषाओं का द्रविण भाषाओं से । या यूं कहें कि यह मिलन, आर्य संस्कृति का द्रविण संस्कृति से हो रहा था। इस मिलन के केंद्र में पुरातन उत्तर भारत की सनातन संस्कृति थी, जिसके पताका को दक्षिण भारत में फहराने वाले विश्व के प्रथम समाजवादी, मर्यादा पुरुषोत्तम, स्वयं प्रभु श्रीराम थे। जिनके दर्शन को महात्मा गांधी ने अपने जीवन में आत्मसात कर, जीवन पर्यन्त उसी पथ का गामी बनना स्वीकार किया था। और आखिरी पल तक उसी रामनाम के मंत्र को जपते हुए आखिरी शब्द के रूप में बोला था- 'हे राम!'


   समय की रेखा पर हमारे समय में, भगवान श्रीराम और महात्मा गांधी के बताए हुए उसी पथ पर, उत्तर भारत से चलकर एक इन्टेलीजेंस का अफसर दक्षिण भारत पहुंचता है। अपनी महत्वपूर्ण पदवी और प्रतिष्ठा को त्याग कर, दक्षिण भारत में हिंदी की सेवा के लिए कंटकाकीर्ण पथ का वरण करता है और हिंदी की इस यज्ञशाला में अपना संपूर्ण जीवन ही न्यौछावर कर देता है। नाम है 'ऋषभदेव शर्मा', जो पिछले बरस 2015 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास के 'उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान' से आचार्य और अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। जिनके जीवन सफ़र, व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित एक अभिनंदन ग्रंथ का संपादन उनकी शिष्य परंपरा ने किया। दो खंडों में प्रकाशित इस महाग्रंथ का शीर्षक कविताई है -'धूप के अक्षर'।

    उसी शिष्य परंपरा में यह पंक्तिकार भी आता है। लेकिन इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए वह एक स्वतंत्र लेखक है। जो गुण-दोष के आधार पर नीरक्षीर देखने का हामी है, दरअसल इस नैतिकता को भी, इसी गुरु परंपरा ने सिखाया  था और है।

इस संदर्भ में "धूप के अक्षर" की निष्पक्ष समीक्षा करें तो आज एक बार फिर इतिहास की पुर्नस्थापना हो रही है। वह अतीत हमारे वर्तमान में प्रवेश कर रहा है। जिसे हमारे पुरखों ने गढ़ा और जन-जन के मानस में स्थापित किया था। उत्तर भारत की सनातन संस्कृति के ध्वजवाहक का, दक्षिण के द्रविण संस्कृति से मिलन हो रहा है।  यह मिलन साहित्यिक भी है और सांस्कृतिक भी है। यह यूं कहें कि यह उत्तर से दक्षिण का साहित्य-सेतुबंध है, और हम जैसे उत्तर भारतीयों के लिए दक्षिण भारत में प्रवेश द्वार भी है। भाषाई आधार पर बिखरते और टूटते भारत को महात्मा गांधी ने जिस समन्वयकारी हिंदी से जोड़ने का प्रयास, उत्तर भारत से दक्षिण भारत में पग-पग चल कर किया था, आज उसी पथ के गामी प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा भी हैं।

  साहित्य का जो कपाट तेलुगू, तमिल और हिंदी भाषाओं के सवाल पर एक मंच पर खुलता नज़र आता है, उसकी पृष्ठभूमि में भले हमारे पूर्वजों का योगदान रहा हो, लेकिन वर्तमान ऋषभदेव शर्मा सरीखे हिंदी सेवियों के महान त्याग और समर्पण से समृद्ध होता है। 'धूप के अक्षर' इस सन्दर्भ में दशकों की इस संघर्ष भरे पथ की परिचय की एक पारदर्शिया है, जो ग्रंथ के नायक के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का अंशमात्र निरुपण है। कुछ शख्सियतें शब्दों के सांचों में ढ़ाले नहीं जातें हैं। बस महसूस किए जाते हैं।

 

क्रमशः

 'धूप के अक्षर'-अभिनंदन ग्रंथ-प्रो०ऋषभदेव शर्मा 

  प्रकाशक- अनंग प्रकाशन,नई दिल्ली

  संपादक मंडल-(डॉ जी०नीरजा, डॉ राकेश कुमार शर्मा, डॉ बी०बालाजी, डॉ चंदन कुमारी, डॉ मंजु शर्मा )

   मूल्य -1195रु

   समीक्षक- डॉ अरविन्द सिंह

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