गुरुवार, 19 जनवरी 2023

गीतों के संग गुलज़ार के प्रयोग /


   

गुलज़ारने गीतों के साथ जितने प्रयोग किए हैं, वह पृथक से शोध का विषय होना चाहिए। एक पूरी पुस्तक इस पर लिखी जा सकती है। विशेषकर तुकों के साथ तो उन्होंने ख़ासी खिलंदड़ मनमानी की है।


अब यह देखिये कि जो गीतकार लोग होते हैं, वो तुकों से बँध जाते हैं। कोई पंक्ति 'बिंदिया' पर ख़त्म हो रही हो तो अगली पंक्ति में 'निंदिया' होगी ही। इससे बचने का कोई उपाय नहीं। 'इज़हार' के बाद 'इक़रार' आएगा ही। बहुत हुआ तो 'इंतज़ार' आ जाएगा, पर गाड़ी उसी के इर्द-गिर्द घूमेगी। 'अपना' के साथ 'सपना' की ही जोड़ी जमेगी। ऐसा एक गीत नहीं, जिसमें कोई पंक्ति 'सपना' पर ख़त्म हुई और उसके बाद वाली पंक्ति में 'अपना' न आया हो।


फिर गुलज़ार हैं, जो एक दूसरी ही कौड़ी लेकर आते हैं। 'सपनी' और 'अपनी'- यह भला क्या तुक हुई? यह तो बेतुकी बात है। पर गुलज़ार के यहाँ नहीं। फ़िल्म 'गोलमाल' के इस गीत में वे तुक बिठाल ही देते हैं :


"इक दिन छोटी-सी देखी सपनी

वो जो है ना, लता अपनी

लता गा रही थी, मैं तबले पे था

वो मुखड़े पे थी, मैं अंतरे पे था

ताल कहाँ, सम कहाँ

तुम कहाँ, हम कहाँ?"


इसको कहते हैं आउट-ऑफ़-बॉक्स थिंकिंग। मेरा दावा है कोई और गीतकार इस बात को सोच नहीं पाता।


एक और उदाहरण देखिये। फ़िल्म 'कमीने' का गाना है- "पहली बार मुहब्बत की है।" अगर यह मिसरा किसी अन्य गीतकार को दिया जाता- जैसे समीर या इंदीवर या आनंद बक्षी- तो वो "पहली बार मुहब्बत की है" के आगे जोड़ते "हमने ऐसी चाहत की है" या "दिल ने एक इबादत की है" या ऐसा ही कुछ घिसा-पिटा। क्योंकि काफ़िया वही रहता है, रदीफ़ बदल जाता है- यह नियम है। 


पर गुलज़ार कहते हैं- "पहली बार मुहब्बत की है / आख़िरी बार मुहब्बत की है।" अब यह बात ही अलग है। एक स्ट्रोक में उन्होंने गाने का मेयार उठा दिया, उसको कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। 'पहली बार' और 'आख़िरी बार' का काफ़िया और 'मुहब्बत' का रदीफ़। दोहराव से परहेज़ नहीं। पर कहने वाली बात थी सो कह दी कि यह पहली बार है और यही आख़िरी बार भी है। अब फिर मुहब्बत नहीं होने वाली! एक बार में ही थक गए, हार गए...


असंख्य गीत गुलज़ार ने ऐसे लिखे हैं, जिनमें क्रिएटिविटी की झोंक है। "कत्था-चूना ज़िंदगी सुपारी जैसा छाला होगा / पाप ने जना नहीं तो पापियों ने पाला होगा!" मैं चाहूँगा कि कोई क़द्रदान गुलज़ार के गीतों पर इस दृष्टि से रिसर्च करके पुस्तक लिखे। कोई नहीं लिखेगा तो मैं ही लिख डालूँगा।


क्योंकि सम्पूरन सिंह की यह सरगम भला कौन भूल सकता है :

"सा रे के सा रे

गा मा को लेकर

गाते चले

पा पा नहीं हैं

धा नि सी दीदी

दीदी के साथ हैं

सा रे!"

ब्रिलियंट!

..........................................

साभार - Sushobhit

 गुलज़ार ने गीतों के साथ जितने प्रयोग किए हैं, वह पृथक से शोध का विषय होना चाहिए। एक पूरी पुस्तक इस पर लिखी जा सकती है। विशेषकर तुकों के साथ तो उन्होंने ख़ासी खिलंदड़ मनमानी की है।


अब यह देखिये कि जो गीतकार लोग होते हैं, वो तुकों से बँध जाते हैं। कोई पंक्ति 'बिंदिया' पर ख़त्म हो रही हो तो अगली पंक्ति में 'निंदिया' होगी ही। इससे बचने का कोई उपाय नहीं। 'इज़हार' के बाद 'इक़रार' आएगा ही। बहुत हुआ तो 'इंतज़ार' आ जाएगा, पर गाड़ी उसी के इर्द-गिर्द घूमेगी। 'अपना' के साथ 'सपना' की ही जोड़ी जमेगी। ऐसा एक गीत नहीं, जिसमें कोई पंक्ति 'सपना' पर ख़त्म हुई और उसके बाद वाली पंक्ति में 'अपना' न आया हो।


फिर गुलज़ार हैं, जो एक दूसरी ही कौड़ी लेकर आते हैं। 'सपनी' और 'अपनी'- यह भला क्या तुक हुई? यह तो बेतुकी बात है। पर गुलज़ार के यहाँ नहीं। फ़िल्म 'गोलमाल' के इस गीत में वे तुक बिठाल ही देते हैं :


"इक दिन छोटी-सी देखी सपनी

वो जो है ना, लता अपनी

लता गा रही थी, मैं तबले पे था

वो मुखड़े पे थी, मैं अंतरे पे था

ताल कहाँ, सम कहाँ

तुम कहाँ, हम कहाँ?"


इसको कहते हैं आउट-ऑफ़-बॉक्स थिंकिंग। मेरा दावा है कोई और गीतकार इस बात को सोच नहीं पाता।


एक और उदाहरण देखिये। फ़िल्म 'कमीने' का गाना है- "पहली बार मुहब्बत की है।" अगर यह मिसरा किसी अन्य गीतकार को दिया जाता- जैसे समीर या इंदीवर या आनंद बक्षी- तो वो "पहली बार मुहब्बत की है" के आगे जोड़ते "हमने ऐसी चाहत की है" या "दिल ने एक इबादत की है" या ऐसा ही कुछ घिसा-पिटा। क्योंकि काफ़िया वही रहता है, रदीफ़ बदल जाता है- यह नियम है। 


पर गुलज़ार कहते हैं- "पहली बार मुहब्बत की है / आख़िरी बार मुहब्बत की है।" अब यह बात ही अलग है। एक स्ट्रोक में उन्होंने गाने का मेयार उठा दिया, उसको कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। 'पहली बार' और 'आख़िरी बार' का काफ़िया और 'मुहब्बत' का रदीफ़। दोहराव से परहेज़ नहीं। पर कहने वाली बात थी सो कह दी कि यह पहली बार है और यही आख़िरी बार भी है। अब फिर मुहब्बत नहीं होने वाली! एक बार में ही थक गए, हार गए...


असंख्य गीत गुलज़ार ने ऐसे लिखे हैं, जिनमें क्रिएटिविटी की झोंक है। "कत्था-चूना ज़िंदगी सुपारी जैसा छाला होगा / पाप ने जना नहीं तो पापियों ने पाला होगा!" मैं चाहूँगा कि कोई क़द्रदान गुलज़ार के गीतों पर इस दृष्टि से रिसर्च करके पुस्तक लिखे। कोई नहीं लिखेगा तो मैं ही लिख डालूँगा।


क्योंकि सम्पूरन सिंह की यह सरगम भला कौन भूल सकता है :

"सा रे के सा रे

गा मा को लेकर

गाते चले

पा पा नहीं हैं

धा नि सी दीदी

दीदी के साथ हैं

सा रे!"

ब्रिलियंट!

..........................................

साभार - Sushobhit

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