स्मृतियों में शेष अपने पिता की 25वीं #पुण्य_तिथि पर .....
पिता पर केंद्रित मेरी एक कविता और आदरणीय जगदीश नलिन जी द्वारा अंग्रेजी में इसका अनुवाद !
धुंध_में_पहाड़ / प्रवीण परिमल
पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !
दिन की तरह ठिठुरते
उन्हें कभी देखा नहीं मैंने
न ही कभी
धूप का गर्म ओवरकोट पहनते...
कवच की तरह !
विचारों की यह कैसी आंतरिक ऊष्मा थी उनमें
कि कष्ट की बड़ी - सी - बड़ी बूँद भी
गर्म तवे की तरह
उनकी देह को छूते ही
भष्म हो जाती थी !
पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !
इसी पहाड़ की गुफ़ाओं में
हमनें खेले हैं बचपन के दिन
इसी पहाड़ की कंदराओं में
हमने फाड़ी हैं रातों की चादरें !
हमें , मासूम शावकों की तरह...
अपने में उछलता - कूदता देख
कितना ख़ुश होता होगा पहाड़
कितना सुख महसूस करता होगा
हमारे नर्म - मुलायम बालों पर
स्पर्श की उंगलियाँ फेरते हुए !
बिजलियों की कड़कड़ाहट से
हमें , कभी दहशतज़दा नहीं होने दिया पहाड़ ने
न ही हम
उसकी गोद की गर्माहट में सिकुड़े - दुबके
आज तक यह जान पाये
कि आख़िर कैसे झेल लेता था पहाड़
एक ही साथ ---
ठंढ , लू , बारिश तथा आँधी और तूफ़ानों को
कैसे झटक देता था
कँटीली झाड़ियों की तरह
चेहरे की झुर्रियाँ और उम्र की थकानों को !
उसकी मृतप्राय आँखों में
दुख और असंतोष की
कितनी - कितनी गिलहरियाँ छटपटायी होंगी ,
हम आजतक नहीं जान सके !
उसके सामर्थ्य
और सहनशीलता से अनभिज्ञ हम
अंत तक अपनी ज़रूरतों के
'डायनामाइट' लगाते रहे
और पहाड़ को
क्रमश: जर्जर बनाते रहे !
अब ,
जबकि उस पहाड़ की
महज स्मृति भर शेष है ,
हम अपनी - अपनी छतों के नीचे ...
( जिसमें पिता की देह के टुकड़े शामिल हैं )
...हर तरह से सुरक्षित खड़े हैं
और ठंढ , लू , बारिश
तथा आंधी और तूफ़ानों के फीते हमें नाप रहे हैं
कि धुंध में खड़े उस पहाड़ से
हम कितने छोटे
अथवा कितने बड़े हैं !
▪प्रवीण परिमल
#A_Mountain_In_Fog
Father was perhaps a mountain standing
In fog!
I never saw him
Shivering like day
Nor I ever saw him
Wearing the overcoat of the sunlight
Like armour!
How this internal warmth of
Thought was in him
That also the biggest possible drop
Of trouble just as touching his hot grid
Like body turned to ash!
Father was perhaps a mountain standing
In fog!
In the caves of this very mountain
We have played the days of childhood
In the caverns of this very mountain
We have torn the wrappers of nights!
Seeing us like innocent kids
Jumping and leaping in ourselves
How much pleased the mountain might be
Being
How much relief it might be feeling
Rubbing its fingers of touch
On our soft smooth hair!
The mountain never let us be frightened
From the thundering lightning
Nor we shrinked-hid in warmth of its lap
We couldn't be able to know till today
That after all how the mountain bore
Simultaneously---
Cold,hot wind,rains and gales and storms
How forcibly he ignored
Like thorny bushes
Wrinkles of face and tiredness of age!
How many squirrels of grief and discontent
Might have fluttered in its almost dead eyes
We couldn't know till today!
We unknown to its competence and
Tolerance kept on applying dynamite
For our needs till the end
And making the mountain worn-out
Bit by bit!
Today while there is only the memory
Of the mountain
We are under our roofs separately...
(In which pieces of father's body are included)
Standing quite secured
And the tapes of cold,hot wind,and rains
Gales and storms are measuring us
That how much smaller or bigger we
Are than the mountain !
--Parveen Parimal