गुरुवार, 30 मार्च 2023

बड़े बड़ाई न करें, बड़े न बोलें बोल।*

 

बड़े बड़ाई न करें, बड़े न बोलें बोल।*

"रहिमन" हीरा कब कहें, लाख टका मेरा मोल।*


अर्थ:* जो सचमुच बड़े होते है वह अपनी बड़ाई नही किया करते, बड़े_बड़े बोल नही बोला करते। हीरा कब कहता है कि मेरा मोल लाख टके का है।

*अहंकार की कोई कीमत नहीं है

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अशोक के जीवनी में मैंने पढ़ा है, गांव में एक भिक्षु आता था। अशोक गया और उस भिक्षु के चरणों में सिर रख दिया। अशोक के बड़े राज्य का जो बड़ा वजीर था, उसे यह अच्छा नहीं लगा। अशोक जैसा सम्राट गांव में भीख मांगते एक भिखारी के पैरों पर सिर रखे, महल लौटते ही उसने कहा कि नहीं सम्राट, यह मुझे ठीक नहीं लगा। आप जैसा सम्राट, जिसकी कीर्ति शायद जगत में कोई सम्राट नहीं छू सकेगा फिर, वह एक साधारण से भिखारी के चरणों पर सिर रखे!


अशोक हंसा और चुप रह गया। दो महीने बीत जाने पर उसने बड़े वजीर को बुलाया और कहा कि एक काम करना है। कुछ प्रयोग करना है, तुम यह सामान ले जाओ और गांव में बेच आओ। सामान बड़ा अजीब था। उसमें बकरी का सिर था, गाय का सिर था, आदमी का सिर था, कई जानवरों के सिर थे और कहा कि जाओ बेच आओ बाजार में।


वह वजीर बेचने गया। गाय का सिर भी बिक गया और घोड़े का सिर भी बिक गया, सब बिक गया, वह आदमी का सिर नहीं बिका। कोई लेने को तैयार नहीं था कि इस गंदगी को कौन लेकर क्या करेगा? इस खोपड़ी को कौन रखेगा? वह वापस लौट आया और कहने लगा कि महाराज! बड़े आश्चर्य की बात है, सब सिर बिक गए हैं, सिर्फ आदमी का सिर नहीं बिक सका। कोई नहीं लेता है।


सम्राट ने कहा कि मुफ्त में दे आओ। वह वजीर वापस गया और कई लोगों के घर गया कि मुफ्त में देते हैं इसे, इसे आप रख लें। उन्होंने कहा पागल हो गए हो! और फिंकवाने की मेहनत कौन करेगा? आप ले जाइए। वह वजीर वापस लौट आया और सम्राट से कहने लगा कि नहीं, कोई मुफ्त में भी नहीं लेता।


अशोक ने कहा कि अब मैं तुमसे यह पूछता हूं कि अगर मैं मर जाऊं और तुम मेरे सिर को बाजार में बेचने जाओ तो कोई फर्क पड़ेगा? वह वजीर थोड़ा डरा और उसने कहा कि मैं कैसे कहूं क्षमा करें तो कहूं। नहीं, आपके सिर को भी कोई नहीं ले सकेगा। मुझे पहली दफा पता चला कि आदमी के सिर की कोई भी कीमत नहीं है।


सम्राट अशोक ने कहा कि फिर इस बिना कीमत के सिर को अगर मैंने एक भिखारी के पैरों में रख दिया था तो क्योंL इतने परेशान हो गए थे तुम।


आदमी के सिर की कीमत नहीं, अर्थात आदमी के अहंकार की कोई भी कीमत नहीं है। आदमी का सिर तो एक प्रतीक है आदमी के अहंकार का। और अहंकार की सारी चेष्टा है भीतर लाने की और भीतर कुछ भी नहीं जाता—न धन जाता है, न त्याग जाता है, न ज्ञान जाता है। कुछ भी भीतर नहीं जाता। बाहर से भीतर ले जाने का उपाय नहीं है। बाहर से भीतर ले जाने की सारी चेष्टा खुद की आत्महत्या से ज्यादा नहीं है, क्योंकि जीवन की धारा सदा भीतर से बाहर की ओर है।

        

         🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

बुधवार, 29 मार्च 2023

रवि अरोड़ा की नजर से.....

 डरावने किस्सों की आहट



 जालंमूल्यांकन tv की एक सड़क थी। रात के अंधेरे में मेरा एक मित्र और मैं पैदल ही कहीं जा रहे थे। दूर दूर तक आदमजात का कोई नामो निशान नहीं था । तभी पीछे से एक मोटर साइकिल  की आवाज़ सुनाई दी। आवाज़ जैसे जैसे निकट आ रही थी, हमारे दिलों की धड़कनें लगातर तेज हो रही थी। लग रहा था कि जैसे आज जीवन का अंतिम ही दिन है। आशंका हो रही थी कि ये मोटर साइकिल वाला हमारे निकट आएगा और अपनी एके 47 से हमें छलनी कर देगा। मगर सुखद आश्चर्य, ऐसा नहीं हुआ । वह मोटर साइकिल सवार आतंकवादी नहीं वरन कोई आम शहरी था और अंधेरा होने के बावजूद हमारी तरह किसी मजबूरी वश अपने घर से बाहर था। अपने इस खौफ की वजह आपको बता दूं । यह बात साल 1983 की है और उस समय पंजाब में घल्लू घारा सप्ताह मनाया जा रहा था । जाहिर है कि उन दिनों पंजाब में खालिस्तान मूवमेंट अपने चरम पर था रोजाना निर्दोषों का कत्लेआम गाजर मूली की तरह किया जा रहा था। खौफ का ऐसा माहौल था जैसा बंटवारे के समय भी शायद नहीं रहा होगा । इस वाकए के ठीक एक दिन पहले ही मैं अमृतसर के हरमंदिर साहब में था और वहां सेवादारों के अतिरिक्त केवल तीन बाहरी श्रद्धालु थे । उनमें भी मैं इकलौता ऐसा था जिसके सिर पर केश नहीं थे अतः अनेक घूरती आंखें लगातार मेरा पीछा कर रही थीं। अब आप सोचेंगे कि आज ये किस्से क्यों ! तो बस इसका इतना सा ही मकसद है कि आजकल उस दौर की आहटें फिर सुनाई दे रही हैं। 


पुरानी बातों से खुद को जोड़ने में यदि आप असफल हो रहे हों और आहट संबंधी मेरी बात से भी सहमत न हों तो ताजा किस्सा सुनाया हूं।  इस दिवाली पर मैं अमृतसर में था और रात के आठ बजे टैक्सी में सवार होकर शहर का नज़ारा देखने निकला था । मेरे अपने शहर के मुकाबले वहां आधी से भी कम रौशनी और न के बराबर पटाखों की आवाज सुनकर मैंने टैक्सी चालक से इसका कारण पूछा। उसका जवाब हैरान कर देने वाला था । बकौल उसके पिछले कुछ सालों से कट्टरपंथी सिख हिंदू त्यौहारों का विरोध करने लगे हैं और उसी के चलते हर साल पहले के मुकाबले दिवाली पर रौशनी और आतिशबाजी कम होती जा रही है। चलिए अब हाल फिलहाल की बात करता हूं। पंजाब में आजकल जो हो रहा है उसकी जानकारी बेशक दुनिया को अब जाकर अजनाला कांड से हुई हो मगर सच्चाई इससे इतर है। पंजाब से जुड़े होने के कारण मैं अच्छी तरह जानता हूं कि खालिस्तान आंदोलन को किसी न किसी रूप में दशकों से जिंदा रखा जा रहा है। शुरुआती दौर में कनाडा और ब्रिटेन में बैठे संपन्न और खुराफाती सिख इसे लेकर शोर शराबा कर रहे थे और अब उन्होंने पंजाब में भी अपने एजेंट तैयार कर लिए हैं। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने तो एक दिन के लिए भी भारत विरोधी इस षड्यंत्र से अपने हाथ नहीं खींचे थे ।  गुरु ग्रंथ साहब की ओट में अलगाव वादियों का तलवारों के साथ थाने पर हमला तथा पुलिस कर्मियों को बुरी तरह घायल कर दिए जाने और फिर भी पुलिस का निष्क्रिय बने रहना साबित कर रहा है कि प्रदेश में एक बार फिर सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। राज्य की सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की सरकार कतई नहीं समझ रही कि आग से इसी तरह खेल कर कांग्रेस अपना और देश का कबाड़ा पहले कर चुकी है। अब आप भी थोड़ा बहुत भयभीत होना शुरू कर दीजिए, क्योंकि डरावने नए किस्सों का माहौल बनाया जा रहा है।

संतोष चौबे को राष्ट्रीय गुणाकर मुळे सम्मान

 


मध्यप्रदेश शासन संस्कृति विभाग द्वारा विज्ञान के क्षेत्र में दिये जाने वाले राष्ट्रीय गुणाकर मुळे सम्मान के लिए श्री संतोष चौबे का चयन हुआ है। उन्हें यह सम्मान वर्ष 2020 के लिए दिया जायेगा। इस सम्मान में एक लाख रुपये की सम्मान राशि सम्मान पट्टिका और शॉल-श्रीफल प्रदान किया जाता है। शासन द्वारा दिये जाने वाला यह एक महत्वपूर्ण सम्मान है जो विज्ञान के क्षेत्र में किसी व्यक्ति द्वारा दिये गये सम्पूर्ण योगदान के लिए दिया जाता है। 

ज्ञात हो कि हिन्दी में कम्प्यूटर और सूचना तकनीक पर लेखन की शुरुआत श्री संतोष चौबे ने ही की थी। इस महत्वपूर्ण काम को आरंभ से ही हिन्दी विज्ञान लेखन में मानक की तरह लिया जाता रहा है। पिछले लगभग पैंतीस वर्षों में उन्होंने सूचना तकनीक, कम्प्यूटर, विज्ञान एवं इलेक्ट्रॉनिक्स पर पचास से अधिक पुस्तकों का लेखन, अनुवाद एवं संपादन किया है और देश भर के सभी हिन्दी प्रदेशों में वे बड़ी संख्या में छात्रों द्वारा पढ़ी जाती रही हैं। म.प्र. हिन्दी ग्रंथ द्वारा प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक 'कम्प्यूटर एक परिचय' के ग्यारह संस्करण छप चुके हैं जिसकी बिक्री संख्या पाँच लाख से भी अधिक है। सूचना तकनीक पर आधारित डिप्लोमा एवं डिग्री पाठ्यक्रमों तथा पुस्तकों के निर्माण में भी उन्होंने बड़ा योगदान दिया है।

उन्हें मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा संपूर्ण विज्ञान लेखन के लिए ‘डॉ. शंकरदयाल शर्मा सम्मान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार द्वारा मेघनाद साहा पुरस्कार, पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा इंडियन इनोवेशन एवार्ड-2005 तथा नेस्कॉम आईटी इनोवेशन एवार्ड-2006 प्रदान किया गया। भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस अवार्ड, इंडियन फोरम का प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय i4d अवार्ड, भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिकी विभाग द्वारा पुस्तक 'बेसिक प्रोग्रामिंग' को प्रथम पुरस्कार के साथ ही आपके द्वारा प्रकाशित विज्ञान आधारित हिन्दी में प्रकाशित पत्रिका 'इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए' को राष्ट्रीय राजभाषा शील्ड सम्मान, भारतेन्दु पुरस्कार, रामेश्वर गुरु पुरस्कार, सारस्वत सम्मान आदि से सम्मानित किया गया है। यह पत्रिका आप विगत 34 वर्षों से नियमित प्रकाशित और संपादित कर रहे हैं जो हिन्दी में इलेक्ट्रॉनिक एवं सूचना तकनीक की देश की पहली पत्रिका है।


संतोष चौबे द्वारा लिखित पुस्तक विज्ञान छात्रों में अत्यधिक पढ़ी जाती है जिसमें कम्प्यूटर एक परिचय, बेसिक प्रोग्रामिंग,   इलेक्ट्रॉनिकी विभाग, कम्प्यूटर आपके लिये, शब्द संसाधन, प्रणाली विश्लेषण एवं डिज़ाइन,  डी बेस-AAA+,  इलेक्ट्रॉनिक परिपथ,  कम्प्यूटर परिचय (दो भाग में),  कम्प्यूटर अनुप्रयोग (दो भाग में),  कम्प्यूटर की दुनिया (तीन भाग में)] कम्प्यूटर आपके लिये (तीन भाग में शामिल हैं। उनके सौ से अधिक टेक्निकल पेपर्स और आलेखों का विभिन्न संगोष्ठियों में वाचन एवं समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। 'इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए' इलेक्ट्रॉनिकी, कम्प्यूटर विज्ञान एवं सूचना तकनीक पर आधारित देश की प्रथम हिन्दी मासिक पत्रिका] है जो 1988 से लगातार प्रकाशित हो रही है।


श्री संतोष चौबे नियमित रूप से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान एवं तकनीक विषयों पर लेखन कर रहे हैं तथा उक्त विषयों पर आपने अनुसृजन श्रृंखला के अंतर्गत तीन चरणों में लगभग पचास पुस्तकों का संपादन भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने विज्ञान कथा संचयन 'सुपरनोवा का रहस्य', विज्ञान कथा कोश छह खण्डों में तथा विज्ञान कविता कोश चार खण्डों में संपादित किया है। विज्ञान एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार के लिए आपने मध्यप्रदेश विज्ञान सभा तथा आईसेक्ट जैसी संस्थाओं की स्थापना की जिनका इस क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा है।

शनिवार, 25 मार्च 2023

कविता / बीना सिंह "रागी "


 क से कल्पना वि से विचार ता से तालमेल बिठाकर

निर्मित सृजित नवगठित होती है कविता

भाव के समंदर में डूब कर

शब्दों के सीप मोती बीन कर

कोरे कागज पर भावनाओं

कि निश्चल बहती है सरिता

अक्षर अक्षर के योग से

वर्ण मात्रा के सहयोग से

सुबह शाम में ढल कर

दिवस रैन में जलकर

अनुपम  मनोरम मधुरम

काव्य महाकाव्य अद्भुत

आदित्य कृति का संयोजन

तब कहीं अलंकृत झंकृत

पुष्पित पल्लवित कुसमित

जन जन के अधरों पर कंठस्थ मानस पटल पर

चित्राअंकित अंकित होती है कविता

क से कल्पना वि से विचार ता से तालमेल बिठा कर

निर्मित सृजित नवगठित होती है कविता

डा बीना सिंह "रागी "

शुक्रवार, 24 मार्च 2023

मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है/


 ज़ावेद अख्तर


मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है

और अब

मेरी चाल के इंतिज़ार में है

मगर मैं कब से

सफ़ेद-ख़ानों

सियाह-ख़ानों में रक्खे

काले सफ़ेद मोहरों को देखता हूं

मैं सोचता हूं

ये मोहरे क्या हैं


अगर मैं समझूं

के ये जो मोहरे हैं

सिर्फ़ लकड़ी के हैं खिलौने

तो जीतना क्या है हारना क्या

न ये ज़रूरी

न वो अहम है

अगर ख़ुशी है न जीतने की

न हारने का ही कोई ग़म है

तो खेल क्या है

मैं सोचता हूं

जो खेलना है

तो अपने दिल में यक़ीन कर लूं

ये मोहरे सच-मुच के बादशाह ओ वज़ीर

सच-मुच के हैं प्यादे

और इन के आगे है

दुश्मनों की वो फ़ौज

रखती है जो कि मुझ को तबाह करने के

सारे मंसूबे

सब इरादे

मगर ऐसा जो मान भी लूं

तो सोचता हूं

ये खेल कब है

ये जंग है जिस को जीतना है

ये जंग है जिस में सब है जाएज़

कोई ये कहता है जैसे मुझ से

ये जंग भी है

ये खेल भी है

ये जंग है पर खिलाड़ियों की

ये खेल है जंग की तरह क मैं सोचता हूँ

जो खेल है

इस में इस तरह का उसूल क्यूं है

कि कोई मोहरा रहे कि जाए

मगर जो है बादशाह

उस पर कभी कोई आंच भी न आए

वज़ीर ही को है बस इजाज़त

कि जिस तरफ़ भी वो चाहे जाए


मैं सोचता हूं

जो खेल है

इस में इस तरह उसूल क्यूं है

पियादा जो अपने घर से निकले

पलट के वापस न जाने पाए

मैं सोचता हूं

अगर यही है उसूल

तो फिर उसूल क्या है

अगर यही है ये खेल

तो फिर ये खेल क्या है


मैं इन सवालों से जाने कब से उलझ रहा हूं

मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है

और अब मेरी चाल के इंतिज़ार में है

🔴 राजा राधिका रमन प्रसाद सिन्हा

 रोहतास बिहार के सूर्यपुरा में स्थित पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार व ज़मींदार श्री राजा राधिका रमन प्रसाद सिंह (सिन्हा) जी की हवेली।ये बिहार के अंतिम कायस्थ राजा थे जिनको ब्रिटिश सरकार द्वारा सूर्यपूरा रियासत का शासक की मान्यता दी गई थी।इनके छोटे भाई राजीव रंजन प्रसाद सिन्हा बिहार लेजिस्लेटिव काउंसिल के प्रथम चेयरमैन थे और उन्होंने 1932 में रोहतास में ऑल इंडिया कायस्थ कॉन्फ्रेंस का भी आयोजन करवाया था।


ये इतने सादगी पसंद और विशाल हृदय वाले महापुरुष थे कि आजादी के बाद समस्त भूमि और यहाँ तक कि अपना राजमहल भी हाई स्कूल खोलने के लिए दान कर दिया था --  दानशीलता और उदारता का ऐसा उदाहरण आजकल मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है 


राजा राधिका रमन प्रसाद सिन्हा बहुत प्रसिद्ध लेखक और विद्वान साहित्यकार थे और इनकी द्वारा लिखी गई पुस्तकें जैसे गाँधी टोपी और दरिद्र नारायण आदि कई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल थी लेकिन अब हमारी जातिवादी सरकार द्वारा इसे हटा दिया गया है ।



गुरुवार, 23 मार्च 2023

उस दिन क्या होगा ?/ रानी सिंह

 चंद लोग लिखने क्या लगे

मानो भूचाल आ गया/

मैं तो यह सोचकर हैरान हूँ कि

 उस दिन क्या होगा ?


जब हासिये पर

गिरते-बजरते/ऊँघते-अनमने लोग

खप्पा-खपड़ी जैसे अंतरियों वाले लोग

काला अक्षर भैंस बराबर समझने वाले लोग

पहचानने लगेंगे शब्दों के मोल

खुलने लगेंगी उनकी जुबानें 

तौलने लगेंगे वे शब्द-शब्द

बोलने लगेंगे शब्द 

लिखने लगेंगे शब्द पूरी ताकत से 

इंकार के

अधिकार के

प्रतिकार के।


©️रानी सिंह

जादू

 जादू

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तुम्हारी माँ के हाथों में जादू है,

पिता जी कहा करते थे,

और मैं भाग कर,

माँ के हाथ पकड़ लेता था,

पर मेरी नन्हीं आंखों को, 

माँ के खुरदुरे हाथों में,

सिर्फ़ उभरी हुई,

सख़्त गाँठें ही नज़र आती थीं,


धीरे धीरे, 

मेरी उम्र जवान होती गयी,

और नज़र भी,

अब मुझे दिखने लगा था,

कैसे एक छोटे से भगौने से,

पूरा परिवार तृप्ति पा जाता था,

कैसे पुराने कपड़ों से,

नए कपड़े बन जाते थे,

और पुरानी ऊन से नयी स्वेटरें,

जब घर की सारी जेबें, 

खाली हो जाती थीं,

तब कैसे चाय पत्ती के डिब्बे से,

हमेशा कुछ नोट निकल आते थे,


एक दिन मैंने माँ के हाथों में,

अपनी पहली तनख्वाह रखते हुए कहा,

माँ, अपने हाथों का जादू, 

अब मुझे दे दो,

माँ हँस कर कहने लगी,

पगले, यह जादू घरों की नीँव होता है,

घर की मुहब्बत से ही उपजता है,

सिर्फ़ आँचल में ही बंध सकता है,

अगर मेरी होने वाली बहू संभाल पायी,

तो उसको जरूर दे जाऊँगी,

यह जादू।

बुधवार, 22 मार्च 2023

👌Zindagi matlab kya.. ?

 Plz read slowly . Its a very Nice one...


Zindagi matlab kya.. ?


"Ek dhundli si shaam, 4 dost. 4 Cup chai, 1 Table.."


Zindagi...mtlb kya..?

"1 innova car, 7 dost, aur 1 khula lamba pahadi Raasta"


Zindagi...mtlb kya.?

"1 dost ka ghar, Halki si Baarish, aur dher saari baatein..


Zindagi...mtlb kya..?

"school ke dost, Bunk Kiya hua Lecture, 1 kachori, 2 samose aur bill par hone wala jhagda...


Zindagi...mtlb kya...?

"Phone uthate hi padne wali dost ki mithi si gaali, aur Sorry kehne par 1 aur gaali"


Zindagi...mtlb kya..?

"Kuch saalon baad, Aachanak purane dost ka 1 sms, Dhundli padi kuch bhigi yadein aur Ankho me aaye aansu.


We make many friends,

Some become Dearest,

Some become Special,

Some We Fall in Love with,

Some go Abroad,

Some change their cities,

Some Leave us,

We Leave some,

Some are in contact,

Some are not in contact,

N Some don't contact,

because of their ego,

We don't contact some because of our ego,

Wherever they are,

However they are,

We still remember,

Love,

Miss,

N Care

about them because of the part they played, in our life.


Send this to all ur friends..

no matter how often you talk or how close you are...

Let old friends know you haven't forgotten them

& tell new friends you will never forget them

Cheers To friendship...🥂💕


These are uncertain times! So stay in touch 🙂

😮युद्ध* / आलोक यात्री

 युद्ध* / आलोक  यात्री 


आज घर में

क़िताबें 

घोषित कर दी गई हैं 

कबाड़

घर में घेर रखी है

जिस्मानी अस्बाब ने

इनसे कहीं ज्यादा जगह

जिसे आदमी बना सकती हैं 

क़िताबें


क़िताबें

बनाती हैं कबाड़ को आदमी

और आदमी...

बता देता है अचानक

एक दिन

क़िताबों को कबाड़

क़िताबों के खिलाफ

घोषित युद्ध में

शामिल हो जाते हैं

घर के ही

कुछ और लोग

दबा दी जाती है

क़िताब के हक़ में उठी

हर आवाज़


हक़ीक़त से

वाक़िफ़ नहीं हैं

ये लोग

कबाड़ में कभी नहीं बदलतीं

क़िताबें

कबाड़ में बिकीं क़िताबें

फिर सफ़र तय करती हैं

उधड़ जाने के बाद

पन्ना दर पन्ना


अंतिम चेतावनी की

यह आखिरी रात है

कल सुबह खाली करना है

यह कमरा

रहता है इस कमरे में

एक बुजुर्ग शख़्श 

तन्हा

जिससे हर रोज़

बतियाती हैं

ये क़िताबें


निकाल कर फेंकना है कबाड़

इस कमरे का

कल सुबह तक

क्योंकि 

जवान हो चुकी पीढ़ी को चाहिए

अपने हिस्से की

स्पेस

और हवादार कमरा

जिसकी तैयारी में

शाम को ही

सरका दिया गया है

कुछ पुराना असबाब

मेज़

कुर्सी

वॉकर

और पलंग

एक कोने में।

शुक्रवार, 17 मार्च 2023

नुक्ताचीनी

 किसी व्यंजन अक्षर के नीचे लगाये जाने वाले बिंदु को नुक्ता कहते हैं। उर्दू, अरबी, फ़ारसी भाषा से हिन्दी भाषा में आए क ख ग ज फ वर्ण को अलग से बताने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है क्योंकि इन भाषाओँ से लिए गए शब्दों को हिन्दी में उच्चारित सही से नहीं किया जा सकता था। नुक्ता के प्रयोग से उस वर्ण के उच्चारण पर अधिक दबाव आ जाता है।

जैसे: ‘खुदा’ का अर्थ है हिंदी में ‘खुदी हुई ज़मीन’ और नुक्ता लग जाने से ‘ख़ुदा’ का अर्थ ‘भगवान’ हो जाता है।

कुछ नुक्ता वाले शब्द

कमज़ोर, तूफ़ान, ज़रूर, इस्तीफ़ा, ज़ुल्म, फ़तवा, मज़दूर, ताज़ा, फ़कीर, फ़र्ज़, ज़ेवर, ज़ोर, फ़्रेंच, जि़ंदगी, इज़्ज़त, फ़रमान, रिलीज़, ब्लेज़र, ज़मानत, रफ़ू आदि।

क, ख, ग में नुक्ता का प्रयोग हिंदी भाषा में अनिवार्य नहीं है परन्तु ‘ज़’ और ‘फ़’ में नुक्ता लगाना आवश्यक है।

 

स्पर्श : में प्रयुक्त नुक्ता वाले शब्द

साफ़, दर्ज़ा, ज़रा, बाज़ार, तरफ़, ज़माना, ख़रबूज़े, ज़िन्दा, बरफ़, तेज़, बर्फ़, काफ़ी, सब्ज़ियों, मेहमाननवाज़ी, ज़िक्र, शराफ़त, गुज़र, उफ़, अफ़सर, दफ़्तर, ज़ोर, प्रोफ़ेसर, गुज़रने, परहेज़, चीज़ें, पुर्ज़े, फ़ायदा, मज़हबी, ऐतराज़, नमाज़, आज़ाद, रोज़े, गिरफ़्तार, रोज़, फौजी, ज़ुल्मों, हफ़्ते, ज़रूरत, सफ़ेद, ताज़े, हज़ारों

क्या आप जानते हैं कि हिंदी वर्णमाला में स्वरों की संख्या कितनी है?

मंगलवार, 14 मार्च 2023

🌷🍎 श्री साहित्य कुंज राँची चतुर्थ वार्षिकोत्सव

 श्री साहित्य कुंज राँची के चतुर्थ वार्षिकोत्सव में पुस्तक विमोचन सह सम्मान समारोह आयोजित किया गया

    

**********************

श्री साहित्य कुंज "राँची" का वार्षिकोत्सव होटल सिटी पैलेस लालपुर में धूमधाम से मनाया गया। इसमें दो साझा संकलन काव्य गुंजना व नटखट बचपन के साथ वार्षिक पत्रिका "साहित्य संवाहक" का लोकार्पण किया गया। राँची की तीन रचनाकार  निर्मला कर्ण को "कथा एक मासूम की" ,कविता रानी को कहानी संकलन " रिश्तें " के लिये व विभा वर्मा जी को काव्य पुस्तक "काव्यारूण " और जमशेदपुर की आरती श्रीवास्तव विपुला जी को उनकी पुस्तक "स्वारग" के लिये "साहित्य नवप्रभा पुस्तक सम्मान" से सम्मानित किया गया। मंच के वार्षिक प्रतियोगिता के सम्मान पत्र का भी वितरण किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता जमशेदपुर की वरिष्ठ साहित्यकार  प्रतिभा प्रसाद कुमकुम ने की।

मुख्य अतिथि के रूप में डा. हरेराम चेतन त्रिपाठी व मधु मसूरी हसमुख ने मंच की शोभा बढ़ाई। विशिष्ट अतिथि के रूप में जमशेदपुर तुलसीभवन के मानद सचिव प्रसेनजीत तिवारी ,आर्य युवासमाज मध्य प्रदेश के डॉ.भानुप्रताप वेदालंकार, राजवीर सिंह,प्रशांत कर्ण, रेणु झा रेणुका, वीणा पांडेय भारती की गरिमामय उपस्थिति ने कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई।जमशेदपुर से कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिये अति विशिष्ट अतिथियों में  निवेदिता श्रीवास्तव,पदमा प्रसाद ,माधवी उपाध्याय,रीना सिन्हा,रीना गुप्ता आई । सरस्वती वंदना माधवी उपाध्याय ने किया। मंच के सभी सक्रिय सदस्यों को मोमेंटो और अंगवस्त्र देकर सम्मानित किया गया। ऋतुराज वर्षा को मीडिया प्रभारी का विशेष सम्मान प्रदान किया गया। मंच संचालन खुशबू बरनवाल ने किया व पुस्तक समीक्षा मंच की अध्यक्ष प्रतिमा त्रिपाठी ने की। धन्यवाद ज्ञापन संस्थापिका मनीषा सहाय 'सुमन ने किया।



रविवार, 12 मार्च 2023

डॉ मधुर नज्मी: हमारे समय का एक बड़ा शायर चुपके से चला गया..!

       

डॉ.  अरविंद कुमार सिंह 

             -1-

       "लुटे कांरवां का वो सरदार निकला/

        कबिले का क़ातिल क़लमकार निकला।"

                     -2-

     क्या लिखूं जहाजरानी पे, कि रास्ते तैरते हैं पानी पे।।

                     -3

   घाव दिल का हरा हो गया, दर्द का आईना हो गया।

  एक मुजरिम है मुंसिफनुमा,छोड़िए फ़ैसला हो गया।।

                     -4-

  जिंदगी क्या से क्या हो गई, बांसुरी थी व्यथा हो गई।

  राम का आचरण देखकर, फिर अहिल्या शिला हो गई।


                                                   -डॉ मधुर नज्मी

हमारे समय के प्रख्यात गज़लकार डॉ मधुर नज्मी अब इतिहास हो गयें। वह लरजती और मखमली आवाज़, वह जुल्फों की अदायगी,वह ग़ज़लों की रवानी, वह अतीत की बानी अब हमसे दूर हो गई। देश और दुनिया में अपनी ग़ज़लों और शेरों के माध्यम से पहचान बनाने वाले कैलाश चतुर्वेदी का मधुर नज्मी बनने का सफ़र एक दिलचस्प सफ़र सा था । आज उनके साथ बिताए दिन और मधुर स्मृतियां बार-बार याद आती हैं। 

अखंड आज़मगढ़ के रानीपुर क्षेत्र में ठेठ गंवई परिवेश में जन्मे कैलाश चतुर्वेदी का आज़मगढ़ नगर से रिश्ता बेहद पुराना था। बिजली विभाग में बतौर कर्मचारी उन्होंने आज़मगढ़ को ठिकाना बनाया, लेकिन इसके पहले भी जीवन की दुश्वारियों से दो-चार होते रहे, प्राइवेट नौकरी की और परिवार का पेट पाला । लेकिन संघर्ष के दिनों में भी उनकी सोहबत ऐसी अदीबी दुनिया से रही, जो उन्हें ग़ज़लों की दुनिया में न केवल शोहरत दी, बल्कि  शेरों सुखन की दुनिया में बहुत ऊंचा मकां बनता गया।  शार्प रिपोर्टर से उनका रिश्ता कोई दशक पुराना था। जब भी मोहम्मदाबाद गोहाना से आजमगढ़ मुख्यालय आते, हमारे दफ्तर में दो घंटे की बैठकी जरुर होती।आगामी अंकों को लेकर, या आलेखों को लेकर बेहद सकारात्मक संवाद होता। 

वे मूलतः ग़ज़ल के आदमी थे, बल्कि उसके मर्मज्ञ। मंचों पर उनकी प्रस्तुति बेहद आकर्षित करने वाली होती। मीडिया समग्र मंथन के पिछले लगभग सभी आयोजनों में हमारे संरक्षक की भूमिका में होते। कवि और शायर सम्मेलन की जिम्मेदारी हम प्रायः उन्हीं के कन्धों पर सौंप देते और उनकी मदद के लिए सुप्रसिद्ध संचालक और गीतकार डॉ० ईश्वर चन्द्र त्रिपाठी का सहारा लेते। कई यात्राओं में भी साथ रहे,चाहे वह भागलपुर की हो या उज्जैन की। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शिरकत करना उनका शगल था। डा नज्मी की ग़ज़लों के व्याकरण पर विशेष पकड़ थी। रदीफ और काफिया की बारीक इल्म उन्हें था।  बताते हैं कि ग़ज़ल की दुनिया में प्रवेश खैराबाद से हुआ। उनके उस्ताद 'नज्मी' थे। जिनके संगत में उन्होंने शेरों शायरी, ग़ज़लों का ककहरा सीखा और फिर उन्हीं के दिए उपनाम से 'मधुर नज्मी' हो गयें।

उनकी ग़ज़लों में आम आदमी की पीड़ा, व्यवस्था से टकराव, हासिए के समाज की वेदना और समाज की विद्रुपता पर प्रहार था। उन्हीं मनोदशा में लिखते हैं-


''जिंदगी क्या से क्या हो गई, बांसुरी थी व्यथा हो गई।

 राम का आचरण देखकर, फिर अहिल्या शिला हो गई।''


  उनकी दो किताबें प्रकाशित हो सकीं । आखिरी किताब

  ''रास्ते तैरते हैं पानी पर'' छप नहीं सकी। लेकिन उसकी टाइपशुदा पांडुलिपि शार्प रिपोर्टर के पास है। हमारी कोशिश होगी कि इसे प्रकाशित किया जाए। इसके लिए अमन त्यागी भैय्या ने भी सहयोग का आश्वासन दिया है और नज्मी साहब के मित्रों ने भी। वैसे देश भर की पत्र पत्रिकाओं में वे छपते रहते थे।  घर के बाहर बारमदे में प्राय: उनकी मजलिस लगती थी। उनसे आखिरी मुलाकात उनके आवास पर वरिष्ठ पत्रकार मिथिलेश सिंह के साथ हुई थी। छोटे पुत्र के असामयिक निधन से वे भीतर ही भीतर टूट गयें थें। जिसकी अभिव्यक्ति उनके ग़ज़लों में होती। इधर बहुत भावुक हो जाते थे। भावुकता उनकी आंखों की कोरों से दिख जाती। 

  कवियों, लेखकों और शायरों का यूं चलें जाना,समाज की बहुत बड़ी क्षति होती है। ये समाज की अन्तर्धारा होते हैं। समाज की चेतना, उसके नाक, कान, आंख। डा नज्मी ने जो गज़लों के माध्यम से समाज की सेवा किया है,उसे अदबी समाज कभी भूल नहीं पाएगा। इस शायर को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि!!

  

-डा अरविन्द सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

शनिवार, 11 मार्च 2023

राम की शक्ति पूजा

रवि हुआ अस्त : ज्योति के पत्र पर लिखा अमर

रह गया राम-रावण का अपराजेय समर

आज का, तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर वेग-प्रखर,

शतशेलसंवरणशील, नीलनभ-गर्ज्जित-स्वर,

प्रतिपल-परिवर्तित-व्यूह-भेद-कौशल-समूह,—

राक्षस-विरुद्ध प्रत्यूह,—क्रुद्ध-कपि-विषम—हूह,

विच्छुरितवह्नि—राजीवनयन-हत-लक्ष्य-बाण,

लोहितलोचन-रावण-मदमोचन-महीयान,

राघव-लाघव-रावण-वारण—गत-युग्म-प्रहर,

उद्धत-लंकापति-मर्दित-कपि-दल-बल-विस्तर,

अनिमेष-राम-विश्वजिद्दिव्य-शर-भंग-भाव,—

विद्धांग-बद्ध-कोदंड-मुष्टि—खर-रुधिर-स्राव,

रावण-प्रहार-दुर्वार-विकल-वानर दल-बल,—

मूर्च्छित-सुग्रीवांगद-भीषण-गवाक्ष-गय-नल,

वारित-सौमित्र-भल्लपति—अगणित-मल्ल-रोध,

गर्ज्जित-प्रलयाब्धि—क्षुब्ध—हनुमत्-केवल-प्रबोध,

उद्गीरित-वह्नि-भीम-पर्वत-कपि-चतुः प्रहर,

जानकी-भीरु-उर—आशाभर—रावण-सम्वर।

लौटे युग-दल। राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल,

बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।

वानर-वाहिनी खिन्न, लख निज-पति-चरण-चिह्न

चल रही शिविर की ओर स्थविर-दल ज्यों विभिन्न;

प्रशमित है वातावरण; नमित-मुख सांध्य कमल

लक्ष्मण चिंता-पल, पीछे वानर-वीर सकल;

रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,

श्लथ धनु-गुण है कटिबंध स्रस्त—तूणीर-धरण,

दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल

फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल

उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशांधकार,

चमकती दूर ताराएँ ज्यों हों कहीं पार।

आए सब शिविर, सानु पर पर्वत के, मंथर,

सुग्रीव, विभीषण, जांबवान आदिक वानर,

सेनापति दल-विशेष के, अंगद, हनुमान

नल, नील, गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान

करने के लिए, फेर वानर-दल आश्रय-स्थल।

बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर; निर्मल जल

ले आए कर-पद-क्षालनार्थ पटु हनुमान;

अन्य वीर सर के गए तीर संध्या-विधान—

वंदना ईश की करने को, लौटे सत्वर,

सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर।

पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,

सुग्रीव, प्रांत पर पाद-पद्म के महावीर;

यूथपति अन्य जो, यथास्थान, हो निर्निमेष

देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा; उगलता गगन घन अंधकार;

खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवन-चार;

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल;

भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल।

स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर-फिर संशय,

रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय;

जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रांत,—

एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रांत,

कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,

असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत

जागी पृथ्वी-तनया-कुमारिका-छवि, अच्युत

देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन

विदेह का,—प्रथम स्नेह का लतांतराल मिलन

नयनों का—नयनों से गोपन—प्रिय संभाषण,

पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,

काँपते हुए किसलय,—झरते पराग-समुदय,

गाते खग-नव-जीवन-परिचय,—तरु मलय—वलय,

ज्योति प्रपात स्वर्गीय,—ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,

जानकी—नयन—कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,

हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,

फूटी स्मिति सीता-ध्यान-लीन राम के अधर,

फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आई भर,

वे आए याद दिव्य शर अगणित मंत्रपूत,—

फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,

देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,

ताड़का, सुबाहु, विराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;

फिर देखी भीमा मूर्ति आज रण देखी जो

आच्छादित किए हुए सम्मुख समग्र नभ को,

ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझकर हुए क्षीण,

पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन,

लख शंकाकुल हो गए अतुल-बल शेष-शयन,—

खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन;

फिर सुना—हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,

भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल।

बैठे मारुति देखते राम—चरणारविंद

युग ‘अस्ति-नास्ति' के एक-रूप, गुण-गण—अनिंद्य;

साधना-मध्य भी साम्य—वाम-कर दक्षिण-पद,

दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद्-गद्

पा सत्य, सच्चिदानंदरूप, विश्राम-धाम,

जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम-नाम।

युग चरणों पर पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,

देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;

ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,—

सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;

टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,

संदिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल

बैठे वे वही कमल-लोचन, पर सजल नयन,

व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख, निश्चेतन।

'ये अश्रु राम के' आते ही मन में विचार,

उद्वेल हो उठा शक्ति-खेल-सागर अपार,

हो श्वसित पवन-उनचास, पिता-पक्ष से तुमुल,

एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,

शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग उठते पहाड़,

जल राशि-राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़

तोड़ता बंध—प्रतिसंध धरा, हो स्फीत-वक्ष

दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष।

शत-वायु-वेग-बल, डुबा अतल में देश-भाव,

जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव

वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश

पहुँचा, एकादशरुद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण-महिमा श्मामा विभावरी-अंधकार,

यह रुद्र राम-पूजन-प्रताप तेजःप्रसार;

उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कंध-पूजित,

इस ओर रुद्र-वंदन जो रघुनंदन-कूजित;

करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,

लख महानाश शिव अचल हुए क्षण-भर चंचल,

श्यामा के पदतल भारधरण हर मंद्रस्वर

बोले—“संबरो देवि, निज तेज, नहीं वानर

यह,—नहीं हुआ शृंगार-युग्म-गत, महावीर,

अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय-शरीर,

चिर-ब्रह्मचर्य-रत, ये एकादश रुद्र धन्य,

मर्यादा-पुरुषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य

लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार

करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;

विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,

झुक जाएगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।

कह हुए मौन शिव; पवन-तनय में भर विस्मय

सहसा नभ में अंजना-रूप का हुआ उदय;

बोली माता—“तुमने रवि को जब लिया निगल

तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल;

यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह-रह,

यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह-सह;

यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल—

पूजते जिन्हें श्रीराम, उसे ग्रसने को चल

क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ?—सोचो मन में;

क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्रीरघुनंदन ने?

तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य—

क्या असंभाव्य हो यह राघव के लिए धार्य?

कपि हुए नम्र, क्षण में माताछवि हुई लीन,

उतरे धीरे-धीरे, गह प्रभु-पद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,

''हे सखा'', विभीषण बोले, “आज प्रसन्न वदन

वह नहीं, देखकर जिसे समग्र वीर वानर—

भल्लूक विगत-श्रम हो पाते जीवन—निर्जर;

रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,

है वही वक्ष, रण-कुशल हस्त, बल वही अमित,

हैं वही सुमित्रानंदन मेघनाद-जित-रण,

हैं वही भल्लपति, वानरेंद्र सुग्रीव प्रमन,

तारा-कुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,

अप्रतिभट वही एक—अर्बुद-सम, महावीर,

है वही दक्ष सेना-नायक, है वही समर,

फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव-प्रहर?

रघुकुल गौरव, लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,

तुम फेर रहे हो पीठ हो रहा जब जय रण!

कितना श्रम हुआ व्यर्थ! आया जब मिलन-समय,

तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!

रावण, रावण, लंपट, खल, कल्मष-गताचार,

जिसने हित कहते किया मुझे पाद-प्रहार,

बैठा उपवन में देगा दु:ख सीता को फिर,—

कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर;—

सुनता वसंत में उपवन में कल-कूजित पिक

मैं बना किंतु लंकापति, धिक्, राघव, धिक् धिक्!

सब सभा रही निस्तब्ध : राम के स्तिमित नयन

छोड़ते हुए, शीतल प्रकाश देखते विमन,

जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव

उससे इन्हें कुछ चाव, हो कोई दुराव;

ज्यों हों वे शब्द मात्र,—मैत्री की समनुरक्ति,

पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर

बोले रघुमणि—मित्रवर, विजय होगी समर;

यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,

उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण;

अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति! कहते छल-छल

हो गए नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,

रुक गया कंठ, चमका लक्ष्मण-तेजः प्रचंड,

धँस गया धरा में कपि गह युग पद मसक दंड,

स्थिर जांबवान,—समझते हुए ज्यों सकल भाव,

व्याकुल सुग्रीव,—हुआ उर में ज्यों विषम घाव,

निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्य-क्रम,

मौन में रहा यों स्पंदित वातावरण विषम।

निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण

बोले—“आया समझ में यह दैवी विधान;

रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर—

यह रहा शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!

करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित

हो सकती जिनसे यह संसृति संपूर्ण विजित,

जो तेजःपुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार

है जिनमें निहित पतनघातक संस्कृति अपार—

शत-शुद्धि-बोध—सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,

जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,

जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,

वे शर हो गए आज रण में श्रीहत, खंडित!

देखा, हैं महाशक्ति रावण को लिए अंक,

लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक;

हत मंत्रपूत शर संवृत करतीं बार-बार,

निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार!

विचलित लख कपिदल, क्रुद्ध युद्ध को मैं ज्यों-ज्यों,

झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,

पश्चात्, देखने लगीं मुझे, बँध गए हस्त,

फिर खिंचा धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं हुआ त्रस्त!

कह हुए भानुकुलभूषण वहाँ मौन क्षण-भर,

बोले विश्वस्त कंठ से जांबवान—रघुवर,

विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,

हे पुरुष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,

आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,

तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर;

रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त

तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,

शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन,

छोड़ दो समर जब तक सिद्धि हो, रघुनंदन!

तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक

मध्य भाग में, अंगद दक्षिण-श्वेत सहायक,

मैं भल्ल-सैन्य; हैं वाम पार्श्व में हनूमान,

नल, नील और छोटे कपिगण—उनके प्रधान;

सुग्रीव, विभीषण, अन्य यूथपति यथासमय

आएँगे रक्षाहेतु जहाँ भी होगा भय।”

खिल गई सभा। ‘‘उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!”

कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।

हो गए ध्यान में लीन पुनः करते विचार,

देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।

कुछ समय अनंतर इंदीवर निंदित लोचन

खुल गए, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन।

बोले आवेग-रहित स्वर से विश्वास-स्थित—

मातः, दशभुजा, विश्व-ज्योतिः, मैं हूँ आश्रित;

हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित,

जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्ज्जित!

यह, यह मेरा प्रतीक, मातः, समझा इंगित;

मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनंदित।”

कुछ समय स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,

फिर खोले पलक कमल-ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न;

हैं देख रहे मंत्री, सेनापति, वीरासन

बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।

बोले भावस्थ चंद्र-मुख-निंदित रामचंद्र,

प्राणों में पावन कंपन भर, स्वर मेघमंद्र—

“देखो, बंधुवर सामने स्थित जो यह भूधर

शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुंदर,

पार्वती कल्पना हैं। इसकी, मकरंद-बिंदु;

गरजता चरण-प्रांत पर सिंह वह, नहीं सिंधु;

दशदिक-समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,

अंबर में हुए दिगंबर अर्चित शशि-शेखर;

लख महाभाव-मंगल पदतल धँस रहा गर्व—

मानव के मन का असुर मंद, हो रहा खर्व’’

फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए—

बोले प्रियतर स्वर से अंतर सींचते हुए

“चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इंदीवर,

कम-से-कम अधिक और हों, अधिक और सुंदर,

जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर,

तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।”

अवगत हो जांबवान से पथ, दूरत्व, स्थान,

प्रभु-पद-रज सिर धर चले हर्ष भर हनूमान।

राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,

सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।

निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण

फूटी, रघुनंदन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;

है नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कंध,

वह नहीं सोहता निविड़-जटा दृढ़ मुकुट-बंध;

सुन पड़ता सिंहनाद,—रण-कोलाहल अपार,

उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;

पूजोपरांत जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,

मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम;

बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण,

गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।

क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,

चक्र से चक्र मन चढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस;

कर-जप पूरा कर एक चढ़ाते इंदीवर,

निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।

चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित मन,

प्रति जप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण;

संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,

जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अंबर;

दो दिन-निष्पंद एक आसन पर रहे राम,

अर्पित करते इंदीवर, जपते हुए नाम;

आठवाँ दिवस, मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर

कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,

हो गया विजित ब्रह्मांड पूर्ण, देवता स्तब्ध,

हो गए दग्ध जीवन के तप के समारब्ध,

रह गया एक इंदीवर, मन देखता-पार

प्रायः करने को हुआ दुर्ग जो सहस्रार,

द्विप्रहर रात्रि, साकार हुईं दुर्गा छिपकर,

हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इंदीवर।

यह अंतिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल

राम ने बढ़ाया कर लेने को नील कमल;

कुछ लगा हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल

ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल,

देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय

आसन छोड़ना असिद्धि, भर गए नयनद्वयः—

“धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,

धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध!

जानकी! हाय, उद्धार प्रिया का हो सका।”

वह एक और मन रहा राम का जो थका;

जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय

कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,

बुद्धि के दुर्ग पहुँचा, विद्युत्-गति हतचेतन

राम में जगी स्मृति, हुए सजग पा भाव प्रमन।

“यह है उपाय” कह उठे राम ज्यों मंद्रित घन—

“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन!

दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण

पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।''

कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,

ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक;

ले अस्त्र वाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन

ले अर्पित करने को उद्यत हो गए सुमन।

जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,

काँपा ब्रह्मांड, हुआ देवी का त्वरित उदय :—

‘‘साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!”

कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।

देखा राम ने—सामने श्री दुर्गा, भास्वर

वाम पद असुर-स्कंध पर, रहा दक्षिण हरि पर:

ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र-सज्जित,

मंद स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित,

हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,

दक्षिण गणेश, कार्तिक बाएँ रण-रंग राग,

मस्तक पर शंकर। पदपद्मों पर श्रद्धाभर

श्री राघव हुए प्रणत मंदस्वर वंदन कर।

''होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!''

कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।

स्रोत :
  • पुस्तक : निराला संचयिता (पृष्ठ 97)
  •  
  • संपादक : रमेशचंद्र शाह
  •  
  • रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  •  
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  •  
  • संस्करण : 2010

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