|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली || (297)
_🌱🌺 *महाराज प्रतापरुद्र को प्रेमदान*🌺🌱
कृष्ण मेहता _
राज्यातिमानं सुकुलाभिमानं
श्रीकृष्णचैतन्यमयौदयार्थम।
सर्वं त्यजेद्भक्तवर: स राजा
प्रतापरुद्रो मम मान्यपूज्य:।।[1]
_श्रीकृष्णचैतन्यमयी दया के निमित्त जिन्होंने राज्य के इतने बड़े भारी मान और उच्च कुल के अभिमान का (तथा छत्र चामन आदि चिह्रों का) परित्याग कर दिया, वे भक्तवर महाराज प्रतापरुद्र जी हमारे पूजनीय तथा माननीय हैं। प्र. द. ब्र._
*कबीर बाबा ने सच कहा है-*
पियका मिलना सुगम है, तेरा चलन न वैसा।
नाचन निकली बापुरी, फिर घूँघट कैसा।
*सचमुच जहाँ पर्दा है वहाँ मिलन कैसा? जहाँ बीच में दीवार खड़ी है वहाँ दर्शन सुख कहाँ? जहाँ अन्तराय है वहाँ सच्चा सुख हो ही नहीं सकता। जब तक पद प्रतिष्ठा, पैसा-परिवार, पाण्डित्य और पुरुषार्थ का अभिमान है तब तक प्यारे के पास पहुँचना अत्यन्त ही कठिन है।*
*जब तक अहंकृति की गहरी खाईं बीच में खुदी हुई है, तब तक प्यारे के महल तक पहुँचना टेढ़ी खीर हैं। जब तक सभी अभिमानों को त्यागकर निष्किंचन बनकर प्यारे के पादपह्रों के समीप नहीं जाता, तब तक उसके प्रसाद को प्राप्त करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता। इसीलिये महात्मा कबीरदास जी ने कहा है-*
चाखा चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान।
एक म्यान में दो खडग, देखी सुनी न कान।।
*महाराज प्रतापरुद्र जी जब तक राज्य सम्मान के अभिमान में बने रहे और दूसरे दूसरे आदमियों से संदेश भिजवाते रहे, तब तक वे महाप्रभु की कृपा से वंचित ही रहे। जब उन्होंने सब कुछ छोड़ छाड़कर निष्किंचन भक्त की भाँति प्रभु पादपद्मों का आश्रय ग्रहण किया तब वे महाभाग परम भागवत बन गये और इनकी गणना परम वैष्णव भक्तों में होने लगी।*
*महाप्रभु बलगण्डि की पुष्पवाटिका मे सुखपूर्वक विश्राम कर रहे थे। संकीर्तन और नृत्य की थकान के कारण प्रभु के सभी अंग प्रत्यंग शिथिल हो रहे थे। उनके कमल के समान नेत्र कुछ खुले हुए थे और कुछ मुँदे हुए थे। प्रभु अर्धनिद्रित अवस्था में पड़े हुए शीतल वायु के स्पर्श से परमानन्द का-सा अनुभव कर रहे थे कि इतने में ही सार्वभौम भट्टाचार्य का संकेत पाकर कटकाधिक महाराज प्रतापरुद्र जी प्रभु के दर्शनों के लिये चले।*
*महाराज ने अपने राजसी वस्त्र उतार दिये थे; छत्र, चँवर तथा मुकुट आदि राजचिह्नों का भी उन्होंने परित्याग कर दिया था। एक साधारण से वस्त्र को राजसी ओढ़े हुए नंगे पैरों ही वे प्रभु के दर्शनों के लिये चले। महाराज के पीछे पीछे नियम के अनुसार उनके शरीर रक्षक भी चले, किन्तु महाराज ने उन सबको साथ आने से निवारण कर दिया। वे एकाकी ही प्रभु के निकट जाने लगे।*
*महाराज ने देखा, सभी भक्त आनन्द में विभोर हुए पेड़ों की सुखद शीतल छाया में पड़े हुए विश्राम कर रहे हैं। महाराज की दृष्टि जिन वैष्णवों पर पड़ी उन सबको ही उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। थोड़ी दूर पर अर्धोन्मीलित दृष्टि से लेटे प्रभु को उन्होंने देखा। महाप्रभु सुखपूर्वक लेटे हुए थे।*
*महाराज पहले तो कुछ सहमे, फिर धीरे धीरे जाकर उन्होंने प्रभु के पैर पकड़ लिये और उन्हें अपने अरुण रंग के कोमल करों से धीरे धीरे दबाने लगे। पैर दबाते-दबाते वे श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के गोपीगीत का गायन करने लगे।*
*रास मण्डल में से रसिकशिरोमणि श्रीकृष्ण जी सहसा अन्तर्धान हो गये हैं। उनके वियोग दु:ख से दु:खी हुई गोपिकाएँ पशु-पक्षी तथा लता-कुंजों से प्रभु के सम्बन्ध में पूछती हुई विलाप कर रही हैं। उसी विरह का वर्णन गोपिका गीत का ‘जयति तेऽधिकम’ आदि 19 श्लोकों में किया गया है। महाराज बड़े ही मधुर स्वर से उन श्लोकों का गान कर रहे थे।*
*श्लोकों के सुनते सुनते ही महाप्रभु की प्रेम समाधि लग गयी। उन्हें प्रेम के आवेश में कुछ ध्यान ही न रहा कि हमारे पैरों की कौन दबा रहा है और कौन यह हमारे हृदय को परमशान्ति देने वाला अमृतरस पिला रहा है। प्रभु अर्धमूर्च्छित अवस्था में ‘वाह वाह, हां हां, फिर फिर, आगे कहो, आगे कहो’ ऐसे शब्द कहते जाते थे। महाराज जब अन्य श्लोकों का गायन करते करते इस श्लोक को गाने लगे-*
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जना:।।[1]
_तुम्हारा कथामृत त्रिपातों से तपे हुए प्राणियों को जीवनदान देने वाला, ब्रह्मादिद्वारा गाया जाने वाला, पापों को अपहरण करने वाला, सुननेमात्रा ही मंगल प्रदान करने वाला, सर्वोत्कृष्ट और सर्वव्यापक है। उस तुम्हारे ऐसे कमनीय कथामृत का जो इस पृथ्वी पर कथन करते हैं, वे ही बड़े उदार पुरुष हैं, (फिर जो उसका निरन्तर पान ही करते रहते हैं, उनके तो भाग्य का कहना ही क्या!) श्रीमद्भा. 10/31/9_
*तब महाप्रभु एकदम उठकर बैठ गये और महाराज का जोरों से आलिंगन करते हुए कहने लगे- ‘अहो, महाभाग ! आप धन्य हैं। मैं आपके इस ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। आज आपने मुझे प्रेमामृत पान कराकर कृतकृत्य कर दिया। आपने मुझे अमूल्य रत्न प्रदान किया, इसके बदले में मैं आपको क्या दूँ? मेरे पास तो यही प्रेमालिंगन है, इसे ही आपको प्रदान करता हूँ।*
*आप अपना परिचय हमें दीजिये। आप कौन हैं? आपने ऐसी अहैतु की कृपा मुझपर क्यों की है? अत्यन्त ही विनीत भाव से महाराज ने कहा- ‘प्रभो ! मैं आपके दासों का दास बनने की इच्छा करने वाला एक अकिंचन सेवक हूँ। आज मैंने क्या पा लिया। प्रभु के प्रेमालिंगन को पाने पर फिर मेरे लिये संसार में प्राप्य वस्तु ही क्या रह गयी? आज मैं धन्य हो गया। मेरा मनुष्य जन्म लेना सफल हो गया। इतने दिन की जगन्नाथ जी सेवा का पुरस्कार प्राप्त हो गया। आपके चरणों में मेरा अक्षुण्ण स्नेह बना रहे और आपके हृदय के किसी छोटे से कोने में मेरी स्मृति बनी रहे, यही मैं आपके चरणों में पड़कर भीख माँगता हूँ।’*
_क्रमशः .................._
_(संत श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी)_
🙏🏼🌺 *जय श्रीराधे*🌺🙏🏼
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