*॥ कृष्ण मेहता
मीरा और श्यामकुँवर दोनों गिरधर की सेवा में लगी थी -कि एक कुमकुम नाम की दासी बड़ी सी बाँस की छाब लेकर आई और बोली ," महाराणा जी ने आपके लिए शालिगराम जी और फूलों की माला भिजवाई है हुकम !"
" शालिगराम कौन लाया ? कोई पशुपतिनाथ याँ मुक्तिनाथ के दर्शन करके आया है क्या ?" मीरा ने अपने सदा के मीठे स्वर में पूछा।
" मुझे नहीं मालूम अन्नदाता ! मुझे जो हुकम हुआ , उसे पालन के लिए मैं हाज़िर हो गई ।वैसे भी बहुत समय से मेरे मन में आप हुज़ूर के दर्शन की लालसा थी ।आज महामाया ने पूरी की। मुझ गरीब पर मेहर रखावें सरकार ,हम तो बड़े लोगों का हुकम बजाने वाले छोटे लोग हैं सरकार !" कुमकुम ने भरे कण्ठ से कहा।
" ऐसा कोई विचार मत करो। हम सब ही चाकर है उस म्होटे धणी ( भगवान ) के। जिसकी चाकरी में है , उसमें कोई चूक न पड़ने दें , बस। हम सब का ठाकुर सबणे जाणे और सब देखे है ,उससे कुछ छिपा नहीं रहता " मीरा ने स्नेह से समझाते हुये कहा ,-" गोमती ! इन्हें प्रसाद दे तो ।"
फिर श्यामकुँवर की ओर देखती हुई मीरा बोली ," बेटी ! इस छाब की डोरियों को खोलो तो , तुम्हारे गिरधर के साथ इनकी भी पूजा कर लूँ। कोई लालजीसा के लिए पशुपतिनाथ याँ मुक्तिनाथ से शालिगराम भेंट में लाया होगा तो उन्होंने मेरी काम की चीज़ समझ कर यहाँ भेज दिए हैं ।"
जैसे ही श्यामकुँवर ने डोरी खोलने को हाथ बढ़ाया तो चम्पा बोल पड़ी -" ठहरिये बाईसा ! इसे हाथ मत लगाईये। जिस तरह से यह दासी इसे ला रही थी- यह छाब भारी प्रतीत होती थी और शालिगराम तथा फूलों का भार ही कितना होता है ?"
" तू तो पगली है चम्पा ! उधर से हवा भी आये तो तू वहम से भर जाती है । तुम खोलो बेटा !" मीरा ने श्यामकुँवर से कहा।
श्यामकुँवर खोलने लगी तो कुमकुम प्रसाद को ओढ़नी में बाँध आगे बढ़ आई ," सरकार ! बहुत मज़बूती से बँधी है। आपके हाथ छिल जायेंगे , लाईये मैं खोले देती हूँ। "
उसने डोरियों को खोल जैसे ही छाब का ढक्कन उठाया , फूत्कार करते हुये दो बड़े बड़े काले भुजंग चौड़े फण उठाकर खड़े हो गये। दासियों और श्यामकुँवर के मुख से चीख निकल पड़ी। कुमकुम की आँखें आश्चर्य से फट सी गई, और वह घबराकर अचेत हो गई। मीरा तो मुस्कराते हुये ऐसे देख रही थी मानों बालकों का खेल हो। देखते ही देखते एक साँप छाब में से निकलकर मीरा की गोद में होकर उसके गले में माला की भांति लटक गया।
" बड़ा हुकम !" श्यामकुँवर व्याकुल स्वर में चीख सी पड़ी।
" डरो मत बेटा ! मेरे साँवरे की लीला देखो ।"
पलक झपके , तब तक तो छाब में बैठा नाग एक बड़े शालिगराम के रूप में और मीरा के गले में लटका नाग रत्नहार के रूप में बदल गया।
" गोमती ! कुमकुम बाई को थोड़ा पंखा झल तो ! थोड़ा चरणामृत भी दे। बेचारी डर के मारे अचेत हो गई है " मीरा ने शांत स्वर में कहा।
चमेली क्षुब्ध स्वयं में बोली -" मरने भी दीजिए अभागी को जो आपके लिए सिर पर मौत उठाकर लायी। हमारा वहम तो झूठा नहीं निकला , किन्तु सरकार के भोलेपन के सामने वहम का क्या बस चले ?"
" ऐसी बात मत कह चमेली ! यह बेचारी कुछ जानती होती तो स्वयं आगे बढ़ कर छाब की डोरियाँ क्यूँ खोलती ? और यदि जानती भी होती तो अपना क्या बिगड़ गया ? ले ! ये चरणामृत दें तो इसके मुख में !"
अथाह स्नेहपूर्वक दोनों हाथों से छाब में फूलों के ऊपर रखे हुये शालिगराम जी को मीरा ने उठाया और एकबार सिर से लगाकर सिंहासन पर पधराते हुये वे बोली ," मेरे प्रभु ! कितनी करूणा है आपकी इस दासी पर !"
दासियों ने और श्यामकुँवर ने जयघोष किया -" शालिगराम भगवान की जय ! गिरधरलाल की जय !!!"
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