रविवार, 12 मार्च 2023

डॉ मधुर नज्मी: हमारे समय का एक बड़ा शायर चुपके से चला गया..!

       

डॉ.  अरविंद कुमार सिंह 

             -1-

       "लुटे कांरवां का वो सरदार निकला/

        कबिले का क़ातिल क़लमकार निकला।"

                     -2-

     क्या लिखूं जहाजरानी पे, कि रास्ते तैरते हैं पानी पे।।

                     -3

   घाव दिल का हरा हो गया, दर्द का आईना हो गया।

  एक मुजरिम है मुंसिफनुमा,छोड़िए फ़ैसला हो गया।।

                     -4-

  जिंदगी क्या से क्या हो गई, बांसुरी थी व्यथा हो गई।

  राम का आचरण देखकर, फिर अहिल्या शिला हो गई।


                                                   -डॉ मधुर नज्मी

हमारे समय के प्रख्यात गज़लकार डॉ मधुर नज्मी अब इतिहास हो गयें। वह लरजती और मखमली आवाज़, वह जुल्फों की अदायगी,वह ग़ज़लों की रवानी, वह अतीत की बानी अब हमसे दूर हो गई। देश और दुनिया में अपनी ग़ज़लों और शेरों के माध्यम से पहचान बनाने वाले कैलाश चतुर्वेदी का मधुर नज्मी बनने का सफ़र एक दिलचस्प सफ़र सा था । आज उनके साथ बिताए दिन और मधुर स्मृतियां बार-बार याद आती हैं। 

अखंड आज़मगढ़ के रानीपुर क्षेत्र में ठेठ गंवई परिवेश में जन्मे कैलाश चतुर्वेदी का आज़मगढ़ नगर से रिश्ता बेहद पुराना था। बिजली विभाग में बतौर कर्मचारी उन्होंने आज़मगढ़ को ठिकाना बनाया, लेकिन इसके पहले भी जीवन की दुश्वारियों से दो-चार होते रहे, प्राइवेट नौकरी की और परिवार का पेट पाला । लेकिन संघर्ष के दिनों में भी उनकी सोहबत ऐसी अदीबी दुनिया से रही, जो उन्हें ग़ज़लों की दुनिया में न केवल शोहरत दी, बल्कि  शेरों सुखन की दुनिया में बहुत ऊंचा मकां बनता गया।  शार्प रिपोर्टर से उनका रिश्ता कोई दशक पुराना था। जब भी मोहम्मदाबाद गोहाना से आजमगढ़ मुख्यालय आते, हमारे दफ्तर में दो घंटे की बैठकी जरुर होती।आगामी अंकों को लेकर, या आलेखों को लेकर बेहद सकारात्मक संवाद होता। 

वे मूलतः ग़ज़ल के आदमी थे, बल्कि उसके मर्मज्ञ। मंचों पर उनकी प्रस्तुति बेहद आकर्षित करने वाली होती। मीडिया समग्र मंथन के पिछले लगभग सभी आयोजनों में हमारे संरक्षक की भूमिका में होते। कवि और शायर सम्मेलन की जिम्मेदारी हम प्रायः उन्हीं के कन्धों पर सौंप देते और उनकी मदद के लिए सुप्रसिद्ध संचालक और गीतकार डॉ० ईश्वर चन्द्र त्रिपाठी का सहारा लेते। कई यात्राओं में भी साथ रहे,चाहे वह भागलपुर की हो या उज्जैन की। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शिरकत करना उनका शगल था। डा नज्मी की ग़ज़लों के व्याकरण पर विशेष पकड़ थी। रदीफ और काफिया की बारीक इल्म उन्हें था।  बताते हैं कि ग़ज़ल की दुनिया में प्रवेश खैराबाद से हुआ। उनके उस्ताद 'नज्मी' थे। जिनके संगत में उन्होंने शेरों शायरी, ग़ज़लों का ककहरा सीखा और फिर उन्हीं के दिए उपनाम से 'मधुर नज्मी' हो गयें।

उनकी ग़ज़लों में आम आदमी की पीड़ा, व्यवस्था से टकराव, हासिए के समाज की वेदना और समाज की विद्रुपता पर प्रहार था। उन्हीं मनोदशा में लिखते हैं-


''जिंदगी क्या से क्या हो गई, बांसुरी थी व्यथा हो गई।

 राम का आचरण देखकर, फिर अहिल्या शिला हो गई।''


  उनकी दो किताबें प्रकाशित हो सकीं । आखिरी किताब

  ''रास्ते तैरते हैं पानी पर'' छप नहीं सकी। लेकिन उसकी टाइपशुदा पांडुलिपि शार्प रिपोर्टर के पास है। हमारी कोशिश होगी कि इसे प्रकाशित किया जाए। इसके लिए अमन त्यागी भैय्या ने भी सहयोग का आश्वासन दिया है और नज्मी साहब के मित्रों ने भी। वैसे देश भर की पत्र पत्रिकाओं में वे छपते रहते थे।  घर के बाहर बारमदे में प्राय: उनकी मजलिस लगती थी। उनसे आखिरी मुलाकात उनके आवास पर वरिष्ठ पत्रकार मिथिलेश सिंह के साथ हुई थी। छोटे पुत्र के असामयिक निधन से वे भीतर ही भीतर टूट गयें थें। जिसकी अभिव्यक्ति उनके ग़ज़लों में होती। इधर बहुत भावुक हो जाते थे। भावुकता उनकी आंखों की कोरों से दिख जाती। 

  कवियों, लेखकों और शायरों का यूं चलें जाना,समाज की बहुत बड़ी क्षति होती है। ये समाज की अन्तर्धारा होते हैं। समाज की चेतना, उसके नाक, कान, आंख। डा नज्मी ने जो गज़लों के माध्यम से समाज की सेवा किया है,उसे अदबी समाज कभी भूल नहीं पाएगा। इस शायर को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि!!

  

-डा अरविन्द सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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