उसने फैला ली ना सनसनी , /.विवेक रंजन श्रीवास्तव
उत्तेजना और उन्माद !
एक ही धर्मस्थल पर
हरे और भगवे झंडे
लहराकर !
पता नही इससे ,
मिले कुछ वोट या नही !
पर हाँ
आम आदमी की सुरक्षा और समाज में
शांति व्यवस्था के नाम पर
हमारी मेहनत के करोड़ो रुपये
व्यर्थ बहाये हैं ,
तुम्हारे इस जुनून के एवज में !
बंद रहे हैं स्कूल और कालेज
और नही मिल पाई उस दिन
गरीब को रोजी ,
क्योकि ठप्प थी प्रशासनिक व्यवस्था !
टीवी चैनल इस आपाधापी को
ब्रेकिंग न्यूज बनाकर , विज्ञापनो के जरिये
रुपयो में तब्दील कर रहे थे .
मेरी अलमारी में रखी
कुरान , गीता और बाइबिल
पास पास यथावत साथ साथ शांति से रखी थीं .
सैनिको के बैरक में बने एक कमरे के धर्मस्थल में
विभिन्न धर्मो के प्रतीक भी ,
सुबह वैसे ही थे , जैसे रात में थे .
पर इस सबमें
सबसे बड़ा नुकसान हुआ मुझे
जब मैंने अपने किशोर बेटे
की फेसबुक पोस्ट देखी
जिसमें उसने
उलझे हुये नूडल्स को
धर्म निरूपित किया , और लिखा
कि उसकी समझ में धर्म ऐसा है , क्या फिर भी हमें
धार्मिक होना चाहिये ?
मैं अपने बेटे को धर्म की
व्याख्या समझा पाने में असमर्थ हूं !
तुमने धर्म में हमारी आस्था की चूलें
हिलाकर अच्छा नही किया !!
धर्म तो सहिष्णुता , सहअस्तित्व और सदाशयता
सिखाने का माध्यम होता है . है ना !
गजब है , एक ही स्थल पर दोनो की आस्था है
फिर भी , बल्की इसीलिये , उनमें परस्पर विवाद है .
यदि शिरडी , काशी और काबा हो सकता है साथ साथ !
तो मथुरा और धार क्यों नही ?
धर्म तो सद्भावना का संदेश होता है !
धर्म के नाम पर
कट्टरता, जड़ता और असहिष्णुता फैलाना
कानूनन जुर्म होना चाहिये
किसी भी सभ्य समाज में !
तभी बच्चे धर्म को उलझे हुये नूडल्स नही
बूंदी के बंधे हुये लड्डू सा समझ पायेंगे !!
विवेक रंजन श्रीवास्तव
जबलपुर
2
मौत /
: मौत! अभी मत आना मेरे पास
-अशोक मिश्र
मौत! अभी मत आना मेरे पास
फुरसत नहीं है
तुम्हारे साथ चलने की
लेकिन यह मत समझना
कि मैं डरता हूं तुमसे
कई काम पड़े हैं बाकी अभी
वो जो गिलहरी
बना रही है अपने बच्चों के लिए घरौंदा
ठीक से बन तो जाए।
फुरसत नहीं है मुझे
तब तक/जब तक
इस धरती पर भूखा सोता है
एक भी बच्चा, स्त्री, पुरुष।
अभी श्रम की सत्ता
पूंजी की सत्ता को नहीं कर पाई है परास्त
पूंजी की सत्ता के खिलाफ
बिछा तो लूं विद्रोह की बारूद
कर लूं तैयार एक हरावल दस्ता
पूंजी की सत्ता के खिलाफ।
फिर तुम्हारे साथ
मैं खुद चल पडूंगा सहर्ष
मुझे मत डराओ अपनी थोथी कल्पनाओं से
स्वर्ग-नर्क, पुनर्जन्म
या फिर उन कपोल कल्पित कथाओं से
जो रच रखे हैं
तुम्हारे नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने।
मैं जानता हूं
मृत्यु कुछ नहीं
एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में
रूपांतरण मात्र है, बस।
मौत कहां होगी मेरी
मैं तो एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में
बदलकर भी रहूंगा जीवित
विचार के रूप में
किस्सों के रूप में
कहानियों के रूप में
लेकिन हां,
मत आना अभी
फुरसत नहीं है मेरे पास
बच्चे थोड़ा बड़े तो हो जाएं।
3
कविता .गर्म चाय की प्याली हो.../ नेहा नाहटा
हिदायत नही है यह
साफ साफ शब्दों में वार्निंग दे रहा हूं , मिसेज नाहटा ...
आज से बिलकुल बन्द है
आपकी चाय ,
क्लिनिक में गर्दन झुकाए
बैमन सुन रही थी मैं
और चेतावनी दे रहा था
मेरा डॉक्टर .....
बार बार के अल्टीमेटम और
हाइपर एसिडिटी के बावजूद
रोज सुबह गटक ही लेती हूं चाय
अपने फेवरेट मग में ,
बचपन से सुनती जो आयी हूं ,
कड़वाहट मार देती है कड़वाहट को
जहर काटता है जहर को..
न चाहते हुए भी
चढ़ा देती हूं चाय उबलने ,
चाय की भाप के साथ उड़ जाते हैं
मेरे दबे ,उमड़ते - घुमड़ते जज्बात
तूफ़ान उठाती तन्हाईयाँ ,
सारी वेदना
हो जाती है वाष्पित,
चाय की चुस्कियां चूस लेती है
मेरी तमाम चुभन ,
भर देती है स्फूर्ति
ताकि पूरे दिन लड़ सकू खुद से ,
इस बैगेरत जमाने से
कुछ दगाबाज रिश्तो से
पीठ में ख़ंजर घोंपते अपनों से
और दोस्ती का दम भरते दोगलों से भी..
चाय का घूँट भरते ही
चुटकियों में चार्ज हो जाती है मेरी चपलता
अगले चौबीस घण्टो तक जिन्दा रहती है
मुझमे चंचलता
चाय को चाय नही
संजीवनी समझती हूं तभी ,
बेदर्द जमाने में
चंद सांसो के लिए लड़ते
किसी वेंटिलेटर की संज्ञा देती हूं इसे
सब समझाते हैं मुझे
क्यों ! अपने लिवर को यातना देती हो तुम,
कैसे बताऊँ उनको ,
नही मैं बेवफा..
यतीम नही होने दे सकती चाय को ,
जो साथ रही है सदा
मेरा यकीन बनकर..
तोहमतें ,उलाहने,शिकायते,
तहरीरें ,तकरारें सब सुड़क लेती हूं
इस एक चाय के प्याले में
और बटोर लेती हूं चंद खुशियाँ ,
घोल लेती हूं थोड़ी सी मिठास अपने लिए
और कुछ खास अपनों के लिए भी ,
महकाती है
चाय की खुश्बू
हर पल मुझे
ताकि महकता रहे मेरा वजूद
मेरे मरने के बाद भी..
नेहा नाहटा
4
गेंहू की व्यथा-
गर्मी में तपने के बाद
जब आया बरसात।
सीलन और कीड़ो-मकोड़ो से
एक किसान ने संभाले रखा
मुझे धरोहर बनाकर।।
उसे फिक्र जो थी मेरी।
मेरी वंशावली बढ़ाने की।।
और उन करोडों भूखे
क्षुधा को संतृप्त करने की
सच कहूँ तो-आज के दौर में
ऐसा परमार्थ कौन करता है जी।
लोग तो फिराक में लगे रहते है
कि कब मौका मिले
और उड़ा दें गर्दन धड़ से अलग।
सर्दी शुरू होते ही डाल दिया गया
धरती के गर्भ में।।
मैं बहुत खुश था
यह अवसर पाकर ।
पूरा करूं फर्ज
अपनी वंशावली बढ़ाकर।
एक किसान के अहसानों का
जिसने संजोया मुझे पसीना बहकर ।।
भर सकूँगा उनकी क्षुधा।
और पूरा कर सकूँगा
कभी न पूरा होने वाले
एक किसान के अरमानों को।।
एक से अनेक बन अब,
यद्यपि झेलने पड़े हमें
सर्दी,धूप,आंधी और ओले।
हममें से कितने उखड़ गए थे
और कितने अब भी हवा में डोले।।
लेकिन इन थपेड़ो को झेलते हुए
अब भी हमारी हर सांस
बस एक किसान के
अहसानों की ही गाथा बोले।
जिसने सहकर अनेकों कठिनाई
हमारे चिन्ता में दिन-रात डोले।।
इस संघर्ष की लड़ाई में
यद्यपि विजय भी हमारी हुई।।
अब तो काट,छांट और तिनका-तिनका जोड़कर
पहुँच चुके थे मंडी ।
होने पालनहार के लिए नीलाम
ताकि उसके अरमानों का पूरा कर
सांस ले अब ठंड़ी।।
लेकिन अब भी कुछ बाकी था अंजाम।
गिरते-पड़ते ।धूल-कंकड़ संग सड़ते।
अपने अस्तित्व के लिए लगातार लड़ते।
लम्बे बहस और तिरस्कार के बीच बिके।
दलालों को दलाली खिलाकर, सहकर बेशर्मी ।
तब जाकर हम सरकारी गोदाम में टिके।।
एक लम्बे कैद के बाद
अब जाकर जगी है कुछ आस।
छोटे-बड़े समूहों में बंटकर
अब हम पहुँच चुके थे
सरकारी सस्ते गल्ले के पास।।
मन ही मन खुशी के मारे अब झूम रहे थे।
अपने पालनहारों के क्षुधा भरने को
आतुर एक - दूजे का माथा चुम रहे थे।।
लेकिन पूरा हो न सका
ये भी हमारा आखिरी सपना।
इतना खुदक़िस्मत कहाँ थे हम गेंहू कि
काम आ सके उनके दुर्दिनों में
जो कभी बहा दिए थे खून-पसीना अपना।
रात को ही हम गेंहू
भ्रष्टाचार के भेंट चढ़ चुके थे
कोटेदार ने पहले ही हाथ साफ कर दिया अपना।
लगता है हम गेंहू के नसीब में ही
लिखा है बार-बार बिकना।।
" विनोद विमल बलिया
5
अलका जैन आनंदी
दोहे *गुरु*
गुरुवर मुझको ज्ञान दो, बने कलम पहचान ।
मन के तम को दूर कर, दूर करो अज्ञान ।।
ज्ञान गुरू देते सदा ,जाने यह संसार ।
होते सपने सच तभी, सुनलें गुरू पुकार।।
गुरु की कृति अनमोल है, सही गलत पहचान ।
सदा रखो संभालकर, बनो नेक इंसान।।
नौका करते पार हैं, गुरु हैं खेवनहार।
करें दुखों का अंत ये, भव से करते पार।।
मेरे गुरुवर आपने, भरे ज्ञान भंडार।
सत्य राह पर हम चलें, मिले आपका प्यार।।
बादल आया झूम के, मनवा करता गान।
रोम-रोम हर्षित हुआ, भरे खेत खलियान।।
बागों में झूले पड़े, धरा रचाएँ रास।
इस *सावन* के मास में,सोम रहा दिन खास।।
बादल काले घिर गए ,वर्षा हुई अपार ।
हृदय खुशी से अब भरा, साजन मेरा प्यार ।।
कोयल कू कू कर रही, मीठी है आवाज ।
दादुर की आवाज से, होता बेहद शोर।।
सावन आया झूम के, लगती सुखद फुहार ।
मोर नाचता बाग में, अपनी बाँह पसार।।
छम छम वर्षा हो रही, बाहर मचता शोर।
साजन आते पास जब, मन में प्रेम हिलोर।।
आनंदी
6
जेब खाली है अगर जज़्बात का क्या कीजिये
पुरसुकूं दिन ही नहीं तो रात का क्या कीजिये
मर रहे हैं भूख से नवजात माँ की गोद में
ज्ञान वाली आसमानी बात का क्या कीजिये।
सोचिए जुम्मन पदारथ जॉन इब्लिस बैठकर
देश के बिगड़े हुए हालात का क्या कीजिये।
मर्म की सूखी नदी तक बूंद भी आनी नहीं
सागरों पर हो रही बरसात का क्या कीजिये।
उम्र सारी काटली है सिर्फ तनहा ही अगर
आज मैयत पर सजी बारात का क्या कीजिये।
उम्र भर एहसान ढोएं और हासिल कुछ नहीं
हक अगर मिलता नहीं खैरात का क्या कीजिये।
कट रही है आपकी भी बस यही तो है बहुत
जिंदगी की दौड़ में सह मात का क्या कीजिये।
#चित्रगुप्त
6
आपका हौसला बढाने के लिए एक कविता*
*यूं ही हंसने के लिए दिल पर न लिजिएगा* / सुनीता शानू
सुनो सुनो रे एडमिन जी
माफ करो तुम एडमिन जी
जब चाहे जोड़ लो हमको
जब चाहे तुम मुक्त करोगे
तुम तानाशाह बनकर
हम पर हरदिन राज करोगे
हिटलर जैसे एडमिन जी
अकड़े अकडे़ एडमिन जी
तुम चाहो तो दांत हिलाएं
तुम चाहो तो चुप हो जाएं
उल्टी सीधी कविता पर
तुम चाहो तो कमेंट लगाएं
नही चलेगी मनमानी जी
अगर करोगे बेईमानी जी
सुनो सुनो रे एडमिन जी
अब जाने भी दो एडमिन जी
सुनीता शानू