*हनुमानजी के जीवन में ज्ञान, कर्म* *और भक्ति की समग्रता विद्यमान है।*
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रामराज स्थापना पश्चात श्री हनुमानजी को वापस भेजने की आवश्यकता भगवान् राम नहीं समझते हैं। उनके संदर्भ में प्रभु दूसरी बात सोचते हैं। *कई लोग ऐसे होते हैं कि जिनमें सामीप्य के कारण रस का अभाव हो जाता है। अधिक पास रहने से उन्हें बहुत लाभ नहीं होता। क्योंकि पास रहने से लाभ उठाने वाले मैंने बिरले ही व्यक्ति देखे हैं, बहुधा हानि उठाने वाले ही अधिक देखे हैं। लोग बहुधा आश्चर्य करते हैं कि बड़े-बड़े महात्माओं के अत्यन्त पास रहने वाले व्यक्तियों का स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। बड़े-बड़े तीर्थों में रहने वाले व्यक्तियों का आचरण तीर्थ के आदर्श से बिल्कुल भिन्न होता है। इसका रहस्य यही है कि जैसे कोई व्यक्ति प्रतिदिन किसी एक ही वस्तु का भोजन करे तो धीरे-धीरे उसे उस वस्तु का स्वाद आना बन्द हो जाता है। इसी प्रकार से कोई व्यक्ति अगर बहुत लम्बे समय तक किसी महापुरुष के साथ रहे अथवा किसी तीर्थ में रहे तो वह उससे प्रेरणा ग्रहण नहीं कर पाता। और जो थोड़े समय के लिए जाते हैं वे नई प्रेरणा ग्रहण करके लौटते हैं। निरन्तर समीप बने रहने वालों में रस की यह भावना समाप्त होकर सांसारिक वृत्ति जागृत होते देखी गई है। जिससे कि वे बदलकर सांसारिक दिखाई देने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति अधिक पास न रहकर थोड़ा दूर बने रहकर अगर पास आने की चेष्टा करें तभी उनका कल्याण होगा।*
पर श्री हनुमानजी के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। हनुमानजी चाहे दूर रहें, चाहे पास रहें, वे तो सदैव *राम-रस* में ही निमग्न रहते हैं। श्री हनुमानजी के जीवन में ज्ञान, कर्म और भक्ति की समग्रता विद्यमान है ; वे तो --
*अतुलितबलधाम हेमशैलाभदेहं*
*दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम।*
*सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं*
*रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।*
-- सुन्दरकाण्ड, वन्दना
-- महान ज्ञानी, महान कर्मयोगी तथा महान भक्त हैं । हनुमानजी के चरित्र में शरीर का भी सर्वोच्च सदुपयोग है, भावना का भी सर्वश्रेष्ठ उपयोग है और विवेक का भी उत्कृष्ट प्रयोग है । रामायण में भगवान् श्री राघवेन्द्र उनके इन तीनों योगों का सदुपयोग करते हैं। उनके विचार का सदुपयोग करते हैं, उनकी भावना का सदुपयोग करते हैं तथा उनके शरीर के द्वारा भी निरन्तर उनसे सेवा लेते हैं।
☯️ जय गुरुदेव जय सियाराम 🙏
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