मंगलवार, 11 मई 2021

चिट्ठियाँ...! / मनोहर बिल्लोरे

 चिट्ठियाँ...! / मनोहर बिल्लोरे 

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चिट्ठियाँ लिखना-पढ़ना अब,  

भूल गये  बहुत सारे लोग 

पढ़ने-लिखने वालों की संख्या में 

जबकि, हुआ है बेतहाशा इज़ाफा 


सिर झुकाये तरह-तरह के कामों में 

दिन भर डूबे रहने वाले व्यस्त-पस्त, 

सनकी-सिरफिरे-से वे डाक-बाबू, 

अब नहीं रहे...  सनसनी सी फैलाती,

प्रतीक्षा की बेचैनी वह –

बनी रहती थी जो – कहाँ बची अब 

पाई-पठाई, लिखीं-पढ़ीं जातीं और 

घर-घर में, चर्चा में रहती थीं, 

जब – चिट्ठियाँ...!


जो पढ़ा-लिखा नहीं था  वह भी 

दूसरों से पढ़वा-लिखवा लेता था 

अपने दुख-दर्द, भाव-अभाव, 

हर्षोल्लास, अपनी आशा-निराशाएँ, 

चिंताएँ, दिल्लगी, हास-परिहास, 

ठिठोली, प्रेम-तरंगें, आलिंगन, 

और ज्वार--भाटे सब समां जाते 

इन दो पैसों की चिट्ठियों में…


अनपढ़ डाकिया भी -  

दूसरों से पढ़वा कर पते - 

बाँट देता था  घर-घर में  

तय समय पर  सही जगह    

सही-सही डाक...  


अब तो इस समय -  

पुश किये जाते हैं चट-पट-पट… 

मनचाहे नंबर और कर ली जाती 

बातें, झट-पट जी भर-भर… चाहें जब,  

जहाँ चाहें और हो इच्छा तो 

चेहरे पर चमकने वाले हाव-भाव भी 

देख सकते हैं  आमने-सामने


अंतर्जाल के ज़रिये, 

रेडियो-तरंगों पर सवार कर मनचाही 

किसी वाल पर, पुश या एक क्लिक में 

पहुँचा दिये जाते, संदेश–निर्देश 

कभी भी, कहीं से कहीं तक भी...


झूठ बोलना  बहलाना - टरकाना –

प्रसंगों से भटका देना, हो गया अब  

और भी आसान, बच्चे भी सीख रहे 

पूरे मनोयोग से अब यह गुर-कौशल...   


जानकारियाँ ज्यों भरी जा रहीं 

ज़ेहनों में, बहुत सारी,  बहुत भारी; 

पर - ज्ञान है कि होता जा रहा 

और-और कम... और ‘सच्चाई’ है –

कि डरी-दुबकी, सिकुड़ती-सिमटती

दिखाई देती – जगह-जगह...


एक समय था वह भी, कि जब

पहुँचते ही किसी घर में ‘तार’ – 

कुछ देर के लिये ही सही 

सनसनी-सी फैल जाती थी...  

अड़ोस-पड़ोस से मुहल्ले, गाँव, 

कस्बे के कौने-कौने तक तुरत-फुरत,  

कानों कान, कि फलाँ घर में – 

आया है ‘तार’,  बच्चे तक 

कर लेते खड़े अपने कान 

कि क्या हुआ…?


सनाके में सुनते लोग, कि 

घट गया हो जैसे उस घर में 

कोई दुर्घट, शंकाओं-कु-शंकाओं का 

हो जाता बाज़ार गर्म – भावों में 

आ जाता उछाल, मानते थे लोग,

कि - ‘कुशल और खुश’ लोग 

‘तार’ नहीं दिया करते…


प्रियों-प्रेमियों, साथियों-संबंधियों की  

पढ़ी जातीं चिट्ठियाँ घर-घर में 

भरपूर आत्मीयता के साथ  

बार-बार, लिखे हुए में ख़ोज़ा-

ढूढ़ा जाता कुछ और भी, 

संकेतों-कूटों की टटोली जातीं 

ज़ेबें, पकड़ी जाती नब्ज़ें... 


और फिर, रख दिया जाता उन्हें–

पुराने यादगार सामानों सा सहेज कर 

एहतियात के साथ, बक्सों में 

पिटारा खुलने पर और 

हाथ लगने पर जब कभी, 

प्यार से  सहलाया जाता उन्हें 

स्मृतियों में डूब कर देर तक…  


कम ही सही पर बचे हैं दीवाने...  

अब भी, लिखते-पढ़ते रहते हैं जो 

गंभीर गहन-संलग्न-तन्मयता और पूरे 

जोश-ओ-जुनून के साथ बदस्तूर, विविध 

आकार रंग, गंध स्वाद, ध्वनि और 

स्पर्श में रची-बसी चिट्ठियाँ...


अगली सदी के पुरातत्व-संग्रहालयों में 

भोज-पत्रों की तरह पीले-मटमैले 

हो गये काग़जों पर लिखी, 

सहेज कर रखी देखी-परखी जायेंगी 

क्या किसी दिन, बीत चुकी संस्कृति सी 

हमारी विरासत हस्तलिखित चिट्ठियाँ...?


चिट्ठियाँ लिखना-पढ़ना अब,  

भूल गये  बहुत सारे लोग 

पढ़ने-लिखने वालों की संख्या में

जबकि, हुआ है बेतहाशा इज़ाफा...

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