थैली नंबर तीन/ : सुनील सक्सेना
“ये रहा तुम्हारा ब्रेड ऑमलेट, जल्दी से फिनिश करो । तुम्हारी ऑनलाइन क्लास का टाइम हो रहा है…” - मंजू ने प्लेट डाइनिंग टेबल पर रखी और किचन की ओर दौड़ी, तबतक तवे पर पड़ा ऑमलेट जल चुका था ।
इधर अंश ने ब्रेड का टुकड़ा मुंह में रखा ही था कि ब्रेड में बदबू महसूस हुई । उसे उबकाई आने लगी ।
“क्या हुआ…?”
“मम्मी ये ब्रेड खराब है । अजीब सी महक आरही है । मुझे नहीं खाना…”
“मैं देख रही हूं खाने-पीने के मामले में आजकल तुम ज्यादा ही मीनमेख निकालने लगे हो । कल ही तो ताजा ब्रेड लाई हूं । इतनी जल्दी कैसे खराब हो जाएगी ? इस लॉकडाउन में ब्रेकफास्ट खाने को मिल रहा है न तुम्हें इसलिए दिमाग सड़ गया है तुम्हारा…”
“बिलिव मी मम्मी । मैं सच कह रहा हूं । आप खुद सूंघ कर देख लो…”
“ठीक है । ऑमलेट खा लो । अभी चंदाबाई आएगी ब्रेड में उसे दे दूंगी । एक उसके बच्चे हैं कुछ भी खानेपीने को दे दो कभी कोई शिकायत नहीं करते हैं । हमारे बच्चे । हमें ये नहीं खाना । ये नहीं पीना…” - मंजू मन ही मन बड़बड़ा रही थी ।
“मम्मी प्लीज ये ब्रेड चंदा को मत देना । पुट इट इन डस्टबिन ।”
“अंश…बस अब चुप हो जाओ तुम । एक शब्द नहीं बोलना । उठो और जाओ अपनी क्लास अटेंड करो ।”
तभी पतिदेव समीर हाथ में पांच सौ का फटा नोट लिए नमूदार हुए ।
“यार मंजू मैंने कितनी बार कहा है तुमसे कि वॉशिंग मशीन में मेरे कपड़े डालने से पहले पेंट- शर्ट की जेब एक बार चेक कर लिया करो । ये देखो क्या हाल हो गया इस पांच सौ के नोट का…?”
“ओह ! तो तुम भी… पता नहीं आज किसका मुंह देखकर उठी हूं ?” मंजू ने खीझते हुए समीर को हाथ में नाश्ते की प्लेट थमा दी ।
“पापा डोंट वरी । अभी चंदाबाई आएगी आप उसे ये नोट दे देना । घर की हर खराब, बेकार आउटडेटेड चीजों की एक मालकिन है “चंदाबाई” । ढेंढ टडेन…. रात की बची सब्जी हो, बासी रोटी हो, सड़ा हुआ गोभी हो, गले हुए फल हों, मम्मी की पुरानी साड़ी हो, पापा के बदरंग ट्राउजर्स-टीशर्ट हो, घर का पुराना कबाड़ हो, किसी भी रिजेक्टेड सामान को ठिकाने लगाने की एक मात्र जगह चंदाबाई की “थैली नंबर तीन” ।” अंश एक सांस में बेलौस नाटकीय लहजे में बोल गया और मंजू की ओर शरारत भरी मुस्कुराहट से देखने लगा ।
दरअसल मंजू ने चंदा की लिए अलग से एक “थैली नंबर तीन” फिक्स कर रखी है, जिसमें बचा-खुचा खाना, घर में नापसंद की गईं चीजें वो चंदा के लिए रख देती है । पहली थैली सूखे कचरे की और दूसरी थैली गीले कचरे के लिए नामजद है । चंदा झाड़ू-पोछा बर्तन का काम निपटाने के बाद बरामदे में रखी थैली नंबर तीन को घर जाते वक्त एक बार जरूर देख लेती है ।
“तुम्हारी जबान आजकल ज्यादा चलने लगी है अंश । जब खुद कमाओगे तो पैसे की कदर समझोगे । मैं और तुम्हारे पापा रात-दिन एक करके घर कैसे चलाते हैं हम ही जानते हैं । अच्छा खाने पहनने को मिल रहा है तो मुटाई चढ़ रही है । लाओ समीर, ये नोट मुझे दे दो कल बैंक से चेंज करवा लूंगी ।”
“कम ऑन मंजू । कूल डाउन । अंश टीनएज में हैं । बच्चों का नेचर रिबेलिएन हो जाता है इस उम्र में । ट्राइ टू अंडरस्टेंड हिज फीलिंग्स । भावनाओं को समझो यार..” समीर ने माहौल को ठंडा करने का प्रयास किया ।
“समझने का ठेका हम औरतों ने ही तो ले रखा है । मायके में मां-बाप भाइयों को समझो, शादी के बाद पति को समझो फिर बच्चों को, सारी जिंदगी बस दूसरों को समझने में गुजर जाती है । कभी हमें समझने की चेष्टा की किसी ने ? औरत अपनी पूरी जिंदगी घर की मरजाद के लिए गवां दे कोई उसकी परवाह नहीं करता । मैं अगर चंदाबाई को बची हुई चीजें देती हूं तो कोई गुनाह है, अंश के कपड़े उसके बच्चे पहन सकें ये कोई पाप है… तुम्हारे रिजेक्ट किए हुए पेंटशर्ट, जूते चंदा का पति पहने इसमें क्या गलत है ? सालों से भंगार में पड़ी गृहस्थी की अनुपयोगी वस्तुएं अगर मैं चंदा को देती हूं तो कोई जुल्म है… बताओ ?” मंजू ने गुस्से को जब्त करना चाहा, लेकिन वो फूट पड़ा ।
“अब तुम इस छोटीसी बात का इतना बतंगड़ मत बनाओ । डोंट स्पॉयल माय डे ।” समीर मन ही मन सोचने लगा कि अंश ने सुबह-सुबह ये नसीहत देकर कहां से फजीहत मोल ले ली ।
“तुम इसे छोटी बात कहते हो । अंश, जिस अंदाज में मुझसे बात कर रहा था तुम्हें उसे रोकना चाहिए था समीर । नई जनरेशन है । मिलेनियल्स बच्चे हैं, तो क्या बड़ों का मान सम्मान करना छोड़ देंगे ? सिर पर बिठालो बच्चों को तो फिर यही गत होती है मां-बाप की । न कोई अदब न लिहाज ।” मंजू का कंठ रूंध गया ।
“मैं फिर तुमसे कहता हूं, अंश की बात को जरा ठंडे दिमाग से सोचना । वो गलत नहीं कह रहा था । फिर भी तुम्हें लगता है कि “अंश हेज मिसबिहेव्ड” तो अभी वो “सॉरी” बोल देगा ।” समीर जानता था कि भूकम्प का एपिक सेंटर तो अंश है, वो फिजूल में झटके सह रहा है ।
उस नीम अंधेरी रात में मंजू की आंखों से नींद गायब थी । अंश की कही बातें दिल की गहराई में उतरकर गोते लगा रही थीं । अंश के बोले एक-एक शब्द की अनुगूंज ने मंजू को बैचेन कर दिया । अंश ठीक ही तो कह रहा था, जो ब्रेड उसके खाने लायक नहीं है, वो चंदा के बच्चे कैसे खा सकते हैं ? क्या चंदाबाई सिर्फ तिरस्कृत और त्याज्य चीजों की ही हकदार है ? क्या चंदाबाई का जीवन उतरन को पहनने-ओढ़ने के लिए अभिशप्त है ? आखिर हम दीन के प्रति इतने हीन कैसे हो जाते हैं ? क्या हम इतने सक्षम नहीं है कि अपनी हिस्से की सुख-समृद्धि का निमिष मात्र किसी जरूरतमंद के साथ बांट सकें ? तमाम अनुत्तरित प्रश्नों के झंझावतों के बीच सुबह कब हो गई पता नहीं चला ।
हस्बेमामूल सुबह का नाश्ता तैयार था ।
“अंश, दूध पीकर ये केले के छिलके डस्टबिन में डालना मत भूलना…” मंजू ने दूध का गिलास डाइनिंग टेबल पर रखते हुए कहा । अंश ने बरामदे में देखा आज “थैली नंबर तीन” नहीं थी । केले के छिलके थैली नंबर दो में डालकर वो जैसे ही पलटा सामने मंजू खड़ी थी ।
“मम्मी…” मंजू की आंखें पुरनम थीं । उसने अंश को गले लगा लिया ।
---000--- जनवाणी" में प्रकाशित
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