लेखन की प्रेरणा और किस्सागोई की जमीन / मिथिलेश्वर
मां की पुण्य तिथि 8 मई पर विशेष।
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मेरे साहित्य पर शोध करनेवाले छात्र तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए मेरा साक्षात्कार लेने वाले रचनाकार-पत्रकार मित्र अक्सर यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं कि लेखन की प्रेरणा मुझे कैसे और कहां से प्राप्त हुई तथा किन स्थितियों में मैंने किस्सागोई ग्रहण की? ऐसे सवालों का जवाब देते हुए अपनी मां कमलावती देवी की याद मुझे बरबस आ जाती है।
वह साठ का दशक था।तब अपनी मां के साथ हम छोटे भाई-बहन अपने गाँव बैसाडीह में रहते थे।उस समय हम भाई बहन एकदम छोटे थे।हममे कोई सयाना नहीं था।पिताजी आरा में प्रोफेसर थे।वह रविवार या अवकाश के दिनों में ही गाँव आते थे।उस समय कालेज शिक्षकों की आय एकदम सीमित थी,इस स्थिति में जीविका के लिए अपनी पुश्तैनी खेती पर ही हम निर्भर थे।चूंकि पिताजी अकेले थे, ऐसे में गांव पर हम छोटे भाई बहनों की परवरिश के साथ मां खेती की देखभाल भी करती थी।
उस समय मां मेरे गांव की पहली पढी-लिखी महिला थीं।रामचरितमानस तो वे इतनी बार पढ़ चुकी थीं कि अधिकांश चौपाईयां उन्हें कंठस्थ थीं।उन दिनों हम मां के साथ अपने घर के प्रवेशद्वार वाले कमरे में ही अधिक रहते थे।उस कमरे से गांव की गली में आने-जाने वालों कीआहट हमें मिलती रहती थी तथा अपने घर के आंगन को भी हम देखते रहते थे।मां मेरे गांव की बहू थीं, इसलिए गांव के बड़े-बुजुर्गों के समक्ष उन्हें परदे में रहना होता था।प्रवेशद्वार के उस कमरे में पल्ले की ओट में बैठी मां जब रामचरितमानस का सस्वर पाठ करती थीं, तब मेरे पड़ोस के अनेक बड़े-बुजुर्ग मेरे दरवाज़े पर बनी सीमेंटेड कुर्सियों पर बैठ कर उसे सुनते थे।ऐसे में मेरी माँ की तारीफ करते वे नहीं थकते - "बहू हो त़ो ऐसी।"
उस समय बचपन में अपनी मां की सबसे बड़ी विशेषता मुझे लोककथाओं की उनकी जानकारी को लेकर जान पड़ती।इस बात से मैं अपार खुशी का अनुभव करता कि मेरी माँ लोककथाओं की भंडार हैं।लोककथाओं का अकूत खजाना उनके पास है।ऐसी-ऐसी हैरतअंगेज, मर्मस्पर्शी और रोचक लोककथाएं कि उस दुनिया में हम डूब-डूब जाते ।जब वे सुनाने लगतीं तो अपना सुधबुध खो तन्मय हो हम उसमें लीन हो जाते थे।संभवतः मां अपने मायके से ही लोककथाओं की वह दुनिया लेकर आई थीं।
उस बचपन में हम सभी भाई-बहन मां के साथ एक ही कमरे में सोते थे।फिर विस्तरे पर गिरते ही मां से लोककथाओं की हमारी फरमाइश शुरू हो जाती।बस,मां अपनी सरस और रोचक शैली में सुनाना शुरू कर देतीं।उनके सुनाने का लहजा ऐसा होता कि हमारी आंखों के समझ उन कथाओं के दृश्य, घटनाएं और पात्र एकदम सजीव नजर आते रहते।फिर उन कथाओं की दुनिया में रमते-विचरते हुए हमारी आंख कब लग जाती, हमें पता तक नहीं चलता।शायद पिताजी की अनुपस्थिति में गांव पर असुरक्षा और अकेलेपन का एहसास हमारे बाल मन पर न पड़े, इस उद्देश्य से भी अपनी लोककथाओं में मां हमें बांधे रहतीं।उस समय मेरे ऊपर तो मां की लोककथाओं का ऐसा आकर्षण कायम रहता कि दिन में भी वे जैसे ही मुझे फुर्सत में जान पड़तीं,मैं उनके पास जा बैठता और लोककथाएं सुनने लगता।
स्कूल में पढ़ते हुए जब मैं बड़ा होने लगा और अपने ग्रामीण जीवन की ज्यादतियों,विसंगतियों और अजीबोगरीब स्थितियों पर अभिव्यक्ति का दबाव महसूस करने लगा तब सहसा मेरे अन्दर से कहानियां फूटने लगीं।कहने की आवश्यकता नहीं कि मां की लोककथाओं ने ही मेरे अन्दर कथाकार के बीज बो दिए थे तथा मेरे संवेदनशील मन में किस्सागोई की जमीन कायम कर दी थी।भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित अपनी आत्मकथा "पानी बीच मीन पियासी" में इस पर विस्तार से लिख चुका हूँ।यहाँ प्रसंगवश मां का उल्लेख करना पड़ा।इस दौरान मां की स्मृतियाँ मेरे मन में ताजा हो उठी हैं।उनकी स्मृतियों को सादर नमन।
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