आज बिहार के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं अध्यापक प्रो. सुरेन्द्र स्निग्ध की पुण्यतिथि है।
उनका चले जाना साहित्यिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक क्षति है, जिसकी भरपायी क्या साहित्य-संस्कृति विरुद्ध समय में आसान है? विद्याभूषण लिखते हैं – सुरेन्द्र स्निग्ध के साहित्यिक-कर्म और जीवन-कर्म में कोई द्वैत न था। वे जो लिखते थे, जो वर्ग में पढ़ाते थे कमोबेश निजी जिन्दगी में वैसे ही थे। सत्य, संघर्ष और प्रेम उनके जीवन का दर्शन था और अपने साहित्य में वे इसी जीवन-दर्शन को ’रचते-गढ़ते‘ रहे। ऐसे संक्रांत समय में जब सच को पूरी निडरता और बेलौसपन के साथ अभिव्यक्त करनेवालों की संख्या घटती जा रही है या वे रूढ़िग्रस्त शक्तियों के प्रहार और आक्षेप से खामोश कर दिए जा रहे हैं, उनका यूँ अचानक चले जाना किसी हादसे से कम नहीं है। सर्वेश्वर ने ठीक ही कहा है-
“तुम्हारी मृत्यु में
प्रतिबिम्बित है हम सबकी मृत्यु
कवि कहीं अकेला मरता है!”
साभार नरेंद्र कुमार
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