वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस की एक साथ बात करें तो दोनों में कवि श्री राम की कथा ही कह रहे होते हैं। जैसे ही इन्होंने राम की कथा को आम जन तक पहुँचाने का प्रयास किया, वैसे ही इनका खुद का नाम भी अमर हो गया! अब अगर चाहें भी तो रामायण कहते ही वाल्मीकि या रामचरितमानस कहते ही तुलसीदास याद न आएं ये असंभव है। ये एक बार नहीं कई बार हुआ है। अच्छे ढंग से लिखने के बदले, अपनी मर्जी से तोड़ने-मरोड़ने, उसमें कहीं महाभारत तो कहीं दूसरी अनसुनी कहानियां घुसेड़ने वाले आज कल के लेखक भी इसके नाम पर अच्छी खासी प्रसिद्धि (और मुद्रा) बटोर ले जाते हैं।
जहाँ नतीजे ऐसे साफ़, उदाहरणों में दिखें वहां अगर कोई पूछे कि आज के समय में इसे पढ़ने, लिखने या सुन लेने का क्या फायदा? उसे मुस्कुराकर टाल देना चाहिए। आकार की दृष्टी से देखें तो दोनों ग्रंथों में बहुत अंतर है। जहाँ वाल्मीकि की रामायण बहुत वृहत है, तुलसीदास की रामचरितमानस उससे बहुत छोटी होती है। समय काल के हिसाब से दोनों में हजारों साल का अंतर है। तुलसी के काल तक वाल्मीकि के लेखन के आधार पर अनेकों रचनाएँ लिखी जा चुकी थीं। उनकी भाषा भी संस्कृत नहीं इसलिए उनके किये को अर्थ का अनुवाद और फिर उसमें कुछ प्रसंगों का बदलाव माना जा सकता है।
वो वाल्मीकि की रचना पर ही आधारित है, ऐसा मान लिया जाता, तुलसीदास को ये अलग से लिखने की जरूरत नहीं थी। संभवतः तुलसीदास की नैतिकता के मापदंड आजकल के हिन्दी लेखकों जैसे नहीं थे इसलिए वो शुरुआत में ही स्पष्ट लिख देते हैं कि उन्होंने आधार किसे माना है। एक भाषा से दूसरी भाषा में करते समय मूल लेखक का नाम गायब नहीं करते। जिस व्यक्तित्व तो इन दोनों कवियों ने अपनी रचना के केंद्र में रखा, उन्हें देखें तो एक बात स्पष्ट है कि राम पूर्व के काल में मत्स्य न्याय चल जाता था। जिसके पास लाठी है, भैंस भी उसी की होगी वाला जंगल का कानून था।
अगर किसी को आपकी पूजा पद्दतियों, आपके यज्ञ करने पर आपत्ति है तो वो मारीच की तरह उसमें हड्डियाँ फेंककर जा सकता था। अगर किसी को आपके रहने के क्षेत्र अपने क्षेत्र से ज्यादा हरे-भरे, पशु-पक्षियों से भरे, रमणीय लगते हैं तो वो ताड़का की तरह जबरन घुसपैठ करके वहां बस सकता था। अगर किसी को अपनी पत्नी के अलावा दूसरों के घरों की स्त्रियाँ पसंद आ जाएँ तो वो रावण या बाली की तरह उन्हें उठा कर ले जा सकता था। श्री राम धर्म को व्यक्ति से पहले रखते हैं, स्वयं से भी आगे। यही वजह है कि जब “रावन रथी विरथ रघुवीरा” देखकर विभीषण अधीर होने लगते हैं तो तुलसीदास राम के रथ के रूप में धर्म के लक्षणों की पुनःस्थापना कर देते हैं।
तुलसीदास भक्ति काल के कवि हैं तो उनका ग्रन्थ जहाँ भक्ति से सराबोर है, वहीँ वाल्मीकि के रामावतार मर्यादापुरुषोत्तम हैं, उनके गुणों की अपेक्षा आम आदमी से की जा सकती है। दोनों की बात इसलिए क्योंकि न पढ़ने से कई समस्याएँ हैं। उदाहरण के तौर पर वाल्मीकि रामायण या किसी “लक्ष्मण-रेखा” की बात नहीं करता। तो कई बार मर्यादा लांघने के लिए जो लक्ष्मण-रेखा पार करना कहा जाता है, उसका सन्दर्भ रामचरितमानस का लंका कांड (रावण-मंदोदरी संवाद) होगा। कई बार लोग हनुमान चालीसा को रामचरितमानस का ही कोई हिस्सा “मान” लेते हैं। वो भी रामचरितमानस में नहीं आता।
कथा का एक क्रम में होना रामायण कहलाने के लिए आवश्यक है इसलिए कम्ब रामायण होती है लेकिन तुलसीकृत रामायण नहीं कह सकते। उनकी रामकथा का नाम रामचरितमानस ही रहेगा। काण्डों के नाम में जहाँ राम-रावण युद्ध होता है उसे वाल्मीकि युद्ध काण्ड कहते हैं और तुलसीदास लंका कांड। वाल्मीकि के सुन्दरकाण्ड में वीभत्स, रौद्र जैसे रस आयेंगे लेकिन तुलसीदास की भक्ति इसे एक दो बार भी उभरने नहीं देती। यानी सीधे तौर पर कहा जाए तो भावना बेन नाजुक होने पर वाल्मीकि रामायण पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ऐसे में रामचरितमानस ठीक रहेगा।
बाकी चर्चा इसलिए क्योंकि दोनों ग्रन्थ हमारे हैं, इसलिए उनपर बात भी हमें ही करनी होगी। अंडमान के आदिवासियों की तरह आत्मा-चोर गिद्धों को तीर नहीं मारेंगे तो कब नोच भागे इसका कोई ठिकाना नहीं!
जब 1975 में “रामकथा” पर आधारित “दीक्षा” का प्रकाशन हुआ, तभी साहित्य जगत को पता चल गया था कि एक और यशस्वी लेखक का उदय हो चुका है। अब इस काल को “नरेंद्र कोहली युग” कहे जाने का आग्रह भी जोर पकड़ता जा रहा है। सांस्कृतिक पुनःजागरण के इस दौर में कई ऐसे उपन्यास लिखे गए जो कि परंपरागत, या स्थापित मान्यताओं के खिलाफ जाते थे। नरेंद्र कोहली के नायक-नायिकाएं उपन्यास लेखन के मान्य तरीकों से नहीं गढ़े गए थे। वो आम जन की भावनाओं में बसने वाले वैसे नायक-नायिकाएं थीं, जिनपर खुद को “मास” से अलग “एलिट क्लास” का मानने वाला उस दौर का लेखक लिखता ही नहीं!
“मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-संभव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है।” हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने नरेंद्र कोहली के बारे में 1976 में लिखा था। तो क्या नरेंद्र कोहली अपने उपन्यासों में कल्पना का प्रयोग नहीं करते थे? करते थे! लेकिन विदेशियों की फेंकी हुई बोटियों प र पलने वाले टुकड़ाखोरों की तरह वो अपनी कल्पना को प्रबल दिखाने के लिए मूल कथा से छेड़-छाड़ नहीं करते थे। उदाहरण के तौर पर “अभिज्ञान” देखें तो शुरुआत करते ही आपको पता चल जाता है कि ये श्री कृष्ण और सुदामा की जानी पहचानी सी कहानी है।
लेखक पूरी कहानी में कोई बड़ा बदलाव नहीं करते। मूलतः कहानी वही है जो हम सभी जानते हैं। इसके बाद भी करीब डेढ़ सौ पन्नों में नरेंद्र कोहली सुदामा की कहानी के जरिये कर्मयोग के सिद्धांत बता जाते हैं। लेखन की उपन्यास, नाटक जैसी जानी पहचानी विधाएँ हों, या संस्मरण जैसे कम छुए जाने वाले क्षेत्र, नरेंद्र कोहली सभी में लिखते रहे। अगर उनकी प्रसिद्धि की बात करें, तो उनके लिए प्रसिद्धि “रामकथा” से आई थी। बिना मूल कथानक में कोई परिवर्तन किये वो रामकथा को “अभ्युदय” के रूप में लिखने से आई। दो खण्डों में लिखे इस उपन्यास की कई नामी-गिरामी लेखकों ने भी प्रशंसा की है।
हम उनका लेखन देखते समय उनके लिखे 'वसुदेव' को देखते हैं। ये उपन्यास श्री कृष्ण के पिता वसुदेव और उनके संघर्ष की कहानी है। वसुदेव अपने रण में विजयी नहीं हुए थे। उनके हिस्से की लड़ाई को उनके पुत्र आगे बढ़ाते हैं। यानि कहानी का मुख्य पात्र परंपरागत अर्थों में नायक ही नहीं कहा जा सकता! इसके बाद भी इस उपन्यास की पाठक को पकड़े रखने की क्षमता देखने लायक है। उस दौर और आज के दौर के संघर्ष कैसे एक ही जैसे हैं, ये समझने के लिए वसुदेव भी पढ़ी जा सकती है। वो स्वामी विवेकानंद के जीवन पर कई खण्डों में “तोड़ो कारा तोड़ो” लिखने के लिए भी ख्यात हैं।
हिंदी के साहित्य जगत में दूसरे पक्ष से लिखने वाले ऐसे लेखक का जाना अपूरणीय क्षति है। उम्मीद की जाये कि नए लेखक अब उनके स्थापित मापदंडों से बेहतर करने का प्रयास करेंगे।
एक आम भारतीय के लिए अपने धर्मग्रंथों की बात करना कठिन क्यों हो जाता है? कई बार इसकी वजह ये होती है कि भगवद्गीता जैसे ग्रंथों पर उसने जो चर्चा पढ़ी-सुनी होती है वो धार्मिक होती है। इसकी तुलना में जो लोग उसके बिरोध में तर्क सुना रहे होते हैं वो आयातित विचारधारा के होते हैं, जिसने धार्मिक सहिष्णुता की उम्मीद बेमानी है। इनके तर्कों को सुनने के बाद नयी पीढ़ी भगवद्गीता देखना चाहेगी, इसमें शक है। जो जमातें आम तौर पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने को निंदनीय बताती हैं, उन्होंने ही पूर्वाग्रह तो पहले ही नयी पीढ़ी के मन में बिठा दिए! तुलनात्मक रूप से धर्मों और दूसरे छोटे-मोटे मजहब-रिलिजन की तुलना ना पढ़ने के कारण यहाँ धर्मगुरुओं का “प्रवचन” भी कोई ख़ास काम नहीं आता।
ऐसी जगहों पर एमवी नाडकर्णी जैसे लेखकों की किताबें काम आ जाती हैं जो कि “इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल एंड इकनोमिक चेंज” जैसी संस्थाओं में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। वो अर्थशास्त्री हैं और मुख्य रूप से कृषि और प्रयावरण सम्बन्धी अर्थशास्त्र पर काम करते हैं। उनके लम्बे चौड़े से रेज्यूमे को छोड़कर आइये देखते हैं कि उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा क्या है। नाडकर्णी चर्चा करते हैं कि भगवद्गीता है क्या? आधुनिक समाज के लिए इसका कोई औचित्य बचता भी है या नहीं? इन प्रश्नों पर बात करने के बाद वो उन नैतिक मूल्यों पर आते हैं जिनकी चर्चा भगवद्गीता में की गयी है। भगवद्गीता के दार्शनिक और अध्यात्मिक पक्षों पर भी वो थोड़ी चर्चा करते हैं।
इस किताब को अलग क्षेत्रों, जैसे कि बिज़नेस मैनेजमेंट या फिर वैज्ञानिक शोध के क्षेत्रों में कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है उसपर भी थोड़ी बात की गयी है। इसके अलावा वो उन तर्कों की बात करते हैं, जो अक्सर इसके विरुद्ध लिखे गए हैं। आंबेडकर, डी कौशाम्बी जैसे लेखकों ने जो तर्क भगवद्गीता के विरुद्ध प्रस्तुत किये हैं वो क्यों कमजोर हैं, इसपर चर्चा की गयी है। हाल के दौर में अमर्त्य सेन जैसे लेखकों ने जो भगवद्गीता की आलोचना की है, थोड़ी चर्चा उसपर भी है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि भगवद्गीता का अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए लिखी गयी किताब है, ये धार्मिक नजरिये से भगवद्गीता पढ़ने वालों के लिए कम काम की होगी। हाँ, ये और इस जैसी दूसरी पुस्तकें हिन्दी में नहीं आतीं।
अगर भगवद्गीता की चर्चा धार्मिक बैठकों के बाहर भी कहीं करते हों, तो फिर ये किताब पढ़िए। अगर आप पहले ही शंकरभाष्य या रामानुजभाष्य जैसे अध्यात्मिक ग्रन्थ पढ़ते हों, तो ये किताब आपकी रूचि की नहीं है। हमें नहीं लगता कि ये पुस्तक भगवद्गीता को केवल धार्मिक दृष्टि से देखने वालों के लिए ज्यादा काम की होगी। सभ्यताओं के संघर्ष के बीच बैठे भगवद्गीता देख रहे हों, तो इसे पढ़िए, अन्यथा जाने दें!
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित