रविवार, 31 मई 2020

समीक्षा -किताब गली / चंडीदत्त शुक्ला





किताब गली

हरिंदर सिक्का का उपन्यास ‘कॉलिंग सहमत’ प्रेम और जुनून का अलहदा दस्तावेज है, जिसमें सच्चाई की खुशबू है और कल्पना की उड़ान भी है। जिन पाठकों को फिल्म ‘राजी’ अच्छी लगी हो, वे उपन्यास जरूर पढ़ सकते हैं...




सिनेमा जैसी रोचक कथा



कॉलिंग सहमत

उपन्यासकार – हरिंदर सिक्का

प्रकाशक – पेंगुइन बुक्स, दिल्ली

मूल्य – 199 रुपए



मेघना गुलज़ार निर्देशित ‘राजी’ ने दर्शकों का भरपूर प्यार हासिल किया। चुस्त स्क्रीनप्ले और सधे निर्देशन की खूब तारीफ हुई और फिल्म सफल रही। हरिंदर सिक्का की किताब ‘कॉलिंग सहमत’ पर ही ये फिल्म आधारित है। मूल किताब पढ़ना कई मायनों में दिलचस्प है। सबसे पहले तो यही कि जिन लोगों ने फिल्म देखी है, वे किताब के उन हिस्सों का आनंद भी ले सकेंगे, जिनका सिनेमा में जिक्र तक नहीं है। लेखक ने ‘कॉलिंग सहमत’ में शब्दों के जरिए जिस तरह दृश्यों के कोलाज बनाए हैं, वे अपने आप में अनूठा चलचित्र गढ़ते हैं।

उपन्यास की कहानी फिल्म की कथा से भिन्न नहीं है, इसलिए उसका जिक्र करना पाठकों और दर्शकों, दोनों के लिए खुलासे और रसभंग जैसा होगा। मोटे तौर पर एक मासूम लड़की की दास्तां है। नाज़ुक तबियत के बावजूद ये नाजनीन देश की हिफाजत के लिए जान की बाजी लगाने और दुश्मन देश में जाकर जासूसी करने के खतरनाक कारनामे के लिए भी तैयार हो जाती है।

मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई हरिंदर सिक्का की किताब का अनुवाद उमा पाठक ने किया है। इस काम में वे ईमानदार रही हैं। हालांकि उमा मूल से बिल्कुल छेड़छाड़ नहीं करतीं, इसलिए कहीं-कहीं हिंदी वाक्य संरचना अटपटी हो जाती है। किताब में प्रूफ की कतिपय गलतियां हैं, जो अखरती हैं।

इन दिक्कतों के बावजूद, ‘कॉलिंग सहमत’ एक बार पढ़ने लायक जरूर है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं। सेना से गहरे जुड़ाव के चलते सिक्का के पास विश्वसनीय सूचनाएं हैं। दूसरे, कश्मीर के तनाव भरे माहौल में उपजे प्रेम से शुरू उपन्यास स्नेह, समर्पण, विश्वास, जुनून और बलिदान के नए पाठ पढ़ाता है। तीसरी खास बात- जब किसी कृति पर चर्चित फिल्म बन चुकी हो, तब उसे पढ़ना इस मायने में भी रोचक होता है कि आप इस बात का अध्ययन कर पाते हैं – स्क्रीनप्ले और कथा में कितना फर्क है? कथानक में कई मोड़ हैं, जो पाठक को लगातार रोमांचित करते हैं। सच ये है कि ‘कॉलिंग सहमत’ की कथा में बहुत कुछ बाकी रह गया है, जिस पर एक और फिल्म बनाई जा सकती है।

- चण्डीदत्त शुक्ल

रवि अरोड़ा की नजर से






जाएँगे कहाँ सूझता नहीं

रवि अरोड़ा

चलिये आज आपको एक पुराने गाने की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ । काग़ज़ के फूल फ़िल्म के इस ख़ूबसूरत गीत को कैफ़ी आज़मी ने लिखा और गीता दत्त ने गाया था । गीत के बोल थे- वक़्त ने किया क्या हसीं सितम ...जाएंगे कहाँ सूझता नहीं ,चल पड़े मगर रास्ता नहीं, क्या तलाश है कुछ पता नहीं, बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम...वक़्त ने किया...। अब आप पूछ सकते हैं कि आज यह गाना क्यों ? दरअसल सुबह श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के समाचार नेट पर  देख रहा था और पाया कि एक दो नहीं वरन दर्जनों ट्रेनें जानी कहीं होती हैं और पहुँच कहीं रही हैं । जी हाँ पूरी इकहत्तर श्रमिक ट्रेनें अनजाने शहरों में पहुँच गईं हैं। यही नहीं दो दिन में पहुँचने वाली ट्रेन को नौ नौ दिन लगे हैं । अब आप स्वयं ही तय करें कि एसे में भला किसे यह गीत याद नहीं आएगा- जाएँगे कहाँ सूझता नहीं ।

बेशक मोदी सरकार की ट्रेनें भी वैसी ही चल रही हैं जैसी ख़ुद सरकार चल रही है अथवा जैसा कैफ़ी साहब ने उपरोक्त गीत में बरसों पहले लिखा था । जैसे सरकार रोज़ अपना रूट बदलती है और जाना था जापान पहुँच गए चीन वाली स्थिति में है , कमोवेश यही हालत उसकी रेलगाड़ियों की भी हो रही है । मज़दूरों को लेकर गुजरात से बिहार पहुँचने वाली रेलगाड़ी उड़ीसा पहुँच रही है और गोरखपुर जाने वाली बनारस । बात रेलगाड़ियों के लेट पहुँचने अथवा ग़लत शहर जाने की भी नहीं है । इन गाड़ियों में बाहर का खाना ले जाने की अनुमति नहीं है और रेल मंत्रालय द्वारा मज़दूरों को समुचित खाना-पानी नहीं दिया जा रहा नतीजा  लोगबाग़ भूख प्यास से ट्रेनों में मर रहे हैं । स्वयं रेल मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि इन स्पेशल ट्रेनों में अब तक अस्सी लोगों की मौत हो चुकी है । रेलवे प्लेटफ़ार्म पर एक माँ की मौत के बाद उसके मासूम बच्चे द्वारा बार बार उसका कपड़ा हटा कर देखने के वीडियो ने न जाने कितने कठोर हृदय लोगों को भी रुलाया होगा । हालाँकि सरकार का दावा है कि ये तमाम मौतें भूख-प्यास से नहीं वरन पहले से ही बीमार लोगों की हुई हैं । अपनी खाल बचाने को अब सरकार यह भी कह रही है कि बच्चे, बूढ़े और गर्भवती महिलायें स्पेशल गाड़ियों में सफ़र ही न करें । हालाँकि उसके तमाम दावों में भी काफ़ी झोल हैं । कल रेल मंत्रालय ने दावा किया कि उसने अब तक 3840 स्पेशल ट्रेन चला कर 52 लाख लोगों को उनके घर पहुँचाया है और अब तक 85 लाख पैकेट खाने के और 1 करोड़ 25 लाख बोतलें पानी की मज़दूरों को बाँटी हैं । गाड़ी कितनी चलीं और कितने लोग घर पहुँचे इस दावे को स्वीकार कर भी लिया जाए तब भी स्वयं रेल मंत्रालय का आँकड़ा तो चुग़ली करता है कि यात्रियों को औसतन डेड पैकेट भोजन मिला जबकि उसका सफ़र दो से नौ दिन का रहा । डेड पैकेट यानि डेड वक़्त के भोजन में मज़दूरों ने नौ नौ दिन कैसे काटे होंगे , आप स्वयं अंदाज़ा लगा सकते हैं । नतीजा ट्रेनों में भूख-प्यास से मौतें हो रही है और नाराज़ मज़दूर स्टेशनों पर हंगामा और लूटपाट कर रहे हैं । यूट्यूब पर मज़दूरों के एसे वीडियो भरे पड़े हैं जिसने वे बता रहे है कि उन्हें दो दो दिन से खाना नहीं मिला और यदि गाड़ी खेतों के पास थोड़ी देर रुक जाए तो वे लोग कच्ची फ़सल तोड़ कर पेट भर रहे है । टायलेट में पानी न होने और स्टेशनों पर पानी न मिलने की शिकायतों के भी तमाम समाचार हैं ।

कहना न होगा कि कोरोना संकट से निपटने में सरकार की तमाम असफलताओं की फ़ेहरिस्त में सबसे ऊपर श्रमिकों का मुद्दा ही है । अव्वल तो उन्हें घर भेजने का फ़ैसला लेने में ही सरकार को दो महीने लग गए और और जब लाखों मज़दूर भूखे प्यासे सड़कों पर पैदल अपने घर जाने लगे तो सरकार को उनकी सुध आई । पैदल निकले कितने मज़दूर घर पहुँचे और कितने रास्ते में मर गए यह किसी को ख़बर नहीं । थुक्का फजीयत होते देख सरकार ने अब जो बसें और रेलगाड़ियाँ चलाईं वे भी नाकाफ़ी तो हैं ही साथ ही उनको लेकर अव्यवस्थाओं की ख़बरें भी कम दर्दनाक नहीं है । नतीजा करोड़ों लोग अब भी कहीं न कहीं फँसे हुए हैं और अपने घर पहुँचने के लिए सरकार का मुँह ताक रहे हैं । कैफ़ी साहब आपने ठीक लिखा था । बेशक ख़ूब गाल बजाई कर रहे हों मगर इस सरकार और उसकी गाड़ियों को कम से कम यह तो नहीं पता कि जाएँगे कहाँ ..  ।

लघुकथा -मेरी ढाल / सीमा मधुरिमा





मेरी ढाल ....

ऑफिस में सभी उसके बारे में बातें करते थे ...अक्सर लोगों की काना फूसि होने लगती जहाँ से वह गुजर जातीं ...पर पूजा को जाने ये सब क्यों अच्छा नहीं लगता था ...पहले ही दिन से वो उसके प्रति आकर्षित होने लगी थी शायद ईश्वरीय इक्षा होंगी ....जल्द ही दोनों बहुत अंतरंग सहेली बन गयीं l तीन महीने बीत गए थे पूजा उससे वो बात पूछने से कतराती रही पर उसके मन में पूछने का ज्वार हमेशा उठता ही रहता था l वो आपने नाम रूपा की तरह ही बेहद खूबसूरत थी और किसी भी उर्वशी और मेनका को सुंदरता में टक्कर देती थी उम्र से चौतीस पैतीस साल की होंगी l अपने अधिकारी की भी उस पर विशेष कृपा थी जो प्रत्यक्षतः समझ में भी आती थी ...एक दिन हिम्मत करके पूजा ने उससे पूछ ही लिया , " देख रूपा अगर बुरा न मान तो एक बात पूछना था तुझसे .....पर तू भरोसा रख बात मुझ तक ही रहेगी ,"
रूपा बड़े ही बिंदास लहजे में सतर्क होकर बोली , " हाँ तो पूछ न क्या पूछना हैं ....और तू निश्चिन्त रह तुझे सब बतायुंगी , "
पूजा धीमे स्वर में बोली , " असल में ऑफिस में सबसे सुना हैं वही तुझसे कन्फर्म करना चाहती थी ....मैं जानना चाहती थी की सच्चाई क्या हैं , "
रूपा , " क्या सुना हैं पूजा , साफ साफ बोल यूँ पेहलियाँ न बुझा , "
पूजा , " ये तेरे और अपने साहब मेहरा जी के बारे में जो सुन रही हूँ ....वो जैसे तुझसे हक से बात करते हैं तेरे सब काम में सपोर्ट करते हैं और भी बहुत कुछ ....पर मैं तेरे मुँह से सुनना चाहती हूँ ....,"
रूपा , " तो सुन मेरा उनके साथ अफेयर चल रहा हैं , "
पूजा , " पर रूपा तेरी दो बेटियाँ हैं और तुझपर उनकी जिम्मेदारी हैं ऐसे में ये सब , "
रूपा , " हाँ पूजा जानती हूँ अपनी जिम्मेदारी  .....ज़ब नौ साल की थी माँ छोड़ गयीं बाप ने दूसरा विवाह कर लिया और जो औरत मेरी नई माँ बनकर आयी थी उसकी आँखों में मैं हमेशा ही खटकती रही ....मैं और पढना चाहती थी पर सत्रह साल की उम्र में ही पैतीस साल के मुझसे दुगुने उम्र के आदमी के साथ जबरन व्याह दिया गया ....जिसने पहले दिन से ही मुझे जानवर के इलावा कुछ न समझा खूब दारू पिता और फिर मेरे शरीर को नोचता ..घर खर्च के पैसे भी न देता .. ..अक्सर ही मन में आत्महत्या के ख्याल आते ...इस बीच दो दो बेटियाँ भी आ गयीं मेरे पैरों में बेड़ियाँ डालने ...बेटियों के जन्म पर मुझे और सताने लगा बोला एक लड़का तक तो दे नहीं पा रही ....इतना सब कम न था आये दिन मेरे आँखों के आगे ही दूसरी औरतें लाता ....उफ्फ्फ्फ़ पूजा तुझे मैं क्या क्या बताऊं ...तू सुन नहीं पाएगी ...कहते कहते रूपा की आँखों से अनवरत अश्रुजल निकलने लगे और आवाज रुँधने लगीं ....फिर वो आगे बोली ....और फिर एक दिन ज़ब उसका पाप का घड़ा भर गया तो ...तो एक दिन अचानक ही हृदयघात से उसकी जीवन लीला खत्म हो गयी ....पर उसके जाते ही शायद मेरा सुख लिख दिया था किस्मत ने ...और फिर उसकी सरकारी नौकरी भी मुझे मिल गयी ...क्लेम के रुपयों से मैंने उस घर को भी खरीद लिया जिसका कभी किराया नहीं दे पाती थी ...और फिर बेटियों को अच्छे स्कूल में दाखिला करा दिया .....यहाँ ज़ब नौकरी में आयी तो मेहरा साहब की मेहरबानी मिली जिसे मैंने जानबूझकर एक आशीर्वाद की तरह लिया ...मेहरा साहब आज मेरे और समाज के बीच एक ढाल की तरह हैं ...मेरे घर आते जाते रहते हैं जिससे अड़ोस पड़ोस वालों की बुरी निगाहों से मैं और मेरी दोनों बच्चियां बची रहती हैं ...हाँ कभी कभी मेहरा जी के अपने परिवार का ख्याल आता है तो दुख लगता है और मन दुखी हो जाता है ....फिर मन में यही ख्याल आता है की इसमें मेरी क्या गलती ....जिसे अपनी पत्नी से बेवफाई करनी ही है तो मै नहीं हूँगी तो कोई और होगा  और मेहरा जी मेरी बेटियों को बाप सा प्यार ही देते हैं , "
पूजा , "उफ्फ्फफ्फ्फ़ तेरा जीवन तो दुखों का एक पहाड़ है रूपा ...तुझे देखकर ऐसा नहीं लगता था की कितना कुछ समेटे बैठी है अपने भीतर , "
रूपा , " हाँ पूजा ...मेरा पति अपनी नौकरी अपना बॉस अपनी बेटियाँ सब मुझे दे गया एक जिम्मेदारी की तरह ....पर उसमे मैंने अपना वो सुख भी तलाश लिया जिसकी चाहत किसी भी स्त्री की एक नैसर्गिक जरूरत भी है , "
पूजा दृढ निश्चयी रूपा का चेहरा देख थी थी जिसपर एक अजीब सा तेज झलक रहा था lll
सीमा"मधुरिमा"
लखनऊ !!!

लघुकथा / सीमा मधुरिमा





लघुकथा
समाज बड़ा की माँ का प्रेम

"ये क्या कह रही हो माँ , मैं तुम्हारा रामु बोल रहा हूँ ....वही रामु जिसको एक नजर देखने के लिए कितनी मिन्नतें करती हो ...आज ज़ब मै पांच सौ किलोमीटर इस पैर से पैदल चलकर आया हूँ  ..भूखा भी हूँ और प्यासा भी तुम्हारे पास आना चाहता हूँ तुम्हारे गोद में सर रखकर बहुत रोना चाहता हूँ और तुमसे क्षमा माँगना चाहता हूँ तुम्हारे कितना मना करने पर भी मैं शहर के चमक के आगे नहीं माना और दर दर की ठोकरे खाने चला गया .....बहुत भूखा हूँ माँ सबसे ज्यादा तो तेरे प्यार का भूखा हूँ  ....ऐसे में तुम इतनी कठोर कैसे हो गयी माँ बताओ ..  बताओ न माँ , "
उधर से माँ की आवाज आयी , " बेटे मेरे लाल ....मेरे जिगर के टुकड़े  ...तू मुझे गलत मत समझ ...आज जो विकट परिस्थिति आन पड़ी हैं यही तेरे माँ की और तेरी भी असली परीक्षा की घड़ी हैं ....आज माँ बेटे के प्यार से बढ़कर धरती माँ का प्यात हैं हमारी इस गावं का प्यार हैं ....तेरे अपने लिए भी यही ठीक हैं .  ...देख हमारी यशस्वी मुख्यमंत्री जी ने जो सेंटर बनवाया हैं वही चौदह दिन का समय बीता ले तब ही गावं में पैर रखना .....देख प्रभु श्री राम ने तो अपनी माँ के कहने से चौदह साल बीता लिया था वो भी वन में तुम अपनी माँ के कहने से चौदह दिन नहीं गुजार सकते ...मैं नहीं चाहती मेरा बेटा किसी के भी बीमारी का कारण बने ...तू समझने का प्रयास कर मेरे लाल ....ईश्वर न करे अगर तुझे वो बीमारी हो ....पर अगर ऐसा होगा तो पूरा गावं ही चपेट में आ जाएगा  , "
रामु ने उत्तर दिया ...." माँ शायद तुम ठीक कहती हो ....मैं बेहद डरा हुआ हूँ इसलिए तुम्हारी छाया में आना चाहता था ..  तुम निश्चिन्त रहो अब मैं तुम्हारा मुँह चौदह दिनों बाद ही देखूंगा ....और हाँ घर में किसी से न बताना की मेरी तुम्हारी बात हुयी हैं , " कहकर रामु ने संतोष की साँस ली और उस शिविर को ओर चल पड़ा जो उसकी आँखों के समक्ष धुंधला सा दिखाई दे रहा था !!!!

सीमा"मधुरिमा"
लखनऊ !!!

सोमवार, 25 मई 2020

वेश्या व्यथा / महाकवि फेसबुकिया बाबा






कोरोना काल में वेश्या व्यथा
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इस जिंदगी से अच्छी
तो बिकी जिंदगी थी
साठ दिन से ग्राहकों
का नाज़ुक इंतजार
बिक्री बाकी है

मेरे बिकने में शामिल है
मेरी भूख
उम्मीदों की साँसें
मेरे बिकने में शामिल है
मेरा गरीब बाप
मेरी मजबूर माँ

मेरे बिकने में शामिल है
शहर कोतवाल
वो सभी रईस
जिनकी आदमियत
फना हो गई है

मेरे बिकने में शामिल है
वो  ठेकेदार
जिसने मुझे
बच्ची से नगर वधू
बना दिया

मेरे बिकने से
मिलती है
मेरे परिवार को रोटी
मेरी माँ को दवाई
मेरी बहन को कपड़े
और मुझे मिलती है
तसल्ली
झूठी ही सही।

क्या कहूँ / महाकवि वाट्स एप्प महाराज



*तुझे क्या कहूं ?*
*बीमारी कहूं कि बहार कहूं*
*पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं*
*संतुलन कहूं कि संहार कहूं*
*कहो तुझे क्या कहूं*
मानव जो उदंड था
पाप भी  प्रचंड था
सामर्थ का घमंड था
प्रकृति को करता खंड खंड
नदियां सारी त्रस्त थी
सड़के सारी व्यस्त थी
जंगलों में आग थी
हवाओं में राख थी
कोलाहल का स्वर था
खतरे  मे हर जीवो का घर था
फिर अचानक तू आई ?
मृत्यु का खौफ लाई ?
मानवों को डराया
विज्ञान भी घबरा गया  ?
लोग यूं मरने लगे ?
खुद को घरों में भरने लगे
इच्छा  को सीमित करने लगे
प्रकृति से डरने लगे
अब लोग सारे बंद है
नदियां भी स्वच्छंद है
हवाओं में सुगंध है
वनों में आनंद है
जीव सारे मस्त हैं
वातावरण भी स्वस्थ है
पक्षी स्वरों में गा रहे
तितलियां इतरा रही
*अब तुम ही कहो तुझे क्या कहूं?*
*बीमारी कहूं कि बहार कहूं*
*पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं*
*संतुलन कहूं कि संहार कहूं*
*कहो तुझे क्या कहूं.?*

शनिवार, 23 मई 2020

बिहारी होने पर गर्व है क्योंकि.......







प्रस्तुति - अमिताभ सिंह

बिहार -जहाँ भगवान राम की पत्नी सीता का जन्म हुआ
बिहार -जहाँ महाभारत के दानवीर करण का जन्म हुआ
बिहार - जहाँ सबसे पहले महाजनपद बना!
बिहार - जहा बुद्ध को ज्ञान मिला
बिहार -जहाँ भगवान महावीर का जन्म हुआ
बिहार -जहाँ सिखों के गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म हुआ
बिहार - जहाँ के राजा चन्द्रगुप्त मौर्या से लड़ने की हिम्मत सिकंदर को भी नही हुई
बिहार - जहाँ के राजा महान अशोक ने अरब तक हिंदुस्तान का पताका फहराया
बिहार - राजा जराशंध,पाणिनि(ज
िसने संश्कृत व्याकरण लिखा )
आर्यभट, चाणक्य(महान अर्थशात्री ) रहीम, कबीर का जन्म हुआ !
बिहार - जहाँ के ८० साल के बूढ़े ने अंग्रेजो के दांत खट्टे कर दिए (बाबु वीर कुंवर सिंह )
बिहार - जिसने देश को पहला राष्ट्रपति दिया
बिहार - जहाँ के गोनू झा के किस्से पुरे हिंदुस्तान में प्रशिद्ध है !
बिहार - जहाँ महान जय प्रकाश नारायण का जन्म हुआ !
बिहार - जहाँ भिखारी ठाकुर (विदेशिया) का जन्म हुआ !
बिहार - जहाँ शारदा सिन्हा जैसी महान भोजपुरी गायिका का जन्म हुआ !
बिहार - जहाँ - स्वामी सहजानंद सरस्वती, राम शरण शर्मा, राज कमल झा ,
विद्यापति, रामधारी सिंह‘दिनकर' रामवृक्ष बेनीपुरी, देवकी नंदन खत्री,
इन्द्रदीप सिन्हा, राम करण शर्मा, महामहोपाध्याय पंडित राम अवतार शर्मा,
नलिन विलोचन शर्मा, गंगानाथ झा, ताबिश खैर, कलानाथ मिश्र, आचार्य रामलोचन सरन, गोपाल सिंह नेपाली, बिनोद बिहारी वर्मा, आचार्य रामेश्वर झा
राघव शरण शर्मा, नागार्जुन आचार्य जानकी बल्लभ शाश्त्री जैसे महान लेखको का जन्म हुआ !
बिहार - जहाँ बिस्स्मिल्लाह खान का जन्म हुआ
बिहार - जहाँ आज भी दिलो में प्रेम बसता है
बिहार - जहाँ आज भी बच्चे अपने माँ - बाप के पैर दबाये बिना नही सोते
बिहार - जहाँ से सबसे ज्यादा बच्चे देश का सबसे कठिन परीक्षा u .p .s .c. और IIT पास करते है
बिहार - जहाँ के गाँव में आज भी दादा दादी अपने बच्चो को कहानिया सुनाते है
बिहार - जहाँ आज भी भूखे रह के अतिथि को खिलाया जाता है
बिहार - जहाँ के बच्चे कोई सुविधा न होते हुए भी देश में सबसे ज्यादा सरकारी नौकरी पते है !
हम इसी बिहार के रहने वाले हैं !
बिहार -जहां लोगों ने कोरोना संक्रमण के संकटग्रस्त समय में पूरे भारत को 🚶 पैदल ही नाप दिया,महामारी में भी बिहारी मजदूरों ने सरकार को भी स्वावलम्बन का मतलब बता दिया।।
तो क्यों न करे खुद के बिहारी होने पर गर्व !
और जो नही है वो जानकारी तो जरूर रखे।।
आखिर भारत के बाहर जाके तो बोल ही सकते है।।
जय बिहार तय बिहार।।
🌹🌹🌹🙏🙏🙏🌹🌹🌹

गुरुवार, 21 मई 2020

मुन्नवर राणा की गजल




बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना
आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना

एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना

सिर्फ़ बच्चों की मोहब्बत ने क़दम रोक लिए
वर्ना आसान था मेरे लिए बे-घर होना

हम को मा'लूम है शोहरत की बुलंदी हम ने
क़ब्र की मिट्टी का देखा है बराबर होना

इस को क़िस्मत की ख़राबी ही कहा जाएगा
आप का शहर में आना मिरा बाहर होना

सोचता हूँ तो कहानी की तरह लगता है
रास्ते से मिरा तकना तिरा छत पर होना

मुझ को क़िस्मत ही पहुँचने नहीं देती वर्ना
एक ए'ज़ाज़ है उस दर का गदागर होना

सिर्फ़ तारीख़ बताने के लिए ज़िंदा हूँ
अब मिरा घर में भी होना है कैलेंडर होना

                                 #  मुनव्वर राना.

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बुधवार, 20 मई 2020

साजन घर नहीं आए /सुरेन्द्र ग्रोस - मुंबई




बरसन  लागे  कारे  बदरवा।
मोरे  साजन  घर  नहीं आए।।

रात  अंधेरी  बिजुरी  चमके
मोरा रह रह  जीया  घबराए
मोरे साजन  घर  नहीं  आए।।

उन  बिन  रैना काटन  लागे
मोहे   कैसन  नींदिया  आए‌
मोरे  साजन  घर नहीं  आए।।

जागत   सारी  रतिया   बीती
 मैं   बैठी  रही   दीप  जलाए
मोरे  साजन  घर  नहीं  आए।।


जा  बदरा जा  उनसे कहियो
अब  और  ना   मोहे  सताये
मोरे  साजन  घर  नहीं  आए।।

बरसन  लागे   कारे   बदरवा
मोरे  साजन  घर  नहीं  आए।।


- सुरेन्द्र ग्रोस
मुंबई।।



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सोमवार, 18 मई 2020

रवि अरोड़ा की नजर में



न ज्ञान न बुद्धिमत्ता

रवि अरोड़ा

पता नहीं किसने बताई थी मगर यह बात बचपन से ही दिमाग़ में बैठ गई कि ज्ञान नहीं भी हासिल कर सको तो कोई बात नहीं मगर बुद्धिमत्ता का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिये । सामने वाले को परखने का अपना पैमाना भी यही रहता है कि उसके पास नॉलेज अधिक है या विस्डम । कोरोना संकट के इस काल में मैं शर्त लगा कर कह सकता हूँ कि हमारे सत्तानशीं लोगों के पास न तो नॉलेज है और न ही विस्डम । नॉलेज यानी ज्ञान होता तो उन्हें पता होता कि यूँ रातों रात लॉकडाउन लगाने से करोड़ों ग़रीब गुरबा लोगों के लिये नारकीय हालात पैदा हो जाएँगे और यदि उनके पास विस्डम यानी बुद्धिमत्ता होती तो उन्हें दो महीने नहीं लगते इस करोड़ों लोगों की सुध लेने में ।

मेरे शहर के घंटाघर रामलीला मैदान में न जाने कहाँ कहाँ से आज दस हज़ार से अधिक प्रवासी आ जुटे । प्रदेश सरकार को अब इनकी सुध आई है और उन्हें स्पेशल ट्रेन से उनके जनपद भेज रही है । रामलीला मैदान की जो भी ख़बरें दिन भर मिलीं वह हिला देने वाली थीं । किसी ने बताया कि वहाँ आदमी पर आदमी चढ़ा हुआ है तो किसी ने बताया कि लॉकडाउन और सोशल डिसटेंसिंग की एसी धज्जियाँ उड़ रही हैं , जैसी अब तक़ किसी ने नहीं देखीं । किसी ने बताया कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के पास जारी करने के लिए सरकारी स्टाफ़ कम है तो किसी ने बताया कि बिलावजह काग़ज़ी कार्रवाई से श्रमिकों को हलकान किया जा रहा है । हालाँकि राहत भरे एसे समाचार भी मिले कि सिविल डिफ़ेंस के साथ साथ सेवा भारती के भी कार्यकर्ता इन श्रमिकों के खाने पीने की यथासंभव व्यवस्था कर रहे हैं । कई अन्य संस्थाओं के लोग भी बिस्कुट, पानी और जूस आदि की बोतलें बाँट रहे हैं । मगर मूल सवाल तो यही है कि एसी नौबत आई ही क्यों ?

देश भर से प्रवासी श्रमिकों की जो भी ख़बरें आ रही हैं वह साबित कर रही हैं कि मुल्क में लॉकडाउन एक मज़ाक़ बन कर रह गया है । रोज़ी-रोटी छिनने से अधिक श्रमिक ख़ुद को क़ैद कर लिए जाने से आक्रोशित हैं । सूरत में कई बार ये श्रमिक तोड़फोड़ और सड़क जाम कर चुके हैं । मथुरा में राज मार्ग पर आगज़नी और सहारनपुर में पुलिस से मुठभेड़ के समाचार भी सुर्खियों में हैं । कई स्थानों पर छुटपुट लूटपाट की भी ख़बरें आई हैं । पुलिस-प्रशासन द्वारा किये श्रमिकों के उत्पीड़न के वीडियो दिन भर सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते हैं । सड़कों और रेल की पटरियों पर मरने वालों की गिनती रोज़ बढ़ रही मगर नहीं बढ़ रही तो वह है इन श्रमिकों को उनके घर पहुँचाने की गति ।

देश का श्रमिक और ग़रीब गुरबा आदमी बहुत धैर्य वाला है । सरकार की बेवक़ूफ़ी को भी उसने अपना भाग्य समझ कर बर्दाश्त कर लिया । मगर वह एसा कब तक करेगा कहा नहीं जा सकता । सवाल तो मन में आता ही है कि श्रमिक वर्ग का धैर्य कहीं जवाब दे गया तो ? क्या हमारी सरकारें कल्पना कर पा रही है कि यह स्थिति तब कितनी विस्फोटक होगी ? समझ नहीं आता कि केंद्र और राज्य सरकारें सारे काम छोड़ कर सबसे पहले श्रमिकों की मदद ही क्यों नहीं करतीं ? सरकारी आँकड़े ही बताते हैं कि देश में 12617 यात्री ट्रेनें हैं और उनकी कुल क्षमता लगभग दो करोड़ लोगों को प्रतिदिन ढोने की है । राज्य सरकारों की बसें गिनें तो वह भी लाखों में हैं । क्यों नहीं सभी को श्रमिकों को ढोने पर लगा सकते ? दो दिन में सभी लोग अपने अपने घर पहुँच जायेंगे । कोई टिकिट न हो और न ही कोई रजिस्ट्रेशन हो , जिसे जहाँ जाना है जाओ । क्यों लाल फ़ीताशाही में भीड़भाड़ करते हो ? क्यों लम्बी लम्बी लाइनें , रजिस्ट्रेशन और पास का ड्रामा कर अपने ही हाथों सोशल डिसटेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाते हो ? माना ज्ञान का अभाव है मगर बुद्धिमत्ता भी कहीं गिरवी रख दी है क्या ?

कवि कविताएं और कोरोना काल / संजय कुंदन




कई लोग परेशान हैं कि कोरोना संकट के इस दौर में इतनी कविताएं क्यों लिखी जा रही हैं। ऐसा सोचने वालों के भीतर कहीं न कहीं यह भाव है कि कविता लिखना कोई दोयम दर्जे का काम है। यह तो कोई हल्की-फुल्की चीज है, मनोरंजन की चीज । बताइए, एक तरफ लोग इतनी मुश्किलें झेल रहे हैं और आप कविता लिख रहे हैं! ऐसा कहने वालों को यह नहीं मालूम कि संकट के दौर में ही सबसे ज्यादा कविताएं लिखी गई हैं। आपातकाल में सत्ता की तानाशाही के खिलाफ धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय और नागार्जुन जैसे प्रतिष्ठित कवि तो लिख ही रहे थे प्रायः हर शहर में कवियों की एक जमात खड़ी हो गई थी। बिहार में रेणु की अगुआई में सत्यनारायण, गोपीवल्लभ सहाय और परेश सिन्हा  जैसे कवि लगातार लिखकर आपातकाल का विरोध कर रहे थे। इसके अलावा कितने ही ऐसे कवि लिख रहे थे, जिनके नाम कोई नहीं जानता। नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय भी यही हाल था, जिसने हिंदी को वेणु गोपाल, कुमार विकल और आलोकधन्वा जैसे कवि दिए। आंदोलन में शामिल हर दूसरा व्यक्ति आंदोलन में अपनी भूमिका निभाने के साथ कविता भी जरूर लिख रहा था। थोड़ा पीछे चलें तो 1962 में भारत पर चीन आक्रमण के समय तो गांव-गांव में लोग तुकबंदियां करने लगे थे। इसी तरह 1943 में बंगाल के अकाल पर न जाने कितनी कविताएं लिखी गईं। वामिक जौनपुरी का यह गीत तो एक समय जन-जन की जुबान पर था- भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल। कोरोना का संकट किसी आपातकाल से कम है क्या? पूरी मानवता का भविष्य ही दांव पर लगा है। सत्ता की क्रूरता और पूंजी की तानाशाही इतिहास के अनेक काले अध्यायों  की याद दिला रही है। ऐसे में एक कवि चुपचाप रहे? उससे सड़क पर उतरकर भूमिका निभाने की अपेक्षा गलत नहीं है पर अगर वह ऐसा नहीं कर रहा तो क्या कविता भी न लिखे? जिस तरह कई कविताओं में हमें नक्सलबाड़ी और आपातकाल के दौर की तस्वीरें दिखती हैं, उसी तरह आज की कई कविताएं भावी पीढ़ी को कोरोना दौर के संघर्ष से परिचित कराएंगी। और कहने की जरूरत नहीं कि जो बात इतिहास छुपाता है, कविता उसे खोलकर बताती है। फिर  यह भी सही है कि हर कविता एक स्तर की नहीं होगी। लेकिन साधारण और खराब कविताओं के बीच से ही कुछ कालजयी कविताएं भी निकलेंगी।

शुक्रवार, 15 मई 2020

दिनेश श्रीवास्तव की दो दर्जन कविताएं




दिनेश श्रीवास्तव: दिनेश की कुण्डलिया
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        विषय- "योद्धा''

                        (१)


कहलाता योद्धा वही,तरकस में हों तीर।
धीर वीर गंभीर हो,जैसे थे रघुबीर।।
जैसे थे रघुबीर,राक्षसी वंश विनाशा।
उनसे ही तो आज,देश ने की है आशा।।
कहता सत्य दिनेश,न्याय का पाठ पढ़ाता।
सद्गुण से हो युक्त,वही योद्धा कहलाता।।

                         (२)

आओ अब तो राम तुम,योद्धा बनकर आज।
यहाँ'कॅरोना'शत्रु को,मार बचाओ लाज।।
मार बचाओ लाज,किए संग्राम बहुत हो।
वीरों के हो वीर,किए तुम नाम बहुत हो।।
करता विनय दिनेश,शत्रु से हमे बचाओ।
मेरे योद्धा राम!आज धरती पर आओ।।

                         (३)

करना होगा आपको,बनकर योद्धा वीर।
एक 'वायरस' शत्रु से,युद्ध यहाँ गंभीर।।
युद्ध यहाँ गंभीर,हराना होगा उसको।
एक विदेशी शत्रु,यहाँ भेजा है जिसको।।
'घरबंदी' का शस्त्र, हाथ मे होगा धरना।
लेकर मुँह पर मास्क,युद्ध को होगा करना।।

                       (४)


बनकर योद्धा राम ने,रावण का संहार।
जनक नंदिनी का किया,लंका से उद्धार।
लंका से उद्धार, युद्ध मे योद्धा बनकर।
हुई वहाँ पर लाल,रक्त से लंका सनकर।।
खड़े हुए थे राम,न्याय के पथ पर तनकर। 
और किया था प्राप्त,साध्य को साधक बनकर।।

                          (५)


 बैठे हैं जो आपके,मन में बने विकार।
योद्धा बनकर कीजिये, इनपर पहले वार।।
इनपर पहले वार,बड़े घातक होते हैं।
मन शरीर को नष्ट,करें,पातक होते हैं।।
 ये जो मनः विकार,आपके मन पैठे हैं।
 देना इनको मार,छुपे जो तन बैठे हैं।।

                       (  6)

               "तालाबंदी का विस्तार"

तालाबंदी का हुआ,कुछ दिन का विस्तार।
टूटेगा निश्चित यहाँ, जटिल संक्रमण तार।।
जटिल संक्रमण तार,तोड़कर दूर भगाना।
'सप्तपदी' की शर्त,हमे है यहाँ निभाना।।
कहता सत्य दिनेश,देश में छाई मंदी।
कितना मुश्किल काम,यहाँ पर तालाबंदी।।


                      दिनेश श्रीवास्तव
 
                      ग़ाज़ियाबाद


[17/04, 19:48] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एक गीत-सादर समीक्षार्थ

विषय-     "हिंद"

दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।

बना हिमालय रक्षक जिसका,
सागर है संरक्षक जिसका।
आओ इसका मान बढ़ाएँ,
इस पर अपना शीश झुकाएँ।

दो दो मेरे अपने नाम,इस पर हो जाएँ कुर्बान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-१

सतरंगा है देश हमारा,
जो मेरा है वही तुम्हारा।
घाटी घाटी पुष्प खिले हैं,
टूटे दिल भी यहाँ मिले हैं।

काश्मीर की घाटी तक है,फैला अपना यहाँ वितान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-२

कल कल करती नदियाँ बहतीं,
झंझावातों को हैं सहतीं।
झरनों के संगीत सुहाने,
मन करता है वहाँ नहाने।

सुंदरता का ताना बाना,कुदरत का है कार्य महान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-३

भिन्न भिन्न भाषा का देश,
इससे मिलता हमको क्लेश।
भाषा एक राष्ट्र की बिंदी,
वही हमारी प्यारी हिंदी।

भाषा एक राष्ट्र की अपनी,हिंदी का भी होता मान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिंद कहो या हिंदुस्तान।।-४

यहाँ देश में रंग अनेक,
रंग 'तिरंगा' केवल एक।
यहाँ एक है 'गान' हमारा,
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।

सभी यहाँ पर मिलकर गाएँ, जन गण मन अधिनायक गान।
दोनो मेरे प्यारे नाम, हिंद कहो या हिंदुस्तान।।

                      दिनेश श्रीवास्तव

                      १५ अप्रैल १.१५ अपराह्न
[17/04, 19:48] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एक गीत -

    "नीचे से मैं मरा हुआ"(मध्यम वर्ग)
  ------------------------------   

जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।
देता हूँ निर्भीक दिखाई,
अंदर से मैं डरा हुआ ।।

आगत और अनागत का डर,
हमको बहुत सताता है।
सपने बनकर नींद निशा में,
हमको बहुत रुलाता है।
बुझा हुआ अंदर से लेकिन,
ऊपर से मैं जला हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ ।।



कुछ भी नहीं पास है मेरे,
कैसे अपना कर्ज चुकाऊँ।
जिम्मेदारी बोझ बड़ी है,
कैसे अपना फर्ज निभाऊँ।
नीचे से मैं बिल्कुल खाली,
लगता ऊपर भरा हुआ ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ ।।


दिखने और दिखाने में ही,
जीवन मेरा बीत गया।
बाँट बाँट कर खुशियाँ अपनी,
बिल्कुल ही मैं रीत गया।
नीचे से  सूखा सूखा सा,
लगता ऊपर हरा हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।।

सबसे पहले कठिन समय तो,
मेरे ही जिम्मे आता।
अधिकारों से वंचित होकर
ठोकर भी पहले खाता।
ऊपर से मैं संभला लगता
नीचे से मैं गिरा हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।।

                 दिनेश श्रीवास्तव
[17/04, 19:48] Ds दिनेश श्रीवास्तव: दोहा छंद

     विषय -" वात्सल्य"


           "बाल रूप प्रभु राम"

प्रेम और वात्सल्य का,ऐसा अद्भुत रूप।
दिखा अवध में जब वहाँ, प्रगट हुए जग भूप।।-१

शिव भी मोहित हो गए,देखा राम स्वरूप।
धूल धूसरित गात को,किलकत बालक रूप।।-२

धुटनों के बल रेंगते,गिरते- पड़ते राम।
हुआ तिरोहित शोक तब,देखा छवि अभिराम।।-३

कभी गोंद दशरथ चढ़े,कभी मातु के अंक।
कभी खेलते धूल में,कभी लगाते पंक।।-४

उठत गिरत सँभलत कभी,देखत छवि जब मात।
पोंछत आँचल से तभी,रेणु लगी जो गात।।-५

नज़र उतारत हैं सभी,दे काज़ल की दीठ।
मातु सुलाती गोंद में,थपकी देती पीठ।।-६

माँ की ममता का यहाँ, कौन लगाए बोल।?
कौन बणिक इस धरा पर,सकता  उसको तोल।।?-७

बोल तोतली देखकर,नन्हीं सी मुस्कान।
फीके सारे मंत्र हैं,व्यर्थ वेद के ज्ञान।।-८

                    दिनेश श्रीवास्तव
[17/04, 19:48] Ds दिनेश श्रीवास्तव: जीवन अमूल्य
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 कुछ कुछ आज,
अहसास होने लगा है मुझे
जीवन-मूल्य का।
उन्हें देखकर
जो जेलों में बंद हैं,
पिंजड़े में बंद अपने तोते को देखकर,
उन शेरों को देखकर जो
चिड़िया घरों में कैद हैं।
सबको तो भोजन मिलता है,
मिलता है पानी और हवा भी,
उन्हें डॉक्टर भी और दवा भी,
फिर क्यों वो छटपटाते हैं
बाहर निकलने को-
अपने पिंजड़े और चिड़िया घरों से।
क्या स्वच्छंदता इतनी बहुमूल्य है?
क्या यह अतुल्य है?
फिर इसका क्या मूल्य है?
आज समझ आ गया और
जीवन  भा गया।
 जीवन और स्वच्छंदता का अंतर
आया समझ में।
 सत्य यही है कि-
जीवन का मूल्य
स्वच्छंदता के मूल्य से है
 अधिक मूल्यवान।
 क्योंकि-
  जीवन का अस्तित्व ही
होता है आधार
 समस्त पुरुषार्थों का।
आधार है वही-
सभी परमार्थों का।
बिना जीवन नहीं है
इनका कोई अर्थ।
सब कुछ है व्यर्थ।

फिर-
आइए!जीवन बचाएँ
जीवन देय नियमो को
अपनाएँ क्योंकि-
जीवन है अमूल्य।
इसका नहीं है-
कोई मूल्य।।


                 दिनेश श्रीवास्तव
[17/04, 19:48] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया छंद ---

विषय- नटखट


           "मेरे नटखट लाल"
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                      (१)

नटखट माखन लाल ने,फिर चोरी की आज।
सुनकर यशुमति को लगी,फिर से थोड़ी लाज।।
फिर से थोड़ी लाज,मातु को गुस्सा आया।
बाँध लला को आज,छड़ी को उन्हें दिखया।।
कहता सत्य दिनेश,बाँध दे जग को चटपट।
बँधे स्वयं भगवान,आज वो कैसे नटखट।।

                       (२)

जागो नटखट लाल अब,देखो!हो गई भोर।
गायें भी करने लगीं,तुम बिन अब तो शोर।।
तुम बिन अब तो शोर,बड़ी व्याकुल लगती हैं।
सुनकर मुरली तान,सदा सोती जगती हैं।।
कहता सत्य दिनेश, कर्म-पथ पर तुम भागो।
आलस को तुम छोड़,नींद से अब तो जागो।।

                    (  ३)

राधा ने चोरी किया,मुरली नटखट लाल।
बतियाने की लालसा,समझ गए वह चाल।।
समझ गए वह चाल,माँगते कृष्ण-कन्हैया।
मुस्काती यह देख,लला की यशुमति मैया।।
कहता सत्य दिनेश,कृष्ण तो केवल आधा।
तभी बनेंगे पूर्ण,मिलेंगी उनको राधा।।

                      (४)

आए नटखट लाल जब,यमुना जी के तीर।
चढ़े पेड़ ले वस्त्र को,गोपी भईं अधीर।।
गोपी भईं अधीर,किए नटखट तब लीला।
मन ही मन मुस्कात, गात जब देखें गीला।।
निःवस्त्र न हो स्नान,यही संकल्प कराए।
मेरे नटखट लाल,वस्त्र वापस दे आए।।

             दिनेश श्रीवास्तव

              ग़ाज़ियाबाद
[18/04, 08:31] Ds दिनेश श्रीवास्तव: मुक्तक
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 निज आत्मा में परमात्मा की,लगन लगाए रखता है,
अभ्यन्तर में भक्ति भाव की,ज्योति जलाए रखता है।
निज पर का अभिमान त्याग कर,समदर्शी हो जाता है,
शबरी,बिदुर और केवट सा, प्रियदर्शी हो जाता है।।

           दिनेश श्रीवास्तव
[23/04, 19:06] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया-    सादर समीक्षार्थ

विषय-       "वाणी"

                        (१)

वाणी ऐसी बोलिए, प्रथम कीजिए तोल।
शब्द शब्द हो संयमित,फिर मुख निकले बोल।।
फिर मुख निकले बोल, सदा सुखदायी होता।
मन का अंतर खोल,अन्यथा मानव रोता।।
कहता सत्य दिनेश,सुनो!जग के सब प्राणी।
तोल-मोल कर बोल,सदा ही मीठी वाणी।।

                 ( २)

करते मधुर प्रलाप हों,मीठी वाणी बोल।
उर अंतर में हो भरा,विष का केवल घोल।।
विष का केवल घोल,भरे हैं अंदर ऐसे।
वर्जित ऐसे लोग,पयोमुख गागर जैसे।।
अंदर बाहर एक,भाव समदर्शी धरते।
कहता सत्य दिनेश,नहीं वह धोखा करते।।

                     ( ३)

वाणी सच्ची बोलिए, पर इतना हो ध्यान।
सीधे लाठी मारकर,मत करिए अपमान।।
मत करिए अपमान,मधुरता कभी न छोड़ें।
जो करता अपमान,सदा उससे मुख मोड़ें।।
कहता सत्य दिनेश,नहीं अच्छा वह प्राणी।
कहता सच्ची बात,मगर कड़वी हो वाणी।।

                        (४)

वाणी में करतीं सदा,वीणापाणि निवास।
होता वाणी में वहीं,सुंदर सुखद सुवास।।
सुंदर सुखद सुवास,सदा वाणी हो जिसकी।
होती सदा सहाय, शारदा माता उसकी।।
करता विनय दिनेश,मातु!भर दो प्राणी में।
पावनता का अंश,सभी जन के वाणी में।।

              दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: दोहे-एकादश
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          'मन' की बात
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१- मन से मन की मानकर,मनन करें कुछ आप।
फिर जो कहता मन करें,मिटे मनः संताप।।

२- मन मलीन मत कीजिए, भरिए मन उत्साह।
मन जो मारा मर गया,पूरी हुई न चाह।।

३- मन ही मन का मीत है,करिए मन से प्रीत।
मन हारे तो हार है,मन जीते तो जीत।।

४- जीवन मे करिए नहीं,मन को कभी मलीन।
मुख के सारे तेज को,लेता है वह छीन।।

५- नहीं गीत संगीत है,मन जाए जब रीत।
मधु ऋतु भी लगने लगे,ज्यों प्रचंड हो शीत।।

6- मन मंदिर पावन बने,उत्तम रहें विचार।
हो प्रवेश मंदिर नहीं,कलुषित कभी विकार।।

७- अवगुंठन मन का खुले,यही परम है ज्ञान।
विषय भोग का अंत हो,योग साधना ध्यान।।

८- वशीभूत मन का हुआ,योगी योग अनर्थ।
हुई साधना फिर वहीं,समझो बिल्कुल व्यर्थ।।

९-मन 'लगाम' है जानिए,'रथ' को समझ शरीर।
बुद्धि 'सारथी' साथ मे,'रथी' आत्मा वीर।।

१०-इन्द्रिय पर अंकुश लगे,जब विवेक हो धीर।
वह लगाम को खींचकर,हरता मन की पीर।।

११-पवन-वेग से तेज है,मानस प्रबल अधीर।
चंचलता इसकी सदा,करती व्यथित शरीर।।

                      दिनेश श्रीवास्तव
                      ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: बाल-कविता

               "वीर बालक लव-कुश"
               -- ------------------------

लव-कुश दोनो जुड़वे भाई,
उनकी माता सीता माई।
राजा राम पिता थे जिनके,
बाल्मीकि से शिक्षा पाई।।

रोका अश्व यज्ञ का जाकर,
लड़े लखन जी फिर थे आकर।
दोनो में फिर युद्ध हुआ था,
सेना भगी अयोध्या जाकर।।

सभी राम की सेना हारी,
पड़ी अवध पर विपदा भारी।
बड़े सोच में राम पड़े फिर,
बच्चों से सेना क्यों हारी।।

बाँधी पूँछ समझकर बंदर,
हनुमान को समझ कलंदर।
भागी भागी सीता आईं,
कहीं चलो जी कुटिया अंदर।।

लवकुश को फिर कथा सुनाई,
सीता ने फिर बात बताई।
ये तो महावीर हैं बेटे!
इन्होंने ही लाज बचाई।।

लवकुश अवधपुरी तब आये,
दोनो मन ही मन हर्षाये।
पिता चरण रज लेकर दोनों,
राम नाम का भजन सुनाए।।

हम सब लव-कुश बनना सीखें,
मर्यादा में रहना सीखें।
बाधाओं से क्यों घबड़ाएँ,
कष्ट मिले तो सहना सीखें।।
 
         @दिनेश श्रीवास्तव

            ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एकादश दोहे   - सादर समीक्षार्थ

विषय     -  "स्वर"

           'जय जय हिंदी'
          -------------------

१- स्वर लहरी लहरे यहाँ, छेड़ो ऐसी तान।
भारत में गूँजे सदा, 'जय जय हिंदी' गान।।

२-स्वर व्यंजन की साधना,करते हैं सब लोग।
कविगण!मिलकर आइए, करते हैं हम योग।।

३-स्वर -लहरी उठती वहीं,बजता ताल मृदंग।
मन के झंकृत तार से,उठती तभी तरंग।।

४-स्वर से स्वर मिलता जहाँ, सुरसरि बहती स्नेह।
विना स्नेह सब व्यर्थ है,कंचन बरसत मेह।।

५-स्वर-व्यंजन के मेल से,अक्षर का हो ज्ञान।
अक्षर अक्षर ज्ञान से,हिंदी का सम्मान।।

६- स्वर की मलिका शारदे!,दे दो माँ बरदान।
तमस तिरोहित जगत का,मिटे सभी अज्ञान।।

७- स्वर में करती हैं जहाँ, वीणापाणि निवास।
वाणी में होता वहीं,सुंदर सुखद सुवास।।

८- स्वर को सदा निखारता, ध्यान योग अभ्यास।
आत्मतोष के साथ ही,जग को मिले उजास।।

९- स्वर से स्वर मिलता जहाँ, छिड़े सुरीला तान।
बने गीत संगीत तब,गाता सकल जहान।।

१०- स्वर साधक की साधना,जाती कभी न व्यर्थ।
स्वरविहीन जीवन कहाँ,पाता कोई अर्थ।।

११- 'पंच' ,'षड्ज', 'धैवत', जहाँ, हों 'निषाद' के साथ।
'ऋषभ' 'मध्य' 'गांधार' ही,सप्त सुरों के हाथ।।

( ये सभी सात सुर होते हैं)


                      @दिनेश श्रीवास्तव
   
                           ग़ाज़ियाबाद
         
                            २७ - ४ - २०२०
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया-सादर समीक्षार्थ

                     ( १)

कैसा होकर रह गया,चारित्रिक परिवेश।
मिला गर्त में आज है,अपना भारत देश।

अपना भारत देश,देखकर मन घबड़ाता।
कहीं कहीं तो रेप, कहीं रिश्वत है भाता।।

कहीं डकैती लूट,कहीं पर चलता पैसा।
कहता सत्य दिनेश, देख लो!भारत कैसा।।

                     (  2)

करिए चिंतन राष्ट्र की,उसके हित की बात।
अनहित कभी न सोचिए,नहीं घात प्रतिघात।।

नहीं घात प्रतिघात,भाव मन मे धरना है।
इसी लिए अब आज,हमें जीना-मरना है।।

 कोई हो अवरोध,मार्ग में उसको हारिए।
करता विनय दिनेश,राष्ट्र-हित चिंतन करिए।।


              दिनेश श्रीवास्तव
     
              ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: ग़ज़ल
          ----------

सोजे वतन का वक्त है,महफ़ूज रहना चाहिए,
कुछ ज़ख्म ताज़े हैं अभी,कुछ दर्द सहना चाहिए।

वक्त होता है कहाँ पर,एक सा इस जिंदगी में,
होता तकाज़ा वक्त का,हमको समझना चाहिए।

दुश्वारियाँ मजबूरियाँ,निश्चित दफ़न हो जाएँगी,
फिर आज क्यों उसके लिये,हमको सिसकना चाहिए।

ये आँधियाँ चलती रहें,बरबादियाँ करती रहें,
एक दिन होंगी मुक़म्मल,विश्वास रखना चाहिए।

अब हो गई है इंतहां, बैठे कफ़स में रात दिन,
कैद में कब तक रहूँगा,अब निकलना चाहिए।

इश्क भी सोने लगा है,मुश्क भी छिपने लगा,
अब तो दुपट्टा इत्र में,फिर से महकना चाहिए।

ये घटा कब तक रहेगी,आसमां में ऐ 'दिनेश'!
चीर कर इन बादलों को,अब चमकना चाहिए।

                        दिनेश श्रीवास्तव
                        ग़ाज़ियाबाद
           
कफ़स- जेल,कारागार,पिंजड़ा

मुश्क -  सुगंध,कस्तूरी
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एक गीत-सादर समीक्षार्थ



           "खोलो मन के द्वार"
             ----------------------

खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।

        कहाँ कहाँ तुम भटक रहे हो,
         दर दर पर तुम अटक रहे हो।
        ठोकर कब तक खाओगे तुम,
       लौट वहीं फिर आओगे तुम।

लौटो अपने पास बटोही,झूठा है संसार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

       
       जीवन की चिंता तुम छोड़ो,
       स्वयं ब्रह्म से रिश्ता जोड़ो।
        बसता तेरे अन्तर्मन में,
        वही धरा पर,वही गगन में।

किसे खोजते कहाँ बटोही,खुद से जोड़ो तार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

           आओ लौट चलें अपने मे,
           विचरण क्यों करते सपने में।
          बसा हुआ जो तेरे अंदर,
          नहीं जगत में इससे सुंदर।

आत्मदीप बनकर जलने का,मन में करो विचार।
खोलो मन के तार बटोही,खोलो मन के तार।।

            अमिय कलश तेरे है अंदर,
            तुम तो अपने आप समंदर।
            खुद पर करो भरोसा प्यारे,
            होंगे सारे रत्न तुम्हारे।

तुम अथाह सागर हो प्यारे,रत्नों के भंडार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

तुम्हीं ब्रह्म हो,तुम्ही अनामय,
हो भगवंता,तुम्हीं निरामय।
कस्तूरी को कहाँ खोजते,
वन वन में तुम कहाँ विचरते।

तेरे अंदर ही कस्तूरी,करो स्वयं से प्यार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

       
              दिनेश श्रीवास्तव
   
             ग़ाज़ियाबाद

विषय- "पनघट" (अनुप्रास अलंकार युक्त)

१- प्रथम प्रहर पनघट गयीं,राधा लेने नीर।
दरस नहीं कान्हा दिए,उपजा मन में पीर।।

२- पनघट पानी भरन को, भई भयंकर भींड़।
राधा बिन पानी लिए,लौटीं अपने नीड़।।

३- पनिहारिन पनघट गई,पानी लेने आज।
पीत वसन पट ओढ़नी,ढकती अपनी लाज।।

४- कनक कामिनी कटि धरे,घट को ले सुकुमारि,
पनघट पानी भरन को,चली सुकोमल नारि।।

५- पनघट!जग प्यासा बड़ा, जाता तेरे पास।
पीता पानी प्यार से,मिट जाती सब प्यास।।

६- पनघट!मैं प्यासा रहा,पूरी हुई न आस।
बुझ पाएगी कब यहाँ, अन्तर्घट की प्यास।।

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                     "नीति"

नीति निदेशक तत्त्व ही,संविधान की शान।
प्राणवान भारत बने,जब इनका हो मान।।

                  "प्रकृति"

पर्यावरण बचाइए,करें प्रकृति से प्यार।
वन,तड़ाग,उपवन सभी,हैं अनुपम उपहार।।

                 "संसार"

रिश्तों की ही डोर से,बँधा हुआ संसार।
जीवन-परिभाषा यही,कुछ आँसू कुछ प्यार।।

                     "कर्म"

कर्मयोग ही धर्म है,धर्मयोग ही कर्म।
योगेश्वर का यह कथन,'गीता' का है मर्म।।

               "संस्कृति"

संस्कृतियों के मेल से,निर्मित अपना देश।
वसुधा ही परिवार है,देता यह संदेश।।

                   दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: हिंदी ग़ज़ल  - सादर समीक्षार्थ
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             "सीखो तो"
       

अक्षर के फूलों से कोई,हार बनाना सीखो तो।
कविताओं को ही अपना, संसार बनाना सीखो तो।।-१

वो आएगी,रूठ गयी जो,बैठी है चुपचाप वहाँ,
उसको अपने पास बुलाकर,प्यार जताना सीखो तो।-२

उसके होंठ शबनमी होंगे,मादक होंगे पुनः रसीले,
पहले प्यासे अधरों का तुम,प्यास बुझाना सीखो तो।३

चला गया,आएगा वो फिर,लौट यहाँ पर एक दिवस,
मधुर मधुर  बातों से उसको,पास बुलाना सीखो तो।-४

घायल होकर लौटा है,सीमा की रक्षा करते वो,
उठकर के वो पुनः लड़ेगा,जोश जगाना सीखो तो।-५

अँधियारा भी गायब होगा,नहीं दिखेगा आज यहाँ,
आशाओं का फिर से कोई,दीप जलाना सीखो तो।६

बगिया में फिर से आएँगी, लौट बहारें आज यहाँ,
उजड़े बगिया में फिर कोई,पुष्प खिलाना सीखो तो।-७

फिर से कोई बाग नहीं 'शाहीन',यहाँ बन पाएगा,
दिल्ली वालों दिल की दूरी,आज मिटाना सीखो तो।-८

कोरोना से लड़ने वाले,वीर सिपाही हैं अपने,
उनके प्रति आभार यहाँ पर,आज दिखाना सीखो तो।-९

हारेगा ये कातिल 'कोविड',निश्चित कोरोना जानो,
हाथों को तुम धोना सीखो,मास्क लगाना सीखो तो।-१०


हरी भरी ये धरती होगी,नहीं दिखेगा कहीं धुआँ,
नंगी धरती पर 'दिनेश' तुम ,वृक्ष लगाना सीखो तो।-११

                   


कतिपय दोहे  -सादर समीक्षार्थ
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      विषय-  "यदि"


यदि-यदि करना छोड़िए,दृढ़ हो सदा विचार।
जो भी निश्चय कर लिया,कर लो फिर स्वीकार।।-१

शब्द-अर्थ के साथ मे,यदि हो सुंदर भाव।
सर्वोत्तम साहित्य का,होगा नहीं अभाव।।-२

अवचेतन चेतन करे,हृदय भरे विश्रांति।
शब्द- शब्द पाथेय यदि,हरे जगत की क्लांति।।-३

यदि चिन्मय आनंद की,परिभाषा सुखभोग।
व्यर्थ हमारी साधना,व्यर्थ हमारा योग।।-४

यदि चिन्मय आनंद हो,मिलता स्वतः प्रकाश।
प्रमुदित जग सारा लगे,अवनि और आकाश।।-५

यदि होता मैं देश का,सक्षम एक नरेश।
हिंदी होती राष्ट्र की,भाषा भारत देश।।-६

संविधान,झंडा यथा,एक राष्ट्र की शान।
भाषा भी यदि एक हो,तभी बने पहचान।।-७

यदि तुमको कोई मिले, चेहरा कहीं उदास।
मानो फैला है नहीं,समुचित वहाँ प्रकाश।।-८

यदि 'स्वामी' बनकर करें,सदा यहाँ व्यभिचार।
उनको मत करना कभी,जग वालों!स्वीकार।।-९

यदि शिक्षाएँ बुद्ध की,धारण करो 'दिनेश'।
विश्वगुरू के रूप में,होगा फिरसे देश।।-१०


                दिनेश श्रीवास्तव
                  ग़ाज़ियाबाद


दोहें-

विषय-  "और"

           
१- और और करता रहा,मिला कभी कब तोष।
जीवन भर भरता रहा,केवल अपना कोष।।

        (गयंद दोहा-गु-१३,ल-२२)

२- और और करता रहा,बदल न पायी सोच।
जीवन भर करता रहा,वह केवल उत्कोच।।

             (गयंद दोहा- गु-१३,ल-२२)



         
३- और और की चाह का,करना होगा अंत।
धन केवल संतोष है,कहते हैं सब संत।।
            (करभ दोहा- गु-१६,ल-१६)


४- "और नहीं अब चाहिए",कहता है अब कौन।
अपनी पारी देखकर,हो जाते सब मौन।।
           (नर दोहा-गु-१५,ल-१८)

       


५- और और करते रहे,मिटी न मन की चाह।
अंत समय आया जहाँ, केवल मिली कराह।।
               (हंस दोहा-गु-१४,ल-२०)

६- औरों की देखा जहाँ, मची 'और' की होड़।
और और करते हुए,गया जगत को छोड़।।
             (मरकट दोहा-गु-१७,ल-१४)
           



७- और और को छोड़िए,प्रभु का कर लो गौर।
सच्चा सुंदर है वही,जग में केवल ठौर।।

             (करभ दोहा-गु-१६,ल-१६)


८- 'और' नहीं पूरा हुआ,हुई न पूरी आस।
जीवन भर करता रहा,इसका सतत प्रयास।।

            (हंस दोहा-गु-१४,ल-२०)


९- कभी न सुनिये और की,करिए मन की बात।
औरों से मिलता रहा,सदा निरंतर घात।।
           (नर दोहा-ग-१५,ल-१८)



१०- चाह 'और' की छोड़िए, करिए और विचार।
जीवन यहाँ सवाँरिये,नश्वर है संसार।।
     
              (करभ दोहा- गु-१६,ल-१६)

             @ दिनेश श्रीवास्तव
                  ग़ाज़ियाबाद




आज के विषय पर एक अतुकांत रचना- सादर समीक्षार्थ।
   
                    "गगन"
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हे गगन!
हे आकाश!
हे संकाश!
पंचभूतों में एक
तुम्हीं तो हो
मेरे अन्दर का
प्रकाश।
पृथ्वी, अगन, आकाश,
वायु और जल,
जिसे समेटा हुआ
स्वयं में क्यों हूँ आज
इतना विकल?
 तुम मुझे छोड़
हे उन्मुक्त गगन!
करते हो स्वछंद विचरण,
इतने मगन।
 और मैं अभागा
शोक संतप्त धरा पर
हूँ संतप्त।
वर्तमान झंझावातों को सहन करता
किसी अनजान रोग से
आतप्त।
मुझमें ही समाहित तुम,
मेरे अपने!
अब तो साकार करो
चिर प्रतीक्षित
मेरे सपने।
आओ!चलें उस क्षितिज तक
जहाँ हमारा तुम्हारा हो
मिलन।
हाथों में हाथ लेकर-
हे! मेरे गगन।
तुम्हारे सहवास से,
तुम्हारे प्रकाश से हो
पंचभूतों का फिर से
 सुखद मिलन।।



कॅरोना वायरस-कारण और निदान
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एक कॅरोना वायरस,जग को किया तबाह।
निकल रही सबकी यहाँ, देखो कैसी आह।।-1

विश्वतंत्र व्याकुल हुआ,मरे हजारों लोग।
आपातित इस काल को,विश्व रहा है भोग।।-2

खान-पान आचरण ही,इसका कारण आज।
रक्ष-भक्ष की जिंदगी,दूषित आज समाज।।-3

योग-साधना छोड़कर,दुराचरण है व्याप्त।
काया कलुषित हो गई, मानस शक्ति समाप्त ।।-4

स्वसन तंत्र का संक्रमण,करता विकट प्रहार।
शीघ्र काल कवलित करे,करता है संहार।।-5

ये विषाणु का रोग है,करता शीघ्र विनास।
रोगी से दूरी बने,रहें न उसके पास।।-6

हाथ मिलाना छोड़कर, कर को जोरि प्रणाम।
ये विषाणु, इसका सदा,शीघ्र फैलना काम।।-7

हो बुखार खाँसी कभी,सर्दी और ज़ुकाम।
हल्के में मत लीजिए,लक्षण यही तमाम।।-8

भोजन नहीं गरिष्ठ हो,हल्का हो व्यायाम।
रहें चिकित्सक पास में,करिए फिर विश्राम।।-9

तुलसी का सेवन करें,श्याम-मिर्च के साथ।
पत्ता डाल गिलोय का,ग्रहण करें नित क्वाथ।।-10

रहना अपने देश में,जाना नहीं विदेश।
प्यारा अपना देश है,रखना ध्यान 'दिनेश'।।

                     दिनेश श्रीवास्तव
                      गाज़ियाबाद


              दूरभाष-९४११०४७३५३


कुण्डलिया

                    "श्रम-सीकर"

श्रम- सीकर झरता रहा,चूता रहा ललाट।
पछताता है बैठकर,श्रमिक गंग के घाट।।
श्रमिक गंग के घाट,बैठकर जल को चाहे।
उसको भी मिल जाय,और वह भी अवगाहे।।
कहता सत्य दिनेश,सदा जीता वह पीकर।
कण कण अपना स्वेद,और अपना श्रम- सीकर।।

                "मधुशाला"

मधुशाला ने कर दिया,जीवन मे संचार।
 जनता अपने देश की,अपनी है सरकार।।
 अपनी है सरकार,सभी की प्यास बुझाई।
कंठ कंठ में बूंद, ख़ज़ाने में धन लाई।।
करता विनय दिनेश,उठा लो तुम भी प्याला।
सबकी रखती ख्याल,हमारी है मधुशाला।।



दोहा छंद

विषय- "शत्रु"


काम क्रोध मद लोभ ही,महा शत्रु हैं चार।
मानव इनसे ग्रसित है,ये हैं परम विकार।।- १

अहंकार का भाव भी,प्रबल शत्रु है एक।
जीवन को करता दुखी,देता घाव अनेक।।-२

श्रेयस्कर होता यही,अंतःशत्रु विनाश।
मानव का होता रहा,इससे ही अपनाश।।-३

सहनशीलता त्याग से,करने से पुरुषार्थ।
होते शत्रु विनाश हैं,कृष्ण बताते पार्थ।।-४

जीवन में होना नहीं,प्यारे!कभी निराश।
करता रहता समय ही,सदा शत्रु का नाश।।-५

शत्रु-भाव को त्यागकर,सब मिल खेलें फाग।
कभी नहीं फैले यहाँ, अब नफ़रत की आग।।-६

भाई-भाई शत्रुता,फैला है इस देश।
प्रेम हुआ सपना यहाँ, नफ़रत का परिवेश।।-७

छद्मवेश जो शत्रु हैं,सावधान हों आप।
खंजर लेकर हैं खड़े,करने भरत-मिलाप।।-८

कहीं गरीबी भूख है,करती हम पर वार।
कहीं अशिक्षा शत्रु है,सिर पर यहाँ सवार।।-९

बाहर के जो शत्रु हैं,सदा सुरक्षित देश।
अंदर वालों की सदा,चिंता करो दिनेश।।-१०

                @दिनेश श्रीवास्तव

                  ग़ाज़ियाबाद

गुरुवार, 14 मई 2020

सवाल बना हुआ है / रिफ़त शाहीन



कहानी

सवाल बना हुआ है

सिंक में पड़े ढ़ेर सारे बर्तनों ने नीलिमा को आज फिर मुँह चिढ़ाया ... पिछले एक महीने से वो इन कलमुंहे बर्तनों दो दो हाथ कर रही थी .... मगर बर्तन थे कि उसके सब्र का इम्तेहान लेने से बाज़ ही नही आ रहे थे | जितनी बार उन्हे धो कर रखो अगली सुबह फिर एक ढ़ेर इकट्ठा ... थक गई थी नीलिमा .... इस लॉकडाउन ने उसे एक ऐसे इम्तेहान में ड़ाल रखा था कि उसे कुछ अच्छा ही नही लग रहा था | ऊपर से पतिदेव का ये जुमला .... दो चार बरतन ही तो धोने पड़ते हैं तुमको ,खाना तो मैं ही बना लेता हूँ ... औरत हो क्या इतना भी नही कर सकती? वो तुनक कर कहती | तो तुम ही धो लिया करो दो चार बरतन ...?
ओके चलो मैं धो लेता हूँ.... आज से ड्यूटी चेंज , तुम खाने कि ज़िम्मेदारी लो मैं बरतन धो लेता हूँ |
वो इस डील पर इसलिए तयार नही थी कि बरतन तो केवल सुबह धोने पड़ते हैं मगर खाना तो तीनों समय बनता है ... खाना बनाना मतलब सारे दिन कि आहुती ... वो पति को घूरती... कोरोना को कोसती ... भुनभुनाती हुयी किचन में जाती और अपना सारा गुस्सा उन बरतनो पर निकालती जिसे कभी बड़े चाव से ख़रीद कर लाई थी और इन्ही बरतनो के कारण महरी को हर रोज़ चार बात सुनाया करती थी | धीरे नही रख सकती हो इन्हे ... पता है ये नॉन स्टिक कढ़ाई कितनी कोस्टली है ? जितनी तुम्हारी एक महीने की पगार है उससे भी ज़्यादा | और ये तवा ये तो कढ़ाई से भी ज़्यादा कास्टली है ..... लेकिन तुम गंवार लोग क्या जानो इनकी कद्र.....उसके घमंड भरे जुमले सुन कर महरी बेचारी बस इतना ही कहती | बीबी जी ! हम गरीबन का तो पेट ही भर जाए यही बहुत है ,हम तो दो वक़्त की रोटी के लिए सारा दिन मेहनत करते हैं .... हमें इससे कहाँ मतलब होता है कि रोटी मिट्टी के तवे पर बनी है या चाँदी के | महरी कि ऐसी बातें सुन कर नीलिमा बुरा सा मुँह बनाते हुये कहती | तुम लोगों के पास भूक के सिवा तो कोई बात ही नही होती ....अजीब समाज है तुम लोगों का भी  बस भूक ,भूक भूक ,,.जब मुँह खोलोगी भूक की ही बात करोगी .. खैर जाते समय रात का बचा खाना लेती जाना ,एक समय की भूक तो मिट ही जाएगी तुम्हारी और तुम्हारे चार बच्चों की | .... और हाँ एक भी बरतन टूटा तो तुम्हारी पगार से ही भरपाई होगी | लेकन आज उससे ख़ुद न जाने कितने कीमती टूटे थे कभी धोते समय कभी रैक में सजाते समय लेकिन उसे कहाँ फिक्र थी इस बात कि ,उसे फिक्र थी तो बस अपने फीके पड़ चुके हाथों की जो बरतन घिस घिस बदरंग हो रहे थे ,अपने सुंदर तराशे हुये  नाखूनों की | नीलिमा जिस सोसाइटी में रहती थी वहाँ कोरोना नाम की इस बीमारी से बस इतना ही फर्क पड़ा था कि लोग अपने अपने घरों में क़ैद होकर रह गए थे और उन विलासी महिलाओं को भी घर के काम करने पड़ रहे थे जिन्होने अपनी पूरी लाईफ़ में एक गिलास पानी भी ख़ुद उठ कर नही पिया था…. नीलिमा को तो सारी रात इस सोच में नींद नही आती  कि, सुबह उसे बरतनो के ढ़ेर से उलझना है ... उफ़्फ़ ये समस्या कब सुलझेगी ? कब ये लॉकडाउन ख़त्म होगा ? ये सब सोच सोच कर वो अवसाद में जाने लगी थी | ऊपर से न्यूज़ चैनल पर आती खबरों ने तो उसका रहा सहा चैन भी छीन लिया था | हर रोज़ बढ़ते कोरोना पेशेंट और उसी के साथ बढ़ती लॉक डाउन अवधि ....यानि महरी के आने का अभी कोई चांस नही | उसने एक बार फिर अपने सुंदर हाथों की ओर देखा .... जो डिशवाश के संपर्क में आने के कारण अपनी रंगत खोता जा रहा था ,नाखूनों पर लगी नेल पोलिश जगह जगह से उखड़ चुकी थी ... उसे रोना आने लगा ... उसने सोचा ड्यूटी बदल लेते हैं  काम ज़्यादा है तो क्या हुआ मेरे इन खूबसूरत हाथों का तो यूं बुरा हाल नही होगा |और उसी दिन उसने पति के सामने ड्यूटी बदलने का प्रस्ताव पेश कर दिया | पति को कोई आपत्ति नही हुई मगर उन्होने इतना ज़रूर कहा | नीलिमा ! सोच लो इतना आसान नही है तीन वक़्त का खाना बनाना | तो क्या तुम मेरा हाथ नहीं ब्टाओगे ? उसने मनुहार की |
बटा दूँगा ... चलो सुबह का नाश्ता मैं बना दिया करूंगा |
लव यू डार्लिंग ! नीलिमा ने पति को प्यार से देखते हुये कहा तो पतिदेव बोले | तो फिर ऐसा करो आज डिनर में पनीर मुगलई बना लो बच्चे भी ख़ुश हो जाएंगे |
बना तो लूँ पर रेसिपी नही आती मुझे |
वो यू ट्यूब से देख लेना ओके |
ओके | इतना कह कर नीलिमा किचन में चली गई ... मगर उफ़्फ़ जितना आसान उसने कुकिंग को समझा था उतनी थी नही | प्याज़ काटने में आंखो का बुरा हाल हुआ तो मिर्च से उँगलियाँ जलने लगीं ,आटा गूथने में बचे खुचे नाखून चले गए ,रोटी आड़ी बेड़ी बनी तो सही मगर कलाई जल गई | ऊपर से पति और बच्चों को खाना पसंद भी न आया | ख़ूब नाक सिकोड़ी सबने | अब तो नीलिमा के सब्र की हद ही हो गई और उसने निर्णय ले लिया कि वो कल ही होममेड को फोन करके बुलाएगी और किचन उसके हवाले करके चैन की साँस लेगी | कोरोना नाम की महामारी के इस साईड इफ़ेक्ट से मरने से  तो लाख बेहतर है ,कोरोना से मर जाया जाए | उसके इस निर्णय का पति और बच्चों ने जम कर विरोध किया मगर वो नही मानी और उसने मेड को फोन लगाया | फोन उसकी बेटी ने उठाया और बोली | बीबी जी ! मम्मी तो घर पर नही हैं,|
इस लॉकडाउन में कहाँ गई है बेवकूफ़ ? नीलिमा झुँझला पड़ी |
गाँव | लड्की ने मरी हुई आवाज़ में कहा |
कैसे गई कोई सवारी तो चल नही रही है ?
पैदल गई है बीबी जी !
झूठ मत बोल ... क्या मैं जानती नही तेरा गाँव यहाँ से चालीस किलो मीटर दूर  है और कोई इतनी  दूर वो भी इस चिलचिलाती धूप में पैदल कैसे जा सकता है ? और फिर उसे जरूरत क्या आन पड़ी गाँव जाने की?
बीबी जी ! कई दिन से घर में चूल्हा नही जला, छोटे छोटे भाई बहन भूक से रो रहे थे ,इसलिए मजबूरी में अम्मा गाँव गई है,दादी से आनज लेने |
यहाँ भी तो सरकार और बहुत से लोग अनाज बाँट रहे हैं तो गाँव जाने की क्या जरूरत थी ?
बीबी जी ! अम्मा बड़ी स्वाभिमानी है फोटो खिचवा कर अनाज नही लेगी |
एक तो तुम गरीबों का ये स्वाभिमान ... उफ़्फ़ ... अरे तो मुझसे कहती मैं दे देती |
अम्मा बोली थी जब बीबी जी का काम नही कर रही तो किस मुँह से मदद माँगने जाऊँ |
ठीक है ठीक है आ जाए तो भेज देना उसे | इतना कह कर नीलिमा ने फोन कट कर दिया और पति की ओर देखते हुये बोली | नरेंद्र ! कितने झूटे होते हैं ये जाहिल गरीब लोग ... तुम्हीं बताव क्या कोई चालीस किलो मीटर की दूरी पैदल तय कर सकता है ? ये लोग न....  इमोशनल करना ख़ूब जानते हैं ताकि सामने वाला इनकी झोली ठूंस ठूंस कर भर दे और ये अपने स्वाभिमान का राग भी अलापते रहें |
हो सकता है वो सच बोल रही हो ? पति ने समझाना चाहा |
कैसे मान लूँ इस अनहोनी बात को ?
अरे जब लोग दिल्ली से चल कर बिहार ,मुंबई से चल कर up  पहुँच सकते हैं तो ... पति इतना ही बोल पाये थे की नीलिमा ने उन्हे घूर कर देखा और भुनभुनाती हुई किचन में आ गई | बड़ी मुश्किल से आज उसने ड़ाल चावल बनाया और अपने कमरे में आकर सर थाम कर बैठ गई और सोचने लगी | इस कोरोना नाम की महामारी ने इन तीस दिनों में क्या कुछ नही छीना उससे ... उसकी किटी पार्टी ,उसकी सोशल अक्टिविटीज़ , मूवीज़ ,शॉपिंग ,होटलिंग ,ब्यूटीपार्लर उफ़्फ़ जिंदगी की सारी खुशियाँ छीन ली इस महामारी ने और जाहिल औरतों की तरह झोक दिया चूल्हे चौके में |  इस महामारी का इतना भयानक रूप होगा उसने सोचा ही नही था | उसे लगा इन चीज़ों के बिना तो जिंदगी की कल्पना तक संभव नही फिर गरीब कैसे सिर्फ रोटी के सहारे जी लेते हैं ? ख़ैर मुझे क्या ये उनकी लाईफ़ स्टाईल है मुझे तो मेरी लाईफ़ स्टाईल से मतलब है ... हे ईश्वर  जल्दी विदा करो इस कोरोना नाम की बीमारी को वरना मेरी नसें फट जाएंगी इस यातना में ज़्यादा जी नही पाऊँगी मैं | नीलिमा रोने लगी थी ,उसका दिल चाह रहा था वो अपने बाल नोच ड़ाले कपड़े फाड़ कर पूरे घर को सर पर उठा ले ,क्यूंकी उससे अब और सहन नही हो रही थी लॉकडाउन की ये स्थिति | उधर उसकी दशा से अंजान ,उसकी बेटी ने अपने कमरे से उसे आवाज़ दी | मम्मा ! आज लंच में मलाई कोफ्ते बना लो न बहुत मन हो रहा है |
बेटी की इस फरमाईश ने तो उसे ऐसा गुस्सा दिलाया कि वो अपना आपा ही खो बैठी और फिर माँ बेटी में जम s
 कर वाद विवाद हुआ ... बेटी चूंकि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही थी इसीलिए चूल्हा चौका करने का उसके पास समय ही नही था | लेकिन नीलिमा को उसका इस तरह फरमाईश करना खल गया और फिर पति ने भी बेटी की ही तरफदारी क्या कर दी नीलिमा तो जैसे अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठी  और उसी रात उसने सुसाईड कर लिया | कोरोना नाम की महामारी ने इस घर को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था क्या ये कहना उचित होगा ?B या कोरोना से भी ज़्यादा घातक बीमारी जिसे असंवेदनशीलता कहते हैं वो थी इस भरे पूरे घर की तबाही की जिम्मेदार ? सवाल बना हुआ है |
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मोब. 7007614161

सरकारी कहानी / अपर्णा




_सरकारीकहानी_
          🔛
               प्रस्तुत है एक कहानी जिसके सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका मेल संयोग मात्र नहीं है...
                   एक स्कूल है सरकारी......अध्यापक है, अध्यापिकाएं है,बाबू है,चपरासी है,छात्र है,और एक हेड मास्टर साहब है।
             अब होता ये है कि ये हेडमास्टर साहब बहुत काबिल आदमी हैं , सर्व गुण संपन्न,और अपार बल शाली (हालांकि ऐसा वो खुद ही कहते फिरते है) पूरे गांव में धौंस है उनकी कि वहीं है जो इस खस्ताहाल सरकारी स्कूल की हेडमास्टरी कर रहे हैं ,और वहीं है जो इस स्कूल बेड़ा पार लगाएंगे, कोई भी उनकी तनख्वाह, भत्ते और अन्य सुविधाओं के विषय में कुछ बात नहीं करता, इतने बड़े व्यक्ति को ऐसे तुच्छ प्रश्नों में उलझाना लोग ठीक नहीं मानते।
                       तो रोज़ ये होता है कि सुबह स्कूल खुलते ही हेडमास्टर साहेब छात्रों को उच्च नैतिक आदर्श, राष्ट्र प्रेम, सार्वभौमिक छवि, शिक्षा के महत्व,और रोज़गार के विषय पर पूरा लबालब करके, तालियां बाजवा के अपने काम पर लगते हैं, छात्र भी गदगद, स्टाफ भी गदगद, और स्वयं हेडमास्टर साहेब भी... फिर कक्षा लगने का समय आता है, अब जबकि हेडमास्टर साहेब इतने वर्सेटाइल है और पूरा स्कूल खुद ही संभालते है, हर विषय खुद ही पढ़ाते हैं, सफ़ाई खुद करते हैं, लेखा जोखा खुद रखते हैं, तब प्रश्न उठता है कि बाक़ी के अध्यापक,अध्यापिकाएं,बाबू और चपरासी क्या करते हैं, और उनको सरकार फुकट तनखा क्यूं दे रही है???? इतने आल राउंडर, योग्य हेड मास्टर साहेब के होते हुए...... तो उनका काम है जैसे ही हेड मास्टर साहेब कोई विषय पढ़ाकर निकले वो तुरंत उनकी भूरी भूरी प्रशंसा में जुट जाएं, पूरे गांव में ढिंढोरा पीटें, छात्रों से ताली बजवाएं, गांव वालों से दिए जलवाएं.....
                    हेडमास्टर साहेब स्कूल की बेहतरी के लिए नित नई योजनाएं लाते रहते हैं, और दिमाग में आते ही तुरन्त उसको बोल भी देते हैं, उस पर मंथन बाद में होता रहता है, बच्चे सपनों में जीते हैं ,चाय के ठेलो पर काम करते हैं,क्यूंकि बड़े बनने के लिए बड़े सपने देखना लेकिन असलियत में चाय बेचना ज़रूरी है।
                       सरकारी मदद की पूरी राशि छात्रों की बेहतरी पर पहले ही खर्च हो गई है,और यहां के छात्र वैसे भी सब के सब गुदड़ी के लाल है दिखाई कुछ नहीं देता इनके पास मगर है सब कुछ,और जो है उसका पूरा हिसाब किताब है रजिस्टर में भी है,और जब हिसाब है तो है ...उसकी असलियत देखने की इच्छा रखने या कोई सबूत चाहने पर तुरंत स्कूल का पूरा स्टाफ अपने दूसरे महत्वपूर्ण काम में लग जाता है वो है प्रश्न कर्ता की एक स्वर में भर्त्सना करना...और वैसे भी ऐसे भद्दे प्रश्न राष्ट्र का अपमान  होते है,राष्ट्र के प्रति द्रोह की भावना होते है,देशभक्ति पर अमिट प्रश्नचिन्ह होते है। इसलिए कोई भी इस संज्ञेय अपराध के चक्कर में पड़ता ही नहीं है गलती से पड़ भी जाए तो कबूलता नहीं है।
अब हुआ ये कि जैसे साहेब को हेडमास्टरी मिली उन्होंने कहा जितनी भी पुरानी किताबें है रद्दी है, बेकार है, आज से नहीं चलेंगी ये झूटा ज्ञान दे रही है और इससे छात्र चोर और हिंसक बन रहे हैं, गांव वालों ने तुरंत सब किताबे फाड़ी, जलाई और साहेब की बताई हुई नई खरीद ली , देखा तो उसमें में भी वही सिलेबस था, गरीबों ने बहुत मेहनत के पैसे से खरीदी थी, मगर खैर जो हुआ , हो गया, सब हेडमास्टर साहेब की इज्ज़त करते हैं छात्र नई किताबों से पढ़ने लगे, और पहले से ज़्यादा, उम्मीद से बढ़कर होनहार हो गए, मगर कुछ खास छात्र जो साहेब के गांव के थे, अब अपनी मिट्टी के लिए इतना तो कर्तव्य बनता है।
     
           फिर साहेब ने स्कूल की फीस दुगुनी कर दी और हर साल की फीस हर महीने लेने लगे , उन्होंने समझाया कि इससे स्कूल का विकास होगा, अच्छे दिन आएंगे, लोगों ने भरी आंखो से हर महीने दुगुनी फीस देना शुरू कर दिया।
           एक दिन साहेब ने सबको बुलाकर कहा कि इस स्कूल का विकास तभी होगा, छात्र तभी अपनी योग्यता का फल पाएंगे जब ये सुनिश्चित हो जाएगा कि कौन इस गांव का असली छात्र है और कौन नकली घुसपैठिया छात्र है जो स्कूल के माहौल को खराब कर रहा है, सारा गांव, छात्र सकते में आ गया कि कैसे बताएं असली नकली का फर्क ,पढ़ाई लिखाई कुछ दिनों के लिए स्थगित हो गई, और पहचान पत्र बनाए जाने लगे,पहले इस गांव से मर्ज़ी से गए लोगो को वापिस बुलाकर पहचान पत्र दिया गया, और यहां रह रहे लोगों को लोगों को अपनी पहचान की व्यवस्था खुद करने को कहा गया, बात विकास, देश भक्ति और राष्ट्र के सम्मान की थी तो लोगो को जो कहा वो करना ही था।
             इस बार ऐसा हुआ है कि पहले से खस्ता हाल स्कूल की इमारत ढह गई है और हेड मास्टर साहेब ने हर गांव वाले से अपने घर की ईंट स्वेच्छा से मांगी , लोगो ने हेड मास्टर साहब के प्यार में बढ़ चढ़ कर दान दिया है अपने घर की छत, दीवारें तोड़ तोड़ कर दी, जिन्होंने नहीं दिया उनसे आनुपातिक रूप में ही ले लिया गया बारिश, धूप, ठंड के सितम को झेलते हुए ये लोग भरोसे की इमारत के तामीर होने के इंतजार में हैं, स्कूल यथावत चल रहा है, बैकग्राउंड में हेडमास्टर साहेब का स्तुति गान बज रहा है, पूरा स्टाफ मस्त होकर झूम रहा है और छात्र और गांव वाले धूप,घाम,वर्षा की निर्मम चोट खाते हुए उम्मीद पर दुनिया कायम है का रट्टा मार रहे हैं.....

🍃🍂 *अपर्णा*🍂🍃

बुधवार, 13 मई 2020

कविता रायजादा की कुछ रचनाएँ



*साधना*


मै कल्पना करती हूं ,
ऐसे जीवन की जो।
सहज हो, सरल हो,
निश्चल हो और सुखमय हो।

मै कामना करती हूं
एसे जगत की
जो वास्तविकता से परे हो
अतीत से अनभिज्ञ हो।

मै वर्तमान की उपेक्षा करके
स्वप्नलोक में विचरण करने लगती हूं।
किसी के सुंदर भवन को देखकर
उसकी छवि को अंतर मे बैठा लेती हूं
और जब कोई वस्तु पसंद आ जाती है
तो उसे उस भवन में लाकर सजा देती हूं।

आहिस्ता आहिस्ता भवन मै
भीड़ इकट्ठी हो जाती है
और मै स्वयं को विस्मृत कर बैठती हूं।
फिर सोचने लगती हूं
की शायद उस विस्मृति को
खोजने का नाम ही साधना है।

डॉ कविता रायजादा


लघु कथा


*मालकिन*

पांच साल की सोमा घर के एक कोने में छिपी रोज़ देखती थी अपनी माँ को मालकिन से पीटते हुए।उसकी मालकिन की यातनाये मा के प्रति इतनी बढ़ गई थी कि वह देख नही पाती थी,सहम जाती थी, डर के मारे एक कोने में छिप जाती थी वह यह समझ ही नही पाती थी कि उसकी इतनी अच्छी माँ को मालकिन आखिर क्यों सताती है।
रात में जब वह माँ के पास सोती थी तो देखती थी कि उसकी माँ के काम कर करके पूरे घर के बर्तन राख से मांज माज़कर हाथों की रेखायें तो मानो जैसे गायब सी हो गई थी और हाथों में घाव हो गए थे। हद तो तब हो गई जब उसके हाथ मे सेप्टिक फैल गया लेकिन फिर भी वह दर्द से कराहते हुए एक हाथ से ही काम में लगी रहती थी की कहीं मालकिन का कहर फिर से न टूट पड़े लेकिन यह सब तो रोज की बात थी। शायद ही कोई दिन एसा जाता था जब उसको प्रताड़ना न सहनी पड़ती हो। सारा सारा दिन काम करने के बाद भी दिनभर में एक रोटी सुबह तो एक रोटी शाम को खाने को मिलती थी।
मालकिन के कष्टों से तंग आकर पिताजी ने माँ और बच्चो को मायके भेज दिया । यही सिलसिला कर वर्ष चलता रहा। माँ पिताजी से कई वर्ष अलग रही। माँ की स्तिथि दिन पर दिन खराब होती जा रही थी क्योंकि भरपेट खाना न मिलने के कारण छोटे भाई बहन को माँ का दूध नही मिल पाता था। उधर मालकिन के सख्त आदेश थे की पापा यदि मम्मी को घर लाए तो मम्मी के साथ साथ उन्हें भी घर के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। पिता बच्चो के प्रति ज्यादा दिन अपनी ममता नही रोक पाए और माँ को घर ले आये।
मालकिन ने आव देखा न ताव गुस्से में घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उस वक्त उसे लगा आखिर पिता विरोध क्यों नही कर रहे है उनके आदेश का पालन सिर झुकाकर क्यों कर रहे है आखिर यह घर हमारा भी तो है हम सभी बचपन से यही तो रहते आय है।
एक टूटा सा बक्सा हाथ मे लिये माँ पिताजी सिर छुपाने की जगह ढूंढते रहे। जब कही जगह नही मिली तो पूरी रात फुटपाथ पर ही बिताई, यही सोचकर कि शायद कल कुछ इंतज़ाम हो जाएगा मगर शायद नियति को यही मंजूर था। मजबूरन आठ,दस दिन फुटपाथ पर ही बिताने पड़े। जो थोड़े बहुत पैसे थे जेब मे उससे जो मिल गया खाकर सो जाते थे। सोमा ने जन्म तो गरीब परिवार में लिया था लेकिन स्तिथि बद से बदतर थी। एक रिश्तेदार को जब स्तिथि के बारे में पता चला , दया आई और वे अपने घर ले गए।
धीरे धीरे समय बीतने लगा सोमा ने पढ़ाई शुरू कर दी।
अचानक एक दिन मालकिन के देहांत का समाचार आया। मालिक ने पूरे परिवार को पुनः घर आने का आग्रह किया लेकिन सोमा निर्णय ले चुकी थी उसमें हिम्मत आ गई थी अब वह समाज से लड़ सकती थी। वह सारी महिलायें जो समाज मे, परिवार में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में पीड़ित हैं उनकी मदद भी कर सकती है। अपना दुख दर्द उनको और उनका दुख दर्द उसे ही तो सुन्ना है। वह अब कमजोर नही थी समझ चुकी थी। उसे दिशा मिल गई थी गरीबी को यदि जीतना है शोषण से निबटना है तो पढ़ना लिखना जरूरी है

 वक्त

वक़्त वक़्त की बात है
वक्त बदलते वक़्त नहीं लगता है
कल की ही तो बात है जब
प्रेम का प्रतीक होती थी निजता
लेकिन अब मायने बदल चुके हैं
सोच बदल चुकी है
अब तो रहना है यदि जिंदा
तो"दूरियाँ" से नाता जोड़ना होगा।
यही प्रेम का प्रतीक होगा
प्रेम का परिचायक होगा।


अंतर्जवार*

सब मानवता कंपित है,
भय का वितान है छाया।
तम सभी ओर दिखता है,
यह कैसी तेरी माया।

तुमने अपने हाथो से,
हम सबकी मूर्ति बनाई।
फिर क्यों हम सब के उर में,
विभुवर भयता आई।

क्या कमी रही सृजन में,
उद्दंड हुए हम सारे।
क्यों एक पिता के होकर
मति भ्रमित हुए हम सारे

जग में कुत्सितता ज्वाला,
है धधक रही विभु आओ।
इस कंटक को मारो तुम,
हम सबको सुखी बानाओ।

कोरोना बना है बेड़ी,
बंदी मानवता काया।
इस कोरोना ने आज अनोखा,
रूप सभी को दिखलाया।

जिस स्नेह सदन में रहते थे हम,
उसका विध्वंस किया इसने।
अब डरे डरे से रहते हम,
सब दूर दूर ही रहते।

अब धैर्य हमारा टूटा,
हे उद्धारक तुम आओ।
इस कोरोना को मारो तुम,
खुशियों के विटप उगाओ।
।।।।।।







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सबकी कसौटी पर हरदम खरा रहे नवल जी




संजय कुंदन

कल रात जब मेरे गुरु और हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल के निधन की खबर आई तो मुझे अपने छात्र जीवन के उन दिनों की याद आई जब हम मानते थे कि नवल जी तो कभी बूढ़े भी नहीं हो सकते। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था। उन दिनों वह किसी हीरो की तरह दिखते थे। वैसे भी वे विद्यार्थियों के लिए हीरो ही थे। खासकर उनके लिए जो मार्क्सवादी थे और साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय होना चाहते थे। ...अभी लॉकडाउन से कुछ ही दिनों पहले अचानक उनका फोन आया। उन्होंने कहा-पहचानो मैं कौन हूं। मैं भला उनकी आवाज कैसे नहीं पहचानता। मैंने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने कहा-अभी-अभी तुम्हारा काव्य संग्रह तनी हुई रस्सी पर पढ़कर खत्म किया है। मैंने उसके अंतिम पृष्ठ पर लिखा है-वंडरफुल। वे बहुत खुश लग रहे थे। उन्होंने कहा-मुझे खुशी है कि तुम्हारा लगातार विकास हो रहा है। उन्होंने मेरी पत्नी और बेटे का हालचाल पूछा। और कहा कि अगली बार पटना आना तो जरूर मिलना।
मुझे पता नहीं था कि यह मेरी उनसे आखिरी बातचीत है। मेरे जीवन पर जिन कुछ लोगों ने बहुत गहरा असर डाला उनमें नवल जी भी थे। विश्वविद्यालय में मैं उनका छात्र तो बहुत बाद में बना लेकिन साहित्य की वजह से उनसे परिचय बहुत पहले से ही हो गया था। 1987-88 में वे पटना के रानीघाट के सुमति पथ में रहते थे। उनका वह मकान मैं कभी नहीं भूल सकता क्योंकि वह मेरे लिए कविता की पाठशाला था। यहीं इस मकान में मैंने नवल जी से हिंदी कविता के बारे में बहुत कुछ जाना। कविता लिखने की शुरुआत तो मैंने बचपन में ही कर दी थी, पर हिंदी की समकालीन कविता से मेरा परिचय बेहद कम था। मेरे घर में साहित्यिक माहौल जरूर था, पर वह कविता का नहीं, गद्य का था। मेरे पिताजी कहानियों और उपन्यासों के पाठक थे। अपने कार्यालय की लाइब्रेरी से वे कहानी संग्रह और उपन्यास लाकर पढ़ते थे। पत्रिकाओं में ‘सारिका’ जरूर मेरे घर नियमित आती थी, लेकिन वह भी कहानी की ही पत्रिका थी। कविता का संसार मेरे लिए लगभग वही था, जो इधर-उधर से या सिलेबस के जरिए मुझ तक पहुंचा था। नवल जी उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय थे। वे संगठन के कोई पदाधिकारी थे या नहीं, मझे याद नहीं।
पटना कॉलेज उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। कॉलेज के ठीक सामने स्थित पीपल्स बुक्स हाउस इन दोनों सगंठनों के अलावा एआईएसएफ (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन) के लोगों का भी अड्डा था, जहां अक्सर इन संगठनों के लोग मिल जाते थे। यहीं आलोचक अपूर्वानंद, रंगकर्मी जावेद अख्तर खां और श्रीकांत किशोर से मुलाकात हुई और बातचीत में नवल जी के बारे में जानकारी मिली। लेकिन उसके कुछ ही दिनों बाद यह पता चला कि नवल जी मेरे कॉलेज की सहपाठी पूर्वा भारद्वाज के पिता हैं। खैर जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ा तो अपूर्वानंद जी और अन्य लोगों से नियमित मिलना-जुलना शुरू हो गया। एक दिन अपूर्वानंद जी ने कहा कि नवल जी के यहां जा रहा हूं। चलना चाहो तो चल सकते हो। उस वक्त मैं साइकिल से था। अपूर्वानंद जी ने कहा कि मैं ऑटो से चलता हूं तुम साइकिल से सुमति पथ के पास पहुंचो। खैर मैं उनसे पहले ही सुमति पथ पहुंच गया। उनके आने के बाद हम दोनों साथ उनके घर गए।
 नवल जी का वह घर काफी बड़ा पर थोड़ा बेडौल था। जैसे मुख्य दरवाजा काफी छोटा था। उससे घुसते ही एक सीढ़ी मिलती थी और उसके ठीक बाद एक बड़ा आंगन था। आंगन के एक सिरे पर एक छोटा सा कमरा था, जो ड्राइंग रूम था लेकिन आंगन के दूसरी ओर दो मंजिलों पर कुछ बड़े कमरे थे। हम छोटे से ड्राइंग रूम में आ गए। और यहीं पहली बार मैंने नवल जी को देखा। वह नीली लुंगी और पूरी बांह वाली बनियान पहने हुए थे। लुंगी और बनियान एकदम धुली हुई चमक रही थी। नवल जी के चेहरे पर भी एक चमक थी।
उस वक्त मुझे नहीं पता था कि उनका वह छोटा सा ड्राइंग रूम मेरे लिए कविता का क्लासरूम बनने वाला है। उस दिन के बाद से नवल जी के यहां मेरा आना-जाना लगा रहा। उन दिनों शाम में कई लोग नवल जी की बैठक में जुटते। इनमें अपूर्वानंद, प्रो. तरुण कुमार, जावेद अख्तर खां, विजय कुमार तिवारी, सच्चिदानंद प्रभाकर आदि नियमित आने वालों में थे। मेरे मित्र युवा आलोचक संजीव कुमार, आशुतोष कुमार और संतोष चंदन भी कभी-कभार आया करते थे।
नवल जी के यहां उस समय की साहित्यिक हलचलों पर बात होती रहती थी। सबसे ज्यादा चर्चा नामवर सिंह की होती थी। सच कहा जाए तो मैंने नवल जी के जरिए ही नामवर सिंह के महत्व को समझा। नामवर जी ने किस तरह हिंदी कविता के मूल्यांकन की एक नई दृष्टि दी, यह मुझे वहीं पता चला। साहित्य के कई विवादों और लेखकों के निजी जीवन के कई अध्याय भी खुले। मैं कुछ बोलने की बजाय चुप रहकर बस सुनता रहता था। उन्हीं दिनों मैं समझ पाया कि इस समय अरुण कमल, राजेश जोशी, मनमोहन, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल, इबार रब्बी, असद जैदी, विष्णु खरे, विष्णु नागर, ऋतुराज आदि लिख रहे हैं। रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, शमशेर और नागार्जुन उस वक्त वरिष्ठ कवियों के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। कुल मिलाकर प्रगतिशील हिंदी कविता की एक मुकम्मल तस्वीर मेरे सामने खिंचती चली गई। यहां मैं जिस कवि का नाम सुनता, उसका संग्रह खरीदकर पढ़ता था। एक दिन  नवल जी ने कोई कविता संग्रह मेरे हाथ में देखा तो कहा अगर किसी कवि को पढ़ रहे हो तो उसे पूरा पढ़ो। फिर मैं एक कवि को चुनकर उसकी सारी किताबें जुटाकर पढ़ने लगा।
समय के साथ जब नवल जी से नजदीकी बढ़ी तो मैं अपनी जिज्ञासाएं रखने लगा जो शायद वहां बैठे लोगों को किशोर सुलभ लगती होंगी। पर नवल जी मेरे सवालों से कभी परेशान नहीं होते थे, वे उनका काफी गंभीरता से जवाब देते थे।
नवल जी के समझाने का ढंग बहुत अच्छा था। वे विस्तार से और विषय पर टिके रहकर बात करते थे और उनमें भाषा का पाखंड या विद्वता के प्रदर्शन की मंशा कभी नहीं दिखी। शायद इसलिए उनकी कक्षाएं रोचक होती थीं और विद्यार्थी उनसे बेहद प्रसन्न रहते थे। वे अपनी बात रखने के लिए रोचक प्रसंगों का इस्तेमाल करते थे। वे जब संस्मरण सुनाते तो संबद्ध व्यक्ति को एकदम सामने ला खड़े करते थे। जैसे नागार्जुन के बारे में उन्होंने कई बातें बताईं, जिससे एक महान कवि के मानस को समझने में मदद मिली। राजकमल चौधरी के बारे में जो भी जानता हूं, उन्हीं के जरिए जानता हूं। लेखन के शुरुआती दिनों में मैं कई बार निराश हो जाता तो वो मेरा हौसला बढ़ाते। उन्होंने बताया कि लेखन किस तरह जीवन पर असर डालता है। और यह भी कि लेखन अपने आप में एक मूल्य का सृजन है। उन्होंने राजकमल चौधरी का उदाहरण देते हुए कहा कि समाज की सोच और रुचियों पर असर डालने के लिए लगातार और काफी ज्यादा लिखने की जरूरत है। एक बार पटना के ही एक कवि ने मेरी कविता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि मेरी कविता की भाषा ठीक नहीं है। मैंने उसी दिन नवल जी से पूछा, ‘कविता की भाषा कैसे ठीक होती है?’ उन्होंने कहा, ‘भाषा की चिंता न करने से।’ मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को समझने में भी मुझे उन्हीं से मदद मिली। नवल जी से मैंने जाना कि सृजनात्मकता श्रम और अनुशासन के साथ मिलकर ही पू्र्णता प्राप्त करती है। वह योजना बनाकर लिखते और एक-एक किताब पर खूब मेहनत करते।
बाद में नवल जी वहां से थोड़ी दूर गुल्बी घाट के एक मकान में चले गए। वहां भी मैं उनसे मिलने जाता था, लेकिन वहां सुमति पथ वाले मकान जैसी बैठकी फिर नहीं लग पाई। या लगती भी होगी तो मैं उसका हिस्सा नहीं रहा क्योंकि मैं दिल्ली चला आया। लेकिन जब भी मैं पटना जाता उनसे जरूर मिलता। .....मेरे भीतर नवल सर हमेशा मौजूद रहेंगे।   

…………

मंगलवार, 12 मई 2020

विवाह ?? / अजय श्री





विवाह..!

वन में विचरण करते हुए ,दो सुन्दर युवा राजकुमारों राम और लक्ष्मण को देखती है तो मोहित हो जाती है |मायावी होने के कारण सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर एवं भाई रावण के बल अहंकार में ,उसे लगता है कि दोनों राजकुमारों में से कोई न कोई तो उससे विवाह कर लेगा !आश्वस्त हो वह उनकी कुटिया में पहुँच जाती है |राम और लक्ष्मण को अपने सम्मुख पाकर मंत्रमुग्द्ध हो राम से अपने सौन्दर्य का वर्णन कर विवाह प्रस्ताव देती है |
श्रीराम मंद-मंद मुस्कुराते हुए निश्क्षल भाव से कहते है :–देवी मेरा विवाह हो चुका है ,और माता सीता को बुलाते हैं  |आवाज सुन कर वो बाहर आती हैं | एक दूसरे से परिचय उपरान्त ,माता सीता सुपर्न्खा को प्रणाम कर मुस्कुराती हैं |
यह दृश्य देख वह व्यथित हो उठती है और श्री राम से कहती है –यदि तुम विवाह नहीं कर सकते तो अपने भाई से कहो वह मुझसे विवाह कर ले !लक्ष्मण बिना देर किये बोल उठते हैं –नहीं देवी कदापि नहीं ,असंभव |सूपर्णखा क्रोधित हो चीख पड़ती है: –“मैं राक्षस कुल से हूँ ,मेर भ्राता प्रकाण्ड पंडित और महाबली लंकेश हैं ;तुम वनवासीयों का इतना दुस्साहस ,मेरे जैसे रूपवान और महाबलशाली रावण की बहन के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दो,मैं तुम लोगों का सर्वनाश कर दूंगी !जैसे ही अपने मायावी शक्तियों का प्रयोग करने को तत्पर होती है ,लक्ष्मण अपने धनुष–बाण से उसकी नाक काट देते हैं |
यह प्रतीकात्मक सन्देश है कि कोई स्त्री कितनी भी रूपवान और बलशाली क्यों न हो वह बिना पुरूष की स्वीकृति और बलपूर्वक उससे संबंध स्थापित नहीं कर सकती ;अन्यथा समाज के सम्मुख उसे अपनी नाक कटवानी पड़ेगी | रामकथा को अगर हम ध्यान से पढ़े तो महसूस होगा कि बड़ी–बड़ी बातें,छोटे–छोटे प्रतीकों के माध्यम से कहीं गई हैं |हम इसे प्रतीकों का शास्त्र कह सकते हैं |
अत: सौमित्र पुत्र लक्ष्मण ने स्पष्ट सन्देश दिया है समाज को , कि विवाह जैसे पवित्र संबध के लिए दोनों पक्षों की सहमती अनिवार्य है |
तो मैं कह रहा था सुन्दरी; इस प्रकार प्रतीकों के माध्यम से पुरे रामायण में जनमानस को सन्देश देने की कोशिश की गई है |
क्या सन्देश देने की कोशिश कर रहे हैं जीजा जी ?लॉबी में प्रवेश करते हुए आरती ने कहा |
अरे आरती ;आओ आओ बैठों संजय ने पीछे मुड़ते हुए बोला |
जीजा जी आप भी कहाँ राम कथा में उलझ गए |
नहीं आरती,मुझे तो बहुत अच्छा लगता है , ये प्रयास, राम कथा को एक नए अंदाज में  विशेष वाचन और गीत-संगीत की शैली में|कम से कम उन पाखंडी बाबाओं से तो अच्छा है जो लाखों रूपए लेकर लोगों को बेवकूफ बनाते हैं और एक दिन जेल की सलाखों के पीछे होतें हैं |कुछ नहीं तो घर का नाम रामायण रखने वाले लोगों के बच्चों और उन जैसे तमाम लोगों को कुछ सार्थक जानकारीयां मिल जायेगी!
तुम भी न अपनी मां की तरह एक बार शुरू हो जाते हो तो चुप होने का नाम नहीं लेते,पत्नी सुन्दरी ने अपने चिर परचित अंदाज में उपस्थिति दर्ज कराई |
आरती हम लोगों से मिलने आई है ; तुम्हारी राम कथा सुनाने नहीं |अरे मॉर्डेन लड़की है ,देश की राजधानी में अकेले रह कर नौकरी करती है,रोज तुमसे ज्यादा राम और रावण देखती और समझती है..समझे !
नहीं दीदी ऐसी बात नहीं है, आरती माहौल में खुद को एडजेस्ट करते हुए बोली-आपने तो जीजा जी की क्लास ले ली ?छोडीए जीजा जी और बताइए  क्या चल रहा है ?
यहाँ तो लखनऊ में आश्वासन चल रहा है ,दिल्ली का मालूम नहीं हंसते हुए संजय ने कहा |सभी एक साथ हँस दिए |
अच्छा छोड़ आरती ये बता कोई लड़का पसंद किया ?सुन्दरी ने उसकी कमर में हाथ डालकर अपनी ओर खीचते हुए कहा,उम्र निकलती जा रही है,ऐसे ही रहा तो बूढ़ी हो जायेगी ?
इतना सुनते ही आरती का चेहरा लाल हो गया,आँखे भर आई |
संजय ने बात बदलते हुए कहा :–तुम भी क्या बात करती हो अभी उम्र ही क्या है मेरे डियर साली की !खामखाह उसे शादी के चक्कर में फसा रही हो ,हमने कौन सा तीर मार लिया |अरे ऐस करने दो अभी |
आँसू पोछते हुए आरती ने चुपी तोड़ीं:-नहीं जीजा जी दीदी ठीक कह रही है,शादी तो हो जानी चाहिए !ज्यादा छोटी नहीं हूँ दीदी से ऐसे ही रहा तो दो चार साल में मैं भी मोनोपॉज की स्तिथि में आ जाउंगी ? पर शादी के लिए एक लड़के की जरूरत होती है ,वो लड़का कहाँ से लाऊ ? जो क़ानून के सामने या रीती रिवाज से जाति-धर्म के अनुसार मुझसे शादी कर ले !आरती ने थोड़ी गंभीरता से कहा |
सुन्दरी ने आँख नचाते  हुए आरती को दुलराते हुए कहा-इतने बड़े देश में मेरी प्यारी बहना को एक लड़का नहीं मिल रहा है |
नहीं मिल रहा है दीदी,कुछ खीझते हुए बोली आरती :-अरे लड़के तो बहुत हैं पर शादी करने के लिए नहीं ;घुमाने –फिराने ,मौज-मस्ती और एक बार सेक्सुवल रिलेशन बनाने के लिए !शादी की बात सुनते ही बिदक जाते हैं जैसे कितनी बुरी बात कह दी मैंने,इतना ही नहीं जो जवाब मिलता है वो सुनो –“मम्मी-पापा से पुछूंगा ?क्योंकि  मेरे घर का कल्चर ,संस्कार थोड़ा ,यू नो ,हम लोग मॉर्डन जरूर हैं पर फेमली वैल्यूज को इग्नोर तो नहीं कर सकते और फिर डूड तुम्हारी ऐज और मेरी ऐज में काफी गैप है ..यू नो,आई एम् सॉरी !तुम कहीं अपनी ऐज ग्रुप में ट्राई क्यों नहीं करती ;आई नो दिस इज द बेस्ट फॉर यू”|
आग लगे ऐसे लड़कों को सुन्दरी ने अपनी सभ्यता छोड़ते हुए कहा |इसी लिए कुत्तों की तरह घुमा करते लड़कियों के पीछे ,जिस हिसाब से लड़कियां कम हैं ,वो दिन दूर नहीं जब ये मुए लड़के आपस में ही शादी कर लेंगे ?
और सुनो दीदी जो मेरी उम्र वालें हैं उसमें तलाकसुदा मर्द ही ज्यादा मिलते हैं | वो करीब तो आना चाहते हैं ,सीधे शब्दों में कहूँ तो लिव इन रिलेसन के बहाने रखैल बना कर रखना चाहते हैं|
मैं जिस उम्र में हूँ दीदी कोई मर्द जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहता ! हाँ जो मिलते हैं वो मेरी उम्र से कही अधिक उम्र के होते हैं ;उन्हें पत्नी नहीं एक सहयोगी की जरूरत होती है बीबी के रूप में !
लेकिन आरती ये हीरोइनें तो जब चाहती हैं जिस उम्र के लड़के से शादी कर लेती हैं उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता ?हाँ दीदी ,ये पैसे वाले अमीर लोग या बिना पैसे वाले गरीब लोग किसी से किसी उम्र में शादी कर लें या छोड़ दे कुछ भी करें कोई कुछ नहीं कहता क्यों कि इन्हें कुछ खोने का डर नहीं होता| मगर ये जो मध्यमवर्गीय नाम का जीव हैं उसने समाज के  सारे संस्कार,सस्कृति,मान-मर्यादा, जाति-धर्म अपने सर पर उठा रख्खें हैं !
हाँ आरती तू ठीक कह रही है हम जैसे लोगों की वजह से ही सदीयों पुरानी अपनी धर्म और संस्कृति बची हुई है जिसकी दुहाई आज पूरा विश्व देता है | पापा ने किस तरह मेरी शादी की हम सब जानते हैं, वो तो कहो संजय अच्छे मिल गए तो कोई दर्द याद नहीं रहा वरना दहेज़ नाम का जो कैंसर है ये मध्यमवर्गीयों को ज्यादा होता है |तेरी शादी के लिए अंतिम सांस तक लड़का ढूढते रहे पर कहीं किसी को लड़की पसंद नहीं होती तो कहीं दहेज़ के लिए बात नहीं बनती!
इतना सुनते ही बिफर पड़ी आरती :- सच दीदी, संस्कारों की ऐसी घुट्टी बचपन से पिलाई जाती है हमको की ,किसी के साथ भागने की भी हिम्मत नहीं कर सकते!लोग क्या कहेंगे ?
यह यक्ष प्रश्न यही साथ नहीं छोड़ता ;उस समय भी मुँह बाए खड़ा रहता है जब उम्र निकाल जाती है, तो लोग पूछते हैं शादी क्यों नहीं करती ? खुद ही जवाब देते हैं; अरे आजकल की लड़कियों को शादी की जरूरत क्या है ? वैसे ही सब सुख मिल जाता है ; जिम्मेदारी ले कर कौन ढोए ! ये शब्द तीर की तरह सीने को छलनी कर देते हैं|
सुन्दरी आरती की बातें सुन आंसुओं को न रो सकी ,आरती को बांहों में लेते हुए बोली- मेरी बहन ,मत परेशान हो तू |माना कि समाज में बुरे लोगों की संख्या अधिक है पर ये नहीं की अच्छे लोग नहीं हैं |
बात अच्छे –बुरे की नहीं है सुन्दरी ,संजय ने बोलना शुरू किया :-बात है समय की; मतलब ये की अगर बच्चों की सही उम्र पे शादी करनी है तो हर मां-बाप को भी समय के साथ चलना होगा चाहें वो लड़की के माता-पिता हो या लड़के के ?
क्या कहना चाहते हो तुम, कौन से मां-बाप नहीं चाहते कि उनके बच्चों की शादी ठीक समय पर न हो ?सुन्दरी ने संजय से प्रश्न किया |
संजय ने आरती और सुन्दरी की तरफ मुखातिब होते हुए कहा;- देखो ये कटु सत्य है की शादी की सही उम्र इक्कीस से पच्चीस वर्ष के बीच होती है ,पर होता क्या है ,उच्य शिक्षा के चक्कर में उनकी उम्र सत्ताइस अठ्ठाईस तक पहुँच जाती है ,उसके बाद नम्बर आता है नौकरी का दो तीन साल इसमे लग जाते हैं |
अब शुरू होता है शादी के लिए लड़का या लड़की खोजने का चक्कर लड़का है तो ऐश्वर्या चाहिए अगर लड़की है तो सलमान खान ,दहेज़ का चक्कर ,नौकरी वाला ,बिना नौकरी वाला ,सास वाली या बिना सास वाली,इन सब के बाद अगर शादी पट गई तो ठीक या इन सब के दौरान लड़का लड़की ने एक दूसरे को पसंद कर लिया और घर वाले राजी तो फिर कोई बात नहीं ,हो गई शादी |वरना फ्रस्टेशन अपना काम शुरू कर देता है !सोने पे सुहागा अगर नौकरी भी न मिली हो तो फिर क्या कहने !
तो तुम ये कहना चाहते हो कि सारी गलती मां-बाप की और लड़की की है,वो पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर,उसकी शादी करा दे ?सुन्दरी इस बार तेज आवाज में बोले जा रही थी |तुम मर्दों की यही सोच ,कारण है जो आजतक औरतें समानता की बात के लिए लड़ती आ रही हैं |
नहीं सुन्दरी मैं ये कहना चाहता हूँ कि पढ़ाई के साथ-साथ हमें सही समय पर शादी की बात को भी याद रखना चाहिए ,जैसे समय पे भूख लगने पर खाने की जरूरत है वैसे ही समय पर शादी भी !क्योकि इस समय हमारे शरीर में होने वाले हार्मोनल चेंजेज न सिर्फ एक नई अनुभूति देते हैं बल्कि स्त्री-पुरूष को आकर्षित करते हैं ,क्योकि हम मनुष्य हैं और एक सभ्य समाज में रहते हैं इस लिए सामाजिक नियमों के अनुसार मां-बाप का ये फर्ज है की वो बच्चोंकी आवश्यकताओं को समझे उन्हें समय पर सेक्स एजुकेशन दें या स्कूलों में शिक्षित कराएं ?वरना समाज में घटने वाली तमाम मानसिक एवं अप्राकृतिक घटनाए इसका उदाहरण हैं! संजय ने अपनी बात पूरी की |
पर जीजा जी कैसे हो सकता हैं ये ?माना की एक हद तक आप सही कह रहे हैं ,वैज्ञानिकों ने भी इस बात की गंभीरता से पुष्टि की है कि अगर एक उम्र तक स्त्री स्वस्थ बच्चों को जन्म देने में सक्षम है उसके बाद उसके सेहत के लिए खतरनाक साबित सो सकता है ,जैसा की हम अक्सर पढ़ते और सुनते हैं | आरती की जिज्ञासा ने प्रश्न किया |
बिलकुल हो सकता है ,बस हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा | हमारे पूर्वज इहीं सब गूढ़ बातों को ध्यान में रख कर बच्चों की शादी सही समय पर कर देते थे |
शादी तो कर देते थे जीजा जी पर स्त्रियाँ आज की तरह अंतरिक्ष में नहीं जाती थी |माना कि तुम सही हो पर पढ़ाई और नौकरी तो शादी के साथ भी जा सकती है अगर करना चाहे तो ? ये तो रही एक बात और दूसरी बात अगर बच्चे आपसी पसंद से विवाह कर रहे हैं तो उन्हें अच्छे बुरे की नसीहत के साथ परिवार का समर्थन मिलना चाहिए! कोई जरूरी नहीं है की हर पति-पत्नी नौकरी करें| बच्चों को अपनी लिखाई-पढ़ाई,नौकरी की तैयारी करने दें, लेकिन एक समय सीमा तय होनी चाहिए पढ़ाई और नौकरी के तैयारी के लिए !
और हाँ बच्चों को भी मां-बाप की बातों को समझना होगा,नहीं तो जो आजकल के बच्चों का ट्रेंड है वो तो तुम देख ही रही हो ? महानगरों में सुबह से निकल जाते हैं ऑफिस, दिन भर कॉफी और सिगरेट ,देर रात तक घर आना, एक बोतल बीयर और बर्गर-पिज्ज्जा जो मिला सो खाया और सो गए |इस आपा-धापी में कैरियर की उड़ान में कंपनियाँ उनका गोल्डन पीरियड पच्चीस से पैतीस की उम्र का सारा पैशन निचोड़ के रख लेती हैं | जब होश आता है तब तक उम्र जा चुकी होती है |फिर उनके हिस्से आता है समझौता सिर्फ समझौता ! फ्रस्टेशन जिससे से तुम गुजर रही हो ,यह आम बात आने वाले वक्त में भयानक बीमारी का रूप ले लेगी?ये मेरे नहीं डाक्टरों के बताये आकड़े और सर्वेक्षण हैं |
आरती के चहरे पर असंतुष्टि का प्रश्नवाचक चिन्ह दिखा ही था| तभी इंदिरा ने शाम की एम बी ए कोचिंग क्लास पूरी करने के बाद घर में प्रवेश किया|सामने आरती को देख चीखते हुए बोली –मौसी आप कब आई और उसके गले से झूल गई |
आरती ने भी उसका माथा चूमते हुए कहा बड़ी मेहनत कर रही मेरी बिटिया  ?
क्या मौसी तुम न कह रही हों ,पर पापा तो चाहते हैं की मेरी शादी करके मुझे इस घर से भगा दें ,बिलकुल प्यार नहीं करते मुझे ?रुठते हुए इंदिरा णने शिकायत की |
इतना सुनते ही आरती एकदम चुप हो गई उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या जवाब दे !


@अजयश्री

अगर पसंद आये तो कमेंट  करे और न आये तो जरुर करे।



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सोमवार, 11 मई 2020

राकेश रेणुका की काव्यात्मक अभिव्यक्ति




लाक डाऊन में हमारे कवि : राकेशरेणु
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          बिहार के सीतामढी में सत्रह अगस्‍त उन्‍नीसौ त‍िरसठ को जन्मे कवि राकेशरेणु भारतीय सूचना सेवा से सम्बद्व है । सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित साहित्य  संस्कृति पत्रिका आजकल के वरिष्ठ  संपादक है । इस नाते दिल्ली में नौकरी करते है और केन्द्रीय बिहार नोएडा में रहते है किन्तु  राकेशरेणु इतने साल दिल्ली नोएडा में रहने के बावजूद भी दिल्लीयन या नोएडेयन नही हो पाये है । सीतामढी उनमें रचता बसता है । सरल, सहज स्वभाव के राकेशरेणु चकाचौध से दूर रह सादा जीवन जीने वाले और काव्य साधना करने वाले कवि है।
           ख्यात लेखक प्रभात रंजन,जो सीतामढी के ही है, बताते है कि  शायद इस बात को राकेश जी भी न जानते हों कि सीतामढ़ी में रहते हुए अपने शहर के जिस बड़े लेखक-कवि की तरह मै बनना चाहता था वे राकेशरेणु ही थे । राकेशरेणु की कविताएं , लेख देश भर के तमाम पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है । अभी तक उनके दो कविता संग्रह रोजनामजा और इसी से बचा जीवन प्रकाशित हो चुके है । राकेशरेणु के संपादन में समकालीन हिन्दी  कहानियॉ, समकालीन मैथिली साहित्ये, यादों के झरोखे पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है । उन्होनें आजकल के अलावा योजना,कुरुक्षेत्र,रोजगार समाचार,बाल भारती आदि पत्र पत्रिकाओं का संपादन भी किया है ।  कवि रेणु कविता और संपादन तक ही सीमित नही है, उन्होंने  लेख, समीक्षाएं ,रिपोर्ताज भी लिखे है ।
            कवि राकेशरेणु की रचना धर्मिता के बारे में प्रसिद्ध और वरिष्ठ कवि भारत यायावर  कहते है कि “राकेशरेणु एक जरूरी कवि हैं. धरती, हवा और जल की तरह उनकी कविताएँ जीवन के आधार और आवश्यकता की उन तमाम शिराओं को अवलंब देती है जिनकी चेतना से समकालीन जीवन का वैभव वंचित है. उनकी कविताएँ सहजता के छंद में संवेदनाओं और विचारों की सजीव और प्रासंगिक अभिव्यक्ति का प्रमाण हैं. ‘इसी से बचा जीवन’ में कवि की अनुभवपगी आँखे नये अन्वेषण की प्रेरणा देती हैं. इस परिपक्व कवि की भाषा-संरचना में अंतर्निहित शब्दकौशल की व्यंजना चमत्कृत करती है.”
            कोरोना आपदा के दिनों में कवि राकेशरेणु नयी कविताओ के सृजन में तथा आजकल के भावी अंकों की योजना में व्यस्त है । इस आपदा से निपटने के लिए वह कहते है कि एहतियात ही विकल्प  है और इस संकट के समय हम किस की कितनी मदद कर सकते है,यह तय करेगा कि हम कितने मनुष्य है ।
            यहां प्रस्तुत है कवि राकेशरेणु की तीन ताजा कविताएं

(1) अनुनय
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उदास किसान के गान की तरह

शिशु की मुस्कान की तरह

खेतों में बरसात की तरह

नदियों में प्रवाह की तरह लौटो।

लौट आओ

जैसे लौटती है सुबह

अँधेरी रात के बाद

जैसे सूरज लौट आता है

सर्द और कठुआए मौसम में

जैसे जनवरी के बाद फरवरी लौटता है

पूस-माघ के बाद फागुन, वैसे ही

वसंत बन कर लौटो तुम !

लौट आओ

पेड़ों पर बौर की तरह

थनों में दूध की तरह

जैसे लौटता है साइबेरियाई पक्षी सात समुंदर पार से

प्रेम करने के लिए इसी धरा पर ।

प्रेमी की प्रार्थना की तरह

हहराती लहरों की तरह लौटो !

लौट आओ

कि लौटना बुरा नहीं है

यदि लौटा जाए जीवन की तरफ

हेय नहीं लौटना

यदि लौटा जाए गति और प्रवाह की तरफ

न ही अपमानजनक है लौटना

यदि संजोये हो वह सृजन के अंकुर

लौटने से ही संभव हुई

ऋतुएँ, फसलें, जीवन, दिन-रात

लौटो लौटने में सिमटी हैं संभावनाएँ अनंत !
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(2) प्रतीक्षा
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यह ध्यान की सबसे जरूरी स्थिति है

पर उतनी ही उपेक्षित

निज के तिरोहन

और समर्पण के उत्कर्ष की स्थिति

कुछ भी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं

जितनी प्रतीक्षा

प्रियतम के संवाद की, संस्पर्श की

मुस्कान की प्रतीक्षा।
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(3) चुपचाप
~~~~~~~~

बूंदें गिर रही हैं बादल से

एकरस, धीरे-धीरे, चुपचाप।

पत्ते झरते हैं भीगी टहनियों से

पीले-गीले-अनचाहे, चुपचाप।

रात झर रही है पृथ्वी पर

रुआँसी, बादलों, पियराये पत्तों सी, चुपचाप।

अव्यक्त दुख से भरी

अश्रुपूरित नेत्रों से

विदा लेती है प्रेयसी, चुपचाप।

पीड़ित हृदय, भारी कदमों से

लौटता है पथिक, चुपचाप।

उम्मीद और सपनों भरा जीवन

इस तरह घटित होता है, चुपचाप।
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शनिवार, 9 मई 2020

सुबह को आंखों में जगाये रखना / सुरेन्द्र सिंघल




अभी तो रात की स्याही को और बढ़ना है
 और भी वहशी अभी होगा सिरफिरा साया
रगों में और अभी दौड़ न पायेगा लहू
रगों में और अभी जमता चला जाएगा खौफ
अभी तो गाड  खुदा ईश्वर भी खुद डर कर
मंदिरों मस्जिदों गिरजों में ही रहेंगे बंद
रहेंगे बैठे ख़ज़ानों पे कुंडली मारे
अभी तो मजहबी उत्पात मचायेंगे और
अभी तो और जमातें निकल के आयेंगी
सिर्फ तबलीगी नहीं श्रद्धालु भी नहीं पीछे
 अभी तो भूख भी सड़कों पे करेगी तांडव
अभी बदन का पसीना भी होगा बेइज्जत
अभी जो घर से हैं बाहर घरों को तरसेंगे
 अभी जो घर में हैं उन पे भी घर की दीवारें
तंग होती ही चली जाएंगीं
सांस लेने को छटपटाएंगे वे
अभी तो ख़्वाब भी आंखों में तोड़ देंगे दम
अभी तो और लगाएंगी घात छिपकलियाँ
अभी तो और नहाएगा रक्त में बिस्तर
भूमिगत हैं जो अभी तक निकल के आएंगे
और तिलचट्टे रेंगने तन पर
और तिलचट्टे रेंगने मन पर
 अभी से कांप उठे सिर्फ शुरुआत है ये
अभी अंधेरे के उस पार भी अंधेरा है
अभी तो लंबी लड़ाई है सबको लड़नी है
और इसके लिए तैयार करना है खुद को
अभी है दूर बहुत दूर बहुत दूर सुबह अभी सुबह की तरफ लालसा से मत देखो
टूट जाओगे चांद हंस देगा
हाँ मगर सुबह को आंखों में जगाये रखना

              सुरेंद्र सिंघल

बुधवार, 6 मई 2020

तुझे क्या कहूँ




*तुझे क्या कहूं*
*बीमारी कहूं कि बहार कहूं*
*पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं*
*संतुलन कहूं कि संहार कहूं*
*कहो तुझे क्या कहूं*
.
*मानव जो उदंड था*
*पाप का प्रचंड था*
*सामर्थ्य का घमंड था*
*मानवता खंड-खंड था*
.
*नदियां सारी त्रस्त थी*
*सड़के सारी व्यस्त थी*
*जंगलों में आग थी*
*हवाओं में राख थी*
*कोलाहल का स्वर था*
*खतरे में जीवो का घर था*
*चांद पर पहरे थे*
*वसुधा के दर्द बड़े गहरे थे*
*फिर अचानक तू आई*
*मृत्यु का खौफ लाई*
*मानवों को डराई*
*विज्ञान भी घबराई*
.
*लोग यूं मरने लगे*
*खुद को घरों में भरने लगे*
*इच्छाओं को सीमित करने लगे*
*प्रकृति से डरने लगे*
.
*अब लोग सारे बंद है*
*नदिया स्वच्छंद है*
*हवाओं में सुगंध है*
*वनों में आनंद है*
.
*जीव सारे मस्त हैं*
*वातावरण भी स्वस्थ है*
*पक्षी स्वरों में गा रहे*
*तितलियां इतरा रही*
.
*अब तुम ही कहो तुझे क्या कहूं*
*बीमारी कहूं कि बहार कहूं*
.
*पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं*
*संतुलन कहूं कि संहार कहूं*
*कहो तुझे क्या कहूं*
.
🙏🏼🌹


[17/04, 19:48] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया छंद ---

विषय- नटखट


           "मेरे नटखट लाल"
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                      (१)

नटखट माखन लाल ने,फिर चोरी की आज।
सुनकर यशुमति को लगी,फिर से थोड़ी लाज।।
फिर से थोड़ी लाज,मातु को गुस्सा आया।
बाँध लला को आज,छड़ी को उन्हें दिखया।।
कहता सत्य दिनेश,बाँध दे जग को चटपट।
बँधे स्वयं भगवान,आज वो कैसे नटखट।।

                       (२)

जागो नटखट लाल अब,देखो!हो गई भोर।
गायें भी करने लगीं,तुम बिन अब तो शोर।।
तुम बिन अब तो शोर,बड़ी व्याकुल लगती हैं।
सुनकर मुरली तान,सदा सोती जगती हैं।।
कहता सत्य दिनेश, कर्म-पथ पर तुम भागो।
आलस को तुम छोड़,नींद से अब तो जागो।।

                    (  ३)

राधा ने चोरी किया,मुरली नटखट लाल।
बतियाने की लालसा,समझ गए वह चाल।।
समझ गए वह चाल,माँगते कृष्ण-कन्हैया।
मुस्काती यह देख,लला की यशुमति मैया।।
कहता सत्य दिनेश,कृष्ण तो केवल आधा।
तभी बनेंगे पूर्ण,मिलेंगी उनको राधा।।

                      (४)

आए नटखट लाल जब,यमुना जी के तीर।
चढ़े पेड़ ले वस्त्र को,गोपी भईं अधीर।।
गोपी भईं अधीर,किए नटखट तब लीला।
मन ही मन मुस्कात, गात जब देखें गीला।।
निःवस्त्र न हो स्नान,यही संकल्प कराए।
मेरे नटखट लाल,वस्त्र वापस दे आए।।

             दिनेश श्रीवास्तव

              ग़ाज़ियाबाद
[23/04, 19:06] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया-    सादर समीक्षार्थ

विषय-       "वाणी"

                        (१)

वाणी ऐसी बोलिए, प्रथम कीजिए तोल।
शब्द शब्द हो संयमित,फिर मुख निकले बोल।।
फिर मुख निकले बोल, सदा सुखदायी होता।
मन का अंतर खोल,अन्यथा मानव रोता।।
कहता सत्य दिनेश,सुनो!जग के सब प्राणी।
तोल-मोल कर बोल,सदा ही मीठी वाणी।।

                 ( २)

करते मधुर प्रलाप हों,मीठी वाणी बोल।
उर अंतर में हो भरा,विष का केवल घोल।।
विष का केवल घोल,भरे हैं अंदर ऐसे।
वर्जित ऐसे लोग,पयोमुख गागर जैसे।।
अंदर बाहर एक,भाव समदर्शी धरते।
कहता सत्य दिनेश,नहीं वह धोखा करते।।

                     ( ३)

वाणी सच्ची बोलिए, पर इतना हो ध्यान।
सीधे लाठी मारकर,मत करिए अपमान।।
मत करिए अपमान,मधुरता कभी न छोड़ें।
जो करता अपमान,सदा उससे मुख मोड़ें।।
कहता सत्य दिनेश,नहीं अच्छा वह प्राणी।
कहता सच्ची बात,मगर कड़वी हो वाणी।।

                        (४)

वाणी में करतीं सदा,वीणापाणि निवास।
होता वाणी में वहीं,सुंदर सुखद सुवास।।
सुंदर सुखद सुवास,सदा वाणी हो जिसकी।
होती सदा सहाय, शारदा माता उसकी।।
करता विनय दिनेश,मातु!भर दो प्राणी में।
पावनता का अंश,सभी जन के वाणी में।।

              दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: दोहे-एकादश
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          'मन' की बात
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१- मन से मन की मानकर,मनन करें कुछ आप।
फिर जो कहता मन करें,मिटे मनः संताप।।

२- मन मलीन मत कीजिए, भरिए मन उत्साह।
मन जो मारा मर गया,पूरी हुई न चाह।।

३- मन ही मन का मीत है,करिए मन से प्रीत।
मन हारे तो हार है,मन जीते तो जीत।।

४- जीवन मे करिए नहीं,मन को कभी मलीन।
मुख के सारे तेज को,लेता है वह छीन।।

५- नहीं गीत संगीत है,मन जाए जब रीत।
मधु ऋतु भी लगने लगे,ज्यों प्रचंड हो शीत।।

6- मन मंदिर पावन बने,उत्तम रहें विचार।
हो प्रवेश मंदिर नहीं,कलुषित कभी विकार।।

७- अवगुंठन मन का खुले,यही परम है ज्ञान।
विषय भोग का अंत हो,योग साधना ध्यान।।

८- वशीभूत मन का हुआ,योगी योग अनर्थ।
हुई साधना फिर वहीं,समझो बिल्कुल व्यर्थ।।

९-मन 'लगाम' है जानिए,'रथ' को समझ शरीर।
बुद्धि 'सारथी' साथ मे,'रथी' आत्मा वीर।।

१०-इन्द्रिय पर अंकुश लगे,जब विवेक हो धीर।
वह लगाम को खींचकर,हरता मन की पीर।।

११-पवन-वेग से तेज है,मानस प्रबल अधीर।
चंचलता इसकी सदा,करती व्यथित शरीर।।

                      दिनेश श्रीवास्तव
                      ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: बाल-कविता

               "वीर बालक लव-कुश"
               -- ------------------------

लव-कुश दोनो जुड़वे भाई,
उनकी माता सीता माई।
राजा राम पिता थे जिनके,
बाल्मीकि से शिक्षा पाई।।

रोका अश्व यज्ञ का जाकर,
लड़े लखन जी फिर थे आकर।
दोनो में फिर युद्ध हुआ था,
सेना भगी अयोध्या जाकर।।

सभी राम की सेना हारी,
पड़ी अवध पर विपदा भारी।
बड़े सोच में राम पड़े फिर,
बच्चों से सेना क्यों हारी।।

बाँधी पूँछ समझकर बंदर,
हनुमान को समझ कलंदर।
भागी भागी सीता आईं,
कहीं चलो जी कुटिया अंदर।।

लवकुश को फिर कथा सुनाई,
सीता ने फिर बात बताई।
ये तो महावीर हैं बेटे!
इन्होंने ही लाज बचाई।।

लवकुश अवधपुरी तब आये,
दोनो मन ही मन हर्षाये।
पिता चरण रज लेकर दोनों,
राम नाम का भजन सुनाए।।

हम सब लव-कुश बनना सीखें,
मर्यादा में रहना सीखें।
बाधाओं से क्यों घबड़ाएँ,
कष्ट मिले तो सहना सीखें।।
   
         @दिनेश श्रीवास्तव

            ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एकादश दोहे   - सादर समीक्षार्थ

विषय     -  "स्वर"

           'जय जय हिंदी'
          -------------------

१- स्वर लहरी लहरे यहाँ, छेड़ो ऐसी तान।
भारत में गूँजे सदा, 'जय जय हिंदी' गान।।

२-स्वर व्यंजन की साधना,करते हैं सब लोग।
कविगण!मिलकर आइए, करते हैं हम योग।।

३-स्वर -लहरी उठती वहीं,बजता ताल मृदंग।
मन के झंकृत तार से,उठती तभी तरंग।।

४-स्वर से स्वर मिलता जहाँ, सुरसरि बहती स्नेह।
विना स्नेह सब व्यर्थ है,कंचन बरसत मेह।।

५-स्वर-व्यंजन के मेल से,अक्षर का हो ज्ञान।
अक्षर अक्षर ज्ञान से,हिंदी का सम्मान।।

६- स्वर की मलिका शारदे!,दे दो माँ बरदान।
तमस तिरोहित जगत का,मिटे सभी अज्ञान।।

७- स्वर में करती हैं जहाँ, वीणापाणि निवास।
वाणी में होता वहीं,सुंदर सुखद सुवास।।

८- स्वर को सदा निखारता, ध्यान योग अभ्यास।
आत्मतोष के साथ ही,जग को मिले उजास।।

९- स्वर से स्वर मिलता जहाँ, छिड़े सुरीला तान।
बने गीत संगीत तब,गाता सकल जहान।।

१०- स्वर साधक की साधना,जाती कभी न व्यर्थ।
स्वरविहीन जीवन कहाँ,पाता कोई अर्थ।।

११- 'पंच' ,'षड्ज', 'धैवत', जहाँ, हों 'निषाद' के साथ।
'ऋषभ' 'मध्य' 'गांधार' ही,सप्त सुरों के हाथ।।

( ये सभी सात सुर होते हैं)


                      @दिनेश श्रीवास्तव
     
                           ग़ाज़ियाबाद
           
                            २७ - ४ - २०२०
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया-सादर समीक्षार्थ

                     ( १)

कैसा होकर रह गया,चारित्रिक परिवेश।
मिला गर्त में आज है,अपना भारत देश।

अपना भारत देश,देखकर मन घबड़ाता।
कहीं कहीं तो रेप, कहीं रिश्वत है भाता।।

कहीं डकैती लूट,कहीं पर चलता पैसा।
कहता सत्य दिनेश, देख लो!भारत कैसा।।

                     (  2)

करिए चिंतन राष्ट्र की,उसके हित की बात।
अनहित कभी न सोचिए,नहीं घात प्रतिघात।।

नहीं घात प्रतिघात,भाव मन मे धरना है।
इसी लिए अब आज,हमें जीना-मरना है।।

 कोई हो अवरोध,मार्ग में उसको हारिए।
करता विनय दिनेश,राष्ट्र-हित चिंतन करिए।।


              दिनेश श्रीवास्तव
     
              ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: ग़ज़ल
          ----------

सोजे वतन का वक्त है,महफ़ूज रहना चाहिए,
कुछ ज़ख्म ताज़े हैं अभी,कुछ दर्द सहना चाहिए।

वक्त होता है कहाँ पर,एक सा इस जिंदगी में,
होता तकाज़ा वक्त का,हमको समझना चाहिए।

दुश्वारियाँ मजबूरियाँ,निश्चित दफ़न हो जाएँगी,
फिर आज क्यों उसके लिये,हमको सिसकना चाहिए।

ये आँधियाँ चलती रहें,बरबादियाँ करती रहें,
एक दिन होंगी मुक़म्मल,विश्वास रखना चाहिए।

अब हो गई है इंतहां, बैठे कफ़स में रात दिन,
कैद में कब तक रहूँगा,अब निकलना चाहिए।

इश्क भी सोने लगा है,मुश्क भी छिपने लगा,
अब तो दुपट्टा इत्र में,फिर से महकना चाहिए।

ये घटा कब तक रहेगी,आसमां में ऐ 'दिनेश'!
चीर कर इन बादलों को,अब चमकना चाहिए।

                        दिनेश श्रीवास्तव
                        ग़ाज़ियाबाद
           
कफ़स- जेल,कारागार,पिंजड़ा

मुश्क -  सुगंध,कस्तूरी
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एक गीत-सादर समीक्षार्थ



           "खोलो मन के द्वार"
             ----------------------

खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।

        कहाँ कहाँ तुम भटक रहे हो,
         दर दर पर तुम अटक रहे हो।
        ठोकर कब तक खाओगे तुम,
       लौट वहीं फिर आओगे तुम।

लौटो अपने पास बटोही,झूठा है संसार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

         
       जीवन की चिंता तुम छोड़ो,
       स्वयं ब्रह्म से रिश्ता जोड़ो।
        बसता तेरे अन्तर्मन में,
        वही धरा पर,वही गगन में।

किसे खोजते कहाँ बटोही,खुद से जोड़ो तार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

           आओ लौट चलें अपने मे,
           विचरण क्यों करते सपने में।
          बसा हुआ जो तेरे अंदर,
          नहीं जगत में इससे सुंदर।

आत्मदीप बनकर जलने का,मन में करो विचार।
खोलो मन के तार बटोही,खोलो मन के तार।।

            अमिय कलश तेरे है अंदर,
            तुम तो अपने आप समंदर।
            खुद पर करो भरोसा प्यारे,
            होंगे सारे रत्न तुम्हारे।

तुम अथाह सागर हो प्यारे,रत्नों के भंडार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

तुम्हीं ब्रह्म हो,तुम्ही अनामय,
हो भगवंता,तुम्हीं निरामय।
कस्तूरी को कहाँ खोजते,
वन वन में तुम कहाँ विचरते।

तेरे अंदर ही कस्तूरी,करो स्वयं से प्यार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।

         
              दिनेश श्रीवास्तव
   
             ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: दोहे- सादर समीक्षार्थ

विषय- "पनघट" (अनुप्रास अलंकार युक्त)

१- प्रथम प्रहर पनघट गयीं,राधा लेने नीर।
दरस नहीं कान्हा दिए,उपजा मन में पीर।।

२- पनघट पानी भरन को, भई भयंकर भींड़।
राधा बिन पानी लिए,लौटीं अपने नीड़।।

३- पनिहारिन पनघट गई,पानी लेने आज।
पीत वसन पट ओढ़नी,ढकती अपनी लाज।।

४- कनक कामिनी कटि धरे,घट को ले सुकुमारि,
पनघट पानी भरन को,चली सुकोमल नारि।।

५- पनघट!जग प्यासा बड़ा, जाता तेरे पास।
पीता पानी प्यार से,मिट जाती सब प्यास।।

६- पनघट!मैं प्यासा रहा,पूरी हुई न आस।
बुझ पाएगी कब यहाँ, अन्तर्घट की प्यास।।

             दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: हिंदी ग़ज़ल  - सादर समीक्षार्थ
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             "सीखो तो"
         

अक्षर के फूलों से कोई,हार बनाना सीखो तो।
कविताओं को ही अपना, संसार बनाना सीखो तो।।-१

वो आएगी,रूठ गयी जो,बैठी है चुपचाप वहाँ,
उसको अपने पास बुलाकर,प्यार जताना सीखो तो।-२

उसके होंठ शबनमी होंगे,मादक होंगे पुनः रसीले,
पहले प्यासे अधरों का तुम,प्यास बुझाना सीखो तो।३

चला गया,आएगा वो फिर,लौट यहाँ पर एक दिवस,
मधुर मधुर  बातों से उसको,पास बुलाना सीखो तो।-४

घायल होकर लौटा है,सीमा की रक्षा करते वो,
उठकर के वो पुनः लड़ेगा,जोश जगाना सीखो तो।-५

अँधियारा भी गायब होगा,नहीं दिखेगा आज यहाँ,
आशाओं का फिर से कोई,दीप जलाना सीखो तो।६

बगिया में फिर से आएँगी, लौट बहारें आज यहाँ,
उजड़े बगिया में फिर कोई,पुष्प खिलाना सीखो तो।-७

फिर से कोई बाग नहीं 'शाहीन',यहाँ बन पाएगा,
दिल्ली वालों दिल की दूरी,आज मिटाना सीखो तो।-८

कोरोना से लड़ने वाले,वीर सिपाही हैं अपने,
उनके प्रति आभार यहाँ पर,आज दिखाना सीखो तो।-९

हारेगा ये कातिल 'कोविड',निश्चित कोरोना जानो,
हाथों को तुम धोना सीखो,मास्क लगाना सीखो तो।-१०


हरी भरी ये धरती होगी,नहीं दिखेगा कहीं धुआँ,
नंगी धरती पर 'दिनेश' तुम ,वृक्ष लगाना सीखो तो।-११

                      दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कतिपय दोहे  -सादर समीक्षार्थ
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      विषय-  "यदि"


यदि-यदि करना छोड़िए,दृढ़ हो सदा विचार।
जो भी निश्चय कर लिया,कर लो फिर स्वीकार।।-१

शब्द-अर्थ के साथ मे,यदि हो सुंदर भाव।
सर्वोत्तम साहित्य का,होगा नहीं अभाव।।-२

अवचेतन चेतन करे,हृदय भरे विश्रांति।
शब्द- शब्द पाथेय यदि,हरे जगत की क्लांति।।-३

यदि चिन्मय आनंद की,परिभाषा सुखभोग।
व्यर्थ हमारी साधना,व्यर्थ हमारा योग।।-४

यदि चिन्मय आनंद हो,मिलता स्वतः प्रकाश।
प्रमुदित जग सारा लगे,अवनि और आकाश।।-५

यदि होता मैं देश का,सक्षम एक नरेश।
हिंदी होती राष्ट्र की,भाषा भारत देश।।-६

संविधान,झंडा यथा,एक राष्ट्र की शान।
भाषा भी यदि एक हो,तभी बने पहचान।।-७

यदि तुमको कोई मिले, चेहरा कहीं उदास।
मानो फैला है नहीं,समुचित वहाँ प्रकाश।।-८

यदि 'स्वामी' बनकर करें,सदा यहाँ व्यभिचार।
उनको मत करना कभी,जग वालों!स्वीकार।।-९

यदि शिक्षाएँ बुद्ध की,धारण करो 'दिनेश'।
विश्वगुरू के रूप में,होगा फिरसे देश।।-१०


                दिनेश श्रीवास्तव
                  ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: वर्गीकृत दोहे- सादर समीक्षार्थ

विषय-  "और"

             
१- और और करता रहा,मिला कभी कब तोष।
जीवन भर भरता रहा,केवल अपना कोष।।

        (गयंद दोहा-गु-१३,ल-२२)

२- और और करता रहा,बदल न पायी सोच।
जीवन भर करता रहा,वह केवल उत्कोच।।

             (गयंद दोहा- गु-१३,ल-२२)



         
३- और और की चाह का,करना होगा अंत।
धन केवल संतोष है,कहते हैं सब संत।।
            (करभ दोहा- गु-१६,ल-१६)


४- "और नहीं अब चाहिए",कहता है अब कौन।
अपनी पारी देखकर,हो जाते सब मौन।।
           (नर दोहा-गु-१५,ल-१८)

         


५- और और करते रहे,मिटी न मन की चाह।
अंत समय आया जहाँ, केवल मिली कराह।।
               (हंस दोहा-गु-१४,ल-२०)

६- औरों की देखा जहाँ, मची 'और' की होड़।
और और करते हुए,गया जगत को छोड़।।
             (मरकट दोहा-गु-१७,ल-१४)
             
 


७- और और को छोड़िए,प्रभु का कर लो गौर।
सच्चा सुंदर है वही,जग में केवल ठौर।।

             (करभ दोहा-गु-१६,ल-१६)


८- 'और' नहीं पूरा हुआ,हुई न पूरी आस।
जीवन भर करता रहा,इसका सतत प्रयास।।

            (हंस दोहा-गु-१४,ल-२०)


९- कभी न सुनिये और की,करिए मन की बात।
औरों से मिलता रहा,सदा निरंतर घात।।
           (नर दोहा-ग-१५,ल-१८)



१०- चाह 'और' की छोड़िए, करिए और विचार।
जीवन यहाँ सवाँरिये,नश्वर है संसार।।
       
              (करभ दोहा- गु-१६,ल-१६)

             @ दिनेश श्रीवास्तव
                  ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: आज के विषय पर एक अतुकांत रचना- सादर समीक्षार्थ।
     
                    "गगन"
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हे गगन!
हे आकाश!
हे संकाश!
पंचभूतों में एक
तुम्हीं तो हो
मेरे अन्दर का
प्रकाश।
पृथ्वी, अगन, आकाश,
वायु और जल,
जिसे समेटा हुआ
स्वयं में क्यों हूँ आज
इतना विकल?
 तुम मुझे छोड़
हे उन्मुक्त गगन!
करते हो स्वछंद विचरण,
इतने मगन।
 और मैं अभागा
शोक संतप्त धरा पर
हूँ संतप्त।
वर्तमान झंझावातों को सहन करता
किसी अनजान रोग से
आतप्त।
मुझमें ही समाहित तुम,
मेरे अपने!
अब तो साकार करो
चिर प्रतीक्षित
मेरे सपने।
आओ!चलें उस क्षितिज तक
जहाँ हमारा तुम्हारा हो
मिलन।
हाथों में हाथ लेकर-
हे! मेरे गगन।
तुम्हारे सहवास से,
तुम्हारे प्रकाश से हो
पंचभूतों का फिर से
 सुखद मिलन।।

                दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कॅरोना वायरस-कारण और निदान
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एक कॅरोना वायरस,जग को किया तबाह।
निकल रही सबकी यहाँ, देखो कैसी आह।।-1

विश्वतंत्र व्याकुल हुआ,मरे हजारों लोग।
आपातित इस काल को,विश्व रहा है भोग।।-2

खान-पान आचरण ही,इसका कारण आज।
रक्ष-भक्ष की जिंदगी,दूषित आज समाज।।-3

योग-साधना छोड़कर,दुराचरण है व्याप्त।
काया कलुषित हो गई, मानस शक्ति समाप्त ।।-4

स्वसन तंत्र का संक्रमण,करता विकट प्रहार।
शीघ्र काल कवलित करे,करता है संहार।।-5

ये विषाणु का रोग है,करता शीघ्र विनास।
रोगी से दूरी बने,रहें न उसके पास।।-6

हाथ मिलाना छोड़कर, कर को जोरि प्रणाम।
ये विषाणु, इसका सदा,शीघ्र फैलना काम।।-7

हो बुखार खाँसी कभी,सर्दी और ज़ुकाम।
हल्के में मत लीजिए,लक्षण यही तमाम।।-8

भोजन नहीं गरिष्ठ हो,हल्का हो व्यायाम।
रहें चिकित्सक पास में,करिए फिर विश्राम।।-9

तुलसी का सेवन करें,श्याम-मिर्च के साथ।
पत्ता डाल गिलोय का,ग्रहण करें नित क्वाथ।।-10

रहना अपने देश में,जाना नहीं विदेश।
प्यारा अपना देश है,रखना ध्यान 'दिनेश'।।

                     दिनेश श्रीवास्तव
                      गाज़ियाबाद
              दूरभाष-९४११०४७३५३
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया

                    "श्रम-सीकर"

श्रम- सीकर झरता रहा,चूता रहा ललाट।
पछताता है बैठकर,श्रमिक गंग के घाट।।
श्रमिक गंग के घाट,बैठकर जल को चाहे।
उसको भी मिल जाय,और वह भी अवगाहे।।
कहता सत्य दिनेश,सदा जीता वह पीकर।
कण कण अपना स्वेद,और अपना श्रम- सीकर।।

                "मधुशाला"

मधुशाला ने कर दिया,. मे संचार।
 जनता अपने देश की,अपनी है सरकार।।
 अपनी है सरकार,सभी की प्यास बुझाई।
कंठ कंठ में बूंद, ख़ज़ाने में धन लाई।।
करता विनय दिनेश,उठा लो तुम भी प्याला।
सबकी रखती ख्याल,हमारी है मधुशाला।।

                 @दिनेश श्रीवास्तव
                      ग़ाज़ियाबाद

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

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