रविवार, 31 मई 2020

लघुकथा -मेरी ढाल / सीमा मधुरिमा





मेरी ढाल ....

ऑफिस में सभी उसके बारे में बातें करते थे ...अक्सर लोगों की काना फूसि होने लगती जहाँ से वह गुजर जातीं ...पर पूजा को जाने ये सब क्यों अच्छा नहीं लगता था ...पहले ही दिन से वो उसके प्रति आकर्षित होने लगी थी शायद ईश्वरीय इक्षा होंगी ....जल्द ही दोनों बहुत अंतरंग सहेली बन गयीं l तीन महीने बीत गए थे पूजा उससे वो बात पूछने से कतराती रही पर उसके मन में पूछने का ज्वार हमेशा उठता ही रहता था l वो आपने नाम रूपा की तरह ही बेहद खूबसूरत थी और किसी भी उर्वशी और मेनका को सुंदरता में टक्कर देती थी उम्र से चौतीस पैतीस साल की होंगी l अपने अधिकारी की भी उस पर विशेष कृपा थी जो प्रत्यक्षतः समझ में भी आती थी ...एक दिन हिम्मत करके पूजा ने उससे पूछ ही लिया , " देख रूपा अगर बुरा न मान तो एक बात पूछना था तुझसे .....पर तू भरोसा रख बात मुझ तक ही रहेगी ,"
रूपा बड़े ही बिंदास लहजे में सतर्क होकर बोली , " हाँ तो पूछ न क्या पूछना हैं ....और तू निश्चिन्त रह तुझे सब बतायुंगी , "
पूजा धीमे स्वर में बोली , " असल में ऑफिस में सबसे सुना हैं वही तुझसे कन्फर्म करना चाहती थी ....मैं जानना चाहती थी की सच्चाई क्या हैं , "
रूपा , " क्या सुना हैं पूजा , साफ साफ बोल यूँ पेहलियाँ न बुझा , "
पूजा , " ये तेरे और अपने साहब मेहरा जी के बारे में जो सुन रही हूँ ....वो जैसे तुझसे हक से बात करते हैं तेरे सब काम में सपोर्ट करते हैं और भी बहुत कुछ ....पर मैं तेरे मुँह से सुनना चाहती हूँ ....,"
रूपा , " तो सुन मेरा उनके साथ अफेयर चल रहा हैं , "
पूजा , " पर रूपा तेरी दो बेटियाँ हैं और तुझपर उनकी जिम्मेदारी हैं ऐसे में ये सब , "
रूपा , " हाँ पूजा जानती हूँ अपनी जिम्मेदारी  .....ज़ब नौ साल की थी माँ छोड़ गयीं बाप ने दूसरा विवाह कर लिया और जो औरत मेरी नई माँ बनकर आयी थी उसकी आँखों में मैं हमेशा ही खटकती रही ....मैं और पढना चाहती थी पर सत्रह साल की उम्र में ही पैतीस साल के मुझसे दुगुने उम्र के आदमी के साथ जबरन व्याह दिया गया ....जिसने पहले दिन से ही मुझे जानवर के इलावा कुछ न समझा खूब दारू पिता और फिर मेरे शरीर को नोचता ..घर खर्च के पैसे भी न देता .. ..अक्सर ही मन में आत्महत्या के ख्याल आते ...इस बीच दो दो बेटियाँ भी आ गयीं मेरे पैरों में बेड़ियाँ डालने ...बेटियों के जन्म पर मुझे और सताने लगा बोला एक लड़का तक तो दे नहीं पा रही ....इतना सब कम न था आये दिन मेरे आँखों के आगे ही दूसरी औरतें लाता ....उफ्फ्फ्फ़ पूजा तुझे मैं क्या क्या बताऊं ...तू सुन नहीं पाएगी ...कहते कहते रूपा की आँखों से अनवरत अश्रुजल निकलने लगे और आवाज रुँधने लगीं ....फिर वो आगे बोली ....और फिर एक दिन ज़ब उसका पाप का घड़ा भर गया तो ...तो एक दिन अचानक ही हृदयघात से उसकी जीवन लीला खत्म हो गयी ....पर उसके जाते ही शायद मेरा सुख लिख दिया था किस्मत ने ...और फिर उसकी सरकारी नौकरी भी मुझे मिल गयी ...क्लेम के रुपयों से मैंने उस घर को भी खरीद लिया जिसका कभी किराया नहीं दे पाती थी ...और फिर बेटियों को अच्छे स्कूल में दाखिला करा दिया .....यहाँ ज़ब नौकरी में आयी तो मेहरा साहब की मेहरबानी मिली जिसे मैंने जानबूझकर एक आशीर्वाद की तरह लिया ...मेहरा साहब आज मेरे और समाज के बीच एक ढाल की तरह हैं ...मेरे घर आते जाते रहते हैं जिससे अड़ोस पड़ोस वालों की बुरी निगाहों से मैं और मेरी दोनों बच्चियां बची रहती हैं ...हाँ कभी कभी मेहरा जी के अपने परिवार का ख्याल आता है तो दुख लगता है और मन दुखी हो जाता है ....फिर मन में यही ख्याल आता है की इसमें मेरी क्या गलती ....जिसे अपनी पत्नी से बेवफाई करनी ही है तो मै नहीं हूँगी तो कोई और होगा  और मेहरा जी मेरी बेटियों को बाप सा प्यार ही देते हैं , "
पूजा , "उफ्फ्फफ्फ्फ़ तेरा जीवन तो दुखों का एक पहाड़ है रूपा ...तुझे देखकर ऐसा नहीं लगता था की कितना कुछ समेटे बैठी है अपने भीतर , "
रूपा , " हाँ पूजा ...मेरा पति अपनी नौकरी अपना बॉस अपनी बेटियाँ सब मुझे दे गया एक जिम्मेदारी की तरह ....पर उसमे मैंने अपना वो सुख भी तलाश लिया जिसकी चाहत किसी भी स्त्री की एक नैसर्गिक जरूरत भी है , "
पूजा दृढ निश्चयी रूपा का चेहरा देख थी थी जिसपर एक अजीब सा तेज झलक रहा था lll
सीमा"मधुरिमा"
लखनऊ !!!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...