लघुकथा
समाज बड़ा की माँ का प्रेम
"ये क्या कह रही हो माँ , मैं तुम्हारा रामु बोल रहा हूँ ....वही रामु जिसको एक नजर देखने के लिए कितनी मिन्नतें करती हो ...आज ज़ब मै पांच सौ किलोमीटर इस पैर से पैदल चलकर आया हूँ ..भूखा भी हूँ और प्यासा भी तुम्हारे पास आना चाहता हूँ तुम्हारे गोद में सर रखकर बहुत रोना चाहता हूँ और तुमसे क्षमा माँगना चाहता हूँ तुम्हारे कितना मना करने पर भी मैं शहर के चमक के आगे नहीं माना और दर दर की ठोकरे खाने चला गया .....बहुत भूखा हूँ माँ सबसे ज्यादा तो तेरे प्यार का भूखा हूँ ....ऐसे में तुम इतनी कठोर कैसे हो गयी माँ बताओ .. बताओ न माँ , "
उधर से माँ की आवाज आयी , " बेटे मेरे लाल ....मेरे जिगर के टुकड़े ...तू मुझे गलत मत समझ ...आज जो विकट परिस्थिति आन पड़ी हैं यही तेरे माँ की और तेरी भी असली परीक्षा की घड़ी हैं ....आज माँ बेटे के प्यार से बढ़कर धरती माँ का प्यात हैं हमारी इस गावं का प्यार हैं ....तेरे अपने लिए भी यही ठीक हैं . ...देख हमारी यशस्वी मुख्यमंत्री जी ने जो सेंटर बनवाया हैं वही चौदह दिन का समय बीता ले तब ही गावं में पैर रखना .....देख प्रभु श्री राम ने तो अपनी माँ के कहने से चौदह साल बीता लिया था वो भी वन में तुम अपनी माँ के कहने से चौदह दिन नहीं गुजार सकते ...मैं नहीं चाहती मेरा बेटा किसी के भी बीमारी का कारण बने ...तू समझने का प्रयास कर मेरे लाल ....ईश्वर न करे अगर तुझे वो बीमारी हो ....पर अगर ऐसा होगा तो पूरा गावं ही चपेट में आ जाएगा , "
रामु ने उत्तर दिया ...." माँ शायद तुम ठीक कहती हो ....मैं बेहद डरा हुआ हूँ इसलिए तुम्हारी छाया में आना चाहता था .. तुम निश्चिन्त रहो अब मैं तुम्हारा मुँह चौदह दिनों बाद ही देखूंगा ....और हाँ घर में किसी से न बताना की मेरी तुम्हारी बात हुयी हैं , " कहकर रामु ने संतोष की साँस ली और उस शिविर को ओर चल पड़ा जो उसकी आँखों के समक्ष धुंधला सा दिखाई दे रहा था !!!!
सीमा"मधुरिमा"
लखनऊ !!!
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