सोमवार, 18 मई 2020

कवि कविताएं और कोरोना काल / संजय कुंदन




कई लोग परेशान हैं कि कोरोना संकट के इस दौर में इतनी कविताएं क्यों लिखी जा रही हैं। ऐसा सोचने वालों के भीतर कहीं न कहीं यह भाव है कि कविता लिखना कोई दोयम दर्जे का काम है। यह तो कोई हल्की-फुल्की चीज है, मनोरंजन की चीज । बताइए, एक तरफ लोग इतनी मुश्किलें झेल रहे हैं और आप कविता लिख रहे हैं! ऐसा कहने वालों को यह नहीं मालूम कि संकट के दौर में ही सबसे ज्यादा कविताएं लिखी गई हैं। आपातकाल में सत्ता की तानाशाही के खिलाफ धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय और नागार्जुन जैसे प्रतिष्ठित कवि तो लिख ही रहे थे प्रायः हर शहर में कवियों की एक जमात खड़ी हो गई थी। बिहार में रेणु की अगुआई में सत्यनारायण, गोपीवल्लभ सहाय और परेश सिन्हा  जैसे कवि लगातार लिखकर आपातकाल का विरोध कर रहे थे। इसके अलावा कितने ही ऐसे कवि लिख रहे थे, जिनके नाम कोई नहीं जानता। नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय भी यही हाल था, जिसने हिंदी को वेणु गोपाल, कुमार विकल और आलोकधन्वा जैसे कवि दिए। आंदोलन में शामिल हर दूसरा व्यक्ति आंदोलन में अपनी भूमिका निभाने के साथ कविता भी जरूर लिख रहा था। थोड़ा पीछे चलें तो 1962 में भारत पर चीन आक्रमण के समय तो गांव-गांव में लोग तुकबंदियां करने लगे थे। इसी तरह 1943 में बंगाल के अकाल पर न जाने कितनी कविताएं लिखी गईं। वामिक जौनपुरी का यह गीत तो एक समय जन-जन की जुबान पर था- भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल। कोरोना का संकट किसी आपातकाल से कम है क्या? पूरी मानवता का भविष्य ही दांव पर लगा है। सत्ता की क्रूरता और पूंजी की तानाशाही इतिहास के अनेक काले अध्यायों  की याद दिला रही है। ऐसे में एक कवि चुपचाप रहे? उससे सड़क पर उतरकर भूमिका निभाने की अपेक्षा गलत नहीं है पर अगर वह ऐसा नहीं कर रहा तो क्या कविता भी न लिखे? जिस तरह कई कविताओं में हमें नक्सलबाड़ी और आपातकाल के दौर की तस्वीरें दिखती हैं, उसी तरह आज की कई कविताएं भावी पीढ़ी को कोरोना दौर के संघर्ष से परिचित कराएंगी। और कहने की जरूरत नहीं कि जो बात इतिहास छुपाता है, कविता उसे खोलकर बताती है। फिर  यह भी सही है कि हर कविता एक स्तर की नहीं होगी। लेकिन साधारण और खराब कविताओं के बीच से ही कुछ कालजयी कविताएं भी निकलेंगी।

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