*साधना*
मै कल्पना करती हूं ,
ऐसे जीवन की जो।
सहज हो, सरल हो,
निश्चल हो और सुखमय हो।
मै कामना करती हूं
एसे जगत की
जो वास्तविकता से परे हो
अतीत से अनभिज्ञ हो।
मै वर्तमान की उपेक्षा करके
स्वप्नलोक में विचरण करने लगती हूं।
किसी के सुंदर भवन को देखकर
उसकी छवि को अंतर मे बैठा लेती हूं
और जब कोई वस्तु पसंद आ जाती है
तो उसे उस भवन में लाकर सजा देती हूं।
आहिस्ता आहिस्ता भवन मै
भीड़ इकट्ठी हो जाती है
और मै स्वयं को विस्मृत कर बैठती हूं।
फिर सोचने लगती हूं
की शायद उस विस्मृति को
खोजने का नाम ही साधना है।
डॉ कविता रायजादा
लघु कथा
*मालकिन*
पांच साल की सोमा घर के एक कोने में छिपी रोज़ देखती थी अपनी माँ को मालकिन से पीटते हुए।उसकी मालकिन की यातनाये मा के प्रति इतनी बढ़ गई थी कि वह देख नही पाती थी,सहम जाती थी, डर के मारे एक कोने में छिप जाती थी वह यह समझ ही नही पाती थी कि उसकी इतनी अच्छी माँ को मालकिन आखिर क्यों सताती है।
रात में जब वह माँ के पास सोती थी तो देखती थी कि उसकी माँ के काम कर करके पूरे घर के बर्तन राख से मांज माज़कर हाथों की रेखायें तो मानो जैसे गायब सी हो गई थी और हाथों में घाव हो गए थे। हद तो तब हो गई जब उसके हाथ मे सेप्टिक फैल गया लेकिन फिर भी वह दर्द से कराहते हुए एक हाथ से ही काम में लगी रहती थी की कहीं मालकिन का कहर फिर से न टूट पड़े लेकिन यह सब तो रोज की बात थी। शायद ही कोई दिन एसा जाता था जब उसको प्रताड़ना न सहनी पड़ती हो। सारा सारा दिन काम करने के बाद भी दिनभर में एक रोटी सुबह तो एक रोटी शाम को खाने को मिलती थी।
मालकिन के कष्टों से तंग आकर पिताजी ने माँ और बच्चो को मायके भेज दिया । यही सिलसिला कर वर्ष चलता रहा। माँ पिताजी से कई वर्ष अलग रही। माँ की स्तिथि दिन पर दिन खराब होती जा रही थी क्योंकि भरपेट खाना न मिलने के कारण छोटे भाई बहन को माँ का दूध नही मिल पाता था। उधर मालकिन के सख्त आदेश थे की पापा यदि मम्मी को घर लाए तो मम्मी के साथ साथ उन्हें भी घर के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। पिता बच्चो के प्रति ज्यादा दिन अपनी ममता नही रोक पाए और माँ को घर ले आये।
मालकिन ने आव देखा न ताव गुस्से में घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उस वक्त उसे लगा आखिर पिता विरोध क्यों नही कर रहे है उनके आदेश का पालन सिर झुकाकर क्यों कर रहे है आखिर यह घर हमारा भी तो है हम सभी बचपन से यही तो रहते आय है।
एक टूटा सा बक्सा हाथ मे लिये माँ पिताजी सिर छुपाने की जगह ढूंढते रहे। जब कही जगह नही मिली तो पूरी रात फुटपाथ पर ही बिताई, यही सोचकर कि शायद कल कुछ इंतज़ाम हो जाएगा मगर शायद नियति को यही मंजूर था। मजबूरन आठ,दस दिन फुटपाथ पर ही बिताने पड़े। जो थोड़े बहुत पैसे थे जेब मे उससे जो मिल गया खाकर सो जाते थे। सोमा ने जन्म तो गरीब परिवार में लिया था लेकिन स्तिथि बद से बदतर थी। एक रिश्तेदार को जब स्तिथि के बारे में पता चला , दया आई और वे अपने घर ले गए।
धीरे धीरे समय बीतने लगा सोमा ने पढ़ाई शुरू कर दी।
अचानक एक दिन मालकिन के देहांत का समाचार आया। मालिक ने पूरे परिवार को पुनः घर आने का आग्रह किया लेकिन सोमा निर्णय ले चुकी थी उसमें हिम्मत आ गई थी अब वह समाज से लड़ सकती थी। वह सारी महिलायें जो समाज मे, परिवार में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में पीड़ित हैं उनकी मदद भी कर सकती है। अपना दुख दर्द उनको और उनका दुख दर्द उसे ही तो सुन्ना है। वह अब कमजोर नही थी समझ चुकी थी। उसे दिशा मिल गई थी गरीबी को यदि जीतना है शोषण से निबटना है तो पढ़ना लिखना जरूरी है
वक्त
वक़्त वक़्त की बात है
वक्त बदलते वक़्त नहीं लगता है
कल की ही तो बात है जब
प्रेम का प्रतीक होती थी निजता
लेकिन अब मायने बदल चुके हैं
सोच बदल चुकी है
अब तो रहना है यदि जिंदा
तो"दूरियाँ" से नाता जोड़ना होगा।
यही प्रेम का प्रतीक होगा
प्रेम का परिचायक होगा।
अंतर्जवार*
सब मानवता कंपित है,
भय का वितान है छाया।
तम सभी ओर दिखता है,
यह कैसी तेरी माया।
तुमने अपने हाथो से,
हम सबकी मूर्ति बनाई।
फिर क्यों हम सब के उर में,
विभुवर भयता आई।
क्या कमी रही सृजन में,
उद्दंड हुए हम सारे।
क्यों एक पिता के होकर
मति भ्रमित हुए हम सारे
जग में कुत्सितता ज्वाला,
है धधक रही विभु आओ।
इस कंटक को मारो तुम,
हम सबको सुखी बानाओ।
कोरोना बना है बेड़ी,
बंदी मानवता काया।
इस कोरोना ने आज अनोखा,
रूप सभी को दिखलाया।
जिस स्नेह सदन में रहते थे हम,
उसका विध्वंस किया इसने।
अब डरे डरे से रहते हम,
सब दूर दूर ही रहते।
अब धैर्य हमारा टूटा,
हे उद्धारक तुम आओ।
इस कोरोना को मारो तुम,
खुशियों के विटप उगाओ।
।।।।।।
।।।।।।।।।।।।।।
चुनिंदा कहानी और कविताओं को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार। साहित्यकार इनकी समीक्षा करे तो मुझे बेहद खुशी होगी।
जवाब देंहटाएं