[17/04, 19:48] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया छंद ---
विषय- नटखट
"मेरे नटखट लाल"
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(१)
नटखट माखन लाल ने,फिर चोरी की आज।
सुनकर यशुमति को लगी,फिर से थोड़ी लाज।।
फिर से थोड़ी लाज,मातु को गुस्सा आया।
बाँध लला को आज,छड़ी को उन्हें दिखया।।
कहता सत्य दिनेश,बाँध दे जग को चटपट।
बँधे स्वयं भगवान,आज वो कैसे नटखट।।
(२)
जागो नटखट लाल अब,देखो!हो गई भोर।
गायें भी करने लगीं,तुम बिन अब तो शोर।।
तुम बिन अब तो शोर,बड़ी व्याकुल लगती हैं।
सुनकर मुरली तान,सदा सोती जगती हैं।।
कहता सत्य दिनेश, कर्म-पथ पर तुम भागो।
आलस को तुम छोड़,नींद से अब तो जागो।।
( ३)
राधा ने चोरी किया,मुरली नटखट लाल।
बतियाने की लालसा,समझ गए वह चाल।।
समझ गए वह चाल,माँगते कृष्ण-कन्हैया।
मुस्काती यह देख,लला की यशुमति मैया।।
कहता सत्य दिनेश,कृष्ण तो केवल आधा।
तभी बनेंगे पूर्ण,मिलेंगी उनको राधा।।
(४)
आए नटखट लाल जब,यमुना जी के तीर।
चढ़े पेड़ ले वस्त्र को,गोपी भईं अधीर।।
गोपी भईं अधीर,किए नटखट तब लीला।
मन ही मन मुस्कात, गात जब देखें गीला।।
निःवस्त्र न हो स्नान,यही संकल्प कराए।
मेरे नटखट लाल,वस्त्र वापस दे आए।।
दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
[23/04, 19:06] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया- सादर समीक्षार्थ
विषय- "वाणी"
(१)
वाणी ऐसी बोलिए, प्रथम कीजिए तोल।
शब्द शब्द हो संयमित,फिर मुख निकले बोल।।
फिर मुख निकले बोल, सदा सुखदायी होता।
मन का अंतर खोल,अन्यथा मानव रोता।।
कहता सत्य दिनेश,सुनो!जग के सब प्राणी।
तोल-मोल कर बोल,सदा ही मीठी वाणी।।
( २)
करते मधुर प्रलाप हों,मीठी वाणी बोल।
उर अंतर में हो भरा,विष का केवल घोल।।
विष का केवल घोल,भरे हैं अंदर ऐसे।
वर्जित ऐसे लोग,पयोमुख गागर जैसे।।
अंदर बाहर एक,भाव समदर्शी धरते।
कहता सत्य दिनेश,नहीं वह धोखा करते।।
( ३)
वाणी सच्ची बोलिए, पर इतना हो ध्यान।
सीधे लाठी मारकर,मत करिए अपमान।।
मत करिए अपमान,मधुरता कभी न छोड़ें।
जो करता अपमान,सदा उससे मुख मोड़ें।।
कहता सत्य दिनेश,नहीं अच्छा वह प्राणी।
कहता सच्ची बात,मगर कड़वी हो वाणी।।
(४)
वाणी में करतीं सदा,वीणापाणि निवास।
होता वाणी में वहीं,सुंदर सुखद सुवास।।
सुंदर सुखद सुवास,सदा वाणी हो जिसकी।
होती सदा सहाय, शारदा माता उसकी।।
करता विनय दिनेश,मातु!भर दो प्राणी में।
पावनता का अंश,सभी जन के वाणी में।।
दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: दोहे-एकादश
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'मन' की बात
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१- मन से मन की मानकर,मनन करें कुछ आप।
फिर जो कहता मन करें,मिटे मनः संताप।।
२- मन मलीन मत कीजिए, भरिए मन उत्साह।
मन जो मारा मर गया,पूरी हुई न चाह।।
३- मन ही मन का मीत है,करिए मन से प्रीत।
मन हारे तो हार है,मन जीते तो जीत।।
४- जीवन मे करिए नहीं,मन को कभी मलीन।
मुख के सारे तेज को,लेता है वह छीन।।
५- नहीं गीत संगीत है,मन जाए जब रीत।
मधु ऋतु भी लगने लगे,ज्यों प्रचंड हो शीत।।
6- मन मंदिर पावन बने,उत्तम रहें विचार।
हो प्रवेश मंदिर नहीं,कलुषित कभी विकार।।
७- अवगुंठन मन का खुले,यही परम है ज्ञान।
विषय भोग का अंत हो,योग साधना ध्यान।।
८- वशीभूत मन का हुआ,योगी योग अनर्थ।
हुई साधना फिर वहीं,समझो बिल्कुल व्यर्थ।।
९-मन 'लगाम' है जानिए,'रथ' को समझ शरीर।
बुद्धि 'सारथी' साथ मे,'रथी' आत्मा वीर।।
१०-इन्द्रिय पर अंकुश लगे,जब विवेक हो धीर।
वह लगाम को खींचकर,हरता मन की पीर।।
११-पवन-वेग से तेज है,मानस प्रबल अधीर।
चंचलता इसकी सदा,करती व्यथित शरीर।।
दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: बाल-कविता
"वीर बालक लव-कुश"
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लव-कुश दोनो जुड़वे भाई,
उनकी माता सीता माई।
राजा राम पिता थे जिनके,
बाल्मीकि से शिक्षा पाई।।
रोका अश्व यज्ञ का जाकर,
लड़े लखन जी फिर थे आकर।
दोनो में फिर युद्ध हुआ था,
सेना भगी अयोध्या जाकर।।
सभी राम की सेना हारी,
पड़ी अवध पर विपदा भारी।
बड़े सोच में राम पड़े फिर,
बच्चों से सेना क्यों हारी।।
बाँधी पूँछ समझकर बंदर,
हनुमान को समझ कलंदर।
भागी भागी सीता आईं,
कहीं चलो जी कुटिया अंदर।।
लवकुश को फिर कथा सुनाई,
सीता ने फिर बात बताई।
ये तो महावीर हैं बेटे!
इन्होंने ही लाज बचाई।।
लवकुश अवधपुरी तब आये,
दोनो मन ही मन हर्षाये।
पिता चरण रज लेकर दोनों,
राम नाम का भजन सुनाए।।
हम सब लव-कुश बनना सीखें,
मर्यादा में रहना सीखें।
बाधाओं से क्यों घबड़ाएँ,
कष्ट मिले तो सहना सीखें।।
@दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एकादश दोहे - सादर समीक्षार्थ
विषय - "स्वर"
'जय जय हिंदी'
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१- स्वर लहरी लहरे यहाँ, छेड़ो ऐसी तान।
भारत में गूँजे सदा, 'जय जय हिंदी' गान।।
२-स्वर व्यंजन की साधना,करते हैं सब लोग।
कविगण!मिलकर आइए, करते हैं हम योग।।
३-स्वर -लहरी उठती वहीं,बजता ताल मृदंग।
मन के झंकृत तार से,उठती तभी तरंग।।
४-स्वर से स्वर मिलता जहाँ, सुरसरि बहती स्नेह।
विना स्नेह सब व्यर्थ है,कंचन बरसत मेह।।
५-स्वर-व्यंजन के मेल से,अक्षर का हो ज्ञान।
अक्षर अक्षर ज्ञान से,हिंदी का सम्मान।।
६- स्वर की मलिका शारदे!,दे दो माँ बरदान।
तमस तिरोहित जगत का,मिटे सभी अज्ञान।।
७- स्वर में करती हैं जहाँ, वीणापाणि निवास।
वाणी में होता वहीं,सुंदर सुखद सुवास।।
८- स्वर को सदा निखारता, ध्यान योग अभ्यास।
आत्मतोष के साथ ही,जग को मिले उजास।।
९- स्वर से स्वर मिलता जहाँ, छिड़े सुरीला तान।
बने गीत संगीत तब,गाता सकल जहान।।
१०- स्वर साधक की साधना,जाती कभी न व्यर्थ।
स्वरविहीन जीवन कहाँ,पाता कोई अर्थ।।
११- 'पंच' ,'षड्ज', 'धैवत', जहाँ, हों 'निषाद' के साथ।
'ऋषभ' 'मध्य' 'गांधार' ही,सप्त सुरों के हाथ।।
( ये सभी सात सुर होते हैं)
@दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
२७ - ४ - २०२०
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया-सादर समीक्षार्थ
( १)
कैसा होकर रह गया,चारित्रिक परिवेश।
मिला गर्त में आज है,अपना भारत देश।
अपना भारत देश,देखकर मन घबड़ाता।
कहीं कहीं तो रेप, कहीं रिश्वत है भाता।।
कहीं डकैती लूट,कहीं पर चलता पैसा।
कहता सत्य दिनेश, देख लो!भारत कैसा।।
( 2)
करिए चिंतन राष्ट्र की,उसके हित की बात।
अनहित कभी न सोचिए,नहीं घात प्रतिघात।।
नहीं घात प्रतिघात,भाव मन मे धरना है।
इसी लिए अब आज,हमें जीना-मरना है।।
कोई हो अवरोध,मार्ग में उसको हारिए।
करता विनय दिनेश,राष्ट्र-हित चिंतन करिए।।
दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: ग़ज़ल
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सोजे वतन का वक्त है,महफ़ूज रहना चाहिए,
कुछ ज़ख्म ताज़े हैं अभी,कुछ दर्द सहना चाहिए।
वक्त होता है कहाँ पर,एक सा इस जिंदगी में,
होता तकाज़ा वक्त का,हमको समझना चाहिए।
दुश्वारियाँ मजबूरियाँ,निश्चित दफ़न हो जाएँगी,
फिर आज क्यों उसके लिये,हमको सिसकना चाहिए।
ये आँधियाँ चलती रहें,बरबादियाँ करती रहें,
एक दिन होंगी मुक़म्मल,विश्वास रखना चाहिए।
अब हो गई है इंतहां, बैठे कफ़स में रात दिन,
कैद में कब तक रहूँगा,अब निकलना चाहिए।
इश्क भी सोने लगा है,मुश्क भी छिपने लगा,
अब तो दुपट्टा इत्र में,फिर से महकना चाहिए।
ये घटा कब तक रहेगी,आसमां में ऐ 'दिनेश'!
चीर कर इन बादलों को,अब चमकना चाहिए।
दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
कफ़स- जेल,कारागार,पिंजड़ा
मुश्क - सुगंध,कस्तूरी
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: एक गीत-सादर समीक्षार्थ
"खोलो मन के द्वार"
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खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।
कहाँ कहाँ तुम भटक रहे हो,
दर दर पर तुम अटक रहे हो।
ठोकर कब तक खाओगे तुम,
लौट वहीं फिर आओगे तुम।
लौटो अपने पास बटोही,झूठा है संसार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।
जीवन की चिंता तुम छोड़ो,
स्वयं ब्रह्म से रिश्ता जोड़ो।
बसता तेरे अन्तर्मन में,
वही धरा पर,वही गगन में।
किसे खोजते कहाँ बटोही,खुद से जोड़ो तार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।
आओ लौट चलें अपने मे,
विचरण क्यों करते सपने में।
बसा हुआ जो तेरे अंदर,
नहीं जगत में इससे सुंदर।
आत्मदीप बनकर जलने का,मन में करो विचार।
खोलो मन के तार बटोही,खोलो मन के तार।।
अमिय कलश तेरे है अंदर,
तुम तो अपने आप समंदर।
खुद पर करो भरोसा प्यारे,
होंगे सारे रत्न तुम्हारे।
तुम अथाह सागर हो प्यारे,रत्नों के भंडार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।
तुम्हीं ब्रह्म हो,तुम्ही अनामय,
हो भगवंता,तुम्हीं निरामय।
कस्तूरी को कहाँ खोजते,
वन वन में तुम कहाँ विचरते।
तेरे अंदर ही कस्तूरी,करो स्वयं से प्यार।
खोलो मन के द्वार बटोही,खोलो मन के द्वार।।
दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: दोहे- सादर समीक्षार्थ
विषय- "पनघट" (अनुप्रास अलंकार युक्त)
१- प्रथम प्रहर पनघट गयीं,राधा लेने नीर।
दरस नहीं कान्हा दिए,उपजा मन में पीर।।
२- पनघट पानी भरन को, भई भयंकर भींड़।
राधा बिन पानी लिए,लौटीं अपने नीड़।।
३- पनिहारिन पनघट गई,पानी लेने आज।
पीत वसन पट ओढ़नी,ढकती अपनी लाज।।
४- कनक कामिनी कटि धरे,घट को ले सुकुमारि,
पनघट पानी भरन को,चली सुकोमल नारि।।
५- पनघट!जग प्यासा बड़ा, जाता तेरे पास।
पीता पानी प्यार से,मिट जाती सब प्यास।।
६- पनघट!मैं प्यासा रहा,पूरी हुई न आस।
बुझ पाएगी कब यहाँ, अन्तर्घट की प्यास।।
दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: हिंदी ग़ज़ल - सादर समीक्षार्थ
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"सीखो तो"
अक्षर के फूलों से कोई,हार बनाना सीखो तो।
कविताओं को ही अपना, संसार बनाना सीखो तो।।-१
वो आएगी,रूठ गयी जो,बैठी है चुपचाप वहाँ,
उसको अपने पास बुलाकर,प्यार जताना सीखो तो।-२
उसके होंठ शबनमी होंगे,मादक होंगे पुनः रसीले,
पहले प्यासे अधरों का तुम,प्यास बुझाना सीखो तो।३
चला गया,आएगा वो फिर,लौट यहाँ पर एक दिवस,
मधुर मधुर बातों से उसको,पास बुलाना सीखो तो।-४
घायल होकर लौटा है,सीमा की रक्षा करते वो,
उठकर के वो पुनः लड़ेगा,जोश जगाना सीखो तो।-५
अँधियारा भी गायब होगा,नहीं दिखेगा आज यहाँ,
आशाओं का फिर से कोई,दीप जलाना सीखो तो।६
बगिया में फिर से आएँगी, लौट बहारें आज यहाँ,
उजड़े बगिया में फिर कोई,पुष्प खिलाना सीखो तो।-७
फिर से कोई बाग नहीं 'शाहीन',यहाँ बन पाएगा,
दिल्ली वालों दिल की दूरी,आज मिटाना सीखो तो।-८
कोरोना से लड़ने वाले,वीर सिपाही हैं अपने,
उनके प्रति आभार यहाँ पर,आज दिखाना सीखो तो।-९
हारेगा ये कातिल 'कोविड',निश्चित कोरोना जानो,
हाथों को तुम धोना सीखो,मास्क लगाना सीखो तो।-१०
हरी भरी ये धरती होगी,नहीं दिखेगा कहीं धुआँ,
नंगी धरती पर 'दिनेश' तुम ,वृक्ष लगाना सीखो तो।-११
दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कतिपय दोहे -सादर समीक्षार्थ
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विषय- "यदि"
यदि-यदि करना छोड़िए,दृढ़ हो सदा विचार।
जो भी निश्चय कर लिया,कर लो फिर स्वीकार।।-१
शब्द-अर्थ के साथ मे,यदि हो सुंदर भाव।
सर्वोत्तम साहित्य का,होगा नहीं अभाव।।-२
अवचेतन चेतन करे,हृदय भरे विश्रांति।
शब्द- शब्द पाथेय यदि,हरे जगत की क्लांति।।-३
यदि चिन्मय आनंद की,परिभाषा सुखभोग।
व्यर्थ हमारी साधना,व्यर्थ हमारा योग।।-४
यदि चिन्मय आनंद हो,मिलता स्वतः प्रकाश।
प्रमुदित जग सारा लगे,अवनि और आकाश।।-५
यदि होता मैं देश का,सक्षम एक नरेश।
हिंदी होती राष्ट्र की,भाषा भारत देश।।-६
संविधान,झंडा यथा,एक राष्ट्र की शान।
भाषा भी यदि एक हो,तभी बने पहचान।।-७
यदि तुमको कोई मिले, चेहरा कहीं उदास।
मानो फैला है नहीं,समुचित वहाँ प्रकाश।।-८
यदि 'स्वामी' बनकर करें,सदा यहाँ व्यभिचार।
उनको मत करना कभी,जग वालों!स्वीकार।।-९
यदि शिक्षाएँ बुद्ध की,धारण करो 'दिनेश'।
विश्वगुरू के रूप में,होगा फिरसे देश।।-१०
दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: वर्गीकृत दोहे- सादर समीक्षार्थ
विषय- "और"
१- और और करता रहा,मिला कभी कब तोष।
जीवन भर भरता रहा,केवल अपना कोष।।
(गयंद दोहा-गु-१३,ल-२२)
२- और और करता रहा,बदल न पायी सोच।
जीवन भर करता रहा,वह केवल उत्कोच।।
(गयंद दोहा- गु-१३,ल-२२)
३- और और की चाह का,करना होगा अंत।
धन केवल संतोष है,कहते हैं सब संत।।
(करभ दोहा- गु-१६,ल-१६)
४- "और नहीं अब चाहिए",कहता है अब कौन।
अपनी पारी देखकर,हो जाते सब मौन।।
(नर दोहा-गु-१५,ल-१८)
५- और और करते रहे,मिटी न मन की चाह।
अंत समय आया जहाँ, केवल मिली कराह।।
(हंस दोहा-गु-१४,ल-२०)
६- औरों की देखा जहाँ, मची 'और' की होड़।
और और करते हुए,गया जगत को छोड़।।
(मरकट दोहा-गु-१७,ल-१४)
७- और और को छोड़िए,प्रभु का कर लो गौर।
सच्चा सुंदर है वही,जग में केवल ठौर।।
(करभ दोहा-गु-१६,ल-१६)
८- 'और' नहीं पूरा हुआ,हुई न पूरी आस।
जीवन भर करता रहा,इसका सतत प्रयास।।
(हंस दोहा-गु-१४,ल-२०)
९- कभी न सुनिये और की,करिए मन की बात।
औरों से मिलता रहा,सदा निरंतर घात।।
(नर दोहा-ग-१५,ल-१८)
१०- चाह 'और' की छोड़िए, करिए और विचार।
जीवन यहाँ सवाँरिये,नश्वर है संसार।।
(करभ दोहा- गु-१६,ल-१६)
@ दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: आज के विषय पर एक अतुकांत रचना- सादर समीक्षार्थ।
"गगन"
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हे गगन!
हे आकाश!
हे संकाश!
पंचभूतों में एक
तुम्हीं तो हो
मेरे अन्दर का
प्रकाश।
पृथ्वी, अगन, आकाश,
वायु और जल,
जिसे समेटा हुआ
स्वयं में क्यों हूँ आज
इतना विकल?
तुम मुझे छोड़
हे उन्मुक्त गगन!
करते हो स्वछंद विचरण,
इतने मगन।
और मैं अभागा
शोक संतप्त धरा पर
हूँ संतप्त।
वर्तमान झंझावातों को सहन करता
किसी अनजान रोग से
आतप्त।
मुझमें ही समाहित तुम,
मेरे अपने!
अब तो साकार करो
चिर प्रतीक्षित
मेरे सपने।
आओ!चलें उस क्षितिज तक
जहाँ हमारा तुम्हारा हो
मिलन।
हाथों में हाथ लेकर-
हे! मेरे गगन।
तुम्हारे सहवास से,
तुम्हारे प्रकाश से हो
पंचभूतों का फिर से
सुखद मिलन।।
दिनेश श्रीवास्तव
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कॅरोना वायरस-कारण और निदान
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एक कॅरोना वायरस,जग को किया तबाह।
निकल रही सबकी यहाँ, देखो कैसी आह।।-1
विश्वतंत्र व्याकुल हुआ,मरे हजारों लोग।
आपातित इस काल को,विश्व रहा है भोग।।-2
खान-पान आचरण ही,इसका कारण आज।
रक्ष-भक्ष की जिंदगी,दूषित आज समाज।।-3
योग-साधना छोड़कर,दुराचरण है व्याप्त।
काया कलुषित हो गई, मानस शक्ति समाप्त ।।-4
स्वसन तंत्र का संक्रमण,करता विकट प्रहार।
शीघ्र काल कवलित करे,करता है संहार।।-5
ये विषाणु का रोग है,करता शीघ्र विनास।
रोगी से दूरी बने,रहें न उसके पास।।-6
हाथ मिलाना छोड़कर, कर को जोरि प्रणाम।
ये विषाणु, इसका सदा,शीघ्र फैलना काम।।-7
हो बुखार खाँसी कभी,सर्दी और ज़ुकाम।
हल्के में मत लीजिए,लक्षण यही तमाम।।-8
भोजन नहीं गरिष्ठ हो,हल्का हो व्यायाम।
रहें चिकित्सक पास में,करिए फिर विश्राम।।-9
तुलसी का सेवन करें,श्याम-मिर्च के साथ।
पत्ता डाल गिलोय का,ग्रहण करें नित क्वाथ।।-10
रहना अपने देश में,जाना नहीं विदेश।
प्यारा अपना देश है,रखना ध्यान 'दिनेश'।।
दिनेश श्रीवास्तव
गाज़ियाबाद
दूरभाष-९४११०४७३५३
[06/05, 16:33] Ds दिनेश श्रीवास्तव: कुण्डलिया
"श्रम-सीकर"
श्रम- सीकर झरता रहा,चूता रहा ललाट।
पछताता है बैठकर,श्रमिक गंग के घाट।।
श्रमिक गंग के घाट,बैठकर जल को चाहे।
उसको भी मिल जाय,और वह भी अवगाहे।।
कहता सत्य दिनेश,सदा जीता वह पीकर।
कण कण अपना स्वेद,और अपना श्रम- सीकर।।
"मधुशाला"
मधुशाला ने कर दिया,. मे संचार।
जनता अपने देश की,अपनी है सरकार।।
अपनी है सरकार,सभी की प्यास बुझाई।
कंठ कंठ में बूंद, ख़ज़ाने में धन लाई।।
करता विनय दिनेश,उठा लो तुम भी प्याला।
सबकी रखती ख्याल,हमारी है मधुशाला।।
@दिनेश श्रीवास्तव
ग़ाज़ियाबाद
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