सोमवार, 31 मई 2021

परसाई के लिए कोई जगह नहीं /रामस्वरूप दीक्षित

व्यंग्य-परसाई के लिए कोई जगह नहीं /रामस्वरूप दीक्षित 


हम तो परसाई जी को कभी पढते ही नहीं । उनकी जो किताबें थीं , उन्हें उन लोगों को दान कर दिया , जिनमें बिगड़ने की ललक थी।

बाद में पता भी चल गया कि वे पूरी तरह से बिगड़ चुके हैं।

और जिला प्रशासन और सत्ता दल के नेताओं की नाक में दम किये हुए हैं।

बहुत बार पुलिस से भी रूबरू हुए , मगर गनीमत रही कि उन्होने अपने बिगड़ने की असली वजह नहीं बताई ।

बरना आंच मुझ पर भी आना तय था।

परसाई को पढ़ते हैं तो हमें लगता  है कि हमें व्यंग्य लिखना छोड़कर किसी कीर्तन मंडली में भरती होकर मंजीरे बजाना चाहिए , पर चूंकि अपनी दुकान चल निकली है तो वापस होना भी सम्भव नहीं। 

परसाई जी को पढ़ते हैं तो हमारे हाथ पत्थर उठाने को लालायित होने लगते हैं , जो हमारे माला पहनाने वाले स्वभाव के विरुद्ध है।

कहते हैं कि आदमी को अपने स्वभाव के साथ ही रहना चाहिए , किसी दूसरे का स्वभाव उसे नहीं अपनाना चाहिए।

हम भी अपना स्वभाव छोड़ने वाले नहीं।

हमें नहीं लिखना परसाई जैसा ।

न सत्ता या व्यवस्था का विरोध करना है।

जब सरकार की तरफदारी करने पर भी व्यंग्यकार समझे जा रहे और खूब इनाम खिताब मिल रहे तो कोई बेवकूफ ही होगा जो , परसाई बनना  चाहेगा।

और हम कुछ भी और कैसे भी हों , पर इतने बेवकूफ तो नहीं ( थोड़ी बहुत बेवकूफी स्वास्थ्य के जरूरी है )

तो भइये जिनको अच्छा व्यंग्य लिखना हो वे ही परसाई के चक्कर में पड़ें न, हम तो पड़ने वाले नहीं ।

खराब लिखेंगे तो क्या नाम न होगा ? खूब होगा ।

और हमें नाम ही तो चाहिए । 

दूसरे हम तीखा व्यंग्य लिखकर किसी का दिल दुखाने के पक्ष में नहीं ।

इसलिए कोशिश भर ऐसा लिखते हैं कि हमारे व्यंग्य लेख में अच्छे अच्छे लोग व्यंग्य ढूंढते

ही रह जाते हैं ।

हमने सहजोर पर व्यंग्य लिखकर उससे पिटने के डर से कमजोर पर व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया है।

हम सत्ता के खिलाफ नहीं विपक्ष के खिलाफ व्यंग्य लिखते हैं कि वह सरकार की आलोचना करके देश को कमजोर कर रहा है।

हम टांग तोड़ने वालों पर नहीं, टांग टूटने वालों पर व्यंग्य लिखते हैं , कि देखो इनकी टांग ने खुद आत्महत्या कर ली और ये दूसरों पर झूठे आरोप लगा रहे हैं , कमीने कहीं के।

तो भइया हमारा एजेंडा एकदम साफ है , उसमें दुनिया भर के मसखरे , चुटकुलेबाज और भड़ैती करने वाले शामिल है , पर परसाई के लिए उसमें कोई जगह नहीं ।

जिसे जो समझना हो समझे , हमारी बला से। हम कतई सुधरने वाले नहीं ।

आखरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे।

आमीन। 


@ सिद्धबाबा कॉलोनी

     टीकमगढ़ 472001

     मो. 9981411097

चार दुर्लभ गुण

 🍃🍃🍃● चार दुर्लभ गुण


प्रस्तुति -- उपेंद्र पाण्डेय +रामेश्वर दयाल +रास बिहारी + अशोक सिंह +......


*1. धन के साथ पवित्रता,*

*2. दान के साथ विनय,*

*3. वीरता के साथ दया,*

*4. अधिकार के साथ सेवाभाव।*


               एक  पर्यटक, ऐसे शहर मे आया जो शहर उधारी में डूबा हुआ था !


         पर्यटक ने *Rs.500* का नोट होटल रेस्टोरेंट  के काउंटर पर रखे और कहा :- मैं जा रहा हूँ आपके होटेल के अंदर कमरा पसंद करने !


          होटल का मालिक फ़ौरन भागा घी वाले के पास और उसको *Rs.500* देकर घी का हिसाब चुकता कर लिया !


          घी वाला भागा दूध वाले के पास और जाकर *Rs.500* देकर दूध का हिसाब पूरा करा लिया !


          दूध वाला भागा गाय वाले के पास और गायवाले को *Rs 500* देकर दूध का हिसाब पूरा करा दिया !


                 गाय वाला भागा चारे वाले के पास और चारे के खाते में *Rs.500* कटवा आया !


          चारे वाला गया उसी होटल पर ! वो वहां कभी कभी उधार में रेस्टोरेंट मे खाना खाता था ! 

 *Rs.500* देके हिसाब चुकता किया ! 


            पर्यटक वापस आया और यह कहकर अपना *Rs.500* का नोट ले गया कि उसे कोई रूम पसंद नहीं आया !

न किसी ने कुछ लिया 

न किसी ने कुछ दिया

सबका हिसाब चुकता हो गया । 

बताओ गड़बड़ कहाँ हुई ?

कहीं गड़बड़ नहीं है बल्कि यह सभी की गलतफहमी है कि रुपये हमारे हैं।

खाली हाथ आये थे, खाली हाथ ही जाना है।

विचार करें और जीवन का आनंद लें।


श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39)


इस श्लोक का अर्थ है: श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त कते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति (भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति) को प्राप्त होते हैं।


हमेशा खुश रहे मस्त रहे 

    

          हँसते रहिये , मुस्कुराते रहिये

    

 🙏🙏जय श्री राधे कृष्णा🙏🙏

ना पीने की कसम

 🥃  45 दिन ड्राई क्या हुए  🥃   🥃 


प्रस्तुति -  रास बिहारी + रामेश्वर दयाल + अशोक सिंह +.............


दो दोस्तों ने कसम खाई कि, *अब कभी शराब 🥃 🚫नही पियेंगे।*

 🥃  

इधर कसम खाई उधर शराब बिकनी शुरू।

🙄🤭


अब दोनों पड़े असमंजस में, करें तो क्या करें??


एक ने सलाह दी कि 

 🥃  

*"पीने की कसम खाई है वाइन शॉप पर जाने की तो नहीं.."*


आखिर दोनों वाईन शॉप पर गए, बोतल ली, घर पर लाकर बैठ गए।

 🥃  

अब लत और जोर मारने लगी, तो दूसरा बोला कि

*"भाई, पीने की कसम खाई हैं, बोतल खोलने की तो नहीं.."*


आखिर बोतल 🍾 खोली गई,

ग्लास, 🥂 नमकीन..🍟

पत्नी 👩🏼‍🦰 खुद दे गयी, 

 🥃   🥃   🥃   🥃  


लेकिन कसम के कारण आगे नही बढ़े,


फिर एक बोला कि 

*"भाई पीने की कसम खाई हैं, जाम बनाने की तो नहीं।"*


लॉजिक जंच गई शराब डाली गई।


*दो पटियाला पैग* बनाये गए।


अब दोनों मायूस, कसम के हाथों मजबूर।

😬😫


जामों को देखते हुए बैठे रहे।


समय ⌛ बीतता रहा बीतता रहा।


नशा बड़े बड़ों को गुलाम बना लेता हैं।


*पर ये दोनों पक्के थे, कसम ली तो तोड़ नहीं सकते थे..!*


चाहे कुछ हो जाए।


फिर पता नही क्या हुआ कि...


दोनों एक साथ बोले कि,


?


?


*"भाई, पीने की कसम खाई है,*


*पिलाने की तो नहीं...।"*

🤪


ये कहकर दोनों ने जाम उठाएं और एक दूसरे को पिला दिए।

 🥃   🥃  

*अब आप ही बताईए,  कसम टूटी या नहीं?*.... 😜😜😜

C के चक़्कर में फंसे

 गांव की नई नवेली दुल्हन अपने पति से अंग्रेजी भाषा सीख रही थी, लेकिन अभी तक वो 'C' अक्षर पर ही अटकी हुई है...क्योंकि, उसकी समझ में नहीं आ रहा कि 'C' को कभी 'च' तो कभी 'क' तो कभी 'स' क्यूं बोला जाता है?

एक दिन वो अपने पति से बोली, आपको पता है,


चलचत्ता के चुली भी च्रिचेट खेलते हैं...


पति ने यह सुनकर उसे प्यार से समझाया


, यहां 'C' को


"च" नहीं "क" बोलेंगे।


इसे ऐसे कहेंगे, "कलकत्ता के कुली भी क्रिकेट खेलते हैं।


"पत्नी पुनः बोली "वह कुन्नीलाल कोपड़ा तो केयरमैन है न?


"पति उसे फिर से समझाते हुए बोला, "यहां "C" को "क" नहीं "च" बोलेंगे।


जैसे, चुन्नीलाल चोपड़ा तो चेयरमैन है न...


थोड़ी देर मौन रहने के बाद पत्नी फिर बोली,"आपका चोट, चैप दोनों चॉटन का है न ?


"पति अब थोड़ा झुंझलाते हुए तेज आवाज में बोला, अरे तुम समझती क्यूं नहीं, यहां 'C' को "च" नहीं "क" बोलेंगे...ऐसे, आपका कोट, कैप दोनों कॉटन का है न. ..


पत्नी फिर बोली - अच्छा बताओ, "कंडीगढ़ में कंबल किनारे कर्क है?


"अब पति को गुस्सा आ गया और वो बोला, "बेवकुफ, यहां "C" को "क" नहीं "च" बोलेंगे।


जैसे - चंडीगढ़ में चंबल किनारे चर्च है न


पत्नी सहमते हुए


धीमे स्वर में बोली,"


और वो चरंट लगने से चंडक्टर और च्लर्क मर गए क्या?


पति अपना बाल नोचते हुए बोला," अरी मूरख, यहां 'C' को "च" नहीं "क" कहेंगे...


करंट लगने से कंडक्टर और क्लर्क मर गए क्या?


इस पर पत्नी


धीमे से बोली," अजी आप गुस्सा क्यों हो रहे हो... इधर टीवी पर देखो-देखो...


"केंटीमिटर का केल और किमेंट कितना मजबूत है...


"पति अपना पेशेंस खोते हुए जोर से बोला, "अब तुम आगे कुछ और बोलना बंद करो वरना मैं पगला जाऊंगा।"


ये अभी जो तुम बोली यहां 'C' को "क" नहीं "स" कहेंगे -


सेंटीमीटर, सेल और सीमेंट


हां जी पत्नी बड़बड़ाते बोली,


"इस "C" से मेरा भी सिर दर्द करने लगा है।


और अब मैं जाकर चेक खाऊंगी,

उसके बाद चोक पियूंगी फिर

चॉफी के साथ चैप्सूल खाकर सोऊंगी


तब जाकर चैन आएगा।


उधर जाते-जाते पति भी बड़बड़ाता हुआ बाहर निकला..तुम केक खाओ, पर मेरा सिर न खाओ..


तुम कोक पियो या कॉफी, पर मेरा खून न पिओ..


तुम कैप्सूल निगलो, पर मेरा चैन न निगलो..


सिर के बाल पकड़ पति ने निर्णय कर लिया कि अंग्रेजी में बहुत कमियां हैं ये निहायत मूर्खों की भाषा है और

ये सिर्फ हिन्दुस्तानियों को मूर्ख बनाने के लिए बनाई है। हमारी मातृभाषा हिन्दी ही सबसे अच्छी है....

मां का मन / विजय केसरी

 कहानी  = 

मां का मन  /  विजय केसरी


अब सरस्वती देवी अपने मोहल्ले की सबसे बुजुर्ग महिला हो गई । उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचने के बावजूद वह पूरी तरह स्वस्थ है। उन्हें किसी भी तरह की कोई गंभीर बीमारी नहीं है । वह अंग्रेजी दवा ना के बराबर ही लेती है। उसे इंजेक्शन लिए वर्षों  बीत गए ।  मौसम बदलने पर उन्हें खांसी, सर्दी, बुखार जरूर लग जाया करता है, किन्तु वह घरेलू दवा खाकर ही ठीक हो जाती है। सरस्वती देवी की उम्र लगभग बिरासी वर्ष हो गई है । जब वह मात्र चौदह वर्ष की थी, तभी विवाह होकर इस मोहल्ले में आई थी। तब से लेकर अब तक वह अपने खानदानी मकान पर ही है। उसने अपने बलबूते खपरैल मकान को आज दो तल्ला मकान में तब्दील कर दिया  । मकान में सारे सुख - सुविधा की चीजें लगा दी ।

सरस्वती देवी इस मोहल्ले की पहली बहु थी, जिसने ससुराल से मैट्रिक की परीक्षा पास  की थी । आगे वह पढ़ना चाहती थी । लेकिन गरीबी और गृहस्थी के कामों के कारण उसकी आगे की पढ़ाई नहीं हो पाई  थी । आगे की पढ़ाई के लिए उसने कोशिश भी की थी, लेकिन घर के सदस्यों के सपोर्ट नहीं मिलने की वजह से वह चाह कर भी पढ़ाई जारी नहीं रख पाई थी।  धीरे धीरे सरस्वती देवी गृहस्थी में उलझती गई थी। 

शादी के पन्द्रह साल बीत जाने के बाद भी सरस्वती देवी को एक भी बच्चे नहीं हुए थे । इस बात के लिए उसे अपनी सास और तीन - तीन ननदों से बहुत ताना सुनना पड़ता था।  लेकिन सरस्वती देवी को विश्वास था कि एक न एक दिन उसकी गोद जरूर भरेगी । वह तानों को सुनती थी, लेकिन पलट कर कभी भी जवाब नहीं देती थी। सरस्वती देवी के पति रामधन बच्चा नहीं होने के कारण कभी भी ताना नहीं दिया था, बल्कि मां और बहनों के ताने के लिए माफी मांगता था।  सरस्वती देवी की तरह उसके पति को भी विश्वास था कि ईश्वर उसे बेऔलाद नहीं रखेंगे।

  भगवान ने उन दोनों की सुन ली थी। शादी के ठीक सत्रह साल बाद सरस्वती देवी को एक पुत्र  हुआ था।  इसके ठीक चार साल के बाद उसे एक  पुत्री की भी मां बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अब वह दो बच्चों की मां बन गई थी । सरस्वती देवी दो बच्चों की मां बनने के बावजूद कभी भी अपनी सास  और तीनों ननदों से ऊंची आवाज में बात  नहीं की थी । बल्कि वह और भी विनम्र हो गई थी । 

सरस्वती देवी घर का कामकाज करते हुए अपने बच्चों पर पूरा ध्यान देती थी । उसकी शादी से पूर्व दोनों ननदों की शादी हो गई थी। तीसरी ननद की शादी उसने बड़े ही धूमधाम से की थी । अपनी हैसियत से ज्यादा बढ़ चढ़कर उसने लेन - देन किया था। उसने अपने सारे गहने ननद को दे दी थी। आज भी उस बात की चर्चा होती रहती है। तीसरी ननद की विदाई के बाद सिर्फ पांच जन ही घर में बच्चे थे ।

घर खर्च में सहयोग करने के बाबत मौका देख कर एक दिन सरस्वती देवी ने  अपने पति से कहा,-  'मैं भी गृहस्थी के खर्च में कुछ सहयोग करना चाहती हूं। मैं सिलाई का काम जानती हूं। घर पर ही सिलाई का काम शुरू करना चाहती हूं। ताकि बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा पाऊं । आपके  महीने भर की आमदनी से बड़ी मुश्किल में घर का खर्च निकल पाता है। मेरी सिलाई से घर के काम पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और आमदनी भी होती रहेगी। इस मोहल्ले में सिलाई की एक भी दुकान नहीं है। सिलाई के लिए मोहल्ले वालों को मुख्य बाजार जाना पड़ता है। मुझे मोहल्ले से ही सिलाई का बहुत काम मिल जाएगा।'

यह सुनकर उसके पति रामधन  ने कहा,- 'तुम घर पर सिलाई का काम करेगी तो मोहल्ले वाले क्या कहेंगे ? मोहल्ले की कोई भी बहू इस तरह का काम नहीं करती है। हजारीबाग कोई बड़ा शहर नहीं है, बल्कि एक गांव के समान ही है।  इसलिए कोई काम ऐसा मत करो कि मोहल्ले वाले उसे गलत समझ लें। रही बात बच्चों की पढ़ाई की तो मैं पार्ट टाइम कुछ करने के लिए सोच रहा हूं । अगर मैं तुम्हें इजाजत दे भी देता हूं, तो मां तुझे घर पर सिलाई का काम करने की इजाजत कभी नहीं देगी '।

यह सुनकर सावित्री चुप हो गई थी। रामधन भी अपने काम में निकल पड़ा था। सरस्वती देवी चुप जरूर हो गई थी, लेकिन उसके दिलो-दिमाग में सिलाई का काम ही घूम रहा था। वह चाहती थी कि अपने सिलाई के हुनर के बल पर कुछ करें। लेकिन रामधन के जवाब से वह खुश नहीं थी । इसके आगे वह कर भी क्या सकती थी ?  उसने विचार किया कि क्यूं ना सासू मां से इस बाबत पूछ लूं। अगर सासू मां इजाजत दे देती है तो ठीक है । इससे भला तो घर का ही होगा।

सरस्वती देवी ने सास के पास आकर कहा,- 'मां बच्चे अभी छोटे हैं । कुछ सालों में स्कूल जाने लायक हो जाएंगे । मैं चाहती हूं कि बच्चें कोई  अच्छे स्कूल में पढ़े। लेकिन घर की आमदनी उतनी नहीं  है कि बच्चों को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा पाऊंगी।  इसलिए मैं चाहती हूं कि घर पर ही  सिलाई का काम शुरू करूं। मैंने सिलाई का प्रशिक्षण एक अच्छे संस्थान से  लिया है । सिलाई का काम भी   बढ़िया से जानती हूं  । इससे घर में कुछ आमदनी भी बढ़ जाएगी । मैं  यह काम  घर के काम के साथ ही करती रहूंगी'।

सासु मां सरस्वती देवी की बातें सूनकर आग बगुला हो गई। उन्होंने तेज आवाज में कहा,- 'बहू तुम यह क्या बोल दी ! अब हम लोगों के दिन इतने खराब हो गए हैं कि बहू की कमाई खाएं । मुझे मुझे ऐसी कमाई नहीं खानी है । आज तुम यह बात बोल दी है ,भविष्य में कभी ऐसी बात मुंह से मत निकालना । रामधन जब बच्चे पैदा किया है, तो अच्छे स्कूल में पढ़ा भी लेगा । बस तुम अपनी गृहस्थी  का काम देखो। मोहल्ले की कोई बहू कमाकर घर चलाती है, भला । आदमी का काम कमाना है और औरत का काम  घर चलाना है। इसके आगे तुम सोचना भी नहीं'।

सासु मां की ऐसी ताने भरी बातें सुनकर सरस्वती देवी को हिम्मत नहीं हुई कि आगे कुछ और कह सके । वह चुप ही रहना पसंद की थी। और वहां से निकल कर अपने कामों में लग गई थी। 

समय के साथ दिन भी बीतते चले जा रहे   थे। सरस्वती देवी  फिर कभी भी ना अपने पति और ना ही अपनी सासु मां से सिलाई के बाबत बोली थी। सरस्वती देवी ने अपने बड़े बेटे राकेश का नाम एक सरकारी स्कूल में लिखवा दिया था । छोटी बेटी ममता अभी छोटी थी। दोनों बच्चों को सरस्वती देवी घर पर बहुत ही मन लगाकर पढ़ाती थी । आर्थिक अभाव में भी दिन हंसी खुशी बीत रहे थे।

 एक दिन उनकी सास भी इस दुनिया से चल बसी।  सरस्वती देवी एवं उनके पति रामधन ने मां का श्राद्ध कर्म बहुत ही बढ़िया ढंग से किया था। सासू मां कुछ पैसे बचा कर रखी थी । इससे ही उनका काम क्रिया बहुत ही बढ़िया ढंग से हो पाया था। अन्यथा रामधन पर कर्ज का बोझ और बढ़ जाता ।

 सासु मां  के निधन का जब साल संबत बीत गया, तब एक दिन  सरस्वती देवी ने अपने पति से कहा,- अब बच्चे भी बड़े होते जा रहे हैं। इस साल ममता का भी स्कूल में नाम लिखवाना है । आपकी आमदनी भी ज्यादा बढ़ नहीं पा रही है । घर के खाना खर्चा के लिए आपकी आमदनी ठीक है । लेकिन बच्चों की पढ़ाई के लिए हम दोनों को ही ना सोचना पड़ेगा।  पैसे की कमी कारण ही रमेश का नाम सरकारी स्कूल में लिखवा दिया । आगे दोनों बच्चों को पढ़ाना है ।  बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे जमा भी करना है। दिन-ब-दिन आपकी और हमारी उम्र भी बढ़ती चली जा रही है। इसीलिए मैं चाहती हूं कि घर पर सिलाई का काम शुरू कर दूं। अगर मैं घर पर सिलाई का काम करती  तो  कुछ आमदनी बढ़ जाती। आप  अकारण मोहल्ले वालों की चिंता करते  हैं। कोई कुछ नहीं बोलेगा । अब कितनी लड़कियां कमा कर घर चला रही हैं । आप मुझे घर पर सिलाई के काम करने का परमिशन दें दे । आपको शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी',।

यह सुनकर  रामधन थोड़ी देर चुप रहा, फिर उसने कहा, -  'ठीक है ! तुम घर पर सिलाई का काम शुरू कर दो। लेकिन सिलाई मशीन कहां से लाएगी ? अभी हम लोगों के पास इतने पैसे तो नहीं है'। 

पति रामधन की बातें सुनकर सरस्वती देवी फूली नहीं समाई ।

 उसने कहा,- 'आपको सिलाई मशीन की कोई चिंता नहीं करनी है। हमारे एक रिश्तेदार सुबोध ओझा जी हैं, जो बिहार सेवा मंडल के सचिव हैं। वे सिलाई प्रशिक्षित महिलाओं को मुफ्त में सिलाई मशीन वितरण कर रहे हैं। यह खबर मैंने कल ही एक अखबार में पढ़ी। मैंने तुरंत सुबोध भैया से फोन पर इस बाबत बात भी की। उन्होंने आश्वासन दिया है  कि मशीन मैं तुम्हें जरूर दूंगा'।

सरस्वती देवी से यह बात सुनकर रामधन बहुत ही खुश हुआ और उसने कहा,- सरस्वती ! भगवान भी चाहते हैं कि तुम घर पर सिलाई का काम शुरू कर दो'।

एक सप्ताह के बाद बिहार सेवा मंडल के सचिव सुबोध ओझा ने एक सिलाई  मशीन सरस्वती देवी को प्रदान किया था। सरस्वती देवी सिलाई मशीन पाकर बहुत खुश हुई थी।  उसी दिन से उसने सिलाई का काम घर पर प्रारंभ कर दिया था । धीरे धीरे कर मोहल्ले की महिलाओं ने उसे काम देना प्रारंभ  किया था। देखते ही देखते सरस्वती देवी का सिलाई का काम जोर पकड़ लिया था।  सरस्वती देवी को सिलाई का अच्छी जानकारी थी । उसे सिलाई के काम में मन भी लगता था।  वह अपने ग्राहकों को  समय से पहले काम ‌पूरा  कर दे देती थी । वह पारिश्रमिक भी  अन्य  सिलाई दुकानों के मुकाबले  कम लेती थी ।  काम भी बहुत ही बढ़िया करके देती थी । इस बात का प्रचार आसपास के मोहल्ले में भी फैल गई थी। जो भी महिलाएं एक बार सरस्वती देवी से सिलाई करवा लेती , दोबारा उसी को ही काम देती थी। देखते ही देखते कुछ महीनों में ही सिलाई का काम स्पीड पकड़ लिया था। इधर सरस्वती देवी  दो और सिलाई मशीन खरीद ली थी। उसने सिलाई के काम में मदद के लिए  दो महिलाओं को काम पर रख लिया था। उसने अपने दोनों बच्चों का नाम विवेकानंद सेंट्रल स्कूल में लिखवा दिया था । बच्चे बहुत ही बढ़िया ढंग से पढ़ रहे थे । आर्थिक रूप से सरस्वती देवी मजबूती भी हो गई थी।  उसने तीन  साल के भीतर अपने खपरैल मकान को दो तल्ला  मकान में परिवर्तित कर दी थी। घर में हर तरह की खुशहाली आ गई थी।

सरस्वती देवी का सिलाई का काम दिन ब दिन बढ़ता ही चला जा रहा था।  अब उसके पास दस सिलाई मशीनें थीं। तेरह महिलाएं उसके सिलाई के काम में सहयोग करती थी । वह अपने सिलाई के काम में सहयोग करने वाली महिलाओं को अच्छी तनख्वाह देती थी। सभी महिलाएं मन लगाकर काम करती थीं । 

तभी अचानक एक दिन एक  सड़क हादसे में सरस्वती देवी के पति रामधन के देहावसान का समाचार आया। यह खबर सुनते ही सरस्वती देवी मूर्छित हो गई थी । दुकान में मौजूद महिलाएं सरस्वती देवी के चेहरे पर पानी छिड़ककर सांत्वना देने लगी थी । सरस्वती देवी को जब होश आया, तो वह विलख - विलख कर रोने लगी थी। सरस्वती देवी  ने ऐसी अनहोनी की कल्पना तक नहीं की थी ।

 सरस्वती देवी का पुत्र राकेश ने मुखाग्नि दिया था। समय के साथ श्राद्ध कर्म संपन्न हो गया था । श्राद्ध कार्यक्रम में सरस्वती देवी के तीनों ननंद - ननदोई  सहित परिवार के अन्य रिश्तेदार भी सम्मिलित हुए थे। सभी रिश्तेदारों ने सरस्वती देवी को संतावना दिया था । श्राद्ध कार्यक्रम के बाद सभी रिश्तेदार अपने - अपने घर लौट गए थे। सरस्वती देवी के कंधों पर भारी बोझ आ गिरा था। वह कई दिनों तक  अपने दोनों बच्चों को पकड़कर रोती रही थी । उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि रामधन के बिना आगे की गृहस्थी कैसे चलेगी ? वह मन को बहुत समझाती थी कि रामधन अब तो लौट कर वापस आएगा नहीं । उसके बिना मैं अपने बच्चों को अकेले कैसे बड़ा करूंगी ? बच्चों को कैसे पढ़ाऊंगी ? रह सोचकर वह फूट-फूटकर रोने लगती थी । इसी रोना-धोना में सरस्वती देवी का एक महीना से अधिक समय बीत गया था। सिलाई दुकान में कार्यरत महिलाएं सरस्वती देवी को बहुत ढांढस देती थी । समझाती थी । तब हुआ चुप हो जाती थी।  फिर रात में रामधन को याद कर फूट-फूट कर रोने लगती थी। सरस्वती देवी के टूटते जाने से उनके दोनों बच्चों की पढ़ाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था।

 एक दिन सिलाई दुकान में कार्यरत  सावित्री ने सरस्वती देवी से कहा,- 'दीदी ! अब तो रामधन आने वाले नहीं है। लेकिन रामधन दो बच्चों की जवाबदेही आपको देकर सदा सदा के लिए चले गए। उनकी जवाबदेही को अब आपको ही पूरा करना है।  आपको बच्चों को आगे पढ़ाना लिखाना है। इस तरह रोती रहेंगी तो काम कैसे चलेगा । अब अपना ध्यान बच्चों पर दीजिए। बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है'। 

सावित्री के मुख से ऐसी बात सुनकर सरस्वती देवी ने आंसुओं को पोछते हुए कहा,- मुझे अपनी जवाबदेही का एहसास है । लेकिन रामधन के चले जाने से मैं बिल्कुल असहाय महसूस कर रही हूं । बार-बार उसी की याद आ जाती है । और मैं रो पड़ती हूं'।

यह सुनकर सावित्री ने कहा,- 'दीदी! आप अकेली नहीं है। हम लोग सभी आपके साथ हैं । अपने आप को कभी अकेला मत समझिए।  जब भी हम लोगों की जरूरत होगी, हम सब आपके साथ हैं'।

सरस्वती  देवी ने यह सुनकर कहा,- 'अब तुम लोग ही मेरे सच्चे सहयोगी हो'।

यह कहकर सरस्वती देवी, सावित्री को गले लगा ली थी। सावित्री उस रात अपने मन पर पत्थर बांध ली थी। वह अब आंखों से आंसू ना गिरने देगी । पति रामधन ने जो दो बच्चों की जवाबदेही उसके कंधों पर दी है। वह पूरी निष्ठा से पूरा करेगी । 

सावित्री की बातों का सरस्वती देवी पर बहुत ही गहरा असर पड़ा था । आज वह सुबह उठकर रो नहीं रही थी, बल्कि घर के कामकाज को निपटा कर  बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रही थी । बीते डेढ़ महीने से मां को रोते देख बच्चे भी हदस गए थे ।आज मां को स्कूल के लिए तैयार करते देख बच्चे अंदर ही अंदर खुश हो रहे थे। आज पहले की तरह सरस्वती देवी सिलाई दुकान का कामकाज देखीं थीं। वह अपने सहयोगियों को सिलाई के मुत्तलिक कुछ बातें भी बताई  थी । इससे सभी महिला सेविकाएं  बहुत खुश हुई थीं । सरस्वती देवी बहुत ही सरल स्वभाव की रहीं । मृदुभाषी भी उतनी ही रही । अपने काम के प्रति भी पूरी तरह ईमानदार रही । यही कारण था कि कोई उसकी दुकान छोड़ना ही नहीं चाहती थीं।

 सिलाई दुकान और बच्चों के लालन-पालन में सरस्वती देवी अपनी पीड़ा को भूल ही गई थी। उसने अपने मन को बहुत ही भारी पत्थर से बांध दिया था । दिल उनका रोता जरूर था, लेकिन आंसुओं को आंखों तक पहुंचने नहीं देती थी। देखते ही देखते बच्चे बड़े हो गए थे।सरस्वती देवी अपने घर का काम संभालते हुए मोहल्ले वालों के सुख- दुख में बराबर खड़ी रहती थीं ।जरूरत पड़ने पर वह लोगों को धन से भी मदद करती थी। सरस्वती देवी के व्यवहार से मोहल्ले वाले बहुत खुश रहते  थे।  समय के साथ दोनों बच्चे बी.ए पास कर लिए थे। बेटा राकेश की बी.एड करने के बाद उसकी  प्राइमरी स्कूल में सरकारी नौकरी हो गई थी। बेटी ममता की बैंक  में नौकरी हो गई थी। सरस्वती देवी के दोनों बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो गए थे।

सरस्वती देवी एक योग्य लड़के से अपनी बेटी ममता की शादी कर दी थी । दामाद बेंगलुरु में एक बड़ी कंपनी में सीनियर सॉफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत है। बेटी की शादी के लिए सरस्वती देवी ने काफी मशक्कत की थी । तब जाकर यह शादी हो पाई थी। बेटी के लिए लड़का ढूंढने में सरस्वती देवी को पति रामधन की बहुत याद आई थी। लेकिन इस याद को उसने चेहरे पर कभी आने नहीं दिया था।

 आज बेटी ममता दो बच्चों की मां बन गई है । बेटा राकेश की भी शादी हो गई । वह भी दो बच्चों का पिता बन गया है । घर में किसी भी चीज की कोई कमी नहीं रही। 

बढ़ती उम्र और बेटा राकेश की नौकरी के कुछ सालों बाद सरस्वती देवी  ने अपना सारा कारोबार सावित्री के हाथों में सौंप दिया था। बदले में उसने सावित्री से फूटी कौड़ी भी नहीं लिया था। आज सिलाई की उस दुकान से बीस महिलाओं का परिवार चलता है । सिलाई की यह दुकान अब सावित्री के घर पर चल रही है।

 सरस्वती देवी के नाती - पोते जवान हो चले हैं ।सरस्वती देवी अपने जीवन से बहुत खुश थी । सिर्फ दुख एक ही था कि सुख के समय उसका  पति साथ नहीं था । आज भी रामधन को याद कर उसकी आंखें नम हो जाती।

 सरस्वती देवी को इस बात को लेकर बहुत संतोष था कि रामधन ने जो जवाबदेही उसके कंधों पर दी थी, वह पूरा हो गया था । वह अपने  पोता -पोती के संग बहुत खुश रहती। बेटी ममता को भी ईश्वर ने दो बेटों से नवाजा । जब जब भी बेटी नैयहर आती तब सरस्वती देवी दोनों नातियों को खुब दुलार करती। सरस्वती देवी के लिए उनके बच्चे ही घर संसार बन गए।

 सरस्वती देवी का नियमित मंदिर जाना । भजन मंडली में बैठना।  फिर घर के कामकाज में बहू को सहयोग देना। पोता - पोती से बातें करना । इसी सब में  उसका समय बीत जाता । बच्चे भी उसे बहुत स्नेह करते । सरस्वती देवी  दान पुण्य भी खूब करती थी । लेकिन अपने दान पुण्य की बात किसी को बताती नहीं थी। जरूरत पड़ने पर ही सरस्वती देवी बोलती थी । अन्यथा ज्यादा समय चुप ही रहती थी।  उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान बनी रहती थी।  जब कभी भी उसे अवसर मिलता तो  एक-दो सप्ताह के लिए चतरा अपना नैयहर चली जाती । वहां भी उसे बहुत मान सम्मान मिलता। इसी तरह सरस्वती देवी के दिन बहुत ही हंसी - खुशी गुजर रहे थे। 

एक दिन सरस्वती देवी ने टीवी देखा कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर देशभर में फैलती चली जा रही है। देशभर में काफी संख्या में लोग इस बीमारी से संक्रमित हो रहे हैं। यह सुनकर सरस्वती देवी अंदर से भयभीत हो गई।

 उसे, अपने बेटा - बहू, पोता - पोती,  बेटी - दामाद और नाती -नतनी का ख्याल आ गया।

 यह खबर देखने के बाद बिना देर किए सरस्वती देवी ने  बेटा राकेश, बहु लक्ष्मी की मुखातिब होकर  कहा,  जब भी तुम सब घर से  बाहर निकलो मास्क पहनकर। हाथ बराबर धोते रहो । लोगों से दो गज की दूरी बना करके रखो कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर बहुत ही तेजी के साथ फैल रही है'।

मां की बात सुनकर बेटा राकेश ने कहा,- 'हां मां ! हम लोग ऐसा ही कर रहे हैं । कोरोना की दूसरी लहर पहली लहर से भी ज्यादा खतरनाक है। इसलिए हम सबों को पहले से भी ज्यादा सावधानी रखनी है। मां हमने दोनों बच्चों को भी समझा दिया है'।

यह सुनकर सरस्वती देवी आश्वस्त हुई ।

फिर उसने कहा,-'बेटे राकेश तुम बिल्कुल सही बोल रहे हो। ममता और दमाद बाबू को भी मोबाइल पर इस बात की जानकारी दे दो ताकि वे लोग भी सावधानी से घर पर ही रहें। ज्यादा इधर-उधर ना निकले'।

यह सुनकर राकेश ने कहा,- 'मां ! कल ही मेरी ममता और संजय जी से बातचीत हुई थी। संजय जी घर से ही  अपना काम कर रहे हैं।‌ वे लोग बिल्कुल ठीक हैं'।

यह सुनकर सरस्वती  देवी के मन में शांति का अहसास हुआ । वह मन ही मन  दुआ करने लगी थी कि हमारे सभी बच्चे कुशल रहें।

धीरे धीरे कर कोरोना की दूसरी लहर संपूर्ण देश में फैल गया।  देश में मेडिकल इमरजेंसी जैसी स्थिति बन गई । एक  दिन में तीन लाख  से अधिक कोरोना संक्रमित मरीज मिलने लगे। प्रतिदिन चार हजार से अधिक जाने जाने लगी । देशभर में मरीजों की संख्या इतनी बढ़ गई कि कोरोना संक्रमित मरीजों को जीवन रक्षक दवाएं भी  नहीं मिलने लगी थी। मरीजों को ऑक्सीजन गैस सिलेंडर की भी दिक्कत होने लगी थीं ।  आवश्यक दवाओं के लिए मरीजों के अभिभावकों  को काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। ऑक्सीजन गैस सिलेंडर की जबरदस्त तरीके से ब्लैक मार्केटिंग हो रही थी । जीवन रक्षक दवाएं कई गुना अधिक दामों में बेचे जा रहे थे।  एंबुलेंस सेवाओं में भी लूट मची हुई  थी। मिलाजुला के देश की स्वास्थ्य व्यवस्था  स्थिति तार-तार हो गई थी। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें कोराना को परास्तत करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दी थी । लेकिन कोरोना जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। संपूर्ण देश में एक डर का माहौल बन गया था। देश के सभी राज्यों की सरकारों ने अपने-अपने राज्य में लॉकडाउन घोषणा कर दी थी। वहीं दूसरी ओर लॉकडाउन की घोषणा करने में केंद्र सरकार की भूमिका को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे। अगर केंद्र सरकार पहले ही लॉकडाउन की घोषणा कर देती तो स्थिति इतनी विकराल नहीं होती ।

सरस्वती देवी को अब टीवी देखने में भी डर लगता था। वह पिछले कई दिनों से टीवी पर समाचार भी नहीं देख रही थी । हमेशा भगवान से अपने बच्चों की सलामती के लिए दुआ करती रहती थी। भगवान से यह भी प्रार्थना करती कि भगवान मुझे ले जाना लेकिन मेरे बच्चों को सलामत रखना । घर में सामान की जरूरत पड़ने पर सरस्वती देवी खुद ही बाजार चली जाती थी। अपने बेटे राकेश, बहू लक्ष्मी और पोता - पोती को भी घर से बाहर जाने नहीं देती थी।

 वह यह कहकर परिवार के सभी लोगों को रोक देती,-  'मेरी तो उम्र हो गई है। मैंने दुनिया देख ली है । अगर मैं चली भी जाऊंगी तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम लोगों ने अभी जीवन देखा ही कहां है ? तुम लोगों के कंधे पर घर की सारी जवाबदेही ‌है।'

मां की बात यह सुनकर राकेश, लक्ष्मी और दोनों पोता - पोती चुप हो जाया करते थे। वे सभी  टीवी पर समाचार देखकर पूरी तरह डरे हुए थे । लेकिन वे सभी  अपने-अपने  डर को एक दूसरे से छुपाए रहते थे। बहु लक्ष्मी को हर पल चिंता सताती रहती थी कि अगर राकेश को कोरोना हो गया तो मेरा और बच्चों का क्या होगा ? लेकिन मन की इस पीड़ा को कभी प्रगट नहीं होने देती थी । पति राकेश और बच्चों को घर से बाहर निकलने ही नहीं देती थी ।

 जरूरत पड़ने पर ही सरस्वती देवी  घर से बाहर निकलती अन्यथा घर पर ही रहती थी। बाजार जाते समय मुंह पर मास्क लगा लेती थी । हाथों में सैनिटाइजर लगा लेती थी। उसकी एक आदत थी,  बार बार थूकने की। वह चाहकर भी इस आदत को रोक नहीं पाई थी। वह बाजार जाते - आते समय थूकने के लिए मास्क को हटा लेती  फिर तुरंत मास्क पहन लेती थी। जब वह बाजार से वापस आती तो साबुन से हाथ  धो लेती और पहने कपड़ों को गर्म पानी में खंगाल लेती थी।

 एक दिन जब सरस्वती देवी राशन लेकर घर लौटी तो उसे थका - थका महसूस हो रहा था। और पूरे बदन  में बहुत जोरों से दर्द हो रहा था। वह रात में सिर्फ एक ही रोटी खाई और दूध में हल्दी डालकर पी गई थी । इसके पहले भी उसे कई बार शरीर में दर्द होने पर दूध हल्दी पीने से ठीक हो गई थी । आधी रात के बाद उसे तेज बुखार लग गया था।  वह बुखार से बड़बड़ाने लगी थी। राकेश बगल के ही कमरे में सोता था । मां की बड़बड़ाने की आवाज सुनकर वह तुरन्त  उसके कमरे में गया। उसने मां के माथे को छुआ।  मां बुखार से तप रही थी। उसने तुरंत अपने कमरे में गया और एक बुखार की गोली लाकर मां को दिया।  पहले तो मां खाने से इंकार की किन्तु बेटे के आग्रह पर वह गोली खा गई ।

राकेश ने कहा,- 'मां ! घबराने की कोई बात नहीं सुबह तक तुम ठीक हो जाओगी। ठंडा गरम मौसम के कारण तुम्हें बुखार लग गया है'।

यह कह कर राकेश अपने कमरे में चला गया।  मां को अचानक बुखार हो जाने से राकेश भी चिंतित हो गया था। उसने लक्ष्मी को जगा कर मां को बुखार वाली बात बता दी । लक्ष्मी यह सुनकर चिंतित हो गई ।

तब लक्ष्मी ने कहा,- 'कहीं मां को कोरोना तो नहीं हो गया है ? क्या आपने मां को छुआ तो नहीं ?

यह सुनकर राकेश ने कहा,- 'मां का  बुखार देखने के लिए माथा छुआ । तुम कैसी बात बोल रही हो ? मां को इससे पहले भी कई बार बुखार लगा और ठीक भी हो  जाती रही। मां इतने सावधानी से रहती है । उसे कोरोना कैसे हो सकता है ?

लक्ष्मी जब यार सुनी कि राकेश ने सासू मां का माथा छुआ , उसकी चिंता और बढ़ गई।

 लक्ष्मी ने झट से कहा,- 'साबुन से हाथ धो लीजिए। और जो कपड़े पहने हुए हैं ,उसे गर्म पानी में धो  लीजिए'। 

यह सुनकर राकेश ने कहा,-  'तुम यह क्या  बोल रही हो'? 

लक्ष्मी ने कहा,- 'मैं बिल्कुल ठीक बोल रही हूं। परिवार के भले के लिए बोल रही हूं। ठीक है, मां को कोरोना नहीं है। अगर कोरोना निकल गया तो पूरे परिवार में कोरोना वायरस फैल जाएगा। तब परिवार का क्या होगा ?

लक्ष्मी की बातें सुनकर वह भी घबरा सा गया। अब उसे लगने लगा कि लक्ष्मी ठीक ही बोल रही है।

 तब उसने कहा,- 'कल ही मां का कोरोना टेस्ट करवा देते हैं। तब तक हम सभी को मां से दूर ही रहना  होगा'।

यह सुनकर लक्ष्मी ने कहा,- आप बिल्कुल ठीक बोल रहे हैं । हम सभी को मां से दूर ही रहना होगा । अभी मैं तुरंत बच्चों को भी यह बात बोल देती हूं। नहीं तो सुबह उठकर बच्चे रोज की तरह दादी से मिलने ना  चले जाएं'।

इधर सरस्वती देवी बुखार से तप ही रही थी । बुखार की गोली खाने के बाद भी उसका बुखार नहीं उतरा था। पसीना खूब बहा, फिर भी बुखार नहीं उतरा था। उसे  पूरे शरीर में दर्द था । अब उसे हल्की - हल्की खांसी भी हो रही थी । जबकि इसके पहले गर्म दूध में हल्दी मिलाकर पी लेने के बाद बदन दर्द और बुखार दूर हो जाता था। लेकिन इस बार बुखार उतर ही नहीं रहा था। बुखार और बदन में दर्द के कारण उसे नींद भी नहीं आ रही थी। वह लेटी -लेटी सोच रही थी कि उसे कोरोना तो नहीं हो गया है । वह कोरोना होने के डर से बिल्कुल घबरा नहीं रही थी । बल्कि इस बात से चिंतित थी कि कोरोना संक्रमण घर में न फैल जाए। बस वह कोरोना के फैलने से डर रही थी। बुखार की ऐसी हालत में भी वह बार-बार अपने बच्चों की सलामती के लिए प्रार्थना कर रही थी

मां की खांसने की आवाज सुनकर राकेश और लक्ष्मी  और भी डर गए थे। दोनों एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। दोनों कोरोना के भय से घबराए हुए थे । बेड पर दोनों जरूर लेटे हुए थे।  लेकिन दोनों के आंखों से नींद गायब थी । राकेश चाह कर भी मां के पास मदद के लिए जा नहीं सकता था। किसी तरह उन दोनों ने रात बिताई थी।

 राकेश सुबह उठकर सबसे पहले यह पता किया कि कोविड का आर टी पी सीआर की जांच कहां- कहां हो रही है। उसे पता चला कि बगल के ही स्कूल में कोविड जांच का शिविर लगेगा। उसने राहत की सांस ली।

 राकेश ने मां के कमरे के बाहर खड़ा होकर कहा,-  'मां ! बगल के स्कूल में कोविड की जांच शिविर लगेगा। वहां तुम्हें जांच के लिए ठीक ग्यारह बजे जाना है'।

 मां ने यह सुनकर कहा,- 'ठीक है बेटे।

आज कोई भी बच्चे दादी से मिलने के लिए नहीं गए थे। दोनों बच्चे भी डरे हुए लग रहे थे । लक्ष्मी ने दूर से ही नाश्ता कमरे के बाहर सासु मां के लिए रख दिया था । उसने जोर से आवाज लगाकर नाश्ता के संबंध मे बता दिया था। साथ ही लक्ष्मी ने सिर्फ बगल वाला बाथरूम  यूज़ करने के लिए कहा था। सासू मां लक्ष्मी की बातें सुन ली थी। सरस्वती देवी को बिल्कुल भी नाश्ता करने का  मन नहीं कर रहा था।  लेकिन किसी तरह वह खुद को संभालते हुए  नित्य क्रिया से निवृत होने के बाद  बमुश्किल दो रोटी खा पाई थी। उसका  सारा बदन दर्द से टूटा जा रहा था । बुखार छूटने का नाम ही नहीं ले रहा था। बड़ी मुश्किल से वह बगल के स्कूल तक कोविड जांच के लिए जा पाई थी।  बेटा - बहू दोनों दूर ही खड़े थे। मोहल्ले वाले सरस्वती देवी को अचानक ऐसी अवस्था में देखकर उससे दूरी बना लिए थे। चूंकि पहले से इस मोहल्ले के सात  कोविड मरीज अस्पताल में भर्ती थे । सब दूर ही से सरस्वती देवी को देख रहे थे । सरस्वती देवी भी समझ रही थी कि यह बीमारी ही ऐसी है। कोई चाह करभी कटेगा।

तीन दिनों के बाद राकेश के मोबाइल पर मां का कोरोना जांच  रिपोर्ट आया था।  रिपोर्ट पॉजिटिव था। यह पढ़कर उसके आंखों के सामने अंधेरा छा गया था। उसने किसी तरह खुद को संभाला । और विचार करने लगा  कि आगे क्या किया जाए? उसे कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था कि मां का इलाज कैसे हो ?

तब राकेश ने लक्ष्मी से कहा,- 'मां का जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आया है'। 

यह सुनकर लक्ष्मी के भी होश उड़ गए थे।

 तब लक्ष्मी ने कहा, 'देर मत करो। मां को तुरंत सदर अस्पताल में भर्ती कर दो। नहीं तो बड़ी मुश्किल में हम सब पढ़ जायेंगे। मां की कोविड जांच के बाद हम सबों ने कितने मुश्किल से तीन दिन बिताए हैं । हम ही लोग जानते हैं। अगर गलती से भी घर के किसी और मेंबर को कोरोना हो गया तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। इसलिए जो भी हो, मां को आज ही अस्पताल में भर्ती कर दीजिए। मां वहीं पर ठीक हो पाएगी । तीन  दिनों से डॉक्टर के परामर्श पर मां दवा खा रही है। बुखार और खांसी कहां कम नहीं हो पा रही है । मां घर पर रहेगी तो संक्रमण फैलने का खतरा भी उतना ही रहेगा'।

यह सुनकर राकेश ने कहा,- तुम ठीक ही बोल रही हो। घर पर मां का इलाज संभव नहीं है। अस्पताल में ही उनका ठीक से उपचार हो पाएगा । चाह कर भी हम सब मां की सेवा ढंग से नहीं कर पा रहे हैं । इसलिए अस्पताल में ही मां को भर्ती कर देते हैं'।

राकेश की ये बातें सुनकर लक्ष्मी राहत की सांस ली।

 तब उसने कहा,- 'मां को सदर अस्पताल कैसे ले जाएंगे?

यह सुनकर राकेश कुछ सोचने लगा। तभी उसे ख्याल आया कि एक एंबुलेंस वाले का नंबर उसके मोबाइल में है। 

तब उसने कहा,- 'मैं एक एंबुलेंस वाले को जानता हूं। मेरे मोबाइल में उसका नंबर भी है। उसे फोन कर बात करता हूं । एंबुलेंस वाला बड़ा अच्छा आदमी है। वह मां को जरूर सदर अस्पताल ले जाएगा' ।

राकेश बिना देर किए एंबुलेंस वाले से बात की ।एंबुलेंस वाले ने तुरंत आने की बात कही।

अब राकेश और लक्ष्मी इस बात से इत्मीनान हो गए थे कि मां अब सदर अस्पताल पहुंच जाएगी ।वहां उसका इलाज शुरू हो जाएगा ।  हम लोगों को मां को  छूना भी नहीं पड़ेगा। फिर दोनों एक थैला में मां के लिए कुछ कपड़े  और आवश्यक चीजें रख दिया। फिर एंबुलेंस का इंतजार करने लगे थे।

तभी लक्ष्मी ने राकेश से कहा,- 'आपके मोबाइल में मां का कोरोना का पॉजिटिव रिपोर्ट है । उसकी एक कॉपी साइबर कैफे से निकालकर मां को दे दीजिए। ताकि डॉक्टर रिपोर्ट को देखकर तुरंत इलाज शुरू कर दे'।

लक्ष्मी की  बात सुनकर राकेश तुरंत साइबर कैफे से मां का कोरोना पॉजिटिव रिपोर्ट  निकलवा लिया । लक्ष्मी इस रिपोर्ट को  थैला में ऊपर में रख दी। 

इसके बाद लक्ष्मी ने मां से कहा,-  'मां!थैला में ऊपर में आपका कोरोना का रिपोर्ट दिया है।इसे  डॉक्टर को दिखाना होगा। तभी आपका तुरन्त  इलाज शुरू होगा। एंबुलेंस बस थोड़ी देर में आ रहा है। वह आपको सदर अस्पताल ले जाएगा'।

यह सुनकर सरस्वती देवी ने कहा,-  'ठीक है बहु! मेरे कारण पूरे  तुम दोनों को काफी परेशानी हो रही है । अब देखो भगवान को क्या मंजूर है ! मैंने तो आज तक किसी का बुरा किया नहीं। अब जीवन के  आखरी समय में भगवान हमें क्यों कष्ट दे रहे हैं। यह तो कृष्ण मुरारी ही जाने'।

यह बोलते बोलते सरस्वती देवी की आंखें भरआई थी। तभी एंबुलेंस आ गया था। सरस्वती देवी किसी तरह एंबुलेंस में बैठ गई थी । अगल - बगल के लोग अपने - अपने घरों के बाहर खड़े होकर सरस्वती देवी को एंबुलेंस में जाते देख रहे थे । लेकिन कोई भी उसके समीप नहीं पहुंचा था। जबकि सरस्वती देवी हर के सुख-दुख  में हमेशा साथ खड़ी रहती थी । सरस्वती देवी मोहल्ले वाले से ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं कर रही थी । वह जानती थी कि हमारी बीमारी ही ऐसी है, तो लोग कैसे मेरे पास आएंगे।

सरस्वती देवी को लेकर एंबुलेंस आगे - आगे जा रही थी। पीछे से मोटरसाइकिल पर राकेश और लक्ष्मी जा रहे थे।

तभी लक्ष्मी ने राकेश से कहा,- कोरोना बहुत ही छूत की बीमारी है। मां को हम  लोग सदर अस्पताल तक पहुंचा दे रहे हैं। मां के पास  कोरोना का रिपोर्ट है। रिपोर्ट देखकर डॉक्टर मां का   इलाज शुरू कर देंगे।  आप हॉस्पिटल के अंदर मत जाइएगा। अगर आपको कुछ हो गया तो मेरा और बच्चों का क्या होगा'।

यह सुनकर राकेश और भी भयभीत हो गया था। वह पहले से ही मां के इलाज के लिए चिंतित था कि अस्पताल के अंदर कैसे जाएगा। वह आज तक अस्पताल नहीं गया था। इससे  वह और डरा सहमा हुआ था । लक्ष्मी की बात ने उसे और डरा दिया था।

तब राकेश ने कहा,- 'मां का इलाज फिर कैसे होगा ?

यह सुनकर लक्ष्मी ने कहा,- 'इलाज आपको तो नहीं करना है । इलाज डॉक्टर को करना है । हम लोग मां को सदर अस्पताल पहुंचा दीजिए।  सारा काम डॉक्टर  कर लेंगे । कोरोना की दूसरी लहर जिस तरह फैली हुई है। मैं पूरी तरह घबरा गई हूं।  कहीं आपको कुछ हो गया तो  हम लोगों का क्या होगा। मां तो अपना जीवन जी ली है। हम लोगों ने कभी भी मां को किसी चीज की कमी होने दी है । यह बीमारी ही ऐसी है। इसलिए मैं ऐसी बात बोल रही हूं । मां के दर्द को मैं समझती हूं ।लेकिन इसके आगे हम लोग कर भी क्या सकते हैं'।

लक्ष्मी की बातें सुनकर राकेश को भी लगा कि वह ठीक ही बोल रही है। अगर मुझे सचमुच कुछ हो गया तो मेरा घरबार ही तबाह हो जाएगा।

पन्द्रह मिनट में  एंबुलेंस मां को लेकर  सदर अस्पताल पहुंचा गया था। एंबुलेंस ड्राइवर ने मां को सदर अस्पताल की सीढ़ी तक्र पहुंचा दिया था।  फिर राकेश से पैसे लेकर वहां से चला गया था। सरस्वती देवी अस्पताल की सीढ़ी  पर बैठ गई थी। बुखार से उसका शरीर तक रहा था। दर्द से उसका बदन भी टूट रहा था।  वह सीढ़ी पर बैठकर इंतजार कर रही थी कि बेटा - बहू उसे अस्पताल में भर्ती कराएंगे । तभी मां की नजर दूर खड़े बेटा - बहू पर पड़ी। राकेश और लक्ष्मी अस्पताल की सीढ़ी से काफी दूरी पर खड़े थे । मां ने दोनों को देखकर आने का इशारा भी किया था । लेकिन दोनों अपनी जगह से हिले तक नहीं थे। मां को समझते देर न लगी कि आखिर बेटा - बहू उसके पास क्यों नहीं आ रहे थे। मां ने आखरी बार बेटा और बहू को अपनी आंखों से जी भर देख लिया था। मां के आंखों से आंसू छलक पड़े थे। मां का मन टूट सा गया था। पति के मरने के बाद जितना दुख नहीं हुआ था, उससे कहीं ज्यादा दुख आज महसूस कर रही थी। उसने अपनी मेहनत से घर के लिए क्या कुछ नहीं किया था। सब कुछ रहते हुए भी आज उसके पास कोई नहीं था। वह मन को समझाते हुए भगवान कृष्ण का नाम ली थी। सरस्वती देवी ने मन ही मन कहा था कि हे कृष्ण मुरारी! अगर ले जाना है, तो देर ना करो । यह दिन देखने के लिए मैं जिंदा नहीं रहना चाहती। सरस्वती देवी यह सोच ही रही थी, तभी  रेणु नाम की एक नर्स वहां से गुजर रही थी।

 सरस्वती देवी को सीढ़ियों पर पड़ा देखकर नर्स रेणु ने कहा,- माता जी आप सीढ़ी पर बैठी हुई है। आपको कोई तकलीफ है क्या ?

यह सुनकर सरस्वती देवी को लगा कि भगवान कृष्ण ने मदद के लिए किसी को भेज दिया है । तब उसने अपने थैला से कोरोना रिपोर्ट निकाल कर रेणु को दे दिया। 

रिपोर्ट देखकर रेणु ने कहा, - 'माता जी! आपको कोरोना पॉजिटिव है। घबराने की कोई बात नहीं है। माता जी ! आपके घर वाले कहां है?

यह सुनकर सरस्वती देवी चुप ही रही थी। वह क्या कहती ? बेटा - बहू वहां खड़े हैं। नर्स रेणु  को समझते देर ना लगी। वह समझ गई थी कि माता जी के साथ कोई नहीं है। नर्स रेणु ने सहारा देकर सरस्वती  देवी को उठाया  और अस्पताल के कक्ष की ओर बढ़ ही रही थी, इसी बीच समाजसेवी गणेश सीटू जी भी मदद के लिए पहुंच गए थे । उसने भी सरस्वती देवी को सहारा दिया और उनका थैला अपने हाथ में ले लिया था। अस्पताल की सीढ़ियां चढ़ते हुए सरस्वती देवी जब पीछे मुड़ कर  देखी तो बेटा और बहू वही खड़े थे। उनकी आंखों से फिर से आंसू छलक पड़े थे। फिर सरस्वती देवी मन को कठोर कर आगे बढ़ने लगी थी। 

माता जी के आंखों से आंसू छलकते देखकर गणेश सीटू ने कहा,- 'चाची ! आप बिल्कुल घबराइए नहीं। मैं भी आपके बेटे जैसा ही हूं । जहां तक हो सकेगा पूरी मदद करूंगा ।आपको कष्ट नहीं होने दूंगा। रेणु दीदी आपके साथ है ही'।

गणेश सीटू की बातें सुनकर सरस्वती देवी का दिल भर आया। उसने कहा,- 'तुम दोनों मेरे पूर्व जन्म के बेटा - बेटी हो। इसलिए भगवान कृष्ण ने मदद के लिए भेज दिया है'।

यह सुनकर रेणु और गणेश सिटू मुस्कुरा भर दिए थे। रेणु और गणेश सीटू  सरस्वती देवी को लेकर अस्पताल के कोविड कक्ष में आ गए थे। रेणु और गणेश सीटू, सरस्वती देवी को लेकर डॉक्टर के कक्ष में चले गए। डॉक्टर साहब ने तुरंत सरस्वती देवी का रिपोर्ट देखा और जल्द से जल्द कागजी कार्रवाई पूरा कर अस्पताल में भर्ती करने का आदेश दे दिया था। इधर  गणेश सीटू कागजी कार्रवाई पूरा करने में लग गए। थोड़े ही देर में कागजी कार्रवाई पूरी हो गई । बेड भी निर्गत हो गया था। रेणु और गणेश सीटू  माता जी को सहारा देकर बेड तक ले गए थे। सरस्वती देवी का इलाज प्रारंभ हो गया ।उनका ऑक्सीजन लेवल थोड़ा काम था । चेस्ट में इंफेक्शन था। गणेश सीटू और रेणु ने  माताजी के लिए ऑक्सीजन गैस सिलेंडर का इंतजाम किया।  सरस्वती देवी को दिन और रात भर ऑक्सीजन लगा रहा। सलाइन भी चढ़ता रहा। दूसरे दिन सुबह वह कुछ अच्छा महसूस कर रही थी। बुखार भी थोड़ा उतर चुका था। खांसी में भी कमी आ गई थी। बदन दर्द में भी कमी महसूस कर रही थी। अब वह कुछ अच्छा महसूस कर रही थी। उसने  अगल-बगल बेड में पड़े मरीजों को सरसरी निगाहों से देखा तो वह  थोड़ी घबरा सी गई थी। लेकिन उसने अपने मन को  विचलित नहीं होने दिया। मन को मजबूत की।  इसी बीच उसे ख्याल आया कि मारने वाला है राम और बचाने वाला है राम। अगर मेरी मृत्यु लिखी हुई है तो कोई ताकत मुझे बचा नहीं सकती है । अगर जिंदगी है तो कोई मुझे मार भी नहीं सकता। उसने यह भी मन बना लिया कि कोरोना को परास्त करके रहेगी और स्वस्थ होगी।  वह समय पर दवा लेती थी । अस्पताल से उसे जो भी भोजन मिलता बड़े ही चाव से खाती थी। कई स्वयंसेवी संगठनों ने भी उसे भोजन का पैकेट दिया था। वह बहुत ही प्रसन्न मन से खाती थी। नर्स रेणु भी सरस्वती देवी का  बहुत ख्याल रखती थी। सुबह शाम गणेश सीटू सरस्वती देवी का हाल-चाल लेने के लिए आ जाता था। रेणु और गणेश सीटू के आत्मीय व्यवहार से सरस्वती देवी बहुत खुश थी। सरस्वती देवी का मन तब  दूखता था, जब अगल-बगल  के मरीजों से मिलने  के लिए उनके बेटा - बहू, बेटी - दमाद,  पोता - पोती, नाती -नतनी आते थे। तब उसे भी अपने बेटा - बहू और पोता - पोती की याद आ जाती थी। तब आंखों से आंसू छलक पड़ते थे। वह सोचती थी कि उसके बच्चे कितने निर्मोही हो गए हैं। क्या अस्पताल के बाहर मां को छोड़कर भला  कोई  इस तरह  चला जाता हैं। जिनके लिए मैंने अपना संपूर्ण जीवन दे दिया । आज मेरे साथ परिवार के कोई भी सदस्य नहीं है। यह तो भगवान कृष्ण की कृपा है कि रेणु और गणेश सीटू जैसे मददगार पहुंच गए । अगर ये नहीं होते तो मेरा क्या होता ?

 नर्स रेणु की मां बचपन में ही दुनिया से चल बसी थी। सरस्वती देवी को देखकर उसे लगता कि अगर मेरी मां जिंदा होती तो बिल्कुल ऐसी ही होती। उससे  जितना संभव हुआ, सरस्वती देवी के लिए की थी । उसकी सेवा, गणेश सीटू  का रोजाना देखना, अस्पताल की बेहतर देखभाल और सरस्वती देवी का आत्मविश्वास व जीने की प्रबल इच्छा का असर ऐसा हुआ कि  दस दिनों के बाद फिर उनका आ रटी पी सीआर रिपोर्ट नेगेटिव आया गया था। सरस्वती देवी पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी थी। अस्पताल के डॉक्टर्स, नर्सेज एवं अन्य कर्मचारी गण  सरस्वती देवी के स्वस्थ हो जाने से बहुत खुश थे। उसने अस्पताल के नियमों का पालन बहुत ही अच्छे ढंग से किया था। फलस्वरुप सरस्वती देवी इस उम्र में भी स्वस्थ हो पाई थी । नर्स रेणु ने सबसे पहले सरस्वती देवी को नेगेटिव रिपोर्ट की सूचना दी थी। नेगेटिव रिपोर्ट आने  का समाचार सुनकर सरस्वती देवी बहुत ही खुश हुई थी। उसकी आंखें भर आई थी।

यह देखकर नर्स रेणु  ने कहा,- 'माता जी !  आपकी आंखों में आंसू ?

 सरस्वती देवी ने कहा,- 'बेटी ! ये खुशी के आंसू है '। 

तब तक गणेश सीटू जी भी सरस्वती देवी के पास एक हाथ में मिठाई का डब्बा लेकर पहुंच गए थे ।उसने अपने हाथों से सरस्वती देवी को मिठाई खिलाई।  और उनका पैर छूकर आशीर्वाद लिया । सरस्वती देवी ने गणेश सीटू और नर्स रेणू को बहुत आशीष दिया । आशीष देते समय उसकी आंखें भर आई थी।

नर्स रेणु ने सरस्वती देवी से कहा,- 'माता जी ! आप एक-दो दिनों में यहां से डिस्चार्ज हो जाएंगे। अपका घर कहां है ? परिवार में कोई लोग हैं ना ?

सरस्वती देवी यह सुनकर फूट-फूट कर रोने लगी।

 तब उसने कहा,- 'बेटी! हमारा भरा पूरा परिवार है।  कोरोना हो जाने के कारण सब मुझे मेरे हाल पर छोड़ कर दूर हो गए हैं। बेटा - बहू,बेटी - दामाद, पोता - पोती, नाती - नतनी सब हैं। लेकिन मुझे देखने के लिए कोई  नहीं आए। मैं जिंदा हूं व मर गई हूं । यह भी खोज खबर लेने के लिए कोई नहीं आए । इसी बात का मुझे जीवन भर  दुख रहेगा। ना जाने मुझसे क्या गलती हो गई ? कि उन लोगों ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया'।

यह सुनकर  नर्स रेणु ने सरस्वती देवी के पीठ को सहलाते हुए कहा,- 'माताजी ! अब इन बातों को जाने दीजिए। बच्चों को माफ कर दीजिए । यह बीमारी ही ऐसी है कि सब लोग दूर भाग रहे हैं। मैं भी घर जाती हूं, तो घरवाले मुझसे भी दूर ही रहते हैं । मैं बिल्कुल ही बुरा नहीं मानती हूं । कोरोना के भय से सब लोग डरे हुए हैं'। यह सुनकर सरस्वती देवी ने कहा,- 'बेटी ! मैं कहां उन्हें कुछ बोल रही हूं । बस मेरा यह कहना है कि उन लोगों को कम से कम मेरा हाल-चाल लेने के लिए अस्पताल तो आना चाहिए था। ठीक है ! मुझे कोरोना हो गया । मुझसे शारीरिक दूरी बनाकर रखते लेकिन उन लोगों ने मुझे मन से दूर दिया।  इस बात की मुझे सबसे अधिक तकलीफ है'। 

नर्स रेणु ने कहा,- खैर! जो हुआ उसे भूल जाइए। बच्चों को माफ कर दीजिए । गणेश सीटू और हम आपके बच्चे ही हैं। समझ लीजिए, उनकी जगह हम लोगों ने आपकी सेवा कर दी। उन्हें माफ कर दीजिए। आपके बेटे का कोई नंबर है, तो दे दीजिए । आपके ठीक होने की खबर मैं उन्हें दे दूंगी। ताकि वे आपको यहां लेकर  से चले जाएंगे'। 

यह सुनकर सरस्वती दीदी ने कहा,- 'बेटे का नंबर मेरे पास जरूर है। लेकिन यहां उसे बुलाऊंगा  नहीं । तुम लोगों ने ही मुझे ठीक किया है । तुम और गणेश मुझे घर  छोड़ देना। इस बहाने एक मां का घर देख लेना'।

तब रेणु ने कहा,- 'ठीक है माता जी'।

इधर राकेश, लक्ष्मी और दोनों बच्चे घर पर ही थे। सब डरे हुए थे। राकेश मां को देखने के लिए अस्पताल जाना चाहता था । लेकिन लक्ष्मी उसे जाने ही नहीं देती थी। दोनों पोता - पोती भी दादी को खोज रहे थे । लक्ष्मी उन दोनों को यह कह कर मना  देती थी कि दादी अस्पताल में भर्ती है। वहां उसका इलाज चल रहा है। वह ठीक है। दस दिन बीत गए थे। राकेश को मां को इस तरह अस्पताल में छोड़कर आ आने और  देखने के लिए भी ना जाने से बहुत ही अपराध बोध हो रहा था। मां कैसी होगी  ? मां का क्या हाल होगा ? इस तरह की कई बातें उसके मस्तिष्क में चल रही थी। उसका मन कहता था कि मां ठीक ही होंगी । अगर कोई अनहोनी होती तो अस्पताल से  कोई खबर जरूर आती । यह सोचकर उसे तसल्ली होती कि कम से कम मां ठीक तो है। वह बीते दस दिनों से घर से बाहर निकला ही नहीं था ।उसे इस बात का डर था कि मुहल्ले वाले मां के विषय में पूछेगे तो  क्या ज़बाब देंगे ? पूरे परिवार के लोग इतने डरे सहमे हुए थे कि  घर के अंदर भी मास्क पहनकर रह रहे थे। कहीं सासु मां का कोरोना का बैक्टीरिया घर में तो नहीं है ! लक्ष्मी कई बार सैनिटाइजर से पूरा घर धो चुकी थी । इसके बाद भी मन में बैठा डर दूर नहीं हो रहा था।

चौदहवें दिन सरस्वती देवी को सदर अस्पताल से डिस्चार्ज मिल गया था। अस्पताल के सिविल सर्जन ने सरस्वती देवी को फूलों का एक गुलदस्ता भेंट कर विदा किया था। अस्पताल में भर्ती सभी मरीजों ने हाथ हिला कर सरस्वती देवी को विदा किया था। सभी सरस्वती देवी के ठीक होने से खुश नजर आ रहे थे।

नर्स रेणु और गणेश सीटू सरस्वती देवी को एक टेंपो से लेकर उसके घर आए थे। सरस्वती देवी टैंपू से उतरी और घर का बेल दबाई। बेल की आवाज सुनकर घर के सभी मेंबर हड़बड़ा गए । चूंकि बीते चौदह दिनों के दरमियान उसके घर का बेल किसी ने बजाया ही नहीं था ।अचानक दिल की आवाज सुनते ही राकेश और लक्ष्मी विशेष रुप से हड़बड़ा गए थे । वे दोनों सोचने लगे थे कि कहीं कुछ मां के साथ अनहोनी तो नहीं हो गया ! 

मोहल्ले वाले सरस्वती देवी को टेंपो से उतरते हुए जैसे  देखें सभी अपने-अपने  घरों के बाहर खड़े हो गए थे। तरह-तरह की बातें करने लगे थे। राकेश को सरस्वती देवी के साथ ना देखकर सभी अचंभित थे । वे सब आपस में तरह तरह की बातें करने लगे थे।

बेल की आवाज सुनकर सहमे - सहमे  राकेश - लक्ष्मी ने घर का दरवाजा खोला। सामने मां को देखकर दोनों अचंभित रह गए थे । उन लोगों ने कल्पना भी ना की थी कि  इस तरह भी मां घर आ सकती थी। राकेश को मां को सामने देखकर नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। बहु लक्ष्मी स्थिति को समझते हुए उसने  मां का पैर छूकर प्रणाम किया। राकेश भी मां का पैर छूकर प्रणाम किया।तक उनके दोनों पोता - पोती भी आ गए।  उन दोनों ने भी दादी को पैर छूकर प्रणाम किया। सरस्वती देवी ने मुस्कुराकर सभी को आशीर्वाद दिया।

सरस्वती देवी, गणेश और नर्स रेणु को इसारा कर नजदीक बुलाई। उसने दोनों को  अंदर साथ चलने के लिए कहा। वे दोनों उनके साथ कमरे तक आए। नर्स रेणु को ऐसी उम्मीद थी कि माताजी अपने बेटा - बहु को खूब डांट फटकार लगाएगी, लेकिन ऐसा होते देख कर उसे भी घोर आश्चर्य हो रहा था । सरस्वती देवी जिस इत्मीनान के साथ अपने बच्चों से मिली, आशीर्वाद दी, लगा ही नहीं कि उसके बेटे और बहू ने इतनी बड़ी गलती की।

सरस्वती देवी नर्स रेणु और गणेश सीटू को खूब आशीर्वाद दे रही थी । दोनों बच्चे दादी को देख कर बहुत खुश नजर आ रहे थे।

नर्स रेणु ने सरस्वती देवी की ओर मुखातिब होकर कहा,-  'माताजी ! अब हम दोनों को जाने दीजिए। हॉस्पिटल में बहुत सारा काम है । वहां  रहना जरूरी है'।

 यह सुनकर सरस्वती ने कहा,- 'हां बेटी ! तुम दोनों जरूर अस्पताल जाओ। मैं तुम दोनों को नहीं रोक रही हूं। तुम दोनों ने जैसी मेरी सेवा की, मैं कभी भूल नहीं पाऊंगी। तुम दोनों मेरे पूर्व जन्म के बेटा - बेटी हो । तुम दोनों को मैं आशीर्वाद देती हूं कि  खूब फलो फूलो'।

सरस्वती देवी की बातें सुनकर नर्स रेणुऔर गणेश सीटू की आंखें भर आई । फिर  दोनों उन्हें प्रणाम कर कमरे से बाहर निकल गए।

नर्स रेणु और गणेश सीटू   कमरे से बाहर निकल कर आगे जा ही रहे थे कि पीछे से राकेश  ने उन दोनों को रोक कर  कहा,- 'आप आप दोनों ने मेरी मां की बड़ी खिदमत की है। तब ही मेरी मां बचपाई। मैं तो मां को अस्पताल पहुंचा कर भाग खड़े हुए थे। हमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है। आप दोनों को शुक्रिया अदा करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। जो काम मुझे करना चाहिए था, आप दोनों ने किया'।

यह सुनकर गणेश सीटू ने कहा,- 'आप सबों से बहुत बड़ी भूल हुई है। आपकी मां ने आप लोगों को एक शब्द भी नहीं कहा । यह आपकी मां का मन और उदार हृदय है । उन्होंने डांटने की जगह आप सबों को आशीर्वाद दिया है । ऐसा सिर्फ आपकी मां से ही संभव है । अस्पताल में आप सबों को याद कर अंदर ही अंदर कुढ़ती और रोती थी । लेकिन एक बार भी आपकी मां  आप सबों की शिकायत नहीं की। आप सबों ने जो गलती की है,उस गलती की माफी भी नहीं है ।आप सब शहर में रहते हैं।  सब कुछ जानते हैं। समझते हैं। फिर  भी इतनी बड़ी गलती की । हम लोग भी किसी न किसी के पति और बेटा हैं। हम लोग भी दिन रात कोरोना मरीजों के साथ रहते हैं। हम लोगों को कोरोना कहां हो रहा है ? सिर्फ सावधानी रखने की जरूरत होती है। खैर ! छोड़िए इन बातों को । अब आपकी मां ठीक हो गई है। बहुत ही सीरियस कंडीशन में हॉस्पिटल आई थी। आपकी मां  बहुत हिम्मत  दिखाई। इसलिए वह जल्दी स्वस्थ हो पाई। मां को चौदह  दिनों तक और कोरेन्टाइन में रखिए। मां की सेवा कीजिए। दवा समय-समय पर दीजिए'।

 क्या सुनकर राकेश ने कहा, जी भैया'।

इसके बाद नर्स रेणु और गणेश सीटू सरस्वती देवी के घर से निकल गए थे। राकेश, गणेश सीटू की बातें सुनकर अंदर ही अंदर व्यथीत हो रहा था । उसे अपनी गलती पर पछतावा  हो रहा था। उसे लग रहा था कि लक्ष्मी की बातें मानकर उसने बड़ी भूल की। वह चाहता तो अस्पताल में  मां की सुध ले सकता था । वह ऐसा ना करें जीवन की बड़ी भूल की थी। मां बचपन से लेकर आज तक उसका कितना ख्याल रखती थी । अब उसके पास पछतावे के अलावा और कुछ भी ना था।

देखते ही देखते चौदह दिन भी बीत गए थे। सरस्वती देवी अब पूरी तरह ठीक हो गई थी।  लेकिन पहले से थोड़ी दुबली हो गई थी। इस बीच नर्स रेणु और गणेश सीटू दो-दो बार उसे देखने के लिए भी आए । राकेश और लक्ष्मी दोनों ने मिलकर मां की बेहतर सेवा की थी।

आज सरस्वती देवी बहुत प्रसन्न लग रही थी।

सरस्वती देवी ने बेटा राकेश ,बहू लक्ष्मी  को पास  बुलाकर कहा, - 'आज मैं अपने मन की बात तुम लोगों से कहती हूं । बेटा राकेश तुम और लक्ष्मी मुझे अस्पताल की सीढ़ी पर छोड़कर चले आए थे। मुझ पर क्या बीती होगी ? इसका तुम दोनों का अंदाजा है । मैं कभी सपने में भी  नहीं सोची थी कि ऐसा भी दिन मुझे  देखना पड़ेगा।  यह जरूरी था कि तुम सब मुझसे शारीरिक दूरी बनाकर रखते । इसके मैं इनकार कहां करती । लेकिन तुम दोनों ने  मुझसे शारीरिक दूरी के साथ मन का भी दूरी बना लिया था। यह बात  मुझे बेचैन  कर रख दिया था । मैं एक बार यह  समझ ली थी कि अब शायद अपना घर देख नहीं पाऊंगा। तुम दोनों को आखरी बार देख रही हूं' ।

मां की ये बातें  सुनकर रितेश और लक्ष्मी की निगाहें झुक गई थी। उन दोनों में इतनी शक्ति नहीं थी कि मां से आंखें मिला पाए।

 उन दोनों ने मां के पैर पर छूकर माफी मांगी ।

राकेश ने  कहा, - 'मां ! हम दोनों से बड़ी गलती हुई है। हम दोनों पूरी तरह घबरा गए थे । अगर मुझे  कोरोना हो गया तो क्या होगा ?  जिस तरह कोरोना से मृत्यु की खबरें आ रही थी। उससे हम दोनों घबरा गए थे। मां ! हम दोनों की गलती को क्षमा कर दीजिए'। 

 सरस्वती देवी ने कहा,- 'बेटे! तुम दोनों को मैं कहां सजा दे  रही हूं। मैंने  तो तुम दोनों को माफी कर दिया । लेकिन तुम दोनों ने मेरे साथ जो किया इसे सपने में भी नहीं सोची थी। अस्पताल में मेरे साथ कोरोना के कई मरीज भर्ती थे।  उन सभी के बच्चे मिलने आते थे।   एकमात्र मैं हीं ऐसी थी, जिसे मिलने के लिए उसके परिवार के कोई भी लोग नहीं आए थे। उस समय मैं अस्पताल के बेड पर पड़ी - पड़ी अंदर से रोती रहती थी।  मेरा भरा पूरा परिवार होने के बावजूद मुझसे मिलने के लिए कोई भी नहीं आता था। मेरी तो उम्र हो गई बेटे ! अगर मैं दुनिया से चली भी जाती तो मेरा क्या था ? मैंने तो सुख और दुख दोनों देख लिया था। अगर मेरी जगह कोई दूसरी  मां होती तो तुम दोनों के व्यवहार  से कब की मर गई होती। यह तो भगवान की ही कृपा  है कि अस्पताल में रेणु और गणेश जैसे बेटे मिल गए। जिसने जी जान से मेरी सेवा की। और मैं रोग मुक्त हो पाई'।

यह कहते-कहते सरस्वती देवी की आंखें भर आई । फिर उसने अपने आंचल से बहते आंसुओं को पोछते हुए कहा, - 'तुम्हारे कंधे पर घर की जवाबदेही है।  मैं कभी नहीं चाही कि तुझे कुछ भी परेशानी हो । लेकिन तुम दोनों को मुझे जो मन से दूर नहीं करना चाहिए था। तुम्हारे पिता बहुत ही छोटी उम्र में तुम भाई - बहन को छोड़कर चले गए थे। उस समय उतना दुख नहीं हुआ था, जितना कि तुम मुझे अस्पताल में अकेले छोड़कर चले गए थे।  मिलने तक नहीं आए।  इसलिए बेटे! मैं  कहती हूं । यह नया जीवन भगवान कृष्ण ने मुझे दिया है। अब इस जीवन को कृष्ण के चरणों में बिताना चाहती हूं। जो मैं बीते बिरासी सालों में सीख नहीं पाई, वह मात्र चौदह दिनों में अस्पताल ने मुझे सिखा दिया । तुम मुझे मथुरा वृंदावन छोड़ आओ । मैं  शेष  बचा जीवन  भगवान श्री कृष्ण के चरणों में बिताना चाहती हूं '।

यह सुनकर रितेश और लक्ष्मी दोनों सन्न रह गए थे।

तब रितेश ने कहा, - 'मां ! हम दोनों को माफ कर दीजिए। हम दोनों ने बहुत बड़ी गलती की है। अब आप इस उम्र में कहां जाइएगा ? मुझे एक मौका दीजिए आपनी गलती सुधारने का'।

यह सुनकर सरस्वती देवी ने कहा, - 'मैं तो तुम दोनों को कब की  माफ कर चुकी हूं ।  तुम दोनों से मेरी कोई शिकायत नहीं है । मेरी आंखों में जो परिवार के मोह का पट्टी बंधा हुआ था , अब वह खुल चुका है। अब मैं चाह कर भी तुम लोगों के साथ नहीं रख सकती हूं। मैं अपना शेष जीवन कृष्ण  चरणों में ही बिताना चाहती हूं। यही मेरी आखिरी इच्छा है'।

यह सुनकर राकेश ने कहा,- 'मां ! मथुरा वृंदावन में आपकी देखभाल कौन करेगा ? वहां कैसे रहिएगा ?

मां ने कहा,- 'जैसे तुम लोगों के बिना अस्पताल में रह ली थी। अस्पताल में भगवान ने मदद के लिए रेणु और गणेश को भेज दिया था। उसी तरह मथुरा वृंदावन में भी भगवान कोई ना कोई उपाय जरूर कर देंगें'।

  रितेश ने कहा,-  मां !आप हमें लोगों के बीच रहिए। मुझे अपनी गलती का सुधारने एक मौका दीजिए'।

 मां ने कहा, - बेटे !  मैं तुम्हें अपने बंधन आजाद करती हूं । मैं भी तुम सबों के बंधन से आजाद होती हूं'। 

 रितेश और लक्ष्मी बार-बार मां से यही आग्रह करते रहे कि  मथुरा वृंदावन जाने की जिद छोड़ दे। लेकिन सरस्वती देवी मानी नहीं । वह अपने निर्णय पर अडिग रही। इस बात के  पांच दिनों के बाद सरस्वती देवी वृंदावन के लिए निकल पड़ी। सरस्वती देवी को वृंदावन छोड़ने के लिए राकेश ,लक्ष्मी दोनों पोता - पोती साथ में गए । सरस्वती देवी के वृंदावन रवानगी के समय पूरे मोहल्ले के लोग जुट गए थे। सभी ने सरस्वती देवी को भावभीनी विदाई दी। सरस्वती देवी ने मोहल्ले वालों से हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और सभी को आशीर्वाद भी दिया। सभी की आंखें नम हो गई थी। सावित्री को अपनी गलती का एहसास हो रहा था कि सरस्वती देवी ने उसके लिए क्या कुछ नहीं किया था । लेकिन जब वह सदर अस्पताल में कोरोना से जंग लड़ रही थी, तब कोरोना के डर से  मिलने के लिए एक बार भी जा नहीं पाई थी। यह बात उसके मन में कांटे की तरह चुभ रही थी। अब देर बहुत हो चुकी थी। सावित्री देवी के पास अब पछतावे के सिवा और कुछ भी नहीं बचा था।


विजय केसरी,

(कथाकार / स्तंभकार),

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301,

मोबाइल नंबर :- 92347 99550,

रविवार, 30 मई 2021

थैली नंबर तीन -/: सुनील सक्‍सेना

थैली नंबर तीन/ : सुनील सक्‍सेना


“ये रहा तुम्‍हारा ब्रेड ऑमलेट, जल्‍दी से फिनिश करो । तुम्‍हारी ऑनलाइन क्‍लास का टाइम हो रहा है…” - मंजू ने प्‍लेट डाइनिंग टेबल पर रखी और किचन की ओर दौड़ी, तबतक तवे पर पड़ा ऑमलेट जल चुका था ।


इधर अंश ने ब्रेड का टुकड़ा मुंह में रखा ही था कि ब्रेड में बदबू महसूस हुई । उसे उबकाई आने लगी ।


“क्‍या हुआ…?”


“मम्‍मी ये ब्रेड खराब है । अजीब सी महक आरही है । मुझे नहीं खाना…”


“मैं देख रही हूं खाने-पीने के मामले में आजकल तुम ज्‍यादा ही मीनमेख निकालने लगे हो । कल ही तो ताजा ब्रेड लाई हूं । इतनी जल्‍दी कैसे खराब हो जाएगी ? इस लॉकडाउन में ब्रेकफास्‍ट खाने को मिल रहा है न तुम्‍हें इसलिए दिमाग सड़ गया है तुम्‍हारा…”


“बिलिव मी मम्‍मी । मैं सच कह रहा हूं । आप खुद सूंघ कर देख लो…”


“ठीक है । ऑमलेट खा लो । अभी चंदाबाई आएगी ब्रेड में उसे दे दूंगी । एक उसके बच्‍चे हैं कुछ भी खानेपीने को दे दो कभी कोई शिकायत नहीं करते हैं । हमारे बच्‍चे । हमें ये नहीं खाना । ये नहीं पीना…” -  मंजू मन ही मन बड़बड़ा रही थी ।


“मम्‍मी प्‍लीज ये ब्रेड चंदा को मत देना । पुट इट इन डस्‍टबिन ।”


“अंश…बस अब चुप हो जाओ तुम । एक शब्‍द नहीं बोलना । उठो और जाओ अपनी क्‍लास अटेंड करो ।”


तभी पतिदेव समीर हाथ में पांच सौ का फटा नोट लिए नमूदार हुए ।


“यार मंजू मैंने कितनी बार कहा है तुमसे कि वॉशिंग मशीन में मेरे कपड़े डालने से पहले पेंट- शर्ट की जेब एक बार चेक कर लिया करो । ये देखो क्‍या हाल हो गया इस पांच सौ के नोट का…?”


“ओह ! तो तुम भी… पता नहीं आज किसका मुंह देखकर उठी हूं ?” मंजू ने खीझते हुए समीर को हाथ में नाश्‍ते की प्‍लेट थमा दी ।  


“पापा डोंट वरी । अभी चंदाबाई आएगी आप उसे ये नोट दे देना । घर की हर खराब, बेकार आउटडेटेड चीजों की एक मालकिन है “चंदाबाई” । ढेंढ टडेन…. रात की बची सब्‍जी हो, बासी रोटी हो, सड़ा हुआ गोभी हो, गले हुए फल हों, मम्‍मी की पुरानी साड़ी हो, पापा के बदरंग ट्राउजर्स-टीशर्ट हो,  घर का पुराना कबाड़ हो, किसी भी रिजेक्‍टेड सामान को ठिकाने लगाने की एक मात्र जगह चंदाबाई की “थैली नंबर तीन” ।” अंश एक सांस में बेलौस नाटकीय लहजे में बोल गया और मंजू की ओर शरारत भरी मुस्‍कुराहट से देखने लगा ।  


  दरअसल मंजू ने चंदा की लिए अलग से एक “थैली नंबर तीन” फिक्‍स कर रखी है, जिसमें बचा-खुचा खाना, घर में नापसंद की गईं चीजें वो चंदा के लिए रख देती है । पहली थैली सूखे कचरे की और दूसरी थैली गीले कचरे के लिए नामजद है । चंदा झाड़ू-पोछा बर्तन का काम निपटाने के बाद बरामदे में रखी थैली नंबर तीन को घर जाते वक्‍त एक बार जरूर देख लेती है ।


“तुम्‍हारी जबान आजकल ज्‍यादा चलने लगी है अंश । जब खुद कमाओगे तो पैसे की कदर समझोगे । मैं और तुम्‍हारे पापा रात-दिन एक करके घर कैसे चलाते हैं हम ही जानते हैं । अच्‍छा खाने पहनने को मिल रहा है तो मुटाई चढ़ रही है । लाओ समीर, ये नोट मुझे दे दो कल बैंक से चेंज करवा लूंगी ।”


“कम ऑन मंजू । कूल डाउन । अंश टीनएज में हैं । बच्‍चों का नेचर रिबेलिएन हो जाता है इस उम्र में । ट्राइ टू अंडरस्‍टेंड हिज फीलिंग्‍स । भावनाओं को समझो यार..” समीर ने माहौल को ठंडा करने का प्रयास किया ।


“समझने का ठेका हम औरतों ने ही तो ले रखा है । मायके में मां-बाप भाइयों को समझो, शादी के बाद पति को समझो फिर बच्‍चों को, सारी जिंदगी बस दूसरों को समझने में गुजर जाती है । कभी हमें समझने की चेष्‍टा की किसी ने ? औरत अपनी पूरी जिंदगी घर की मरजाद के लिए गवां दे कोई उसकी परवाह नहीं करता ।  मैं अगर चंदाबाई को बची हुई चीजें देती हूं तो कोई गुनाह है, अंश के कपड़े उसके बच्‍चे पहन सकें ये कोई पाप है… तुम्‍हारे रिजेक्‍ट किए हुए पेंटशर्ट, जूते चंदा का पति पहने इसमें क्‍या गलत है ? सालों से भंगार में पड़ी गृहस्‍थी की अनुपयोगी वस्‍तुएं अगर मैं चंदा को देती हूं तो कोई जुल्‍म है… बताओ ?” मंजू ने गुस्‍से को जब्‍त करना चाहा, लेकिन वो फूट पड़ा ।


“अब तुम इस छोटीसी बात का इतना बतंगड़ मत बनाओ । डोंट स्‍पॉयल माय डे ।” समीर मन ही मन सोचने लगा कि अंश ने सुबह-सुबह ये नसीहत देकर कहां से फजीहत मोल ले ली । 


“तुम इसे छोटी बात कहते हो । अंश, जिस अंदाज में मुझसे बात कर रहा था तुम्‍हें उसे रोकना चाहिए था समीर । नई जनरेशन है । मिलेनियल्‍स बच्‍चे हैं, तो क्‍या बड़ों का मान सम्‍मान करना छोड़ देंगे ? सिर पर बिठालो बच्‍चों को तो फिर यही गत होती है मां-बाप की । न कोई अदब न लिहाज ।” मंजू का कंठ रूंध गया ।


“मैं फिर तुमसे कहता हूं, अंश की बात को जरा ठंडे दिमाग से सोचना । वो गलत नहीं कह रहा था । फिर भी तुम्‍हें लगता है कि “अंश हेज मिसबिहेव्‍ड” तो अभी वो “सॉरी” बोल देगा ।” समीर जानता था कि भूकम्‍प का एपिक सेंटर तो अंश है, वो फिजूल में झटके सह रहा है ।   


उस नीम अंधेरी रात में मंजू की आंखों से नींद गायब थी  । अंश की कही बातें दिल की गहराई में उतरकर गोते लगा रही थीं । अंश के बोले एक-एक शब्‍द की अनुगूंज ने मंजू को बैचेन कर दिया । अंश ठीक ही तो कह रहा था, जो ब्रेड उसके खाने लायक नहीं है, वो चंदा के  बच्‍चे  कैसे खा सकते हैं ? क्‍या चंदाबाई सिर्फ तिरस्‍कृत और त्‍याज्‍य चीजों की ही हकदार है ? क्‍या चंदाबाई का जीवन उतरन को पहनने-ओढ़ने के लिए अभिशप्‍त है ? आखिर हम दीन के प्रति इतने हीन कैसे हो जाते हैं ? क्‍या हम इतने सक्षम नहीं है कि अपनी हिस्‍से की सुख-समृद्धि का निमिष मात्र किसी जरूरतमंद के साथ बांट सकें ? तमाम अनुत्‍तरित प्रश्‍नों के झंझावतों के  बीच सुबह कब हो गई पता नहीं चला ।  


हस्‍बेमामूल सुबह का नाश्‍ता तैयार था ।


“अंश, दूध पीकर ये केले के छिलके डस्‍टबिन में डालना मत भूलना…” मंजू ने दूध का गिलास डाइनिंग टेबल पर रखते हुए कहा । अंश ने बरामदे में देखा आज “थैली नंबर तीन” नहीं थी । केले के छिलके थैली नंबर दो में डालकर वो जैसे ही पलटा सामने मंजू खड़ी थी ।


“मम्‍मी…” मंजू की आंखें पुरनम थीं । उसने अंश को गले लगा लिया ।   


---000--- जनवाणी" में  प्रकाशित



शनिवार, 29 मई 2021

प्रो. सुरेंद्र स्निग्ध

 आज बिहार के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं अध्यापक प्रो. सुरेन्द्र स्निग्ध की पुण्यतिथि है।

 उनका चले जाना साहित्यिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक क्षति है, जिसकी भरपायी क्या साहित्य-संस्कृति विरुद्ध समय में आसान है? विद्याभूषण लिखते हैं – सुरेन्द्र स्निग्ध के साहित्यिक-कर्म और जीवन-कर्म में कोई द्वैत न था। वे जो लिखते थे, जो वर्ग में पढ़ाते थे कमोबेश निजी जिन्दगी में वैसे ही थे। सत्य, संघर्ष और प्रेम उनके जीवन का दर्शन था और अपने साहित्य में वे इसी जीवन-दर्शन को ’रचते-गढ़ते‘ रहे। ऐसे संक्रांत समय में जब सच को पूरी निडरता और बेलौसपन के साथ अभिव्यक्त करनेवालों की संख्या घटती जा रही है या वे रूढ़िग्रस्त शक्तियों के प्रहार और आक्षेप से खामोश कर दिए जा रहे हैं, उनका यूँ अचानक चले जाना किसी हादसे से कम नहीं है। सर्वेश्वर ने ठीक ही कहा है-

    “तुम्हारी मृत्यु में

    प्रतिबिम्बित है हम सबकी मृत्यु

    कवि कहीं अकेला मरता है!”


साभार नरेंद्र कुमार

✌️👌🙏

मंगलवार, 25 मई 2021

मुहबरों में खान पान

 *हिंदी का थोडा़ आनंद लीजिए* ....*मुुस्कुराइए*

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*हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे हैं,*

*खाने पीने की चीज़ों से भरे हैं...*

*कहीं पर फल हैं तो कहीं आटा-दालें हैं,*

*कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले हैं ,*


*चलो, फलों से ही शुरू कर लेते हैं,*

*एक-एक कर सबके मज़े लेते हैं...*


*आम के आम और गुठलियों के भी दाम मिलते हैं,*

*कभी अंगूर खट्टे हैं,*

*कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं,*

*कहीं दाल में काला है,*

*तो कहीं किसी की दाल ही नहीं गलती है,*

*कोई डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाता है,*

*तो कोई लोहे के चने चबाता है,*

*कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,*

*कोई दाल भात में मसूरचंद बन जाता है,*

*मुफलिसी में जब आटा गीला होता है,*

*तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है,*

*सफलता के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं,*

*आटे में नमक तो चल जाता है,*

*पर गेंहू के साथ, घुन भी पिस जाता है,*

*अपना हाल तो बेहाल है, ये मुंह और मसूर की दाल है,*

*गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं,*

*और कभी गुड़ का गोबर कर बैठते हैं,*

*कभी तिल का ताड़, कभी राई का पहाड़ बनता है,*

*कभी ऊँट के मुंह में जीरा है,*

*कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है,*

*किसी के दांत दूध के हैं,*

*तो कई दूध के धुले हैं,*

*कोई जामुन के रंग सी चमड़ी पा के रोई है,*

*तो किसी की चमड़ी जैसे मैदे की लोई है,*

*किसी को छटी का दूध याद आ जाता है,*

*दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक पीता है,*

*और दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है,*

*शादी बूरे के लड्डू हैं, जिसने खाए वो भी पछताए,*

*और जिसने नहीं खाए, वो भी पछताते हैं,*

*पर शादी की बात सुन, मन में लड्डू फूटते है,*

*और शादी के बाद, दोनों हाथों में लड्डू आते हैं,*

*कोई जलेबी की तरह सीधा है, कोई टेढ़ी खीर है,*

*किसी के मुंह में घी शक्कर है,* *सबकी अपनी अपनी तकदीर है...*

*कभी कोई चाय-पानी करवाता है,*

*कोई मक्खन लगाता है*

*और जब छप्पर फाड़ कर कुछ मिलता है,*

*तो सभी के मुंह में पानी आ जाता है,*

*भाई साहब अब कुछ भी हो,*

*घी तो खिचड़ी में ही जाता है, जितने मुंह है, उतनी बातें हैं,*

*सब अपनी-अपनी बीन बजाते हैं,*

*पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है, सभी बहरे है, बावरें है ये सब हिंदी के मुहावरें हैं...*


*ये गज़ब मुहावरे नहीं बुजुर्गों के अनुभवों की खान हैं...*

*सच पूछो तो हिन्दी भाषा की जान हैं..!!*

💐💐💐

गुरुवार, 20 मई 2021

बिना बताये बिना अलविदा कहे / रवि अरोड़ा

 कुछ पता नहीं /  रवि अरोड़ा 



चीलें सी घूम रही हैं आसमान में

कुछ जानी पहचानी

कुछ अनजान

कब किस पर कौन झपट्टा मार दे

कुछ नही पता

दुःखदाई था

मगर फिर भी

तमाशा सा लगता था यह सबकुछ

फिर एक दिन तुम्हे ले गई चील

देखता ही रह गया मैं

अवाक

कहां ले गई पता नहीं

ढूंढ रहा हूं

इधर उधर ऊपर नीचे

कोई सुराग नहीं 

कोई खबर नही

++++++++++

जीवन में आंधी सी आई थी उसके साथ

इकत्तीस साल पहले

 झकझोर सा दिया था मेरा पूरा अस्तित्व

मगर न जाने क्यों अब यूं ही फना हो गई

 चुपके से

अलविदा भी नही कहा

इजाजत तो खैर वो कभी लेती ही नही थी

बस डांटती ही रहती थी है हर पल

 उसे बच्चों सा पालना पड़ता था मुझे 

गिन कर खाता हूं रोटी

सो बनाती थी बड़ी बड़ी रोटी

दाल की कटोरी में नीचे छुपा देती थी घी

मगर गिन कर देती थी मिठाई

फिर धमका कर नपवाती भी थी शुगर

+++++++++++++++

पक्की चुप्पो थी वो

छुपाती थी अपनी ख्वाहिशें

दिमाग भन्ना जाता था अंदाजा लगाते लगाते

पता नही क्या नाटक था उसका

घर खर्च से बचे पैसे

चुपके से मेरे ही पर्स में डाल देती थी

ताउम्र फक्कड़ ही मानती रही वो मुझे

अपनी किटी के पैसों से भी लाती थी मेरा ही कुछ

पता नही कैसे

मुझे पैसे उधार देकर

भूलने का नाटक कर लेती थी वो

रूमाल तक खरीदना नही आता मुझे 

तभी तो मेरे नए कपड़े लाकर छुपा देती थी 

कहीं चुपके से

किसी शादी ब्याह पर ही दिखाती थी अकड़ कर

++++++++++++

हमेशा कहती थी

तुमसे पहले जाऊंगी मैं

हंसता था मेरा कमजोर शरीर

उसके मजबूत वजूद के सामने

पता था मुझे जिद्दी है वो

मगर इतनी जिद्दी भी तो नही थी

कि सचमुझ पहले चली जाए

बिना बताए 

बिना अलविदा कहे

पता नही एक चील सी ही ले गई उसे

कहां गई पता नहीं

बुधवार, 19 मई 2021

आलोक यात्री

 📎 परेशानी हालात से नहीं, / ख़्यालात से खड़ी होती है


करीब पचास दिन से मैं भी मौज़ूदा हालात से दो-चार हूं

इस दौरान वक़्त के कई थपेड़े भी खाए

आता जाता समय गाहे-बगाहे चपत सी मार कर भी गुज़रा

अब भी वक़्त किसी न किसी तरह से चपत जड़ ही देता है

शिकायत किससे करें

गिला किससे...

बस... शहरयार का कहा याद आ रहा है...

"ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है हद-ए-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है..." 

मेरा मानना है कि

परेशानी हालात से नहीं, ख़्यालात से खड़ी होती है

हमारे इर्द-गिर्द हालात बेशक अच्छे नहीं हैं 

लेकिन इन हालात को लेकर विभिन्न माध्यमों द्वारा जो ख़्यालात परोसे जा रहे हैं वह सिर्फ खौफ का पैराहन तैयार कर हमें पहनाते रहते हैं

और हम कमीज़ के ऊपर कमीज़ की तरह डर के ऊपर डर ओढ़ते रहते हैं

हर कोई अपने-अपने अंतर्द्वंद्व से आतंकित सा नज़र आता है

अपनी पीड़ा सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने के प्रयास में खौफ के मंज़र में कुछ और इज़ाफा कर जाता है

कई बार तो ऐसा लगता है कि उस परम शक्ति ने हमारी सलीब मुकर्रर कर रखी है 

और हम अपनी सलीब पर खड़े-खड़े काल के अंतर में बेबसी से टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं

जेहन हाथ पांव सब विद्रोह पर आमादा हैं

सोशल मीडिया पर जो कुछ चल रहा है काश उससे खौफ की जगह कुछ संजीवनी ही हासिल हो जाए

मित्रों से भी आग्रह है कि 

इस संकटकाल में जितनी वैचारिक संजीवनी बांट सकें बांटें 

इस अभयदान की मुझे ही नहीं पूरे समाज को बहुत आवश्यकता है

धन्यवाद 🙏🙏🙏🙏

डॉ नागेश पाण्डेय संजय और बाल साहित्य

मान्यवर,?/ आपको इस श्रमसाध्य अद्यतन कार्य पर मेरी हार्दिक बधाई! 

हिंदी बाल साहित्य पर वर्ष 2011 तक के 125 शोधप्रबंधों की विषयगत जानकारी पहली बार मेरे आलेख 'बाल साहित्य में अनुसंधान' शीर्षक से डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल द्वारा संपादित 'शोध दिशा', सितंबर 2011 (अंक 15)  में प्रकाशित हुई थी। उक्त आलेख मेरी पुस्तक 'बाल साहित्य : सृजन और समीक्षा' (2012) तथा आठ खण्डों में आए 'भारतीय बाल साहित्य कोश' (संपादक डॉ सुरेश गौतम) में भी संकलित है। 

मैंने बाल साहित्य के क्षेत्र में सम्पन्न लघु शोध प्रबंधों पर पहली बार आलेख तैयार किया था, जो बाल वाटिका, जून 2004 अंक में डॉ.भैरूंलाल गर्ग जी ने प्रकाशित किया था। यह आलेख भी मेरी उक्त पुस्तक में संकलित है। 

ध्यातव्य है, बाल साहित्य में शोध की शुरुआत 1952 में लघु शोध प्रबंध से ही हुई थी। बाद में भारत मे बाल साहित्य पर पी-एच.डी. उपाधि हेतु सबसे पहला शोध 1960 में कोलकाता विश्वविद्यालय से आशा गंगोपाध्याय ने बांग्ला में किया था। हिंदी में बाल साहित्य पर शोध की शुरुआत भले ही बाद में हुई किन्तु आज हिंदी में सर्वाधिक कार्य हो चुका है। 

बाल साहित्य शोध प्रबंधों के सार संक्षेप सबसे पहले डॉ. हरिकृष्ण देवसरे जी द्वारा संपादित पुस्तक बाल साहित्य रचना और समीक्षा (1979) में प्रकाशित हुए थे। इसके बाद बाल दर्शन, मासिक पत्रिका, कानपुर ने भी शोध सार प्रकाशित करने के लिए नियमित स्तम्भ 'बाल साहित्य अनुसंधान परिचय'  जून 1993 से प्रारम्भ किया था। 

बाल साहित्य के क्षेत्र में अनुसंधान की आशातीत प्रगति नि:सन्देह गौरवपूर्ण है।

बार बार याद आए वे दिन

 *बहुत सुंदर, जरूर पढ़ें, आप पहली लाइन पढ़ते ही खुद इसके मुख्य नायक हो जाएंगे*


    😊😊🥰


बचपन में स्कूल के दिनों में क्लास के दौरान टीचर द्वारा पेन माँगते ही हम बच्चों के बीच राकेट गति से गिरते पड़ते *सबसे पहले उनकी टेबल तक पहुँच कर पेन देने की अघोषित प्रतियोगिता* होती थी। 


जब कभी मैम किसी बच्चे को क्लास में कापी वितरण में अपनी मदद करने पास बुला ले, तो *मैडम की सहायता करने वाला बच्चा अकड़ के साथ "अजीमो शाह शहंशाह" बना क्लास में घूम-घूम* कर कापियाँ बाँटता और *बाकी के बच्चे मुँह उतारे गरीब प्रजा की तरह* अपनी चेयर से न हिलने की बाध्यता लिए बैठे रहते। *टीचर की उपस्थिति* में क्लास के भीतर *चहल कदमी की अनुमति कामयाबी की तरफ पहला कदम* माना जाता था। 


उस मासूम सी उम्र में उपलब्धियों के मायने कितने अलग होते थे 

A) टीचर ने क्लास में सभी बच्चों के बीच अगर हमें हमारे नाम से पुकार लिया .....

B) टीचर ने अपना रजिस्टर स्टाफ रूम में रखकर आने बोल दिया तो समझो कैबिनेट मिनिस्टरी में चयन का गर्व होता था।


आज भी याद है जब बहुत छोटे थे तब बाज़ार या किसी समारोह में हमारी टीचर दिख जाए तो भीड़ की आड़ ले छिप जाते थे। जाने क्यों, किसी भी सार्वजनिक जगह पर टीचर को देख हम छिप जाते थे?


कैसे भूल सकते है, अपने उन गणित के टीचर को जिनके खौफ से 17 और 19 का पहाड़ा याद कर पाए थे। 


कैसे भूल सकते है उन हिंदी शिक्षक को जिनके आवेदन पत्रों से ये गूढ़ ज्ञान मिला कि बुखार नही *ज्वर पीड़ित होने के साथ विनम्र निवेदन कहने के बाद ही तीन दिन का अवकाश* मिल सकता है।  


अपने उस कक्षा शिक्षक को कैसे भूले जो शोर मचाते बच्चों से भी ज्यादा ऊँची आवाज़ में गरजते:- *"मछली बाज़ार है क्या?”*.... 

मैंने तो मछली बाज़ार में मछलियों के ऊपर कपड़ा हिलाकर  मक्खी उड़ाते खामोश दुकानदार ही देखे हैं।


वो टीचर तो आपको भी बहुत अच्छे से याद होंगे जिन्होंने *आपकी क्लास को स्कूल की सबसे शैतान क्लास की उपाधि* से नवाज़ा था।  


उन टीचर को तो कतई नही भुलाया जा सकता जो होमवर्क कापी भूलने पर ये कहकर कि  ... *“कभी खाना खाना भूलते हो?”* ... बेइज़्ज़त करने वाले तकियाकलाम  से हमें शर्मिंदा करते थे।


टीचर के महज़ इतना कहते ही कि  *"एक कोरा पेज़ देना"* पूरी क्लास में फड़फड़ाते 50 पन्ने फट जाते थे। 


क्या आप भूल सकते है गिद्ध सी पैनी नज़र वाले अपने उस टीचर को जो बच्चों की टेबल के नीचे छिपाकर कापी के आखरी पन्नों पर चलती दोस्तों के मध्य लिखित गुप्त वार्ता को ताड़ कर अचानक खड़ा कर पूछते *"तुम बताओ मैंने अभी अभी क्या पढ़ाया?"*


टीचर के टेबल के *पास खड़े रहकर कॉपी चेक कराने* के बदले यदि *सौ दफा सूली पर लटकना पड़े तो वो ज्यादा आसान* लगता था। 


क्लास में टीचर के प्रश्न पूछने पर उत्तर याद न आने पर कुछ लड़कों के हाव भाव ऐसे होते थे कि *उत्तर तो जुबान पर रखा है बस जरा सा छोर हाथ नहीं आ रहा*। ये ड्रामेबाज छात्र उत्तर की तलाश में कभी छत ताकते, कभी आँखे तरेरते, कभी हाथ झटकते। देर तक आडम्बर झेलते झेलते आखिर टीचर के सब्र का बांध टूट जाता -- you, yes you, get out from my class ....।  


सुबह की प्रार्थना में जब हम दौड़ते भागते देर से पहुँचते तो हमारे शिक्षकों को रत्तीभर भी अंदाजा न होता था कि हम शातिर छात्रों का ध्यान *प्रार्थना में कम, और आज के सौभाग्य से कौन कौन सी टीचर अनुपस्थित है, के मुआयने में ज्यादा* रहता था। 


आपको भी वो टीचर याद है न, जिन्होंने ज्यादा *बात करने वाले दोस्तों की सीट्स बदल उनकी दोस्ती  कमजोर करने की साजिश* की थी। 


मैं आज भी दावा कर सकता हूँ, कि एक या दो टीचर्स शर्तिया ऐसे होते है *जिनके सर के पीछे की तरफ़ अदृश्य नेत्र का वरदान मिलता* है, ये टीचर ब्लैक बोर्ड में लिखने में व्यस्त रहकर भी चीते की फुर्ती से पलटकर कौन बात कर रहा है का सटीक अंदाज़ लगाते थे। 


वो टीचर याद आये या नहीं जो *चाक का उपयोग लिखने में कम और बात करते बच्चों पर भाला फेंक शैली* में ज्यादा लाते थे?   


जब टीचर एग्जाम हाल में प्रश्न पत्र पकड़कर घूमते और पूछते "एनी डाउट्" तब मुझे तो फिजिक्स पेपर में हमेशा एक ही डाउट रहता था कि हमें ये ग्राफ पेपर क्यों मिला है जबकि प्रश्रपत्र में ग्राफ किसमें बनाना है मुझे तो यही नहीं समझ आ रहा। मैं अपनी मूर्खता जग जाहिर ना करके चारों ओर सर घुमाकर देखते चुप बैठा रहता। 


हर क्लास में एक ना एक बच्चा होता ही था, जिसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने में विशेष महारत होती थी और ये प्रश्नपत्र थामे एक अदा से खड़े होते थे... *मैम आई हैव आ डाउट  इन क्वैशच्यन नम्बर 11*  ....हमें डेफिनेशन के साथ एग्जाम्पल भी देना है क्या? *उस इंटेलिजेंट की शक्ल देख खून खौलता*।


परीक्षा के बाद जाँची हुई कापियों का बंडल थामे कॉपी बाँटने क्लास की तरफ आते  शिक्षक साक्षात सुनामी लगते थे। 


ये वो दिन थे, जब कागज़ के एक पन्ने को छूकर खाई  *'विद्या कसम'  के साथ बोली गयी बात, संसार का अकाट्य सत्य*, हुआ करता था। 


मेरे लिए आज तक एक रहस्य अनसुलझा ही है कि *खेल के पीरियड का 40 मिनिट छोटा और इतिहास का पीरियड वही 40 मिनिट लम्बा कैसे* हो जाता था ??


सामने की सीट पर बैठने के नुकसान थे तो कुछ फायदे भी थे। मसलन चाक खत्म हुई तो मैम के इतना कहते ही कि *"कोई भी जाओ  बाजू वाली क्लास से चाक ले आना"* सामने की सीट में बैठा बच्चा लपक कर क्लास के बाहर, दूसरी क्लास में *"मे आई कम इन" कह सिंघम एंट्री करते।* 


"सरप्राइज़ चेकिंग" पर हम पर कापियाँ जमा करने की बिजली भी गिरती थी, सभी बच्चों को चेकिंग के लिए कापी टेबल पर ले जाकर रखना अनिवार्य होता था। टेबल पर रखे जा रहे कापियों के ऊँचे ढेर में *अपनी कापी सबसे नीचे दबा आने पर तूफ़ान को जरा देर के लिए टाल आने की तसल्ली मिलती थी* 


हर समय एक ही डायलाग सुनते  “तुम लोगो का शोर प्रिंसिपल रूम तक सुनाई दे रहा है।“  अमा हद है यार ! *अब प्रिंसिपल रूम बाज़ू में है इस बात पे हम बच्चों की लिप्स सर्जरी कर सिलवा दोगे या जीभ कटवा दोगे क्या*?  

हमें भी तो प्रिंसिपल रूम की सारी बातें सुनाई देती है | हमने तो कभी शिकायत नहीं की।😃


वो निर्दयी टीचर जो पीरियड खत्म होने के बाद का भी पाँच मिनिट पढ़ाकर हमारे लंच ब्रेक को छोटा कर देते थे। चंद होशियार बच्चे हर क्लास में होते हैं जो मैम के क्लास में घुसते ही याद दिलाने का सेक्रेटरी वाला काम करते थे *"मैम कल आपने होमवर्क दिया था।"* जी में आता था इस आइंस्टीन की औलाद को डंडों से धुन के धर दो। 


तमाम शरारतों के बावजूद ये बात सौ आने सही हैं कि बरसों बाद उन टीचर्स के प्रति स्नेह और सम्मान बढ़ जाता है, अब वो किसी मोड़ पर अचानक मिल जाएं तो बचपन की तरह अब हम छिपेंगे तो कतई नहीं।


आज भी जब मैं अपने स्कूल या कालेज की बिल्डिंग के सामने से गुजरता हूँ तो लगता है कि एक दिन था जब ये बिल्डिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। अब उस बिल्डिंग में न मेरे दोस्त हैं, न हमको पढ़ाने वाले वो टीचर्स। बच्चों को लेट एंट्री से रोकने गेट बंद करते स्टाफ भी नहीं दिखते जिन्हें देखते ही हम दूर से चिल्लाते थे “गेट बंद मत करो भैय्या प्लीज़”  वो बूढ़े से बाबा भी नहीं हैं जो मैम से सिग्नेचर लेने जब जब  लाल रजिस्टर के साथ हमारी क्लास में घुसते, तो बच्चों में ख़ुशी की लहर छा जाती *“कल छुट्टी है”* 


अब *स्कूल के सामने से निकलने से एक टीस सी उठती* है जैसे मेरी कोई बहुत अजीज चीज़ छिन गयी हो। आज भी जब उस इमारत के सामने से निकलता हूँ, तो पुरानी यादों में खो जाता हूं।


स्कूल/कालेज की शिक्षा पूरी होते ही व्यवहारिकता के कठोर धरातल में, अपने उत्तरदाइत्वों को निभाते, दूसरे शहरों में रोजगार का पीछा करते, दुनियादारी से दो चार होते, जिम्मेदारियों को ढोते हमारा संपर्क उन सबसे टूट जाता है, जिनसे मिले मार्गदर्शन, स्नेह, अनुशासन, ज्ञान, ईमानदारी, परिश्रम की सीख और लगाव की असंख्य कोहिनूरी यादें किताब में दबे मोरपंख सी साथ होती है, जब चाहा खोल कर उस मखमली अहसास को छू लिया। 

               ***

🙏एक नटखट छात्र 🙏

मंगलवार, 18 मई 2021

नीम बरगढ़ संवाद / बीना शर्मा

 सड़क विस्तार के लिए


प्रस्तुति -  बीना शर्मा

सारे पेड़ों के कटने के बाद 

बस बचे हैं एक नीम और बरगद 

जो अस्सी साल के साथ में 

शोकाकुल हैं पहली बार



नीम बोला 

परसों जब हरसिंगार कटा था 

तो बहुत रोया बेचारा 

सारे पक्षियों ने भी शोर मचाया 

गिरगिट ने रंग बदले  

गिलहरयां फुदकी 

मगर कुल्हाड़ी नहीं पसीजी 

और फिर वो मेरे से दो पौधे छोड़कर 

जब शीशम कटा ना 

तो लगा कि मैं भी रो दूँगा 

चिड़िया के घौसलो से अंडे गिर गए

गिलहरियों को तो मैंने जगह दे दी 

मगर तोते के बच्चे कोटर से गिरते ही मर गए


बरगद कराहा 

वो मेरे पास में आम, गुंजन और महुआ थे ना 

बेचारे गिड़गिड़ाए कि

हमारी सड़क वाली तरफ की टहनियां काट दो 

सारे पक्षियों ने भी 

चीं-चीं कर गोल-गोल चक्कर काटकर गुज़ारिश की 

कि मत छीनो हमारा घर 

पर पता नहीं ये आदमलोग 

कौनसी ज़बान समझते हैं 

धड़ाम करके कटकर ये नीचे गिरे 

तो ज़मीन कंपकंपाई 

मानो अपनी छाती पीट रही हो 


नीम और बरगद बोले आपस में 

ख़ैर जो हुआ सो हुआ 

अब हम दोनों ही सम्भालेंगे 

पक्षियों से लेकर 

छाया में रूकने वालों को 


अचानक बरगद बोला 

ये लकड़हारे फिर लौट आए 

कहीं हमें तो नहीं काटेंगे

कहकर बरगद ने जोर से झुरझरी ली 

नीम ने भरोसा दिलाया 

अरे, ऐसे ही आए होंगे 

सड़क तो बन गई है ना 

अब भला क्यों काटेंगे हमें


थोड़ी देर में निशान लगने लगते हैं 

आदमलोग कह रहे हैं 

कि बसस्टॉप के लिए यही सबसे सही जगह हैं 

इन दोनों को काट देते हैं 

छोटा-सा शेड लग जाएगा 

लिख देंगे प्रार्थना बस-स्टैंड 


नीम चिल्लाया 

अरे, मत काटो 

हमारी छाया में बेंच लगा दो 

हवा दे देंगे हम टहनियां हिलाकर 

निम्बोली भी मिलेगी 

और अच्छा लगेगा पक्षियों को देखकर 


बरगद ने हामी भरी 

सारे पक्षी आशंकित से नीचे ताकने लगे 

आर्तनाद बेकार गया 

पहले नीम की बारी आई

आँख में आँसू भर नीम ने टहनियाँ हिलाई

बरगद ने थामा क्षण भर नीम को 

गलबहियाँ डाली दोनों ने 

और धड़ाम से ख़त्म हो गया एक संसार 

अब बरगद देख रहा है 

उन्हें अपने पास आते 

सिकुड़ता है 

टहनियां हिलाता है 

कातर नज़रों से ताकता है इधर-उधर 

पक्षी बोलते-डोलते हैं 

मगर नाशुक्रे आरी रखते हैं 

और फिर सब ख़त्म 


ये नीम और बरगद का क़त्ल नहीं है 

एक दुनिया का उजड़ना है 

बेज़ुबान जब मरते हैं 

तो बदले में 

बहुत कुछ दफ़न हो जाता है 


सुनो , कर्मफ़ल यहीं भुगतने पड़ते हैं

  आज सब ऑक्सीजन को तरसते हैं।


  ll    प्रस्तुति - बीना शर्मा  ll 


Copied

बुधवार, 12 मई 2021

सुंदत कांड के लाभ

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सुंदरकाण्ड का पाठ करने के चमत्कारिक 10 फायदे*




महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण पर आधारित तुलसीकृत महाकाव्य रामचरित मानस का पंचम सोपान है सुंदरकाण्ड। सुंदरकाण्ड में रामदूत, पवनपुत्र हनुमान का यशोगान किया गया है। आओ जानते हैं सुंदरकाण्ड का पाठ करने के चमत्कारिक लाभ।


 


1. सुंदरकाण्ड का पाठ सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला माना गया है। किसी भी प्रकार की परेशानी या संकट हो, सुंदरकाण्ड के पाठ से यह संकट तुरंत ही दूर हो जाता है।


 


2. सुंदरकांड के पाठ से भूत, पिशाच, यमराज, शनि राहु, केतु, ग्रह-नक्षत्र आदि सभी का भय दूर हो जाता है।


 


3. हनुमानजी के सुंदर काण्ड का पाठ सप्ताह में एक बार जरूर करना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र, ज्योतिष के अनुसार भी विषम परिस्थितियों सुंदरकांड पाठ करने की सलाह दी जाती है।


4. जीवन में किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न होती है तो आप संकल्प लेकर लगातार सुंदरकांड का पाठ करें। सुंदरकांड पाठ से एक नहीं बल्कि अनेक सैकड़ों समस्याओं का समाधान तुरंत मिलने लगता है।


 


5. श्रीराम चरित्र मानस को रचने वाले गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार हनुमान जी को जल्द प्रसन्न

करने के लिए सुंदरकांड का पाठ 1 रामबाण उपाय है सुंदरकांड पाठ करने वालों के जीवन में खुशियों का संसार होता है और आपका जीवन सुखमय होता है।


6. सुंदरकांड करने वाले व्यक्ति के अंदर सकारात्मक और विचारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है। वह व्यक्ति किसी भी कार्य में अपनी रुचि दिखाता है तो उसमें सकारात्मक परिणाम मिलते हैं।


 


7. सुंदरकाण्ड का पाठ करने से व्यक्ति के मन से भय जाता रहता है और आत्मविश्वास एवं इच्छाशक्ति प्रबल हो जाती है।


 


8. साप्ताहिक पाठ करने से गृहकलेश दूर होता है और परिवार में खुशियां बढ़ती हैं।


 


9. नियमित पाठ करने से कर्ज और रोग से छुटकारा मिलता है।


 


10. हनुमानजी की भक्ति करने और नियमित सुंदरकाण्ड का पाठ करने से व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में सफलता से आगे बढ़ता है।🌺🌺🌺🌺🌺सुंदरकाण्ड का पाठ करने के चमत्कारिक 10 फायदे*




महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण पर आधारित तुलसीकृत महाकाव्य रामचरित मानस का पंचम सोपान है सुंदरकाण्ड। सुंदरकाण्ड में रामदूत, पवनपुत्र हनुमान का यशोगान किया गया है। आओ जानते हैं सुंदरकाण्ड का पाठ करने के चमत्कारिक लाभ।


 


1. सुंदरकाण्ड का पाठ सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला माना गया है। किसी भी प्रकार की परेशानी या संकट हो, सुंदरकाण्ड के पाठ से यह संकट तुरंत ही दूर हो जाता है।


 


2. सुंदरकांड के पाठ से भूत, पिशाच, यमराज, शनि राहु, केतु, ग्रह-नक्षत्र आदि सभी का भय दूर हो जाता है।


 


3. हनुमानजी के सुंदर काण्ड का पाठ सप्ताह में एक बार जरूर करना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र, ज्योतिष के अनुसार भी विषम परिस्थितियों सुंदरकांड पाठ करने की सलाह दी जाती है।


4. जीवन में किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न होती है तो आप संकल्प लेकर लगातार सुंदरकांड का पाठ करें। सुंदरकांड पाठ से एक नहीं बल्कि अनेक सैकड़ों समस्याओं का समाधान तुरंत मिलने लगता है।


 


5. श्रीराम चरित्र मानस को रचने वाले गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार हनुमान जी को जल्द प्रसन्न

करने के लिए सुंदरकांड का पाठ 1 रामबाण उपाय है सुंदरकांड पाठ करने वालों के जीवन में खुशियों का संसार होता है और आपका जीवन सुखमय होता है।


6. सुंदरकांड करने वाले व्यक्ति के अंदर सकारात्मक और विचारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है। वह व्यक्ति किसी भी कार्य में अपनी रुचि दिखाता है तो उसमें सकारात्मक परिणाम मिलते हैं।


 


7. सुंदरकाण्ड का पाठ करने से व्यक्ति के मन से भय जाता रहता है और आत्मविश्वास एवं इच्छाशक्ति प्रबल हो जाती है।


 


8. साप्ताहिक पाठ करने से गृहकलेश दूर होता है और परिवार में खुशियां बढ़ती हैं।


 


9. नियमित पाठ करने से कर्ज और रोग से छुटकारा मिलता है।


 


10. हनुमानजी की भक्ति करने और नियमित सुंदरकाण्ड का पाठ करने से व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में सफलता से आगे बढ़ता है।

मंगलवार, 11 मई 2021

ख़ुशी की तलाश

 *मुस्कुराइए* / मनोज कुमार


एक औरत बहुत महँगे कपड़े में अपने मनोचिकित्सक के पास गई और बोली

"डॉ साहब ! मुझे लगता है कि मेरा पूरा जीवन बेकार है, उसका कोई अर्थ नहीं है। क्या आप मेरी खुशियाँ ढूँढने में मदद करेंगें?"

मनोचिकित्सक ने एक बूढ़ी औरत को बुलाया जो वहाँ साफ़-सफाई का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला - "मैं इस बूढी औरत से तुम्हें यह बताने के लिए कहूँगा कि कैसे उसने अपने जीवन में खुशियाँ ढूँढी। मैं चाहता हूँ कि आप उसे ध्यान से सुनें।"

तब उस बूढ़ी औरत ने अपना झाड़ू नीचे रखा, कुर्सी पर बैठ गई और बताने लगी - "मेरे पति की मलेरिया से मृत्यु हो गई और उसके 3 महीने बाद ही मेरे बेटे की भी सड़क हादसे में मौत हो गई। मेरे पास कोई नहीं था। मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं पाती थी, खा नहीं पाती थी, मैंने मुस्कुराना बंद कर दिया था।"

मैं स्वयं के जीवन को समाप्त करने की तरकीबें सोचने लगी थी। तब एक दिन,एक छोटा बिल्ली का बच्चा मेरे पीछे लग गया जब मैं काम से घर आ रही थी। बाहर बहुत ठंड थी इसलिए मैंने उस बच्चे को अंदर आने दिया। उस बिल्ली के बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह मेरे पैरों से लिपट गया और चाटने लगा।"

"उस दिन बहुत महीनों बाद मैं मुस्कुराई। तब मैंने सोचा यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करने से मुझे ख़ुशी मिल सकती है,तो हो सकता है कि दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी ख़ुशी मिले। इसलिए अगले दिन मैं अपने पड़ोसी, जो कि बीमार था,के लिए कुछ बिस्किट्स बना कर ले गई।"

"हर दिन मैं कुछ नया और कुछ ऐसा करती थी जिससे दूसरों को ख़ुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे ख़ुशी मिलती थी।"

"आज,मैंने खुशियाँ ढूँढी हैं, दूसरों को ख़ुशी देकर।"

यह सुन कर वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब था जो वह पैसे से खरीद सकती थी।

लेकिन उसने वह चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।

मित्रों! हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं।

तो आईये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का कारण बनें।

*मुस्कुराइए*

अगर आप एक अध्यापक हैं और जब आप मुस्कुराते हुए कक्षा में प्रवेश करेंगे तो देखिये सारे बच्चों के चेहरों पर मुस्कान छा जाएगी।

*मुस्कुराइए*

अगर आप डॉक्टर हैं और मुस्कराते हुए मरीज का इलाज करेंगे तो मरीज का आत्मविश्वास दोगुना हो जायेगा।

*मुस्कुराइए*

अगर आप एक ग्रहणी है तो मुस्कुराते हुए घर का हर काम किजिये फिर देखना पूरे परिवार में खुशियों का माहौल बन जायेगा।

*मुस्कुराइए* 

अगर आप घर के मुखिया है तो मुस्कुराते हुए शाम को घर में घुसेंगे तो देखना पूरे परिवार में खुशियों का माहौल बन जायेगा।

*मुस्कुराइए*

अगर आप एक बिजनेसमैन हैं और आप खुश होकर कंपनी में घुसते हैं तो देखिये सारे कर्मचारियों के मन का प्रेशर कम हो जायेगा और माहौल खुशनुमा हो जायेगा।

*मुस्कुराइए*

अगर आप दुकानदार हैं और मुस्कुराकर अपने ग्राहक का सम्मान करेंगे तो ग्राहक खुश होकर आपकी दुकान से ही सामान लेगा।

*मुस्कुराइए*

कभी सड़क पर चलते हुए अनजान आदमी को देखकर मुस्कुराएं, देखिये उसके चेहरे पर भी मुस्कान आ जाएगी।

*मुस्कुराइए*

क्यूंकि मुस्कराहट के पैसे नहीं लगते ये तो ख़ुशी और संपन्नता की पहचान है।

*मुस्कुराइए*

क्यूंकि आपकी मुस्कराहट कई चेहरों पर मुस्कान लाएगी।

*मुस्कुराइए*

क्यूंकि ये जीवन आपको दोबारा नहीं मिलेगा।

*मुस्कुराइए*

क्योंकि क्रोध में दिया गया आशीर्वाद भी बुरा लगता है और मुस्कुराकर कहे गए बुरे शब्द भी अच्छे लगते हैं।

*मुस्कुराइए*

क्योंकि दुनिया का हर आदमी खिले फूलों और खिले चेहरों को पसंद करता है।

*मुस्कुराइए*

क्योंकि आपकी हँसी किसी की ख़ुशी का कारण बन सकती है।

*मुस्कुराइए*

क्योंकि परिवार में रिश्ते तभी तक कायम रह पाते हैं जब तक हम एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते रहते है

और सबसे बड़ी बात

*मुस्कुराइए*

😊 क्योंकि यह मनुष्य होने की पहचान है। एक पशु कभी भी मुस्कुरा नही सकता।

इसलिए स्वयं भी मुस्कुराए और औराें के चहरे पर भी मुस्कुराहट लाएं.

*मुस्कुराइए क्योंकि यही जीवन है*

चिट्ठियाँ...! / मनोहर बिल्लोरे

 चिट्ठियाँ...! / मनोहर बिल्लोरे 

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चिट्ठियाँ लिखना-पढ़ना अब,  

भूल गये  बहुत सारे लोग 

पढ़ने-लिखने वालों की संख्या में 

जबकि, हुआ है बेतहाशा इज़ाफा 


सिर झुकाये तरह-तरह के कामों में 

दिन भर डूबे रहने वाले व्यस्त-पस्त, 

सनकी-सिरफिरे-से वे डाक-बाबू, 

अब नहीं रहे...  सनसनी सी फैलाती,

प्रतीक्षा की बेचैनी वह –

बनी रहती थी जो – कहाँ बची अब 

पाई-पठाई, लिखीं-पढ़ीं जातीं और 

घर-घर में, चर्चा में रहती थीं, 

जब – चिट्ठियाँ...!


जो पढ़ा-लिखा नहीं था  वह भी 

दूसरों से पढ़वा-लिखवा लेता था 

अपने दुख-दर्द, भाव-अभाव, 

हर्षोल्लास, अपनी आशा-निराशाएँ, 

चिंताएँ, दिल्लगी, हास-परिहास, 

ठिठोली, प्रेम-तरंगें, आलिंगन, 

और ज्वार--भाटे सब समां जाते 

इन दो पैसों की चिट्ठियों में…


अनपढ़ डाकिया भी -  

दूसरों से पढ़वा कर पते - 

बाँट देता था  घर-घर में  

तय समय पर  सही जगह    

सही-सही डाक...  


अब तो इस समय -  

पुश किये जाते हैं चट-पट-पट… 

मनचाहे नंबर और कर ली जाती 

बातें, झट-पट जी भर-भर… चाहें जब,  

जहाँ चाहें और हो इच्छा तो 

चेहरे पर चमकने वाले हाव-भाव भी 

देख सकते हैं  आमने-सामने


अंतर्जाल के ज़रिये, 

रेडियो-तरंगों पर सवार कर मनचाही 

किसी वाल पर, पुश या एक क्लिक में 

पहुँचा दिये जाते, संदेश–निर्देश 

कभी भी, कहीं से कहीं तक भी...


झूठ बोलना  बहलाना - टरकाना –

प्रसंगों से भटका देना, हो गया अब  

और भी आसान, बच्चे भी सीख रहे 

पूरे मनोयोग से अब यह गुर-कौशल...   


जानकारियाँ ज्यों भरी जा रहीं 

ज़ेहनों में, बहुत सारी,  बहुत भारी; 

पर - ज्ञान है कि होता जा रहा 

और-और कम... और ‘सच्चाई’ है –

कि डरी-दुबकी, सिकुड़ती-सिमटती

दिखाई देती – जगह-जगह...


एक समय था वह भी, कि जब

पहुँचते ही किसी घर में ‘तार’ – 

कुछ देर के लिये ही सही 

सनसनी-सी फैल जाती थी...  

अड़ोस-पड़ोस से मुहल्ले, गाँव, 

कस्बे के कौने-कौने तक तुरत-फुरत,  

कानों कान, कि फलाँ घर में – 

आया है ‘तार’,  बच्चे तक 

कर लेते खड़े अपने कान 

कि क्या हुआ…?


सनाके में सुनते लोग, कि 

घट गया हो जैसे उस घर में 

कोई दुर्घट, शंकाओं-कु-शंकाओं का 

हो जाता बाज़ार गर्म – भावों में 

आ जाता उछाल, मानते थे लोग,

कि - ‘कुशल और खुश’ लोग 

‘तार’ नहीं दिया करते…


प्रियों-प्रेमियों, साथियों-संबंधियों की  

पढ़ी जातीं चिट्ठियाँ घर-घर में 

भरपूर आत्मीयता के साथ  

बार-बार, लिखे हुए में ख़ोज़ा-

ढूढ़ा जाता कुछ और भी, 

संकेतों-कूटों की टटोली जातीं 

ज़ेबें, पकड़ी जाती नब्ज़ें... 


और फिर, रख दिया जाता उन्हें–

पुराने यादगार सामानों सा सहेज कर 

एहतियात के साथ, बक्सों में 

पिटारा खुलने पर और 

हाथ लगने पर जब कभी, 

प्यार से  सहलाया जाता उन्हें 

स्मृतियों में डूब कर देर तक…  


कम ही सही पर बचे हैं दीवाने...  

अब भी, लिखते-पढ़ते रहते हैं जो 

गंभीर गहन-संलग्न-तन्मयता और पूरे 

जोश-ओ-जुनून के साथ बदस्तूर, विविध 

आकार रंग, गंध स्वाद, ध्वनि और 

स्पर्श में रची-बसी चिट्ठियाँ...


अगली सदी के पुरातत्व-संग्रहालयों में 

भोज-पत्रों की तरह पीले-मटमैले 

हो गये काग़जों पर लिखी, 

सहेज कर रखी देखी-परखी जायेंगी 

क्या किसी दिन, बीत चुकी संस्कृति सी 

हमारी विरासत हस्तलिखित चिट्ठियाँ...?


चिट्ठियाँ लिखना-पढ़ना अब,  

भूल गये  बहुत सारे लोग 

पढ़ने-लिखने वालों की संख्या में

जबकि, हुआ है बेतहाशा इज़ाफा...

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जय महावीर ज्ञान गुण सागर / कृष्ण मेहता

 *हनुमानजी के जीवन में ज्ञान, कर्म* *और भक्ति की समग्रता विद्यमान है।*

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      रामराज स्थापना पश्चात श्री हनुमानजी को वापस भेजने की आवश्यकता भगवान् राम नहीं समझते हैं। उनके संदर्भ में प्रभु दूसरी बात सोचते हैं। *कई लोग ऐसे होते हैं कि जिनमें सामीप्य के कारण रस का अभाव हो जाता है। अधिक पास रहने से उन्हें बहुत लाभ नहीं होता। क्योंकि पास रहने से लाभ उठाने वाले मैंने बिरले ही व्यक्ति देखे हैं, बहुधा हानि उठाने वाले ही अधिक देखे हैं। लोग बहुधा आश्चर्य करते हैं कि बड़े-बड़े महात्माओं के अत्यन्त पास रहने वाले व्यक्तियों का स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। बड़े-बड़े तीर्थों में रहने वाले व्यक्तियों का आचरण तीर्थ के आदर्श से बिल्कुल भिन्न होता है। इसका रहस्य यही है कि जैसे कोई व्यक्ति प्रतिदिन किसी एक ही वस्तु का भोजन करे तो धीरे-धीरे उसे उस वस्तु का स्वाद आना बन्द हो जाता है। इसी प्रकार से कोई व्यक्ति अगर बहुत लम्बे समय तक किसी महापुरुष के साथ रहे अथवा किसी तीर्थ में रहे तो वह उससे प्रेरणा ग्रहण नहीं कर पाता। और जो थोड़े समय के लिए जाते हैं वे नई प्रेरणा ग्रहण करके लौटते हैं। निरन्तर समीप बने रहने वालों में रस की यह भावना समाप्त होकर सांसारिक वृत्ति जागृत होते देखी गई है। जिससे कि वे बदलकर सांसारिक दिखाई देने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति अधिक पास न रहकर थोड़ा दूर बने रहकर अगर पास आने की चेष्टा करें तभी उनका कल्याण होगा।* 

      पर श्री हनुमानजी के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। हनुमानजी चाहे दूर रहें, चाहे पास रहें, वे तो सदैव *राम-रस* में ही निमग्न रहते हैं। श्री हनुमानजी के जीवन में ज्ञान, कर्म और भक्ति की समग्रता विद्यमान है ; वे तो --

    *अतुलितबलधाम हेमशैलाभदेहं*

    *दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम।*

    *सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं*

    *रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।*

                         -- सुन्दरकाण्ड, वन्दना

-- महान ज्ञानी, महान कर्मयोगी तथा महान भक्त हैं । हनुमानजी के चरित्र में शरीर का भी सर्वोच्च सदुपयोग है, भावना का भी सर्वश्रेष्ठ उपयोग है और विवेक का भी उत्कृष्ट प्रयोग है । रामायण में भगवान् श्री राघवेन्द्र उनके इन तीनों योगों का सदुपयोग करते हैं। उनके विचार का सदुपयोग करते हैं, उनकी भावना का सदुपयोग करते हैं तथा उनके शरीर के द्वारा भी निरन्तर उनसे सेवा लेते हैं।

         ☯️ जय गुरुदेव जय सियाराम 🙏

रविवार, 9 मई 2021

मेरी प्यारी दोनों माताएं/ विजय केसरी

 "मातृ दिवस' पर गुरुदेव भारत यायावर  की 'मां' शीर्षक  कविता पढ़ कर अपनी दोनों माताएं याद आ गईं। अब दोनों माताएं स शरीर इस दुनिया में नहीं हैं। फिर भी हम सभी भाई-बहन उनके होने का एहसास हमेशा महसूस करते हैं। जब भी हम सब भाई बहन किसी मुसीबत में होते हैं , तो हमारी दोनों माताएं पीठ पीछे खड़ी होती है।

गुरुदेव की कविता की पंक्तियां मन को छूती है। उनकी कविता पढ़ने के बाद कुछ पंक्तियां दोनों माताओं के श्री चरणों में अर्पित है।


मेरी प्यारी दोनों  माताएंv


यह ईश्वर की कृपा है,

मुझे एक नहीं,

दो - दो माताओं का,

प्यार मिला।


सर आप ट्यूशन पढ़ाने,

हमारे घर आते थे,

दोनों माताओं से मिलते थे,

मेरी दोनों  माताओं का स्नेह प्राप्त करते थे।


एक मां ने मुझे जन्म दिया,

दूसरी मां ने लालन-पालन किया,

दोनों माताओं की कृपा सदा,

मुझ पर बनी रही।


सिर्फ मुझ पर ही नहीं,

बल्कि सभी भाई - बहनों पर,

दोनों माताओं की कृपा,

सदा समान बनी रही।


समय के साथ दिन बीतते गए,

हम बच्चे बड़े होते गए,

दोनों माताओं की उम्र बढ़ती गई,

मां - मां बनती गई ।


दोनों माताओं के आंचल में,

हम बच्चे बसते  गए,

जरा सी नजरों से दूर होते,

माताएं ढूंढने निकल पड़तीं।


घर पर नहीं मिलने पर,

बाहर  मंदिर की ओर चल पड़ती,

मंदिर के बगीचा में हम बच्चों को देख,

नजदीक आकर कलेजे से लगा लेती।


कहती, बेटे! तुम कहां चले जाते हो,

कितना घबरा जाती हूं,

इस तरह मां को तंग नहीं करते,

तुम बच्चों में दोनों माताएं बसती हैं।


हम बच्चों को जरा सा बुखार लगने पर,

दोनों माताएं तुरंत सब काम छोड़ कर,

डॉक्टर के पास ले जाती,

स्वस्थ होने तक बिल्कुल पास रहतीं। 


माताएं  तनिक भी चीजों की,

कोई कमी नहीं होने देती,

खुद एक सब्जी कम खाती,

बच्चों की थाली में सब्जी कम ना होने देती।


हम बच्चों के पग - पग पर साथ रहती,

इस बात पर ज्यादा ध्यान देती,

बच्चे हर रोग दुख से दूर रहें,

सदा निरोग और स्वस्थ रहें।


हम बच्चों को बुरी नजरों से बचाती,

सबके सामने नहीं लाती,

हम बच्चे दीर्घायु बने,

जितिया का उपवास सहती।


हम बच्चों की मंगल कामना के लिए,

ना जाने कितने पर्व त्यौहार करती,

और ना जाने कितने देवी - देवता,

मजार में दीप जलाती।


यह सब करते करते,

दोनों माताओं की उम्र बढ़ती गई,

माताएं  बूढ़ी होती गईं,

लेकिन उन दोनों के आशीष कम नहीं होते।


एक दिन, एक - एक करके,

दोनों माताएं  हम बच्चों से विदा होती गईं,

आज दोनों माताएं  हम बच्चों के संग नहीं है,

लेकिन हर बच्चों के दिल में बसती हैं।


अभी भी सपने में हम बच्चों के पास आती है,

समझाती  और बुझाती हैं,

तुम लोग ऐसे रहो,

वैसे रहो ।


तुम लोगों ने अब तक,

फलना पूजा नहीं किए हो,

जल्दी  पूजा करो,

रूष्ट देवता को मनाओ।


हम सबों से दूर रहकर भी,

हमेशा हे पास रहती,

माताओं के मरने के बाद भी,

उन दोनों की छत्रछाया बनी रहती।


जब भी उदास होता हूं,

एकाएक दोनों माताओं के चेहरे,

मन - मस्तिष्क में आ जाते हैं,

उदासी क्षण में दूर हो जाती है।


माताएं रोज घर आतीं हैं,

हम बच्चों को हंसता खेलता देख,

स्वर्ग लोक का सब सुख भूल जाती,

बच्चों में ही माताएं सब सुख पती हैं।


बच्चों के घबराने पर माताएं कहती हैं,

बेटे !   तुम क्यों घबराते हो,

तुम बच्चों पर हम माताओं की कृपा है,

तुम सबों का बाल बांका भी कभी ना होगा।


 हम माताएं  तुम्हारे साथ हैं,

 तुम सबों का  भला ही होगा ,

 तुम लोगों ने किसी का बुरा नहीं किया है,

 तुम्हारा भी बुरा नहीं होगा।

 

माताएं आज भी जब ईश्वर से दुआ करती हैं,

बच्चे ही उनकी दुआओं में होती हैं,

माताएं जब जीवित थीं,

आज भी उनकी दुआओं में बच्चे ही होते हैं।


माताओं की  मंगल कामना बच्चों से शुरू होती हैं,

बच्चों में ही पूरी होती हैं,

आज जब माताएं नहीं है,

उनकी मंगल कामना मिलती रहती हैं।


मां - मां होती हैं,

मां का स्थान कोई रिश्ता ले नहीं सकता,

मां के आशीष के बिना,

कोई भी बेटा कामयाब नहीं हो सकता।


मां करुणा के सागर होती हैं,

मां दया के सागर होती है,

मां ममता की सागर होती है,

मां बस मां होती है।


आज दोनों माताएं साथ नहीं  है,

फिर भी माताएं दिल में बसती हैं,

हर मुसीबत की घड़ी में,

पीछे दोनों माताएं खड़ी होती है।


विजय केसरी ,

(कथाकार / स्तंभकार) ,

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301,

 मोबाइल नंबर - 92347 99550,

सलाह नहीं साथ चाहिए

 *प्रेरक कहानी*

       एक बार एक पक्षी समुंदर में से चोंच से पानी बाहर निकाल रहा था। दूसरे ने पूछा भाई ये क्या कर रहा है। पहला बोला समुंदर ने मेरे बच्चे डूबा दिए है अब तो इसे सूखा कर ही रहूँगा। यह सुन दूसरा बोला भाई तेरे से क्या समुंदर सूखेगा। तू छोटा सा और समुंदर इतना विशाल। तेरा पूरा जीवन लग जायेगा। पहला बोला *देना है तो साथ दे*। सिर्फ़ *सलाह नहीं चाहिए*। यह सुन दूसरा पक्षी भी साथ लग लिया। ऐसे हज़ारों पक्षी आते गए और दूसरे को कहते गए *सलाह नहीं साथ चाहिए*। यह देख भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ जी भी इस काम के लिए जाने लगे। भगवान बोले तू कहा जा रहा है तू गया तो मेरा काम रुक जाएगा। तुम पक्षियों से समुंदर सूखना भी नहीं है। गरुड़ बोला *भगवन सलाह नहीं साथ चाहिए*। फिर क्या ऐसा सुन भगवान विष्णु जी भी समुंदर सुखाने आ गये। भगवान जी के आते ही समुंदर डर गया और उस पक्षी के बच्चे लौटा दिए। 


आज इस संकट के समय में भी देश को हमारी सलाह नहीं साथ चाहिए। आज सरकार को कोसने वाले नहीं समाज के साथ खड़े हो कर सेवा करने वाले लोगों की आवश्यकता है ।इसलिए सलाह नहीं साथ दें। 


*जो साथ दे दे सारा भारत, तो फिर से मुस्कुरायेगा भारत*।

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद  साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...