एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा।।
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई।।
किन्तु
*कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा*।
*सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा*।।
परिणाम ?
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्दपि सो सब भांति अयाना।।
श्रीराम जी के ये काकभुशुण्डि जी के प्रति उपरोक्त कथन आज भी प्रासंगिक है।
कोई पुत्र बहुत शिक्षित हुआ,
कोई धनवान हुआ,
तो पिता के लिए गर्व की बात होती है किन्तु यदि वही उतना प्रिय नहीं जितना एक पिता के भक्त पुत्र । क्योंकि जो अधिक धनवान, विद्वान हुआ वह माता पिता को छोड़कर परदेश में बस जाएगा लेकिन सेवा वही करेगा जो धनवान, विद्वान, बुद्धिमान कम था और घर पर माता पिता के पास रहता हो।
आजकल काँपते हुए शरीर से भी बड़े गर्व से बताते हैं कि मेरा पुत्र अमेरिका में डॉक्टर है, किन्तु आप जब बिमार पड़ते हैं तो वो कितना काम आता है?
गुणवान धनवान है तो पितृभक्त नहीं,
(माता पिता के सेवा नहीं करता)
और जो सेवा करता है वह गुणवान धनवान नहीं,
यही तो है विषमता।
(गंगा जी में बहती लाशों में अधिकांश वैसे ही गुणवान धनवान संतान के माता पिता के रहते हैं।)
इसीलिए पितृ भक्त संतान भले ही समाज की दृष्टि में मूर्ख हो किन्तु पिता के लिए वही अत्यंत प्रिय है, उपयोगी है।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा।सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।
माता पिता के सेवा करने वाले संतान को दूसरा अन्य धर्म यहां तक कि भगवान के विग्रह सेवा करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि स्वयं भगवान उन माता पिता को माध्यम बनाकर प्रत्यक्ष आशीर्वाद दे रहे हैं -
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।
जद्दपि सो सब भांति अयाना।।
ऐसे *अयाना* (तथाकथित अज्ञानी) पर भगवान भी न्योछावर।
बस भगवान के पवित्र भावना वाले निर्मल मन वाले सेवक ऐसे ही होते हैं
🙏🙏🙏
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सीताराम
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