गुरुवार, 23 सितंबर 2021

यूं हवाओं को बदनाम न कर / सुनील सक्सेना



                           


       :- सुनील सक्सेना                         


        वे पैदाइशी शायर हैं । उनके खानदान में उनसे पहले न कोई शायर हुआ न कोई अफसाना निगार  । यानी नेपोटिज्‍म वाला कोई चक्‍कर नहीं है । वे जन्‍म के समय जब  रोए थे,  तो उनका रूदन  शायराना अंदाज में हुआ था । उनके रोने का लहजा ऐसा मानो  किसी गजल को तरन्‍नुम में पढ़ रहे हों ।  वे जितने जोर से रोते घरवाले उन्‍हें चुप करने के लिए उतनी ही जोर से तालियां बजाते ।  उन्‍हें लगता कि उनका  शेर  मुक्‍कमल हो गया । वे रोना बंद कर देते थे । उनकी इस जन्‍मजात प्रतिभा को देखते हुए घरवालों ने उनका  नाम ही “शायर” रख दिया । शायर नाम होने का फायदा ये हुआ कि वे शायरी करें या न करें, पर वे  शायर हैं । 


        उम्र के साथ उनकी मकबुलियत बढ़ने लगी । शोहरत की ये फितरत होती है कि वो फनकार से अपनी कीमत वसूलती है । कुछ झण्‍डाबरदार हिंदी- उर्दू को लेकर मैदान में उतर गये । भाषाएं जहर बुझे तीरों की तरह मारक होती हैं । सीधे दिल पर चोट करती हैं । जुबानों की नूराकुश्‍ती में सियासतदानों को गहरी दिलचस्‍पी होती है । जब मजहब और कौम के मसाइल ठंडे पड़ जाते हैं तब भाषा की चिंगारी से शोले भड़काकर हाथ सेंके जाते हैं ।  सो जनाब शायर को अपने वतन के प्रति निष्‍ठा, देशभक्ति साबित करने के लिए शायरी के साथ-साथ कविता में भी हाथ आजमाना पड़ा । चुनांचे वे कवि भी हो गये ।


        आज शायर साहब कुछ उदास दिखे  । न… न… इसलिए नहीं कि शेर के काफिये नहीं मिल रहे हैं, या कविता का विषय नहीं सूझ रहा है,  या बिम्‍ब नहीं रच पा रहे हैं, या छंद नहीं बन रहा है, या तुकबंदी नहीं जम रही है, या अकविता टाइप की रचना नहीं रच पा रहे हैं, या वे कई दिनों से कहीं छप नहीं रहे हैं,  काव्‍य गोष्‍ठी नहीं हो रही है, कवि सम्‍मेलन और मुशायरे बंद हैं,  ऐसी कोई वजह नहीं है । शायर साहब की उदासी का सबब ये है कि कोरोना की तीसरी लहर में अब “हवाओं” को बदनाम करने की साजिश रची जा रही है ।


        हवाओं पर ये तोहमत लगाई जा रही है कि “कोरोना वायरस” हवाओं का  हमसफर है । वो हवाओं के साथ रहता है, उठता है, बैठता चलता है, मरता नहीं, वो जावेद है, अमर है । हवाएं जिधर का रूख अख्तियार कर लें, कोरोना वायरस उसी ओर चल देता है । इसलिए हवाओं से बचें । घर में परदानशीं बनकर रहें ।


        अब ये भी खूब रही कि निजाम अपनी नाकामयाबियों  का इल्‍जाम हवाओं पर लगा दे ।  ये वही हवाएं है जब लहर बनकर चलती हैं तो सत्‍ता पलट देती हैं । ये वो हवाएं हैं जिसने माशुका की जुल्‍फें लहराई तो काली घटा छा गई । ये वही हवाएं हैं जिसने महबूबा का आंचल जरा सा  ढलका दिया और कयामत आ गई । ये वही हवा है जिसने प्रेयसी के संगेमरमर बदन को छुआ और चमन में बहार आगई ।  जनाब शायर ये सब सोचकर व्‍यथित हैं ।


        शायर साहब की शरीक-ए-हयात ने पूछा – “ये क्‍या रोनी सूरत बना रखी है जनाब ने ? मिजाज तो ठीक हैं ?”


        वे बोले – “बस पूछो मत बेगम,  अब तो हद हो गई..”  


        “आपने हद अभी देखी ही कहां हैं मियां । हद की कोई हद नहीं होती जनाबे आली । एक हद पार होती है, तो नई हद बन जाती है..” बेगम ने हद को परिभाषित करते हुए शायर साहब को काढ़े का गिलास थमा दिया ।     


        “बेगम ! ये कैसा निजाम है..? उन्‍होंने फरमाया घर में रहो । हम रहने लगे । दो गज की दूरी रखो, हमने रख ली । अब हवाओं पर इल्‍जाम ? कल कोई दानिशमंद खोज कर लेगा कि कोरोना देखने से फैलता है, तो आंख पर पट्टी बांध लो । कोई साइंसदां रिसर्च में ये बतायेगा कि कोरोना सुनने से फैलता है,  कान में रूई डालकर रखो । सुनना बंद कर दो । मतलब न बोलो, न सुनो, न देखो । जो हो रहा है, उसे बस सहते रहो । खामोश रहो । तमाशबीन बनकर अपनी तबाही का मंजर देखते रहो । ये कहां का इंसाफ है बेगम ?” जनाब शायर का गला दर्द से भर गया ।


        “मियां ये सियासत है । आप भी कहां दीवारों से अपना सर फोड़ रहे हैं । चलिए उठिये । भूल गये आज आपको फेसबुक पर “लाइव” गजल पढ़नी है ।” बेगम ने लेपटॉप ऑन किया । शायर साहब लाइव हो गये इस शेर के साथ “न लगा अपनी हार का इल्‍जाम मेरे सिर पर, अभी बाकी है उसका फैसला  इसी सरजमीं पर”


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