मंगलवार, 28 सितंबर 2021

ख्वाब / रतन वर्मा

 ख्वाब आंखों में बसते -बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे,

फ़लसफ़ा ज़िन्दगी का है शायद यही,

गुल की चाहत में कांटे ही चुनते रहे !


 खुशबुओं का भरम इतना मजबूत था ,

आईने में भी चेहरा न खुद का दिखा,

आंख में जल का छाया लिये उम्र भर,

सहरा-सहरा ही हम तो भटकते रहे,

ख्वाब आंखों में बसते-बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे....


टूटकर ख्वाब ने मुझको समझा दिया,

ना बहारों का था कुछ अता ही पता,

था खिज़ाओं से मैं इस तरह से घिरा,

आसमां से था आकर जमीं पे गिरा !

मुट्ठियों से थे सबकुछ फिसलते गये,

ख्वाब आंखों में बसते-बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे !


था पता, गुल खिला है, तो मुरझेगा भी,

है जो मधुमास, पतझड़ भी आयेगा ही,

फिर भी, भ्रम में ही ख़ुद को समेटे रहे,

आँख दर्पण के सम्मुख भी मूंदे रहे !

धूल चेहरे पे थी, साफ दर्पण किये,

ख्वाब आंखों में बसते-बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे !


रतन वर्मा 

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