मै शुरू से विज्ञान का विद्यार्थी था। कविताएं, लेख लिखता था, गोष्ठियों-कार्यक्रमों में जाता था। हिन्दी के रचनाकारों, अध्यापकों से परिचित था लेकिन हिन्दी साहित्य की परंपरा का विधिवत अध्ययन नहीं किया था।
उन दिनों डा. रामखेलावन राय पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे । वे मेरे प्रकाशित लेखों को पढ़ते थे और उसकी प्रशंसा भी किया करते थे। एक दिन बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा आप हिंदी में एम. ए. कर लीजिए। दूसर दिन यूनिवर्सिटी बुलाकर एडमिशन फार्म भरवाया और किसी विशेष प्रावधान के तहत विज्ञान से स्नातक विद्यार्थी का दाखिला स्नातकोत्तर हिन्दी में लिया। वे काव्य शास्त्र पढ़ाते थे । वे आधुनिक कविता को पसंद करते थे लेकिन मार्क्सवाद या वामपंथी विचारधारा को बिल्कुल नहीं और उनके ठीक विपरीत डा. नंदकिशोर नवल पूरी तरह मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक थे। अवसर मिलने पर दोनों एक दूसरे के विचारों की खिल्ली उड़ाने से नहीं चूकते थे लेकिन परस्पर आदर का भाव रखते थे ।
नवलजी हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाया करते थे । अरूचिकर विषय लेकिन नवलजी पढ़ाने की शैली और तैयारी इतनी अच्छी कि पूरा क्लास मंत्रमुग्ध रहता । वे उस नाविक की तरह थे जिसे पता था कि आने वाली तमाम दुश्वारियों के बावजूद कितने समय में नाव को उस पार पहुंचा देना है। मुझे याद नहीं कि कभी उन्हें अपने पतवार की दिशा क्लास में बदलनी पड़ी हो या कभी किसी विद्यार्थी को उसके प्रश्न का संतोषजनक और सार्थक उत्तर नहीं दिया हो। जिस प्रश्न के उत्तर पर उन्हें खुद संदेह होता तो वे तुरंत कहते मैं इसके संबंध में कल विस्तार से बताउंगा और दूसरे दिन तैयार होकर आते और बताते। वे इस बात को लेकर अत्यंत सचेत रहते थे कि कोई विद्यार्थी उनकी कक्षा में उब महसूस न करे । एक बार किसी कारणवश किसी ने समय देखने की कोशिश की तो उन्होंने तुरंत पूछा मेरी आज की क्लास में मन नहीं लग रहा क्या? एम. ए. के विद्यार्थियों को एक विशेष पत्र पढ़ना होता था। कई विकल्प होते हैं । निराला मेरे प्रिय कवि हैं इसीलिए मैंने विशेष पत्र के रूप में निराला को चुना यह कहूं तो शायद पूरा सत्य नहीं होगा, इसकी मुख्य वजह यह थी कि नवलजी निराला पढ़ाते थे । ठीक से तो याद नहीं लेकिन 10 या 12 विद्यार्थियों का समूह होता था स्पेशल क्लास में । नवलजी निर्धारित समय पर स्वयं भी आते और सभी से यह अपेक्षा भी करते और प्रत्येक की प्रगति पर नजर रखते । एक बार उन्होंने कहा कि अच्छा अध्यपक वह होता है जो किसी नीरस विषय को भी रोचक बनाकर पढाए और छात्रों की रूचि उसमें जागृत कर दे । मैंने इसे गांठ में बांध लिया। इसका लाभ मुझे तब मिला जब ए.एन.कानेज, पटना में अध्यापन शुरु किया और स्नातकोत्तर के विद्यार्थियों को पढाने के लिए भाषा विज्ञान और हिन्दी आलोचना मुझे आबंटित किया गया।
एम.ए. करने के बाद मैंने नवलजी के निर्देशन में हिन्दी काव्यालोचन पर तारसप्तक के कवियों का योगदान विषय पर शोध करने का निर्णय लिया । नवलजी बहुत कम ही विदयार्थियों का पंजीकरण अपने साथ करवाते थे या कहें बहुत कम विद्यार्थी उनकेसाथ पंजीकृत होने की कोशिश करते थे क्योंकि सबको पता था कि उनके साथ सच्चे अर्थों में शोध करना पड़ेगा। संबंधों का नाजायज लाभ उनसे नहीं उठाया जा सकता था । अपूर्वानंद, नवलजी के दामाद हैं, वे भी मेरे साथ ही नवलजी के निर्देशन में शोध कार्य कर रहे थे। हमने एक साथ ही एम. ए. भी किया था। एक बार उनके शोधकार्य का निर्धारित अंश समय पर पूरा नहीं हुआ तो नवलजी ने प्रगति प्रमाण पत्र देने से मना कर दिया नजीजा यह हुआ कि अपूर्वानंद के मानदेय का भुगतान रूक गया। नवलजी ने वह प्रमाणपत्र तभी दिया जब कार्य में अपेक्षित प्रगति आई। मेरे शोधकार्य की प्रगति को लेकर वे बहुत उत्साहित थे। लेकिन उसी दौरान अपनी प्रथम पुत्री के निधन के कारण मैं थोड़ा विचलित रहने लगा तो नवलजी ने सांत्वना का एक पत्र भेजते हुए लिखा कि मैं शोध कार्य में लग जाऊं।
मैं उन दिनों राजेन्द्रनगर में अकेला ही रहता था। शाम होते ही रचनाकार मित्र आ जाते। कभी कभार वरिष्ठ लोग भी आ जाते । उनमें खगेन्द्र ठाकुर मुख्य होते । उनके पास बजाज का एक स्कूटर था उसे ठेल कर र्स्टाट करना पड़ता था । खगेन्द्रजी थोड़े भारी शरीर के व्यक्ति थे और धोती-कुर्ता-सैंडिल पहना करते थे । उसी अवस्था वे स्कूटर को लेकर कुछ दूर दौड़ते और स्कूटर स्टार्ट होते ही उस पर सवार हो जाते। बहुत सहज आदमी थे । नवलजी हमेशा चुस्त–दुरूस्त, सजे-संवरे रहते और रिक्शे से आते-जाते थे । मैंने कभी उन्हें लस्त-पस्त नहीं देखा । अपने घर में भी नहीं। वे महेन्द्रू में सुमति पथ में रहा करते थे । मुझे अपने शोध के सिलसिले में अक्सर जाना पडता था । हमेशा नीलेरंग की लुंगी, साफ सफेद बांहवाली गंजी और कंधे पर गमछा रखे हुए वे तय समय पर तैयार मिलते। पहले काम की बातचीत होती फिर साहित्य और समाज की। स्मृतियों का भंडार था उनके पास। एक बार खोलते तो खुलते चले जाते ।
नवलजी मूलत: कवि थे लेकिन उनकी पहचान आलेाचक की थी और एक लंबे समय तक उन्होंने अपने कवि रूप को दबाया भी आलोचक को उभरने दिया। उन दिनों उनकी पहचान एक कट्टर मार्क्सवादी आलोचक की थी गैर वामपंथी रचनाकारों को वे लगभग नापसंद करते थे । प्रगतिशील लेखक संघ को लेकर काफी सक्रिय रहते। उनका जुड़ाव नये-से-नये रचनाकार से रहता और वामपंथी विचारधारा का प्रचार-प्रसार होता रहता । अज्ञेय हमेशा वामपंथ के निशाने पर रहते । वे इनके लिए प्रबल शत्रु सरीखे थे। और, अज्ञेय मेरे प्रिय रचनाकार बल्कि कहें आदर्श थे । इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि विचारों से वामपंथी नहीं होने के बावजूद नवलजी मुझे नापसंद नहीं करते थे। बेशक बाद के दिनों में वह भी अज्ञेय के प्रशंसक हो गए थे।
सोवियत संघ के बिखरने और बाद में अपूर्वानंद की पतली सी पुस्तिका नागार्जुन की राजनीति प्रकाशित होने के बाद नवलजी से वामपंथियों का और वामपंथ से नवलजी का मोहभंग हुआ । नवल जी में एक जबरदस्त परिवर्तन आया और वह यह मानने लगे कि उन्होंने अज्ञेय को पहचानने में भूल की । वे अपने समय के सबसे बड़े कवि हैं। मुक्तिबोध के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा के बावजूद वे यह मानने लगे कि आधुनिक हिंदी कविता की चर्चा अज्ञेय को छोड़कर नहीं की जा सकती । भूल सुधार की कोशिश भी की। यही एक बड़े आलोचक की पहचान है कि जब भी उसे लगे कि कि उसकी आलोचना की दिशा गलत है उसे तत्काल सुधारने की कोशिश करे।
नवलजी की सबसे बड़ी विशेषता थी नियमित जीवन और अनवरत अध्ययन जिसका वे कठोरता से पालन करते थे। उनके संपर्क का दायरा बहुत बड़ा था और उसमें रोज-रोज नये रचनाकारोंकी सूची जुड़ती जाती थी । वे सच में अपने समय से जुड़े हुए आलोचक थे ।
आज उनका जन्मदिन है और पहली बार वे अनुपस्थित हैं।
(तस्वीर में दाएं बैठे हुए सफेद कुरता पहने नवलजी। उनके दाहिने थोडा पीछे बैठे गोपेश्वर सिंह, वे उन दिनों शोधार्थी थे । इन दोनों के, बीच में खडा सफेद शर्ट पहने मैं। मेरे विद्यार्थी दिनों की एक तस्वीर।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें