गुरुवार, 30 सितंबर 2021

क्षणिकाएँ: प्रेम, समाज और प्रेमी / आदित्य रहबर /

 


१.

प्रेम उस काँटे की तरह है

जो चुभता रहा है हमारे समाज को सदियों से 


जबकि होना पुष्प था 

जो खिलता रहे उन प्रत्येक आँखों में

जहाँ, 

नफ़रतों की रेत ने अपने पाँव पसार रखे हैं! 


२.

हम दो प्रेम करने वालों की जाति देखते हैं

जो नहीं मिल रही होती

हम दिल और मन नहीं देखते

जो कब की मिल चुकी है

हमारा समाज-

मन से ज्यादा जाति देखता है

यह जानते हुए कि

अंततः जरूरी मन का मिलना ही होता है! 


३.

कुछ प्रेमी इस लिए भी 

असफ़ल कहलाते हैं प्रेम में

कि उन्होंने उस समाज से बगावत नहीं की

जिसने उनकी जाति का हवाला देकर छिन लिया 

उनसे उनका प्रेम

बगावत सफ़ल होने का एकमात्र ही जरिया है

हमारे सभ्य समाज में! 


४.

"प्रेम करना अश्लील होना है

और ब्याह दिया जाना सबकी मर्जी से, संस्कार है"

ये वो हथकड़ी है

जिसने कितने ही प्रेम को

उम्रकैद की सज़ा दिलाई है! 


५.

हमारा समाज

एक परंपरागत न्यायालय है

जहाँ, 

आधुनिकता की नदी बगल से बहती है

जिसमें न्यायालय से सज़ा सुनाए गये

दोषियों के शव बहाए जाते हैं ! 


६.

 

दरअसल,

हमारा समाज ऊसर हो चुकी मिट्टी है 

जिसे एक किसान की जरूरत है 

जो कोड़ कर बना सके इसे फिर से उपजाऊ

जहाँ उपजाये जा सके फसल प्रेम के! 


७.

२१ वीं सदी में भी भूमि का ऊसर रह जाना

धब्बा है -

उन चेहरों पर

जो कविताएँ मात्र लिखते हैं

बजाय जीने के! 


• आदित्य रहबर


[तस्वीर: फिल्म- थंगा मगन]

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