कल मैंने रात एक घर के मलबे में बितायी,
सबकी आंखें बचा कर, कि कोई मुझे देख न ले।
मैं भी शर्मिंदगी की एक हद!
अपनी कल्पना में एक नन्ही लड़की बन कर
अपने घर की छत पर एक चारपाई
मैंने फिर से बिछाई
और गर्मी की रात,
चांदनी का लिहाफ ओढ़े तकती रही तारों को,
अपने कवि के जन्म के पहले दिनों की तरह।
सारे पहर जाग कर मैंने
उन आवाज़ों की प्रतीक्षा की
जिन्हें सुने आज वर्षों बीत गए,
पर सब के सब रहे मौन ,
यहाँ तक की वे आत्माएँ भी नहीं आईं
जो कभी बसती थीं हमारे घर के अंधेरे कोनों में
बिना किसी को चोट पहुंचाए,
विवश करती यह सोचने पर कि
फिर ये सारे दर्द कहाँ से आये?
गहन अंधकार में मैंने फिर से
उस गर्भ में प्रवेश करने की चेष्टा की,
जिससे इस जन्म को पाया,
और उन उंगलियों को टटोला
जिन्होंने मुझे चलना सिखाया।
पर आज मैं यहां अकेली कैसे?
अँधेरे में डूबे हर कोने में
मैंने हर किसी को ढूँढा,
और तारों में खो गई दादी को।
एक कहानी काश वह फिर से सुनाये
तो नींद आए। एक कहानी से हे ईश्वर!
किसी बच्चे का विश्वास कभी न उठ पाये!
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