गुरुवार, 2 सितंबर 2021

कर्म ही संतोष औऱ आगे का फल हैं / आनंद कुमार

 पदम् श्री और प्रसिद्ध चिकित्सक विजय प्रकाश कुछ दिन पहले एक आयोजन में अपना एक पुराना किस्सा सुना रहे थे। उन्होंने अपने उस दौर की बात की जब वो बहुत बड़े डॉक्टर नहीं थे, आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी। वो इंग्लैंड में कहीं थे और उन्हें बॉन जाना था। मज़बूरी में उन्हें टैक्सी करनीorr पड़ी। उनकी पत्नी और बच्चा पीछे बैठे और वो स्वयं ड्राईवर के बगल वाली सीट पर थे। अचानक उनका ध्यान गया कि गाड़ी के डैशबोर्ड पर “डॉ. होबो” जैसा कुछ लिखा हुआ है। उन्हें लगा कि शायद गाड़ी किसी डॉक्टर की है।


वो खुद भी डॉक्टर थे तो उन्होंने ड्राईवर से पूछ लिया कि क्या गाड़ी किसी डॉक्टर की है जिसे वो चला रहा है? ड्राईवर ने जवाब दिया कि नहीं, गाड़ी मेरी ही है और मैं ही ये डॉक्टर हूँ! अब डॉ. प्रकाश चौंके। उन्होंने पूछा कि आप कौन से डॉक्टर हो, पीएचडी वाले डॉक्टर या मेडिसिन वाले? तो ड्राईवर ने जवाब दिया कि वो न्यूक्लियर साइंटिस्ट है। अब तक डॉ. प्रकाश जो अपने आप को कम अच्छी आर्थिक स्थिति में समझ रहे थे, वो और घबराये। उन्होंने पूछा कि जब आप न्यूक्लियर साइंटिस्ट हैं तो टैक्सी चलाने के पेशे में कैसे हैं? ड्राईवर मुस्कुराया और उसने अपना किस्सा सुनाया।


उस व्यक्ति ने बताया कि उसने सीरिया में पढ़ाई की थी। वहाँ से पीएचडी तो उन्होंने कर ली मगर वहाँ न्यूक्लियर रिसर्च पर काम ही नहीं होता था इसलिए वो विदेशों में काम ढूँढने आये। जिन भी देशों में वो गए वहाँ न्यूक्लियर रिसर्च से जुड़े काम में विदेशियों को न रखने का नियम था। इसलिए उन्हें न्यूक्लियर साइंटिस्ट की नौकरी नहीं मिली। आख़िरकार वो शिक्षक की नौकरी करने लगे मगर उसमें पैसे बहुत कम मिलते थे। वहाँ टैक्सी ड्राईवर उनसे दोगुना कम लेता था, इसलिए वो टैक्सी ड्राईवर का काम करने लगे थे! ऐसा हो सकता है कि पहली बार सुनने पर आपको ये कहानी अविश्वसनीय लगे।


इसलिए चलिए हम आपको आज के दौर में ले चलते हैं। आज के दौर के अफगानिस्तान में हाल में ही काफी हलचल देखने को मिली है और कई लोगों को अफगानिस्तान के इस्लामिक रिपब्लिक बनने के बाद वहाँ के राष्ट्रपति की ही तरह भागना पड़ा। अंतर बस इतना था कि ये सारे भागने वाले लोग उतने भ्रष्ट तो थे नहीं कि हेलिकॉप्टर में रुपये भरकर नहीं भाग पाए। ऐसे ही व्यक्ति थे वहाँ के इनफार्मेशन मिनिस्टर सैय्यद अहमद शाह सआदत। वो करीब साल भर पहले अफगानिस्तान से निकल भागे थे। उन्हें थोड़े समय पहले लेइप्ज़िग (जर्मनी) में पिज्ज़ा डिलीवरी करते हुए पाया गया। उनकी तस्वीरें काफी वायरल हुईं।


वैसे तो जब भी इस किस्म की तस्वीरें वायरल होती हैं, तो मुझे हमेशा शक होता है लेकिन फ़िलहाल उस मुद्दे को जाने देते हैं। हम चलते हैं भगवद्गीता के बारहवें अध्याय पर। इस अध्याय को भक्तियोग नाम से जाना जाता है और ये सबसे छोटे अध्यायों में से एक (केवल 20 श्लोकों का) होता है। हम इसके केवल तीन श्लोकों की बात कर रहे हैं -


अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।12.9

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।12.10

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।12.11


यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो। यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण (मेरे लिए कर्म करने वाले) बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे। और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो। 


आधुनिक सन्दर्भों में इसे देखना हो तो इसे मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) के वक्तव्य से जोड़ लीजिये, जहाँ वो कहते हैं – “अगर तुम उड़ नहीं सकते तो दौड़ो, दौड़ नहीं सकते तो चलो, चल भी नहीं सकते तो घिसटकर आगे बढ़ो, लेकिन चाहे जो भी हो जाए, आगे बढ़ते रहो।” इसी को स्वामी विवेकानंद द्वारा हाल के दौर में प्रसिद्ध किये गए कठोपनिषद् के वाक्य से भी जोड़ सकते हैं, जहाँ उन्होंने दोहराया था “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” -


उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ (कठोपनिषद् 1.3.14)


कठोपनिषद् के पहले अध्याय, तीसरी वल्ली का ये चौदहवाँ मन्त्र कहता है, उठो, जागो, वरिष्ठ जनों को पाकर उनसे बोध प्राप्त करो। छुरी की तीक्ष्णा धार पर चलकर उसे पार करने के समान दुर्गम है यह पथ-ऐसा ऋषिगण कहते हैं। तो ये तो बिलकुल तय है कि इस पथ पर चलने में मुश्किलें आएँगी और हो सकता है कि अगर एक रास्ता काम न कर रहा हो तो आपको दूसरा कोई तरीका प्रयोग में लाना पड़े। सनातनी परम्पराओं में ये जबरदस्ती नहीं होती कि सबको एक ही तरीका प्रयोग में लाना पड़े। कोई मूर्तिपूजक हो सकता है, कोई निराकार का उपासक, कोई वेदों को सर्वोच्च मानने वाला हो, कोई केवल रामचरितमानस पढ़े, और कोई तीसरा कुछ भी न पढ़े, ऐसा भी हो सकता है।


इसके अलावा सनातन परम्पराएं पुनः जन्म में विश्वास रखती हैं। इसलिए अगर इस जन्म में कुछ पूरा नहीं हुआ तो उसे फिर से आगे बढ़ाने के अवसर अगले जन्म में मिल जायेंगे। इसके बारे में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ही कहते हैं –


प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।6.43


वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालों के लोकों को प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध  श्रीमानों के घरमें जन्म लेता है। वहाँ पूर्व देह में प्राप्त किये गये ज्ञान से सम्पन्न होकर योगसंसिद्धि के लिए उसे सहज ही अवसर भी उपलब्ध होते हैं। इसलिए जब ऐसा लगे कि प्रयास का कोई नतीजा नहीं निकल रहा, या निकलने की संभवना नहीं नजर आती, तो प्रयास बंद नहीं कर देना चाहिए। ऐसे मौकों पर उस न्यूक्लियर साइंटिस्ट, या फिर अफगानिस्तान के उस पूर्व मंत्री के बारे में सोचिये जिन्होंने तरीके बदले और प्रयास जारी रखा।


बाकी भगवद्गीता एक निराश हो रहे व्यक्ति को प्रेरणा देने के लिए ही सुनाई गयी थी इसलिए इसमें कई श्लोक ऐसे हैं जो प्रेरणा के स्रोत की तरह भी काम करते हैं। एक से अधिक अर्थों में इसे कैसे लिया जा सकता है, उसके लिए जो हमने बताया वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा!


वैसे तो फिल्म को एकता कपूर ने बनाया था, लेकिन पता नहीं क्यों फिल्म का नाम “के” से न शुरू होकर “एक विलन” था। ठीक-ठाक सी हिट रही फिल्म थी क्योंकि अपने लागत से उसकी अनुमानित आय करीब तीन गुना ज्यादा रही थी। फिल्म के कलाकारों के लिए भी इसे याद किया जा सकता है क्योंकि रितेश देशमुख इस फिल्म में पहली बार खलनायक की भूमिका में थे। शुरू-शुरू में ऐसी अफवाह थी कि ये एक कोरियाई फिल्म “आई सॉ द डेविल” की नकल है लेकिन इसके निर्देशक मोहित सूरी ने साफ़ तौर पर ऐसा होने से इंकार कर दिया था। वैसे देखा जाए तो कहानी थोड़ी उससे प्रेरित सी लग सकती है, लेकिन दोनों फ़िल्में काफी अलग हैं।


कहानी के बारे में कुछ ख़ास बताने की जरुरत नहीं है क्योंकि ये प्रतिशोध पर आधारित फिल्म है। फिल्म की शुरुआत में ही नायिका की हत्या हो जाती है। जो नायिका का पति था, वो पुराने दौर का कोई अपराधियों के एक बड़े सरगना का खासमखास था जो भयावह हत्यारा माना जाता था। उसे एक बार पुलिस ने पकड़ा भी था लेकिन गवाही देने के बदले मृतक की माँ ने उसे ये कहकर छोड़ दिया था कि तुम्हें भी ये सब भुगतना पड़ेगा। बाद में वो सुधर जाता है और नायिका से शादी के बाद सामान्य जीवन जी रहा होता है। दूसरी तरफ रितेश देशमुख जो किरदार निभा रहे हैं वो आम जीवन में बेचारा भला आदमी है।


रितेश जो राकेश “रघु” नाम का किरदार निभा रहे हैं वो छोटा मोटा मिस्त्री का काम करने वाला एक जीव है। कम पैसे कमाने और भले से होने के कारण उसकी पत्नी उसकी रोज बेइज्जती करती है, मारती-पीटती भी है। वो रोज पिटता है, मगर अपनी पत्नी को कुछ नहीं कहता। इस गुस्से को वो दूसरी महिलाओं पर निकालता है। जो भी उसे लगता है कि उससे तमीज से बात नहीं कर रही, वो उनकी एक एक करके हत्या करता जाता है। इसी क्रम में उसने नायिका की भी हत्या कर डाली थी। अब पुलिस इस हत्यारे को खोजने के लिए परेशान थी क्योंकि उन्हें पता था कि जिसकी हत्या हुई है उसका पति अगर बदला लेने निकला तो पूरे शहर में कई क़त्ल होंगे।


गैंगवॉर रोकने की कोशिश में एक तरफ रघु को पुलिस ढूंढ रही थी तो दूसरी तरफ उसे नायिका का पति, यानि गुरु ढूंढ रहा था। गुरु उसे ढूंढकर मारता भी नहीं, पीट-पाट कर अस्पताल में डाल देता है, ताकि ठीक होने पर फिर से मार-पीट कर उसे अस्पताल पहुंचा सके। फिल्म है तो कई रोचक घटनाओं के बीच रघु की पत्नी का कत्ल होता है। बाद में गुरु को मारने की कोशिश कर रहा रघु भी मारा जाता है और रघु के बच्चे को गुरु गोद ले लेता है।


इस फिल्म के नायक और खलनायक के बीच के किरदारों के बदले हमने आपको फिर से भगवद्गीता का एक श्लोक पढ़ा डाला है। चौथे अध्याय के इस श्लोक में कहा गया है –


कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18 


जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। वैसे तो ये बड़ा ही मुश्किल काम है क्योंकि अगर हम स्वयं ही कर्म कर रहे हों तो स्वयं को देखते नहीं। ऐसे में कौन सा कर्म अकर्म था और कब अकर्म में कर्म हो गया ये समझना मुश्किल है। फिल्म के दोनों किरदारों को चूँकि हमलोग बाहर से देख रहे हैं इसलिए उन्हें समझना अपेक्षाकृत आसान है।


रघु जो फिल्म का खलनायक है वो अनगिनत स्त्रियों की हत्या कर रहा था। इस कर्म का उसे फल क्या चाहिए था? उसे अपनी पत्नी से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा थी। बस वो मान ले कि उसका पति हीरो है, इतना ही चाहिए था उसे। लेकिन उसने अपनी पत्नी को अपने कर्म (या कहिये कुकर्म) के बारे में तो कभी बताया ही नहीं! तो कर्म का समाज पर, बाकी की दुनियां पर तो प्रभाव पड़ा, लेकिन उसे जो फल चाहिए वो मिला ही नहीं, इसलिए उसके लिए तो वो अकर्म जैसा ही रहा। इतनी हत्याओं के लिए पकड़ा जाता तो भी फांसी होती, नायक के हाथों भी मारा ही गया। अगर वो ये हत्या जैसा कर्म नहीं करता तो उसके व्यक्तिगत जीवन में क्या फर्क पड़ता? इसलिए कर्म होते हुए भी उसकी पत्नी के हिसाब से देखें तो वो अकर्म ही रहा।


दूसरी तरफ फिल्म का खलनायक जैसा नायक है जो अपराध छोड़ चुका है, लेकिन हिंसा उसके लिए कोई वीभत्स चीज़ नहीं। खलनायक के ठीक विपरीत इसके पास अकर्म का विकल्प था। वो मामले को पुलिस के लिए छोड़कर बैठ सकता था। खुद को बचाता, कोई कर्म न करता तो अकर्म हो जाता। लेकिन उसका अकर्म भी अकर्म नहीं रहता क्योंकि वो अगर रघु को जीवित छोड़ता तो रघु और हत्याएं करता। इस तरह गुरु तो हत्या न करके अकर्म कर रहा होता लेकिन उसकी वजह से रघु का कर्म (या कुकर्म) अपनेआप ही हो जाता। जैसे रघु का कर्म अकर्म होता है, उसका उल्टा गुरु का अकर्म कर्म हो जाता। यहाँ रघु और गुरु नाम भी एक दूसरे को उल्टा करने पर बनने वाले जैसे लगते हैं, लेकिन उर्दूवुड की फिल्मों में इतना सोचा गया होगा, इसकी अपेक्षा हम नहीं करते।


जहाँ तक कर्म में अकर्म और अकर्म में भी कर्म देखने का सवाल है, इस बारे में कई बार दार्शनिक कहते रहे हैं कि कोई फैसला न लेने का फैसला करना भी तो एक फैसला ही है। टाल देना किसी समस्या का निदान नहीं होता। मुश्किल परिस्थितियों में जब हम कठिन निर्णय लेना छोड़ देते हैं, “कड़वी गोली” की हिम्मत नहीं जुटा पाते तो उस अकर्म में अपने आप ही कर्म हो जाता है। इसके विपरीत कड़े फैसले से एक कोई नाराज हो जाए तो भी कई लोगों का भला हो रहा होता है, इसलिए वो कर्म भी अकर्म है। उसका फल नहीं आएगा। ये करीब करीब भारतीय न्याय के सिद्धांत जैसा है। भारतीय न्याय व्यवस्था में भी केवल इसलिए फांसी नहीं दे दी जाती क्योंकि किसी की हत्या कर दी गयी है। किस कारण से हत्या हुई उसके हिसाब से दंड देना या न देना तय होता है।


इनके अलावा कर्म के मामले में काफी कुछ हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जो हमारे हिसाब से कर्म है वो किसी और के हिसाब से कुकर्म हो ऐसा भी हो सकता है। इसके लिए भगवद्गीता कहती है –


सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48


यानि दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं। देखने का दृष्टिकोण बदल दिया जाए तो हर कर्म में दोष भी दिखने लगेंगे। इस वजह से हरेक कर्म का त्याग नहीं किया जा सकता। ये कुछ वैसा ही है जैसा इस फिल्म का तथाकथित नायक। उसके लिए जो सहज ही कर्म था, वो दोषों से भरा हुआ दिखेगा, लेकिन उनका त्याग नहीं किया जा सकता है। इसकी तुलना में खलनायक को देखेंगे तो उसके कर्म किसी भी दृष्टि से कुकर्म ही थे। उन्हें सहज कर्म कहा ही नहीं जा सकता, इसलिए ये श्लोक उसपर लागू नहीं होता।


बाकी आपकी मंशा, नियत, या कर्म के पीछे की सोच से कर्म कैसे अकर्म होता है, और अकर्म कैसे कर्म हो जाता है उस बारे में जो बताया है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं ही भगवद्गीता पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा!

✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित

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