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कजरी: भीगी हुई मिट्टी का अंतर्नाद!
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प्रस्तुति - अनामी शरण बबल / रुपेश रुप
कजरी खांटी लोकगीत है।यह शायरी भी है।जैसे-
बिरहा।बिरहा लोकगीत है और शायरी भी।हमें
कुतूहल हो सकता है कि जिस तरह बिरहा का
दंगल होता है उस तरह कजरी का भी दंगल होता
है ।हां ,समानता यह है कि दंगल शायरी बिरहा
और शायरी कजरी के होते हैं।जिन्हें गायक स्वयं
लिखते हैं या किसी योग्य साथी से लिखवाते हैं।
जो कजरी सावन-भादों में घर-घर, गांव-गांव
गायी जाती है वह लोकगीत है।लोकगीत भी रचे
जाते हैं ।कविता की भांति। इन गीतों के कविजन
का नाम लोक गायन की प्रवहमान सुर-सरिता में
तरंगवत् अदृश्य हो जाते हैं।हां, उनकी पंक्तियां
गायकों और श्रोताओं को रसानंद-नद का
अवगाहन कराती रहती हैं।यदि कोई रसिक-जिज्ञासु प्रयास करे तो परंपरागत लोकगीतों के
रचनाकारों के शुभ-नाम मिल सकते हैं ।
कजरी या कजली का अर्थ है खरी-सांवरी।कारी।
भगवती दुर्गा का एक नाम है-कज्जला।एक करमा गीत में रिझवारिन प्रश्न पूछती है-'सात बहनों में सबसे प्यारी-दुलारी कौन है? किसके
विवाह का नगाड़ा बज रहा है'?
रिझवार उत्तर देता है-'सात बहनोमें कारी-दुलारी
सबसे छोटी और प्यारी हैं। उन्हीं की शादी का
नगाड़ा बज रहा है'। कजरी में 'सांवरिया' शब्द
का एक भावार्थ है- काली-घटा।जब असाढ़ में
बादल घिरते हैं, गरजते -चमकते हैं , बज्र गिराते
हैं, मिट्टी भीगती है, छाजन चूने लगता है, वर्षा भूख और भय बढ़ा देती है तब गाढ़े दिन शुरू हो
जाते हैं।खेतिहर के पास कम समय में जुताई और
रोपाई की चुनौती होती है। कहते हैं-तेरह कातिक,
तीन असाढ़।आग , पीने का पानी, भोजन का
प्रबंधन भी कठिन होता है।पावों में पनतर हो जाता है।तरह तरह के कीट-पतंगे और रोग भी...।
इसी विपरीत परिस्थिति में कजरी अंतर्मन की
व्यथा से जन्म लेती है और गायक अपनी पीड़ा को प्रकृति के सन्मुख मानवीय आकांक्षा के साथ
सावधानी से परोस देता है।एक पुरानी पक्की बनारसी कजरी है-
'द्वार ठाढ़ी बृजबाला कहे -सूनो मेरो धाम
नहीं आये घनश्याम, घेरि आई बदरी' !
कजरी उन सभी जगहों पर गायी जाती है जहां
कजरी का मर्म बूझनेवाले रसिया होते हैं।हमारे
बनारस और मिर्जापुर में कजरी का नैहर है।मेरा
पैतृक घर चुनार में है, बनारस की सरहद के निकट।बनारस और मिर्जापुर की कजरी में वही
फर्क है जो फर्क बनारस और मिर्जापुर की बोली
में है।बनारसी कजरी में लय का आरोह-अवरोह
तनिक न्यून है। मिर्जापुर में यह पर्याप्त उतार-
चढ़ाव है। कहते हैं- 'कजरी मिर्जापुर सरनाम'।
बनारस में-
मोरा पिया सैलानी , अरे सांवरिया !
खाये के मांगे पिया, पूड़ी -मिठइया रामा
पिये के ठंडा पानी, अरे सांवरिया!
मिर्जापुर में-
डगरिया भुलानी ,अरे सांवरिया।
एक तs बाई हम अकेली
दूजे संग ना सहेली
तीजे डगरिया भुलानी, अरे सांवरिया।
बनारस में-
मिर्जापुर के कइला गुलजार हो
कचौड़ीगली सून कइला बलमू।
मिर्जापुर में-
सब कर नैया जाला रामा,
कासी अउर बिसेसर रामा
अरे रामा नागर नैया जाला कालेपनियां रे हरी।
उपरोक्त दोनों कजरियों में नायक है बनारस का
देशभक्त रंगबाज दाताराम नागर।पं. शिवप्रसाद
मिश्र रुद्र काशिकेय की पुस्तक 'बहती -गंगा' में
इस कजरी की मार्मिक अंतर्कथा है।पठनीय।
हमारे मिर्जापुर में सावन में बेटियों को नैहर
बुलाने की परंपरा रही है।वे सहेलियों-संग कजरी
खेलती हैं ।हाथ मैं हाथ थाम कर आगे-पीछे बढ़ते
हटते हुए वृत्त में घूमती लड़कियां जब कजरी
शुरू करती हैं तब सुनने वाले रीझ जाते ।यह रतजग्गा है, करमाकी भी यही शैली है।अंतर सिर्फ गति, वाद्य और जोड़ी का है।कजरी-रतजग्गे में
पुरुष लड़कियों के साथ नहीं नाचते-गाते।करमा
में यह वर्जना नहीं है।
घरवां से निकलीं ननद-भौजाई रामा
बनल रहे जोड़ी अरे सांवरिया।
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कवने रंग मुंगवा,कवने रंग मोतिया
कवन रंग ननदी रे तोर बिरना!
लाल रंग मुंगवा, सबुज रंग मोतिया
संवर रंग भउजी रे मोर बिरना!
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कजरी लिखने और गाने की परंपरा सिर्फ
अखाड़े बाज शायरों तक नहीं सीमित रही है।
भारतेंदु काल से अब तक कविजन कजरी में
लिख रहे हैं। महेंद्र सिंह अधीर की पंक्तियां हैं-
नयनों में बरबस झरना ,सावन बांध गया।
चंचल मन का हिरना ,सावन बांध गया।
एक बार विचित्रवीणा के सुविख्यात वादक, काशी
हिंदू विश्वविद्यालय ,संगीत -कला संकाय के डीन
प्रो. लालमणि मिश्र ने मालवीय भवन में एक
कजरी सुना कर मुग्ध कर दिया-
तन के पिंजरे में डोल रही
एक मुनिया सांवर गोरिया।
हर बखत कहे -है झूठी
सारी दुनियां सांवर गोरिया।
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आलेख :नरेंद्र नीरव
चित्र :जितेंद्र मोहन तिवारी
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