देव औरंगाबाद बिहार 824202 साहित्य कला संस्कृति के रूप में विलक्ष्ण इलाका है. देव स्टेट के राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह किंकर अपने जमाने में मूक सिनेमा तक बनाए। ढेरों नाटकों का लेखन अभिनय औऱ मंचन तक किया. इनको बिहार में हिंदी सिनेमा के जनक की तरह देखा गया. कामता प्रसाद सिंह काम और इनकi पुत्र दिवंगत शंकर दयाल सिंह के रचनात्मक प्रतिभा की गूंज दुनिया भर में है। प्रदीप कुमार रौशन और बिनोद कुमार गौहर की भी इलाके में काफी धूम रही है.। देव धरती के इन कलम के राजकुमारों की याद में .समर्पित हैं ब्लॉग.
शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2022
गुरुवार, 27 अक्टूबर 2022
डॉक्टर . एम. शेषन को श्रद्धांजलि
डॉ. एम. शेषन को श्रद्धांजलि
खतौली, 22 अक्टूबर, 2022।
आज 'साहित्य मंथन' के तत्वावधान में तमिल भाषी विद्वान और भारतीय हिंदी आंदोलन के समर्थ कार्यकर्ता डॉ. एम. शेषन के निधन पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक आयोजन संपन्न हुआ। इसमें हैदराबाद से पधारे प्रो ऋषभदेव शर्मा ने विस्तार से डॉ. एम. शेषन का परिचय दिया और उनकी हिंदी सेवा के साथ ही तमिल और हिंदी के बारे में जो तुलनात्मक अध्ययन हुआ है, उसके महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर सबका ध्यान खींचा। प्रो. ऋषभ ने इस बात पर बहुत बल दिया कि डॉ. एम. शेषन ने हिंदी साहित्य में रीतिकाल और तमिल साहित्य की रीति परंपरा के बीच संबंध की जो अवधारणा प्रस्तुत की थी, उस पर गंभीर शोध किए जाने की आवश्यकता है।
इस अवसर पर डॉ. एम. शेषन के खतौली पधारने की घटना का स्मरण दिलाते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लेखक जसवीर राणा ने यह प्रतिपादित किया कि जब शेषन जी हिंदी सेवी टी. एस. राजु शर्मा और प्रो. एन. सुंदरम म के साथ खतौली पधारे थे, तो उनकी स्पष्टवादिता तथा सहज व्यवहार ने सभी को प्रभावित किया था। उस समय उन्होंने उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच संबंध को हिंदी भाषा तथा साहित्य के सहारे अधिक मजबूत बनाने की आवश्यकता पर बल दिया था, इसीलिए शेषन जी उत्तरापथ और दक्षिणापथ के मिलन को महत्व देने वाले राष्ट्रभक्त थे। जसवीर राणा ने उनके निधन को पूरे हिंदी आंदोलन और भारतीय भाषाओं की क्षति माना।
वरिष्ठ कवि-समीक्षक प्रो. देवराज ने इस अवसर पर डॉ. एम. शेषन के साथ अपने बरसों के संबंध को याद किया और यह कहा कि भारतीय साहित्य और हिंदी भाषा को मजबूत बनाने के लिए तथा सभी भारतीय भाषाओं की समृद्धि के लिए डॉ. एम. शेषन ने जो तुलनात्मक अध्ययन किया तथा अपने लेखन के माध्यम से हिंदी और तमिल के पाठकों को इन दोनों भाषाओं के साहित्य का जो ज्ञान दिया, वह कभी नहीं भुलाया जा सकता।
साहित्य मंथन के इस आयोजन में यह भी याद किया गया कि डॉ. एम. शेषन को हिंदी भाषा के प्रति रुचि तो अपने प्रारंभिक दिनों से ही हो गई थी, लेकिन उसका गहरा ज्ञान उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. शिव प्रसाद सिंह के संपर्क में आकर अर्जित किया। आचार्य द्विवेदी ने अपने इस महान शिष्य को संस्कृति की ज़मीन से जोड़ने का जो कार्य किया था और भारतीयता को समझने की जो योग्यता दी थी, उसका शेषन जी ने सफल प्रयोग भारत की राष्ट्रीय चेतना को समृद्ध बनाने में किया। श्रद्धांजलि सभा के अंत में 2 मिनट का मौन रखकर शेषन जी की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की गई। 000
प्रेषक-
जसवीर राणा
अध्यक्ष, #साहित्यमंथन, खतौली।
सोमवार, 24 अक्टूबर 2022
क्यों कायस्थ 24 घंटे के लिए नही करते कलम का उपयोग
प्रस्तुति - शैलेन्द्र किशोर जारुहार
जब भगवान राम के राजतिलक में निमंत्रण छुट जाने से नाराज भगवान् चित्रगुप्त ने रख दी थी कलम !!उस समय परेवा काल शुरू हो चुका था, परेवा के दिन कायस्थ समाज कलम का प्रयोग नहीं करते हैं यानी किसी भी तरह का का हिसाब - किताब नही करते है आखिर ऐसा क्यूँ है ?
कि पूरी दुनिया में कायस्थ समाज के लोग दीपावली के दिन पूजन के बाद कलम रख देते है और फिर यमदुतिया के दिन कलम- दवात के पूजन के बाद ही उसे उठाते है I
इसको लेकर सर्व समाज में कई सवाल अक्सर लोग कायस्थों से करते है ?
ऐसे में अपने ही इतिहास से अनभिग्य कायस्थ युवा पीढ़ी इसका कोई समुचित उत्तर नहीं दे पाती है I जब इसकी खोज की गई तो इससे सम्बंधित एक बहुत रोचक घटना का संदर्भ हमें किवदंतियों में मिला I
कहते है जब भगवान् राम दशानन रावण को मार कर अयोध्या लौट रहे थे, तब उनके खडाऊं को राजसिंहासन पर रख कर राज्य चला रहे राजा भरत ने गुरु वशिष्ठ को भगवान् राम के राज्यतिलक के लिए सभी देवी देवताओं को सन्देश भेजने की व्यवस्था करने को कहा I गुरु वशिष्ठ ने ये काम अपने शिष्यों को सौंप कर राज्यतिलक की तैयारी शुरू कर दीं I
ऐसे में जब राज्यतिलक में सभी देवीदेवता आ गए तब भगवान् राम ने अपने अनुज भरत से पूछा भगवान चित्रगुप्त नहीं दिखाई दे रहे है इस पर जब खोज बीन हुई तो पता चला की गुरु वशिष्ठ के शिष्यों ने भगवान चित्रगुप्त को निमत्रण पहुंचाया ही नहीं था जिसके चलते भगवान् चित्रगुप्त नहीं आये I इधर भगवान् चित्रगुप्त सब जान चुके थे और इसे प्रभु राम की महिमा समझ रहे थे । फलस्वरूप उन्होंने गुरु वशिष्ठ की इस भूल को अक्षम्य मानते हुए यमलोक में सभी प्राणियों का लेखा जोखा लिखने वाली कलम को उठा कर किनारे रख दिया I
सभी देवी देवता जैसे ही राजतिलक से लौटे तो पाया की स्वर्ग और नरक के सारे काम रुक गये थे , प्राणियों का का लेखा जोखा ना लिखे जाने के चलते ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा था की किसको कहाँ भेजे I
*#तब गुरु वशिष्ठ की इस गलती को समझते हुए भगवान राम ने अयोध्या में भगवान् विष्णु द्वारा स्थापित भगवान चित्रगुप्त के मंदिर ***
( श्री अयोध्या महात्मय में भी इसे श्री धर्म हरि मंदिर कहा गया है धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उसे इस तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता।)
*में गुरु वशिष्ठ के साथ जाकर भगवान चित्रगुप्त की स्तुति की और गुरु वशिष्ठ की गलती के लिए क्षमायाचना की, जिसके बाद भगवान राम के आग्रह मानकर भगवान चित्रगुप्त ने लगभग ४ पहर (२४ घंटे बाद ) पुन: *कलम दवात की पूजा करने के पश्चात उसको उठाया और प्राणियों का लेखा जोखा लिखने का कार्य आरम्भ किया I कहते तभी से कायस्थ दीपावली की पूजा के पश्चात कलम को रख देते हैं और *#यमदुतिया के दिन भगवान चित्रगुप्त का विधिवत कलम दवात पूजन करके ही कलम को धारण करते है*
कहते है तभी से कायस्थ ब्राह्मणों के लिए भी पूजनीय हुए और इस घटना के पश्चात मिले वरदान के फलस्वरूप सबसे दान लेने वाले ब्राह्मणों से दान लेने का हक़ सिर्फ कायस्थों को ही है I
#श्री_चित्रगुप्त_भगवान_की_जय
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शनिवार, 22 अक्टूबर 2022
मुकेश प्रत्यूष की कुछ प्रेम-कवितांएं
कोशिश
तुम
हमेशा अकेली नजर आती हो
भट्ठी में फूलती
एक अदद रोटी की तरह
जिसे पाने के लिए
उगाता रहा हूं मैं
अपनी हथेलियों पर
अनगिनत छाले
काफी बचपन से
चिन्ता
कल ठीक यहीं पहंचे थे हम
-साथ-साथ चलते हुए
कल ठीक वहीं से शुरू किया था हमने चलना
जहां से चले हैं आज
क्या कल भी पहुंचना होगा हमें
-ठीक यहीं
ठीक वहीं से चलते हुए.
संशय
न तो गाती हुई नदी थी
न थिरकता हुआ झरना
न पत्तियों-पंखुड़ियों की जुबिंश से गूंजती हुई वादी
जब पूछा या तुमने
-'आपके साथ जीवन बिताने का निर्णय लेकर
पछताना तो नहीं पड़ेगा मुझे`
और कहा था मैंने-
'स्वयं से पूछ कर देखो`
नयी-नयी बन रही सड़क थी
धीमी रफ़तार में हचकोले खा-खाकर
चलते टेम्पो में सवार हम
साफ-साफ गहसूस कर रहे थे
-बिछे पत्थरों का तीखापन
धूलभरी गर्म हवाओं ने गुम कर रखे थे
-आगे के रास्ते
और लगाये थे अनगिनत थपेडे
तो क्या इन्हीं से घबरा कर तुम
शिकार हो गयी थी संशय का
नहीं तो फिर यह प्रश्न ही क्यों पूछा था तुमने
खूटें सा गड़ा मन
मिले थे जब
नहीं सुने थे ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द
न चिन्ता थी कि कैसे कटेगी गर्मी
जो पड़ेगी इस साल पिछली दो सदियों में सबसे ज्यादा
न जानते थे क्या होते हैं ग्रीन हाउस
फिर समझते क्या उसके उत्सर्जन और दुष्प्रभाव
सरसों के खिले फूलों ने करवा दिए थे अहसास
पाला-लाही के बीच भी बचा है बहुत कुछ
घुंघरु से बजे थे चने
और तान कर पालें उड़ी थीं नावें
पतंगों से भर गई थी छत
किलकारियों से उमग आया था रोआं एक-एक
बीते दिनों की बातें हैं सब
जानता हूं
खूंटे सा गड़ा मन
कूदे लाख - निकले तब ना.
रिश्ता
यह कैसा रिश्ता है प्रिय.
तुम खोना चााहती हो
-मेरे गहरे नीले विस्तार में
किन्तु दौड़ता हूं जब मैं
समेटने को बाहों में तुम्हें अपनी
धवल हो जाता हूं
-तुम्हारी देहयष्टि की तरह
यह कैसा रिश्ता है
रंगना चाहती हो तुम
-मेरे रंग में
और परिवर्तित हो जाता है रंग - मेरा
सुनिश्चित
कठिन है
एक अकेली लहर के लिए
प्रवाह में कहीं रूक पाना
कुछ कह पाना राह में आए चट्टान की छाती पर टेक कर सिर
धुन-बिखर जाती है खुद ही
तट
वह तो किसी लहर का नहीं होता
प्रसंग
डाली से टूटे हुए गुलाब
मुझे अजीब-सी बेचैनी से भर देते हैं
सूखकर झर जाने से पूर्व हजार-हजार डंकों की यातना भोगकर भी
उनके मुस्कुराने की कोशिश
मेरी रगों में मवाद-सा कुछ भर जाता है
औैर इसीलिए
जब कभी तुमने जूड़े की खातिर
लाने को कहा - एक गुलाब
मैंने की है कोशिश
बदल जाये प्रसंग
ठीक ऐसे ही दिन थे
ठीक ऐसे ही दिन थे
जब शुरू की थी हमने यात्रा
-साथ-साथ
आने-आने को थे : नीम को बौर
पकने-पकने को थे : महुए
और,उनकी गंध में रच-बस कर
मदमस्त अल्हड़-सी हुई हवा
उतर आयी थी हमारे नासापुटों तक
और, पैबस्त हो गयी थी
हमारी रक्त-शिराओं में
ठीक ऐसे ही दिन थे
बातों ही बातों में
आ गये थे हम, गंगा-तट तक
जहिर किया था अफसोस
घाट से पानी के दूर चले जाने पर
फिर मुझे छोड़
फलांगती घुटनों तक पैठ गयी थी तुम
किया था आचमन
और, पल-पल रिक्त होती अंजुरी में
संजो लायी थी चंद-बूंदें
और आपाद-मस्तक पवित्र किया था मुझे
फिर आंखें मींच कर
न जाने किससे और क्या मांगा था आशीर्वाद
और, उसी किसी क्षण में मैंने
घाट की देवी पर चढ़ाये किसी के सिंदूर से
बना दी एक बड़ी-सी बिन्दी
और चूम लिया था उसे
और, पता नहीं क्यों अनमनी हो गयी थी तुम
फिर छीले थे हमने
साथ लाये संतरे
और देर तक करते रहे थे पीछा
-एक दूसरे का
ठीक ऐसे ही दिन थे
गुनगुनी धूप में
समाने लगी थी गुलाल की तुर्शी
और तुमने निकाल कर पर्स में धरा रंग बदलने वाला चश्मा
चढ़ा लिया था आंखों पर
और
पूछा था मुझसे :
कैसे बर्दाश्त कर रही हैं, मेरी आंखें
सूरज का तेज
और यह भी
क्यों नहीं ले लेता मैं भी
मौसम के अनुकूल रंग बदलने वाला चश्मा
ठीक ऐसे ही दिन थे
स्वीकारोक्ति
न जाने किस आवेश में
कल जब तुमने रखे थे
पसीने से तर-बतर मेरी पेशानी पर अपने होठ
तेा सच कहता हूं-
मुझे वे तुलसी-दल से पावन नहीं लगे थे
मंदिर की घंटियों से नहीं गूंजे थे
कानों में धीमे से कहे
-तुम्हारे शब्द
खुद से लड़ते और भागते मुझे
छुपाने की कोशिश की थी
जब अपने वक्ष-स्थल में
तो गरवइया के बच्चे-सा दुबकने की कोशिश भी
नहीं की थी मैंने गरमाई पाकर
तुम्हारी सूनी मांग को देख
और दिन की तरह
न तो मुझे सागर-तट की याद आयी थी
और न उस पर सर पटकती फेनिल लहरों की
सच कहता हूं-
मेरे नासापुटों में भर गयी थी
सिंकती रोटी-सी गंध
और जागने लगा था
मेरे भीतर सोया राक्षस
अपनी पूरी आदिम प्रवृतियों के साथ
मेरी उदासी
एक पहाड़ी धुन सुनी
और मैं उदास हो गया
एक अल्हड़ क्वांरी नदी को
उतरते और झरते देखा
और मैं उदास हो गया
मैं उदास हो गया-
एक ताजा खिले फूल पर बैठे
मकरंद चूसते भौंरे को देखकर
मैं उदास हो गया-
घुटनों के बल चलते एक बच्चे को मुस्कुराते देखकर
तुम्हारी याद आई
और मैं उदास हो गया
शून्य से शुरू करते हुए
(1)
शून्य से शुरू करते हुए अपनी यात्रा
फिर से
सोचता हूं-
क्यों लौट गयी थी तुम
अकेली
साथ-साथ दूर तक चलकर
अच्छी तरह याद है मुझे
असमय हुई बारिश के गुजर जाने के बाद
खुले में आकर
तुम्हारी बायीं हथेली पर
तुम्हारी ही दी कलम से हस्ताक्षर किया था मैंने-मुकेश प्रत्यूष
और उसके ठीक नीचे
लिखा था तुमने अपना नाम
ठीक उसी क्षण
सात-सात रंगों में बांटती सूरज की रोशनी को
न जाने कहां से टपक गयी थी-एक बूंद
लिखे हमारे नामों के उपर
साक्षी है : आकाश
साक्षी हैं : धरती और दिशाएं
कि कुछ कहने को खुले थे तुम्हारे होठ
किन्तु रह गये थे कांप कर
भर आयी थीं आंखें
फिर अचानक भींच कर मुठ्ठी, मुडकर भागती चली गयी थी तुम
और विस्मित-सा खड़ा मैं रह गया था
यह तय करता - क्या और क्यों ले गयी बंधी मुठ्ठी में
हमारा नाम
या वह बूंद जो साक्षी था हमारी सहयात्रा का
शून्य से शुरू करते हुए
(2)
शून्य से शुरू करते हुए अपनी यात्रा
-फिर से
चाहता हूं : तुम्हे याद नहीं करूं
भूलना चाहता हूं तुम्हें
गंगा की उन लहरों की तरह
जिनकी बूंदों से अभिसिंचित करने को मुझे
भरी थी तुमने अंजुरी
और रिक्त हो वह
इससे पहले ही तय कर ली थी उन लहरों ने
एक लम्बी यात्रा
उसी किसी क्षण में
लगा दिया था मैंने एक गहरा लाल टीका सीमान्त पर
पहले घबराये और फिर ठठाकर हंसे थे हम
यह सोचकर और बताकर कि क्या होता
अगर फैलता हुआ वह पंहुच जाता
क्वांरी-सूनी मांग तक
चाहता हूं भूलना; किन्तु यही नहीं भूल पाता
सच कितना कठिन है
भोगे किसी क्षण को
अपनी पूरी जीवनऱ्यात्रा में भूल पाना
तो क्या
मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाउंगा – प्रिय ?
पहल किसने की
सपनों से डरता हुआ मैं
देखता हूं-
न जाने कितने-कितने सपने
कभी देखता हूं-
मैं बुन रहा हूं
-सिर पर एक अदद आसमान
और, तुम भर रही हो रंग उसमें
पसंद के अपनी - नीला, गहरा नीला और सफेद
जब मैं बुन चुका होता हूं आसमान
और भर चुकी होती हो तुम रंग उसमें
हम उगाते हैं : तारे
और दीखने भर रौशनी दे देते हैं उसे
हम उगाते हैं : चांद
और देते हैं रौशनी उतनी
जितनी में देख सकें एक-दूसरे को
फिर हम उगाते हैं : सूरज
और चाहते हैं दे देना
-ढेर सारी रौशनी उसे
ताकि देख सकें साफ-साफ
जहां तक दीख जाए
रौशनी पाते-पाते गर्म हो जाता है सूरज
हम सह नहीं पाते उसका तेज
भागते हैं हम
-अपने ही बुने, रंग भरे आसमान के नीचे से
और आकर उसकी हद से बाहर
चाहते हैं तय करना
-भागने की पहल किसने की
अचानक हमारे सामने आ जाता है -एक आदमकद शीशा
और हम नापने लगते हैं - अपनी-अपनी उंचाइयां उसमें
तभी शीशे से निकलते हैं
-दो,लम्बे-लम्बे, हाथ वर्जनाओं के
एक में होता है ढेर-सारा संशय-रत्न
तराशे हुए सलीके से
चौधियाने लगती हैं, हमारी आंखें
खुद को रोक नहीं पाती हो तुम
उठा लेती हो कई एक
और करने लगती हो कई-कई सवाल खुद से
इसी बीच शीशे से निकला दूसरा हाथ
उठाकर, उछाल देता है मुझे – सुदूर ; शून्य विस्तार में
अचानक दिखायी देती है
-मेरी ही हथेली
लटकती बिना किसी सहारे के
मिट गयी हैं - उसकी सारी की सारी रेखाएं
देखकर उदास नहीं होता हूं मैं
-मुझे याद है; रोटी की जुगाड़ की कोशिशें
तभी न जाने कहां से आ जाता है
एक धारदार हथियार
मेरे शेष बचे दूसरे हाथ में
मैं आर्केमीडिज की तरह चिल्ला उठता हूं
और उभारने लगता हूं रेखाएं
बारी-बारी से अपनी हथेली में
धन की; आयु की; पे्रम की. खूनेखून हो जाती है मेरी हथेली
किन्तु, रेखाएं तब भी नजर नहीं आतीं
नजर आता है : सिर्फ खून-ही-खून; खून-ही-खून
विश्वास
मैं कौधूंगा स्मृतियों में
दूर-दराज से आए और घनीभूत हुए बादल
बिखरेंगे जब बूंद-बूंद होकर
पैरों तले से फूटेगी और नासापुटों में भर जाएगी
बिसरी हुई एक चिन्ही-सी गंध
मैं कौधूंगा
जब चूएंगे महुए
झरेंगे हरसिंगार एक पूरी रात की अनवरत प्रतीक्षा के बाद
मैं कौधूंगा
जब लिखेगा कोई प्रेम-पत्र
घुटरुन लपकेगा कोई बच्चा
आरी की तीक्ष्णता-सी
मैं कौधूंगा, जरुर कौधूंगा
-स्मृतियों में .
स्मृतियों का दरवाजा मेरा
स्मृतियों का दरवाजा मेरा
है रंगा
चटख लाल पाढ़ वाले सफेद रंग से
डाल वहीं कुर्सी
बैठा हूं मैं - काल से अनन्त
देखता बूंदें टपकती
है नहीं चौड़ी हैंडिल कुर्सी की
मजबूत भी नहीं
फिर भी
निकल आ बैठती हो
फेरती उंगलियां
जाती हैं धीरे से जकड़ती
होता नहीं कुछ भी सायास
प्रत्यक्ष भी नहीं
सपनों में गड्ड-मड्ड
रहती है होती
सफेदी
दिखती है चांदनी मटमैली
गुजरता है जब ठीक चांद के बगल से
एक पक्षी सिकोड़े पंख
गर्दन उठाए
बिखर जाती हैं आहिस्ते से बूंदें
छिटकते ही अलग जलधार से
टपकते नभ या आंखों से
झलक जाती हैं बूंदें
लिखा जा सकता है कुछ भी सफेदी पर
यादों के सहारे
हो गई है दूर
उत्सुक- प्रश्नकुल रहती थीं जो आंखें
उच्चरित होने से पहले शब्द
रह जाते थे अक्सर कांप कर ही जिस पंखुरी पर
तैरती रहती थी गंध जिसकी देहयष्टि की हवा में
भूल दिन-दोपहरी की चिन्ता
छूटती थी जो कहानी गंगा के किनारे
सलवटों सी हर बार होती वह नई थी
रह पाता था कब विन्यास ही थोड़ा संभलकर
छोड़कर पतवार लहरों पर तिरे थे
उकेरे कुछ निशान भी रेत पर ही
चीर संतुष्टि की सतह को
उभर आते हैं वो सभी
अक्सर यादों के सहारे
बेजान सुधियों के
हो गया मुहरबंद
लगा कील
दरवाजा ऊंचा परकोटे का
निकल नहीं पाया मैं
रहते समय
रह गया खड़ा देखता
विस्मित गुजरता समय
चली गई जकड़ती
लताएं
बेड़ियो से ज्यादा सखत और मजबूत
करुं नहीं पाऊं मैं कोशिश
मुक्ति की इससे
हैं हो गए तैनात
असंख्य पहरेदार परिधि पर
बस रह गए हैं साथ मेरे
लगे दीमक
स्मृतियों के खुले गवाक्ष
आते हैं रह-रहकर उन्हीं से
झकोरे
और जाते हैं पलट
पन्ने
बेजान सुधियों के
आमंत्रण
सपनों की राह में बनने लगे हैं गड्ढे
बरस रही है
इस बार फिर आसमान से
आग
रातों में भी चल रही है लू
खोलकर शरीर का रोयां-रोयां
धरती कर रही जद्दोजहद जिन्दगी की
चल रही है धूल भरी आंधी
आसार नहीं है कि होगी इस बार भी मौनसून से मुलाकात
घाट से दूर चली गई है गंगा
उदास हैं देवी महीनों से चढ़ाया नहीं है किसी ने सिंदूर
आओ कि बिछ गई हैं नीमकौडि़यां
फट रहे जामून
और रह-रह कर चू रहे महुए
आओ कि मुश्किल हो रहा है
पहचानना हवाओं में मिली गंध को
धधकती रेत पर आचमन की प्रतीक्षा में खड़ा मैं
लिख लिख कर हवा में मिटा रहा हूं तुम्हारा नाम
आओ कि देखकर भी इस बार देख नहीं पाउंगा तुम्हारा देखा हुआ चेहरा
संकल्प है नहीं करूंगा इस बार हस्ताक्षर भी तुम्हारी हथेली पर तुम्हारी ही दी कलम से
आओ कि विदा का वक्त है
कहो कि शुभ हो यह अंधेरे से अंधेरे की यात्रा
जानते हुए भी कहा झूठ
कहो कि होगा पाथेय
आओ कि
चाहिए ही अब तुम्हें आना
*मुकेश प्रत्यूष
3G जानकीष मंगल इंक्लेव,
पूर्वी बोरिंग कनाल रोड,
निकट पंचमुखी मंदिर,
पटना 800 001
मोबाईल :
+91 9431878399
ईमेल : mukeshpratyush@gmail.com
शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2022
भारत यायावर की प्रथम पुण्यतिथि पर विशेष) /:
( पुण्य तिथि :22 अक्टूबर) : भारत यायावर
विजय केसरी
भारत यायावर की कविताएं सदा मुस्कुराती रहेंगी
विजय केसरी
झारखंड के जाने माने साहित्यकार कवि, संपादक, आलोचक, समीक्षक भारत यायावर की कविताएं सदा समय से संवाद करती नजर आती है । उनकी कविताएं सदा मुस्कुराती ही रहेंगी । भारत यायावर का मन सदैव लोगों को गले लगाते रहा था । आज उनका शरीर मन से अलग हो गया है । इसके बावजूद उनके मन से उपजी कविता की पंक्तियां लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती रहती हैं। उनकी कविताएं मन में उठते हर सवालों का जवाब भी देती नजर आती हैं । उनकी कविताएं पाठकों से वार्तालाप भी करती रहती हैं । उनकी कविता की पंक्तियों की यह खासियत है। उनके मन की उपजी कविताएं जितनी बार भी पढ़ी जाती हैं, हर बार एक नए अर्थ और रस के साथ उपस्थित हो जाती हैं। जब तक यायावर इस धरा पर रहें, सदा गतिशील रहें, सदा रचना रत रहें । साहित्य के अलावा उन्होंने इधर उधर बिल्कुल झांका नहीं। हिंदी साहित्य ही उनके जीवन का सब कुछ था । वे हिंदी साहित्य के इनसाइक्लोपीडिया बन गए थे । हिंदी साहित्य पर क्या कुछ लिखा जा रहा है ? उनके पास बिल्कुल ताजा जानकारी रहती थी । पूर्व के रचनाकारों ने हिंदी साहित्य को किस तरह समृद्ध किया है ? इस पर उनकी टिप्पणी सुनते बनती थी । उनकी बातों को सुनकर प्रतीत होता था कि उन्हें हिंदी साहित्य की कितनी जानकारी है। एक बार प्रख्यात कथाकार रतन वर्मा कवि भारत यायावर के साथ फणीश्वर नाथ रेणु के गांव एक साहित्यिक कार्यक्रम में जा रहे थे। उन दोनों के बीच हिंदी साहित्य पर लंबी वार्ता हुई थी। इस वार्ता पर रतन वर्मा ने कहा कि 'भारत यायावर निश्चित तौर पर हिंदी के एक मर्मज्ञ विद्वान हैं । उन्हें हिंदी साहित्य की हर विधा की जानकारी हैं।
कवि भारत यायावर कि लगभग साठ पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशाधीन हैं। उन्होंने जो कुछ भी रचा और संपादन किया । सभी महत्वपूर्ण कृतियां बन गई है । आज उनके जन्मदिन पर उनकी एक महत्वपूर्ण कृति 'कविता फिर भी मुस्कुराएगी' कविता संग्रह की विशेष रूप से चर्चा करना चाहता हूं। इस संग्रह में कुल उनहत्तर कविताएं दर्ज हैं। सभी कविताएं विविध विषयों पर लिखी गई हैं। कविताओं के पाठन के उपरांत मैं यह विमर्श कर रहा था कि आखिर भारत यायावर ने इस संग्रह का नामकरण 'कविता फिर भी मुस्कुराएगी' शीर्षक कविता को ही क्यों चुना ? इस संग्रह की कविताओं के पाठन से लगा कि उन्हें संपादन की भी बड़ी अच्छी समझ थी । इस संग्रह का नामकरण इससे बेहतर और कुछ हो भी नहीं सकता था।
'कविता फिर भी मुस्कुराएगी' कविता के माध्यम से कवि भारत यायावर ने दर्ज किया है। टहनियां सूख जाएंगी/ अपना होने का अर्थ मिट जाएगा/ कविता फिर भी मुस्कुराएगी। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि टहनियां सुख जाएंगी । अपना होने का अर्थ मिट जाएगा। फिर भी कविता मुस्कुराएगी । अर्थात यह जीवन एक वृक्ष के समान है । समय के साथ एक वृक्ष का उदय होता है । समय के साथ वृक्ष पुष्पित और पल्लवित होता है और अपना संपूर्ण आकार ग्रहण करता है । लेकिन एक न एक दिन उसकी टहनियां धीरे धीरे कर सूखती चली जाती है। एक समय ऐसा आता है, जब वृक्ष का अस्तित्व मिट जाता है। लेकिन मनुष्य के जीवन के वृक्ष से निकले उदगार और कर्म कविता के रूप में फिर भी मुस्कुराते रहेंगे । भारत यायावर की पंक्तियां एक जीवन के समान हैं। उनकी पंक्तियां चंद शब्दों के मिलान भर नहीं है, बल्कि मनुष्य का संपूर्ण जीवन है। मनुष्य का जीवन अनंत काल से है। और अनंत काल तक बना रहेगा । कविता का जन्म ना मरने के लिए होता है । कविता की पंक्तियां कालजई होती हैं । कविता अमरता का वरदान लेकर ही पैदा होती हैं। कविता जब भी किसी पाठक के पास पहुंचती हैं। कविता पुनः गतिशील हो जाती हैं। कविता गीता के श्लोकों की तरह सदा साक्षी भाव में रहती हैं। कविता दुःख - सुख दोनों में सदा मुस्कुराती रहती हैं। यही कविता की खूबसूरती है। कविता किसी राजनेता की आलोचना कर रही होती है, तब भी मुस्कुराती रही होती है। कविता जब किसी श्रमिक के बहते पसीने पर अपनी बात कह रही होती है, तब भी कविता मुस्कुराती रही होती है । कवि के लिए कविता एक जीवन के समान है। जीवन के समान निरंतर गतिमान बनी रहती है । जीवन का आना जाना लगा रहता है। लेकिन कविता जीवन के आने जाने से मुक्त होकर कवि के मन के भावों को सदा सदा के लिए अमर बना देती हैं।
आगे पंक्तियां कहती हैं। कविता / मेरे धीरे-धीरे मरने का संगीत ही नहीं/ कविता/ सृष्टि को अकेले में / या भीड़ में भोगी / संवेदना का गीत ही नहीं /लोग /रेंगते/ घिसटते / थके - हारे लोग / कविता सिर्फ कविता। अर्थात कविता सिर्फ मेरे धीरे धीरे मरने का संगीत ही नहीं बल्कि मेरे जीवन के संघर्ष की सहचर भी हैं। लोग रेंगते हैं। लोग घिसटते हैं। थक कर चूर हो जाते हैं । इन तमाम संघर्ष और परेशानियों के बीच मनुष्य रहकर भी चलता ही रहता है । यह संघर्ष ही उसे गतिमान बनाता है। यह परेशानियां ही उसे जीने का एक नया अर्थ प्रदान करती हैं। मनुष्य के जीवन में संघर्ष ना हो। परेशानियां ना हो। तब यह जीवन किस काम का ? जीवन के संघर्ष और परेशानियां ही मनुष्य को साधारण से असाधारण बनाता है । इसलिए मनुष्य को कविताओं से प्रेरणा लेनी चाहिए। कविता का जन्म किसी भी कालखंड में क्यों ना हुआ हो । जब भी उसे पढ़ा जाता है। कविता पूरी शिद्दत के साथ अपनी बातों को रखती हैं । कविता लोगों को प्रेरणा देती हैं। फिर मनुष्य क्यों अपने संघर्ष और परेशानियों से घबराता है ? उसे कविता की तरह ही विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराने की जरूरत है।
मेरे अंदर / टूटती है शिलाएं रोज / फिर भी मैं गहरे अंधेरे में खो जाता हूं / रोशनी मेरी आंखों में / ढेर सारा धुआं उड़ने लगती है /लगातार जारी इस बहस से/ आजाद कब होओगे, भाई ! / इस विफल यात्रा की झूठ को ढोता थक गया हूं। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि बहुत ही महत्वपूर्ण बातों की ओर इशारा करते हुए कहना चाहते हैं कि हर रोज लोगों के अंदर नए-नए विचार उत्पन्न होते हैं । विचारों की शिलाएं रोज बनती हैं। टूटती हैं । और ना जाने ये विचार किस भंवर में समा जाती है ? जैसे लगता है कि आंखों के सामने सब कुछ दिख रहा है।लेकिन कुछ भी दिख नहीं हो रहा है। जैसे किसी ने ढेर सारा धुआं आंखों के सामने उड़ेल दिया हो। जब से मनुष्य आया है। तब से यह बहस जारी है कि मेरी यह यात्रा किस लिए है ? लेकिन अब तक किसी ने इस यात्रा के रहस्य को समझा ही नहीं पाया। मनुष्य अनंत काल से जन्म लेता चला रहा है। शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य का जन्म अनंत काल तक होता रहेगा । मनुष्य एक राहगीर के समान है। वह इस राह पर कब तक चलता रहेगा ? उसे मालूम ही नहीं । मनुष्य इस विफल यात्रा से मुक्ति चाहता है । आखिर इस विफल यात्रा के झूठ को मनुष्य कब तक ढोता चला जाएगा ? मनुष्य इस यात्रा से मुक्ति की नई राह को ढूंढता नजर आता है। जिसकी तलाश ना जाने कितने महापुरुषों ने की थीं । उन्हें इस विफल यात्रा से मुक्ति मिली अथवा नहीं ? ये भी बातें रहस्य बन कर रह गई हैं।
आगे पंक्तियां कहती हैं । आओ / हम अपने को नंगा कर / स्वतंत्र हो जाएं/ यातनाओं के बीच / हमारी अस्मिता का सुंदर रुप हो/ लय हो/ टहनियां सूख जाएंगी/ हमारे होने का अर्थ मिट जाएगा/ कविता फिर भी मुस्कुराएगी। कवि इन पंक्तियों में एक संदेश वाहक के रूप में यह कहना चाहते हैं कि यह जीवन सिर्फ माया का एक बंधन है। मनुष्य खाली हाथ आया है । और इस धरा से खाली हाथ ही चला जाएगा। मनुष्य इस धरा से फूटी कौड़ी भी नहीं ले जा सकता है। तो फिर मनुष्य धन, यश और पद के पीछे क्यों भाग रहा है ?
ये सारी चीजें उसे माया में ही बांधती चली जाएगी। इसलिए मनुष्य को इन बंधनों से मुक्त होने के लिए नंगा होना होगा । खुद को इन बंधनों से मुक्त करना होगा। स्वतंत्र होना होगा । तभी इस यात्रा से मुक्ति संभव है। जीवन में जो दुःख, संघर्ष, खुशी आदि हैं। इन्हीं के बीच अपनी अस्मिता को सुंदर बनाया जा सकता है। जब मनुष्य माया के बंधनों से मुक्त होता है, तभी उसका रूप निखर कर सुंदर होता है। और इसी रूप का लय होना सच्चे अर्थों में इस यात्रा से मुक्ति का मार्ग है ।
विजय केसरी,
( कथाकार / स्तंभकार)
पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301
मोबाइल नंबर : 92347 99550.
प्रेमचंद जैसा कोई नहीं ; अमूल्य अनमोल धरोहर
'
हमारी विभूतियाँ ,में आज हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार एवं साहित्यिक जगत के बेमिसाल हस्ताक्षर मुंशी प्रेमचंद के योगदान और साहित्य सृजन पर दृष्टि डालेंगे. जिनके बगैर भारत को न देखा जा सकता हैं और ना ही समझा ही जा सकता हैं. :
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के एक छोटे से गाँव लमही में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम धनपत राय था। उनके पिता का नाम अजायब राय और माता का नाम आनंदी देवी था। उनके पिता अजायब राय पोस्ट मास्टर थे। बचपन से ही उनका जीवन बहुत ही संघर्ष में गुजरा। जब प्रेमचंद जी महज आठ वर्ष के थे तब, एक गंभीर बीमारी के कारण उनकी माता जी का देहांत हो गया।
प्रेमचंद जी की प्रारम्भिक शिक्षा, सात साल की उम्र से, अपने ही गाँव लमही के, एक छोटे से मदरसा से शुरू हुई थी। मदरसा में रह कर, उन्होंने हिन्दी के साथ उर्दू व थोडा बहुत अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त किया। बड़ी कठिनाईयों से जैसे-तैसे मैट्रिक पास की थी। ऐसे करते हुए धीरे-धीरे उन्होंने अपनी शिक्षा को आगे बढाया, और आगे स्नातक की पढ़ाई के लिए बनारस के एक कालेज में दाखिला लिया। 1919 में उन्होंने नौकरी के साथ-साथ बीए की परीक्षा पास की और शिक्षा विभाग में डिप्टी स्पेक्टर नियुक्त हुए।
पुराने रिवाजो के चलते पिताजी के दबाव मे आकर मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में हुआ ,जिसका जिक्र उन्होंने अपने पुस्तक मे किया है .पत्नी से तलाक के बाद 1905 ई. में इन्होंने बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया। शिवरानी देवी से इनका विवाह सफल रहा। इनकी पत्नी ने इनका कदम-दर-कदम सहयोग किया।
1922 ई. में ये काशी विद्यापीठ में स्कूल विभाग के हेड मास्टर नियुक्त हुए। उन्होंने नवाबराय के नाम से उर्दू में लेखन किया। परंतु बाद में वे प्रेमचंद के नाम से हिंदी में लिखने लगे। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया तथा अपना एक छापाखाना भी लगाया। 1936 ईस्वी में लखनऊ में हुई प्रथम ‘प्रगतिशील लेखक संघ‘ की बैठक की अध्यक्षता की।
मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी लेखनी से हिंदी गद्य साहित्य विशेषकर कथा साहित्य कि श्री वृद्धि की है। इनकी प्रमुख उपन्यास रचनाएं - सेवासदन, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला, गबन, प्रतिज्ञा, गोदान, मंगलसूत्र (अधूरा)। प्रसिद्ध कहानियां पंच परमेश्वर, नशा, कफन, पूस की रात, ठाकुर का कुआं, दो बैलों की कथा, दूध का दाम आदि। प्रेमचंद हिंदी कहानियों को आधुनिक तथा यथार्थ रूप देने वाले कथाकार माने जाते हैं।
प्रेमचंद एक जागरूक साहित्यकार थे। उन्होंने अपनी कहानियों में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों से जुड़े पक्षों को अपनी कहानियों उपन्यासों में उठाया है। प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य पर गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। उनके उपन्यासों विशेषकर कर्मभूमि, रंगभूमि, प्रेमाश्रम आदि में गांधीवाद को ही समर्थन दिया गया है। मुंशी प्रेमचंद एक महान कथाकार के साथ-साथ एक अच्छे समाज सुधारक भी रहें है, उन्होंने अपनी रचनओं के माध्यम सामाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया।
उनका निधन 8 अक्टूबर 1936 को हुआ.
कैफ़ी आजमी की मशहूर कविता औरत
"""औरत"""
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ कर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
तौक़ यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे""-कैफ़ी आजमी
कामशास्त्र की भारतीय परम्परा में सेक्स-जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह
कामशास्त्र की भारतीय परम्परा में सेक्स-जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह
कामसूत्र की उत्पत्ति की शास्त्रकथा बड़ी रोचक है। इस कथा का भी यदि देरीदियन मूल्यांकन किया जाए तो अनेक नए पक्षों पर रोशनी पड़ती है। पहली बात यह निकलती है कि कामशास्त्र, अर्थशास्त्र और आचार शास्त्र का हिस्सा है। आरंभ में ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों का एक विशाल ग्रंथ बनाया।उस शास्त्रार्णव का मंथन कर मनु ने एक पृथक आचार शास्त्र बनाया।जो मनुसंहिता या धर्मशास्त्र के नाम से विख्यात है। ब्रह्मा के ग्रंथ के आधार पर बृहस्पति ने ब्रार्हस्पत्यम् अर्थशास्त्र की रचना की। ब्रह्मा के ग्रंथ के आधार पर ही महादेवजी के अनुचर नंदी ने एक हजार अध्यायों के कामशास्त्र की रचना की। उसी संस्करण के आधार पर श्वेतकेतु ने पांच सौ अध्यायों का संक्षिप्त संस्करण तैयार किया। श्वेतकेतु की रचना के आधार पर बाभ्रव्य ने डेढ सौ अध्यायों का संस्करण तैयार किया। यही वह बिन्दु है जहां से कामशास्त्र की नयी परंपरा सामने आती है। बाभ्रव्य के पहले कामशास्त्र वाचिक परंपरा का अंग था,बाभ्रव्य ने ही उसे शास्त्र का रूप दिया। कालान्तर में बाभ्रव्य के कामशास्त्र में अनेक चीजें जोड़ी गईं,और अनेक अध्यायों को स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में पेश किया गया। यही वजह है कामसूत्र ग्रंथ न होकर संग्रह है।
बाभ्रव्य रचित कामशास्त्र के छठे भाग वैशिक प्रकरण को दत्तक आचार्य ने ,आचार्य चारायण ने साधारण अधिकरण, सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक अधिकरण,आचार्य घोटकमुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक, गोनर्दीय ने भार्याधिकरण, आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदारिक अधिकरण,आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक नामक अधिकरण को अलग करके संपादित किया। संभवत: बाभ्रव्य का कामशास्त्र पहला ग्रंथ है जिसकी विखंडित रूप में व्याख्या की गई। कामशास्त्र की इन विखंडित व्याख्याओं के आधार पर ही वात्स्यायन ने कामसूत्र की रचना की।
कामसूत्र के आरंभ में किसी देवी या देवता की वंदना नहीं की गई है। बल्कि कहा गया ''धर्मार्थकामेभ्यो नम:।'' धर्म,अर्थ और काम को नमस्कार है। आगे कहा '' शास्त्रे प्रकृत्वात्'' यानी इस शास्त्र में मूल रूप से धर्म,अर्थ और काम का उपदेश दिया गया है ,इसलिए धर्म,अर्थ और काम को ही नमस्कार किया गया है। जिन आचार्यों ने इन तत्वों का बोध कराया उनको नमस्कार किया गया है। इसके बाद कामसूत्रकार ने विस्तार से उस परंपरा का जिक्र किया है जिसके कारण कामशास्त्र का विमर्श हमारे सामने आया। कामसूत्र के 'शास्त्रसंग्रह प्रकरणम्' नामक पहले अध्याय में यह बताया गया है कि कामसूत्र के प्रत्येक अध्याय में क्या है और किस तरह कामसूत्र हमारे सामने आया। जयमंगला टीका को कामसूत्र की सबसे अच्छी टीका माना जाता है। इस टीका का हिन्दी अनुवाद भी है। जयमंगला टीकाकार ने अनेक ऐसी बातें इस कृति में शामिल कर दी हैं जो कृति के मूल लक्ष्य और परिप्रेक्ष्य से मेल नहीं पातीं। इनका अलग से मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
काम या सेक्स क्या है ? कामसूत्र के दूसरे अध्याय में वात्स्यायन ने 'काम' की अवधारणा पेश की है। लिखा है , '' श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानामात्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यत: प्रवृत्ति: काम:।'' अर्थात् कान, त्वचा, ऑंख,जीभ,नाक इन पाँच इन्द्रियों की इच्छानुसार शब्द, स्पर्श,रूप, रस और गंध इन विषयों में प्रवृत्ति ही काम है अथवा इन प्रवृत्तियों से आत्मा जो आनंद अनुभव करती है,उसे 'काम' कहते हैं। आगे कहा '' स्पर्शविशेषविषयात्वस्या भि माननिकसुखानुबिध्दा फलवत्यर्थ प्रतीति: प्राधान्यात्काम:।'' अर्थात् चुम्बन,आलिंगन,प्रासंगिक सुख के साथ गाल,स्तन,नितम्ब आदि विशेष अंगों के स्पर्श करने से आनंद की जो प्राप्ति होती है वह 'काम' है। इस सूत्र में 'फलवती प्रतीति'का खास अर्थ है।
कामसूत्र के चर्चित टीकाकार यशोधर ने इस शब्द का भाव चुम्बन,आलिंगन से लेकर वीर्यक्षरण पर्यन्त तक के आनंद को माना है। इसी क्रम में उन्होंने लिखा कि कामसूत्र को काम- व्यवहार निपुण व्यक्ति से जानना चाहिए।
यह मिथ जग प्रसिध्द है कि सेक्स करने के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं होती। क्योंकि पशु ,पक्षियों में सेक्स की प्रवृत्ति नजर आती है। सेक्स तो बगैर सिखाए या सीखे आ जाता है। इसके प्रत्युत्तर में कामसूत्र में लिखा है, ''संप्रयोगपराधीनत्वात् स्त्रीपुंसयोरूपायमपेक्षते।'' अर्थात् सम्भोग में पराधीन होने से स्त्री और पुरूष को उस पराधीनता से बचाने के लिए शास्त्र की अपेक्षा हुआ करती है। इसका टीकाकारों ने अर्थ किया है कि सेक्स शिक्षा भय,लज्जा,पराधीनता से मुक्त करती है। आनंद,सुखी और सम्पन्न बनाती है। दायित्वबोध, परोपकार और उदात्त भावों की सृष्टि करती है। अपने सहचर के प्रति श्रध्दा,विश्वास,हितकामना और अनुराग बढ़ाती है। कामशास्त्र के प्रति उदासीनता के कारण अनबन,कलह, व्यभिचार, असंतोष, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और अनेक शारीरिक बीमारियों के होने का खतरा है।
वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' में धर्म और अर्थ की व्याख्या सकारात्मक गतिविधि के रूप में की है ,और काम की व्याख्या नकारात्मक पक्षों के विवेचन और उनके समाधान के रूप में कामसूत्र रचा गया। यह जनप्रिय धारणा थी कि वह धर्म ,अर्थ तथा सज्जनों के विरूध्द है। इस धारणा का त्रिवर्ग प्रतिपत्तिप्रकरणम् के 32से लेकर 37 वें सूत्र तक विवेचन है।
वात्स्यायन ने सवाल किया है यदि काम से दोष उत्पन्न होते हैं तो उनके समाधान के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। यही वह मूल चिन्ता है जिसके कारण कामसूत्र के निर्माण की आवश्यकता महसूस की गई। यह मूलत: सेक्स के दुष्प्रभावों से बचने के लिए ही रचा गया ग्रंथ है। सेक्स शिक्षा इस तरह प्राप्त किया जाए जिससे किसी अन्य कार्य में बाधा न पड़े। वात्स्यायन की स्पष्ट राय है कि काम प्राप्ति की चेष्टा करनी चाहिए साथ ही उसके दोषों से बचना चाहिए। वात्स्यायन की स्पष्ट राय है कि साधारण लोगों को धर्म और अर्थ के शास्त्रों के साथ कामशास्त्र का भी ज्ञान कराया जाना चाहिए।उन्होंने लिखा है, '' धर्मार्थाङ्गविद्याकालाननुपरोधयन् कामसूत्रं तदङ्गविद्याश्च पुरूषोधीयीत।'' अर्थात् धर्मशास्त्र,अर्थशास्त्र तथा इनके अंगभूत शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही पुरूष को कामशास्त्र के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। कामसूत्र का अध्ययन स्त्री और पुरूष दोनों को करना चाहिए। स्त्री को कामशास्त्र का पिता के घर पर ही अध्ययन करना चाहिए।यदि शादी हो जाती है तो पति की अनुमति से अध्ययन करना चाहिए।
जिस तरह इन दिनों अनेक लोग यह मानते हैं कि स्त्रियों को सेक्स शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए वात्स्यायन के जमाने में भी ऐसा सोचने वाले लोग थे। वात्स्यायन ने इन सभी के तर्कों का खण्डन किया है और विस्तार से बताया है कि सेक्स शिक्षा क्यों जरूरी है। उनका मानना है कि स्त्रियों को सेक्स के व्यवहारिक पक्ष का तो ज्ञान होता है किन्तु शास्त्रज्ञान नहीं होता। अत: उन्हें कामशास्त्र का ज्ञान कराया जाना चाहिए। वात्स्यायन का यह भी मानना है कामशास्त्र की सबसे अच्छी शिक्षा स्त्री से ही मिल सकती है। क्योंकि उस जमाने में स्त्रियां ही सबसे अच्छी ज्ञाता हुआ करती थीं। स्त्रियों के लिए सेक्स शिक्षा देने वालों का अभाव रहा है।अत: उनके लिए किस तरह की स्त्री शिक्षिका हो सकती है ,इसका वर्णन करते हुए छह किस्म की औरतों का जिक्र किया है। 'जो औरत पुरूष के साथ संभोग का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो।साथ में पाली-पोसी,साथ में खेली हुई धाय की लड़की हो,अथवा निश्छल हृदय की सखी हो जो संभोग का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो, अपनी ही उम्र की मौसी, मौसी के समान विश्वासयोग्य बूढ़ी दासी, कुल-शील स्वभाव से पूर्व परिचित भिक्षुणी-संन्यासिनी, अपनी बड़ी बहिन आदि।
कामसूत्र में संभोग और प्रेम के जितने भी उपाय सुझाए हैं उनमें स्त्री और पुरूष दोनों को समान रूप से सुझाव दिए गए हैं। दोनों के लिए अलग-अलग किस्म की व्यवस्थाओं का निर्देश है। जो सुझाव दिए गए हैं वे व्यवहारिक हैं। वात्स्यायन इन्हें नैतिकता के नजरिए से नहीं देखते। इन सुझावों में भिन्न किस्म की काम मुद्राओं का व्यवस्थित विवेचन किया गया है। अधिकांश काम मुद्राओं के बारे में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में नैतिक निष्कर्ष नहीं दिया गया है। इसके बावजूद काम मुद्राओं को बताते हुए नैतिक आकांक्षाओं को समाहित कर लिया गया है। कामसूत्र की बुनियादी चिन्ता है समाज को एक व्यवस्था में बांधना , नियमित करना। स्त्री-पुरूष संबंधों को सामाजिकता के पैमाने से व्याख्यायित करना। स्त्री और पुरूष की दो भिन्न लिंग,देशज अवस्था,अभिरूचियों और मूल्यबोध की भिन्नता को स्वीकार किया गया है। भिन्नता और सहिष्णुता इसका बुनियादी आधार है।
(लेखक - जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधासिंह )
मंगलवार, 18 अक्टूबर 2022
पाक का दिल्ली में पहला टेस्ट और वो नूरजहां का दोस्त
विवेक शुक्ल
सत्तर साल पहले 16-18 अक्तूबर, 1952 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में पाकिस्तान की क्रिकेट टीम अपना पहला टेस्ट मैच खेला था। राजधानी में जाड़ा दस्तक देने लगा था। देश और दिल्ली के क्रिकेट प्रेमियों में उस सीरिज को लेकर कमाल का उत्साह था। देश के बंटवारे की स्मृतियां तब तक ताजा थीं। पहले टेस्ट को देखने के लिए फिरोजशाह कोटला मैदान दर्शकों से खेल शुरू होने से पहले ही भर जाता था। तब तक दिल्ली आज की तरह नहीं थी। ईस्ट दिल्ली में शाहदरा और कुछ गांव थे। वेस्ट दिल्ली में करोल बाग के आगे कुछ गांव और खेत थे। नई दिल्ली/ साउथ दिल्ली में सफदरजंग एयरपोर्ट के आगे कुछ नहीं था। उधर नॉर्थ दिल्ली में सिविल लाइंस को पार करते ही गिनती की कुछ कॉलोनियां और गांव थे।
भारत की कप्तानी लाला अमरनाथ कर रहे थे और पाकिस्तान के कप्तान अब्दुल हाफिज कारदार थे। कारदार ने देश के विभाजन से पहले भारतीय टीम की भी नुमाइंदगी की थी। कारदार के साथी आमिर इलाही भी भारत की तरफ खेल चुके थे। वे बड़ौदा से थे। वे भी पाक टीम में थे। उसी पाकिस्तानी टीम में फजल महमूद भी थे। वे भारत से खेले तो नहीं थे पर उन्हें 1947-48 में आस्ट्रेलिया जाने वाली भारतीय टीम के लिए चुना गया था। वे भारतीय टीम के लिए पुणे में आयोजित कैंप में शामिल भी हुए थे। पर बंटवारा हो जाने के कारण उन्होंने पाकिस्तान का रुख कर लिया था। यानी दोनों टीमों के खिलाड़ी एक-दूसरे से परिचित थे।
वो करता नूरजहां पर जान निसार
भारत में 1952 में आई पाकिस्तान की टीम के सलामी बल्लेबाज नजर मोहम्मद थे। वे सच में बहुत आशिक मिजाज इंसान थे। उनके और मशहूर गायिका मैडम नूरजहां के इश्क के किस्सों को भारत- पाकिस्तान में एक दौर में बहुत चटकारे लेकर लोग सुनते-सुनाते थे। उन्हें आप यूट्यूब पर देख सकते हैं। नजर मोहम्मद क्रिकेट के साथ-साथ मौसिकी के भी शौकीन थे। वे हैंडसम थे। नजर मोहम्मद और नूरजहां की लाहौर में एक बार मुलाकात हुई तो फिर वह रिश्ता बहुत आगे तक चला गया था।
कहने वाले कहते हैं, नजर मोहम्मद भारत का दौरा खत्म करने के बाद पाकिस्तान लौटे तो एक दिन मैडम नूरजहां के घर उनसे मुलाकात करने के लिए उनके घर चले गए। अभी बातचीत का सिलसिला शुरू ही हुई था नूरजहां के पति शौकत रिजवी घर आ गए। नजर मोहम्मद को जब यह जानकारी मिली तो उन्होंने पहली मंजिल से छलांग लगा दी। नतीजा ये हुआ कि उनके हाथों-पैरों में चोटें आईं। फिर वे कभी क्रिकेट नहीं खेल सके। मतलब यह हुआ कि इश्क ने उनका करियर तबाह कर दिया। आगे चलकर उनके पुत्र मुदस्सर नजर पाकिस्तान से कई बरसों तक खेले। नजर मोहम्मद ने देश के विभाजन से पहले पटियाला में बहुत क्रिकेट खेली थी।
किसके नाम रहा वो यादगार टेस्ट मैच
भारत-पाकिस्तान के बीच खेला गया पहला भारत के महान ऑलराउंडर वीनू मांकड़ के नाम रहा था। भारत ने पहले टास जीतकर 352 रन बनाए थे। भारत की तरफ से विजय हजारे ने 76 और हेमू अधिकारी ने 81 रनों की नाबाद पारी खेली थी। पाकिस्तान की तरफ से इलाही ने चार विकेट ली थीं। जवाब में पाकिस्तान की टीम पहली पारी में 150 रनों पर सिमट गई। उसे फोलो आन मिला। दूसरी पारी में वह 152 रन ही बना सकी। वीनू मांकड की लाजवाब गेंदबाजी के आगे पाकिस्तानी टीम के बल्लेबाज टिक नहीं सके। उन्होंने पहली पारी में 8 और दूसरी पारी में 5 विकेट लिए।
भारत ने पहला टेस्ट मजे मजे में जीत लिया था। डॉ. रवि चतुर्वेदी बताते हैं कि दिल्ली को जहां इस बात की खुशी थी कि भारत ने पाकिस्तान को शिकस्त दी, वहीं इस बात का अफसोस भी था कि टेस्ट बहुत जल्दी खत्म हो गया। बहरहाल, पहला टेस्ट मैच बिना किसी अप्रिय घटना के समाप्त हो गया था। हालांकि आशंका थी कि मैच के दौरान पाकिस्तान टीम के खिलाफ नारेबाजी होगी।
भारत-पाकिस्तान की टीमें इंपीरियल होटल में ठहरी थी। इसी होटल में 1961 में सुभाष गुप्ते की एक शर्मनाक हरकत के बाद उन्हें बड़े बे- आबरू होकर भारतीय क्रिकेट टीम से निकाल दिया गया था। यह सच है कि उनकी स्पिन गेंदों को खेलना बच्चों का खेल नहीं था। वे 1950 और 1960 के दशकों में भारतीय टीम के मत्वपूर्ण सदस्य थे। पर उनकी ओछी हरकतों ने उनके क्रिकेट करियर को तबाह कर दिया था।हुआ यह कि इंग्लैंड की टीम 1961 में भारत दौरे पर आई। वह दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में भारतीय टीम के खिलाफ टेस्ट मैच खेल रही थी। भारतीय टीम इंपीरियल होटल में ठहरी थी। उसी दौरान इंपीरियल होटल की एक महिला स्टाफर ने सुभाष गुप्ते की भारतीय टीम मैनेजमेंट से शिकायत कि वे (गुप्ते) उनके साथ शराब पीने के लिए कह रहे हैं। इस शिकायत के बाद भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने सुभाष गुप्ते को अगले टेस्ट की भारतीय टीम से बाहर कर दिया। उसके बाद उन्हें कभी भारतीय टीम में खेलने का मौका नहीं मिला। सुभाष गुप्ते बाद में त्रिनिदाद में बस गए। राजधानी के पुराने क्रिकेट प्रेमी उस शर्मनाक घटना को भूले नहीं है। गुप्ते का 31 मई 2002 को निधन हो गया था।
किसने बनवाया था इंपीरियल होटल
बात इंपीरियल होटल की चली है, तो बता दें कि यह राजधानी का पहला पांच सितारा होटल है। इसे सरदार नारायण सिंह ने बनवाया था। वे नई दिल्ली के बड़े ठेकेदार थे। अपने नाम के अनुरूप इंपीरियल होटल राजसी लगता है। इसका यूरोपियन स्टाइल का आर्किटेक्चर आंखों को सुकून देता है। नई दिल्ली के 1931 में उदघाटन वर्ष में ही यह भी शुरू हो गया था। एडविन लुटियन के सहयोगी एफ.बी.ब्लूमफील्ड थे इसके डिजाइनर। कहते हैं कि इसके निर्माण की रफ्तार पर वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन और लेडी विलिंग्डन नजर रख रहे थे। इसका निर्माण रंजीत सिंह के जिम्मे था, वे सरदार नारायण सिंह के पुत्र थे। एक पूरे इतिहास का गवाह का इंपीरियल होटल। इधर भारत के विभाजन से पहले महात्मा गांधी, पंडित नेहरु और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच कई बैठकों के दौर चले। महात्मा गांधी की जीवनी ‘दि लाइफ आफ महात्मा’ के लेखक लुईस फिशर 25 जून,1946 को दिल्ली आने पर इंपीरियल होटल में ही ठहरे थे।
विवेक शुक्ला, नवभारत टाइम्स. 18 अक्तूबर, 2022
सोमवार, 17 अक्टूबर 2022
अपनी ही कमर छलनी करती धामी सरकार / रवि अरोड़ा
पिछले दो दिनों से मैं कॉर्बेट नेशनल पार्क में हूं। यहां लगभग ढाई सौ रिसॉर्ट हैं। इनमें से 73 पिछले एक महीने से सील हैं। विगत 18 सितम्बर को ऋषिकेश के एक रिसॉर्ट वनंत्रा की रिसेप्शनिस्ट अंकिता भंडारी की हत्या के बाद प्रदेश भर में हुए बवाल से घबराई राज्य सरकार का नजला पूरे प्रदेश के रिसोर्ट्स पर उतर रहा है। चूंकि हत्या भाजपा नेता के बेटे ने अपने साथियों के साथ मिल कर की थी , इसलिये पुष्कर सिंह धामी की सरकार दबाव में है और गुस्साई राज्य की जनता को संदेश देना चाहती है कि वह न केवल इस मामले को लेकर बेहद गंभीर है अपितु राज्य में पुनः ऐसी कोई वारदात न हो इसके लिए भी संकल्पित है। अपने दामन पर लगे दाग को छुड़ाने के लिए सरकार ने जो चाबुक रिसोर्ट्स पर चलाया है उससे हर सूरत उसी की कमर छलनी होगी।
हालांकि यह तो किसी सरकारी रिकॉर्ड से तस्दीक नहीं हो पा रहा कि उत्तराखंड में कुल कितने रिसॉर्ट, होटल और गेस्ट हाऊस हैं और धामी सरकार की तिरछी नजर के चलते कितनों को सील किया गया है मगर अनुमान है कि जबरन बंद कराए गए रिसोर्ट्स और होटलों की संख्या सैकड़ों में है। जिलेवार उपलब्ध आंकड़ों के अनुरूप राज्य के सभी 34 प्रमुख पर्यटन स्थलों पर सीलिंग की कार्यवाई की गई है। ऊधम सिंह नगर में 73, ऋषिकेश में 36 और नैनीताल में 5 रिसॉर्ट को सील करने की खबरें तो अखबारों में भी प्रमुखता से छपी थीं। राज्य सरकार का कहना है कि सील किए गए रिसॉर्ट बिना अनुमति के चल रहे थे अथवा उनके बाबत एनजीटी की शिकायतें मिली थीं। ऊपरी तौर पर सीलिंग की यह कार्रवाई वाजिब ही जान पड़ती है मगर कुछ रिसॉर्ट संचालकों की मानें तो सरकार ने अपने अफसरों को खाने कमाने का एक और सुनहरा अवसर दे दिया है और मोटा खर्चा पानी लेकर खुद सरकारी आदमी तमाम अनापत्तियां उपलब्ध करा रहे हैं और पूरे राज्य में शायद ही कोई ऐसा रिसॉर्ट होगा जो हमेशा के लिए बंद हो सकेगा । बकौल उनके करोड़ों रूपए निवेश कर कोई जुआ भला क्यों खेलेगा ? सरकार जिस फूड लाइसेंस अथवा फायर की एनओसी के रिन्यू न होने जैसी छोटी मोटी औपचारिकता के नाम पर हमेशा के लिए तो ये बड़े बड़े प्रोजेक्ट बंद नहीं करा सकती। हां इसका यह असर जरूर होगा कि राज्य में नए रिसॉर्ट खुलने बंद हो जाएंगे और प्रदेश को ही इससे राजस्व की हानि होगी।
यह किससे छुपा है कि उत्तराखंड राज्य की माली हालत बेहद नाजुक है और केन्द्र सरकार की योजनाओं और एक्साइज ड्यूटी व जीएसटी से ही उसका गुज़ारा होता है। राज्य की 2 करोड़ 31 लाख की आबादी में से अधिकांश परिवार राज्य से बाहर काम कर रहे अपने लोगों के मनीआर्डर, अपने फौजियों द्वारा भेजे गए वेतन और विभिन्न पेंशनों से ही गुजारा करते हैं। राज्य में उद्योग धंधे न के बराबर हैं जिसका नतीजा है कि गांव के गांव खाली हो रहे हैं और रोजगार के लिए युवा पीढ़ी दूसरे राज्यों में जाकर बस रही है। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार पिछले दस सालों में पांच लाख से अधिक लोग यहां से पलायन कर गए । उधर, पिछले कुछ दशकों में सड़कों का अच्छा जाल बिछ जाने के कारण पर्यटन के व्यवसाय ने जरूर तेजी पकड़ी है। कुदरती खूबसूरती में यूं भी उत्तराखंड का कोई सानी नहीं है। इसी खूबसूरती को देखने लोगबाग देश दुनिया से इतनी बड़ी तादाद में आते हैं कि सीजन में मुंह मांगे दामों पर भी रहने की जगह नहीं मिलती। राज्य सरकार द्वारा चलाए गए ताजा हंटर से यकीनन नए रिसॉर्ट और होटल खुलने में दिक्कत आएगी और इससे सरकार को राजस्व और जनता को रोज़गार से हाथ धोना पड़ेगा ।
गर्व है कि भारत में ही कथा का जन्म हुआ: संजयद्विवेदी
नयी दिल्ली,17 अक्टूबर (वार्ता)
भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो (डॉ) संजय द्विवेदी ने सोमवार को कहा कि भारत विश्व का पहला देश है, जहां कथा का जन्म हुआ और यह गर्व का विषय है कि किस्सागोई की परंपरा भारत से ही पूरे विश्व में फैली है।
श्री द्विवेदी ने गाजियाबाद में आयोजित मीडिया 360 लिटरेरी फाउंडेशन द्वारा आयोजित 'कथा संवाद' कार्यक्रम के दौरान कहा, “ हमारी वाचिक परंपरा ने ही वेद, पुराण, उपनिषद और अन्य ग्रंथों को संरक्षित करने का काम किया है। हमारी पौराणिक कथाएं लोकरंजन के अलावा हमें लोक संस्कृति एवं लोकाचार से जोड़ने का काम करती हैं। ” कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. द्विवेदी ने कहा, “ भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद की अनेक धाराएं है। शास्त्रार्थ हमारे लोकजीवन का हिस्सा है। हमें उन पर ध्यान देने की जरूरत है। सुसंवाद से ही सुंदर समाज की रचना संभव है। ” उन्होंने कहा कि कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो ‘लोक’ में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना, लोकचेतना ही है और लोकचेतना वेदों से भी पुरानी है, क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं। गाजियाबाद में आयोजित इस कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध शायरा एवं कथाकार रेणु हुसैन मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हुईं। कार्यक्रम के संयोजक सुभाष चंदर ने कहा कि नए रचनाकारों को ध्यान रखना चाहिए कि लेखन विन्यास की वह प्रक्रिया है, जिसमें एक सलाई लेखक के तो दूसरी पाठक के हाथ में होती है। बंधन ढ़ीला होते ही पाठक कट जाता है।
इस अवसर पर डॉ. पूनम सिंह एवं तेजवीर सिंह को 'दीप स्मृति कथा सम्मान' एवं मनु लक्ष्मी मिश्रा को 'किआन कथा सम्मान' प्रदान किया गया। कार्यक्रम में प्रो. अशोक सिन्हा के उपन्यास 'एक रूह दो दिल' (अनुवाद), मधु अरोड़ा के कहानी संग्रह 'तमाशा' जवाहर चौधरी के काव्य संग्रह 'गांधी जी की लाठी में कोंपलें' एवं डॉ. कायनात काजी के यात्रा वृत्तांत 'देवगढ़ के गोंड' का भी विमोचन किया गया।
रविवार, 16 अक्टूबर 2022
हमारी वाचिक परंपरा को समृद्ध कर रहा है "कथा संवाद" : डॉ. संजय द्विवेदी
हमारी वाचिक परंपरा को समृद्ध कर रहा है "कथा संवाद" : डॉ. संजय द्विवेदी
कथा संरक्षण में मील का पत्थर हैं ऐसे आयोजन : रेणु हुसैन
कहानियों के जरिए मानवीय सरोकारों की हुई पड़ताल
संवाददाता
गाजियाबाद। भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि भारत विश्व का पहला देश है जहां कथा का जन्म हुआ। हमें गर्व है कि किस्सागोई की परंपरा हमसे ही पूरे विश्व में फैली है। हमारी वाचिक परंपरा ने ही वेद, पुराण, उपनिषद व अन्य ग्रंथों को संरक्षित करने का काम किया है। हमारी पौराणिक कथाएं लोकरंजन के अलावा हमें लोक संस्कृति व लोकाचार से जोड़ने का काम करती हैं। मीडिया 360 लिट्रेरी फाउंडेशन के "कथा संवाद" में बतौर अध्यक्ष उन्होंने कहा कि किस्सागोई के आयोजन महाराष्ट्र में ही देखने को मिलते थे, लेकिन आज कथा संवाद जैसे आयोजन इसे समृद्ध करने का बड़ा काम कर रहे हैं।
होटल रेडबरी में आयोजित कथा संवाद में मुख्य अतिथि रेणु हुसैन ने कहा कि आज जब हम कहानी पर गहराते संकट पर चिंता जताते हैं तो हमें आश्वस्त होना चाहिए कि ऐसी कार्यशालाएं भी हैं जो
कहानी को संरक्षित करने का काम कर रही हैं। उन्होंने कहा कि "कथा संवाद" जैसे आयोजन कथा-कहानी को संरक्षित करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होंगे। उन्होंने "वह दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत थी", अर्चना शर्मा ने "वो कहां था", पुष्पा जोशी ने "उत्तराधिकारी", रिंकल शर्मा ने "प्यारा सा ठग", रश्मि वर्मा ने "फोर बैडरूम फ्लैट", मीडिया 360 लिट्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष शिवराज सिंह ने कहानी "इकलौती" एवं सिनीवाली ने अपने उपन्यास अंश का पाठ किया। सभी रचनाओं की मुक्त कंठ से सराहना की गई। संयोजक सुभाष चंदर ने कहा कि नए रचनाकारों को ध्यान रखना चाहिए कि लेखन विन्यास की वह प्रक्रिया है जिसमें एक सलाई लेखक के तो दूसरी पाठक के हाथ में होती है। बंधन ढ़ीला होते ही पाठक कट जाता है। आयोजक आलोक यात्री ने कहा कि सोशल मीडिया साहित्य में बोनसाई संस्कृति को जन्म दे रहा है। "कथा संवाद" जैसी कार्यशाला के जरिए कहानी के अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट को दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके सुखद परिणाम निरंतर सामने आ रहे हैं।
कहानियों पर विमर्श में विपिन जैन, डॉ. महकार सिंह, सुरेंद्र सिंघल, अनिल शर्मा, अक्षयवर नाथ श्रीवास्तव, डॉ. पूनम सिंह, डॉ. बीना शर्मा, वागीश शर्मा, तेजवीर सिंह, मुकेश भटनागर, देवव्रत चौधरी ने सक्रिय हिस्सेदारी निभाई। कार्यक्रम का संचालन रिंकल शर्मा ने किया। इस मौके पर डॉ. पूनम सिंह एवं तेजवीर सिंह को "दीप स्मृति कथा सम्मान" व मनु लक्ष्मी मिश्रा को "किआन कथा सम्मान" प्रदान किया गया। "किआन कथा सम्मान" व अद्विक प्रकाशन के संस्थापक अशोक गुप्ता ने अपने उद्बोधन में कहा कि आज के दौर के कलमकारों के बीच पुस्तक प्रकाशन की स्पर्धा जिस तेजी से बढ़ रही है उसी रफ्तार से स्तरीय लेखन पीछे छूटता जा रहा है। गुणवत्ता और परिमाण का अंतर साहित्य की सेहत के लिए घातक है। इस अंतर को पाटने और साहित्य को स्थापित करने का काम "कथा संवाद" जैसे मंचों के माध्यम से ही संभव है। इस अवसर पर प्रो. अशोक सिन्हा के उपन्यास "एक रूह दो दिल" (अनुवाद), मधु अरोड़ा के कहानी संग्रह "तमाशा", जवाहर चौधरी के काव्य संग्रह "गांधी जी की लाठी में कोंपलें" एवं डॉ. कायनात क़ाज़ी के यात्रा वृत्तांत "देवगढ़ के गोंड" का भी विमोचन किया गया। इन पुस्तकों का प्रकाशन अद्विक प्रकाशन द्वारा ही किया गया है।
इस अवसर पर डॉ. तारा गुप्ता, सुशील कुमार शर्मा, डॉ. प्रीति कौशिक, अनिमेष शर्मा, शकील अहमद सैफ, सत्यनारायण शर्मा, राष्ट्रवर्धन अरोड़ा, पराग कौशिक, आर. एल. शर्मा, शैलजा सिंह, अविनाश, प्रभात चौधरी, योगेश सिंह, अभिषेक कौशिक, सिमरन, कपिल कुमार, संगीता चौधरी, अजय कुमार, प्रभाकर नागपाल, साजिद खान सहित बड़ी संख्या में श्रोता मौजूद थे। कार्यक्रम का समापन लेखक शेखर जोशी को श्रद्धांजलि से हुआ।
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स्त्री पीड़ा / सीमा "मधुरिमा"
इतिहास में नहीं दर्ज होते हैं..../ सीमा "मधुरिमा"
स्त्री की पीड़ा कभी इतिहास में नहीं दर्ज हुआ ---
इतिहास में दर्ज होती है पुरुष की सफलता ---
झंडे गड़ते हैं पुरुष के नाम के
वाह वाही होती है
पिता और भाई....और पति के नाम के
पर इस वाह वाही के पीछे
होती हैं ( गुप्त.और प्रत्यक्ष रुप से)
अनेक स्त्रियों की अनेकों अंतहीन पीड़ाएँ
जो गाने की नहीं, महसूस करने के लिए होती हैं...
मगर,
जिन्हें महसूसती भी एक स्त्री ही है ---
उसकी आँखों से बहती है अविरल अश्रु धारा....
जो अदृश्य होती है...
और भोजन के स्वाद में नमक बन
सबके मन को तृप्ति देती है ---
ये जो तृप्तियाँ होती हैं न्
उसके पीछे छिपे होते हैं
ऐसे ही अनकहे और अनगाये
सैकड़ों इतिहास ---
स्त्री की पीड़ा कभी इतिहास का विषय नहीं रहा ---
और ज़ब स्त्री मुखर होती है अपनी पीड़ा के लिए...
तब ये पुरुषवादी सत्ता
चुप करा देता है उसे
लगाकर अनेकों आरोप --
जिसमें सर्वोपरि होता है
बदचलनी का आरोप ---
जिसे सुन स्त्री तिलमिला जाती है
और फिर वो चुप हो जाती है
वैसे ही जैसे उसकी पीड़ा भी बोलना बंद कर देती है....
और स्त्री सहनशीलता की मूर्ति हो जाती है....जिसको नमन करता है समाज ----
सीमा "मधुरिमा"
लखनऊ!
गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022
करवा चौथ
*सभी पति पत्नी को करवा चौथ पर्व की मंगल कामनाओं के साथ समार्पित यह शब्द पर्ण*
*इस पर्व पर पत्नि के मन के सुंदर भाव, पतियों को भी चाहिए कि वो इन अनमोल भावनाओ का सम्मान करे👇🏻👇🏻*
नहीं जानती हूँ कि...
*व्रत से आपकी आयु बढ़ेगी या नहीं* पर...
👉🏻 अच्छा लगता है आपके लम्बे साथ की दुआ करना
*चंद्रदेव की प्रतीक्षा व्याकुल करती है किन्तु*...
👉🏻 अच्छा लगता है आपके संग विशाल आकाश को ताकना
👉🏻 अच्छा लगता है चंद्रदेव के बाद अपने पति परमेश्वर को देखना
👉🏻 अच्छा लगता है छलनी के पीछे से आपका यूँ मुस्करा के मुझे छेड़ना
*नहीं जानती मेरे अर्पित जल अर्ध्य से चंद्रदेव को कोई सरोकार है या नहीं* पर
👉🏻 अच्छा लगता है आपके हाथ से दो घूँट पीना
👉🏻 अच्छा लगता है आपका खिलाया इक कौर
👉🏻 अच्छा लगता है मेरी भूख प्यास की आपको इतनी चिन्ता होना
*साज सिंगार के बिना भी पसन्द हूँ मैं आपको* पर
👉🏻 अच्छा लगता है आपके लिये सजना
👉🏻 अच्छा लगता है फिर से आपकी दुल्हन बनना
👉🏻 अच्छा लगता है आपका मुझे यूँ अपना चाँद कहना
*नही जानती कि व्रत से आपकी आयु बढ़ेगी या नहीं* पर
👉🏻 अच्छा लगता है तुम्हारे लम्बे *साथ* की ईश्वर से प्रार्थना करना
🌹🌹💝💘💖💞🌹🌹
*करवाचौथ*
*की सभी को*
*हार्दिक शुभकामनायें*
🌹🌹💝💘💖💞🌹🌹
*अंत में अपनों से अपनी बात*
बंधुओं एक महात्मा से भेंट होने पर उन्होंने मुझे बताया था कि सारी दुनिया में संस्कारों के पतन के कारण वहां की सामाजिक व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है ।
परिवार व्यवस्था लगभग समाप्त हो चुकी है ।
सब सिर्फ स्वयं के बारे में ही सोचने लगे हैं जिससे *बहुपत्नी एवं बहुपति* जैसी कुसंस्कृति पनपने लगी है ।
नैतिकता और संस्कार समाप्त प्राय हो चुके है ।
लेकिन भारत में आज भी नैतिकता और संस्कार जीवंत है तो उसका मूल कारण है *भारत वर्ष की मातृशक्ति* जो आज भी भारत के अनेकानेक पुरुषों के दुर्व्यसनों, दुराचारों, दुष्कर्मों, दुर्भावनाओं के बावजूद अपनी संस्कृति अपने संस्कारों का ध्वज थामे लगातार विश्व को एक नई राह दिखा रही है
इसलिए मातृशक्ति का सम्मान कीजिए क्योंकि हमारे पूर्वज हमारे ऋषि गण कह कर गए हैं कि
*यस्य नार्यस्तु पूजते*
*रमंते तत्र देवता*
🙏🙏🙏🌹🌹🙏🙏🙏
बालवाटिका का देवेंद्र कुमार विशेषांक लोकार्पित.
लोकार्पण समारोह की संक्षिप्त मगर मीठी मीठी बातों यादों का जायका
आपको अवगत कराते हुए प्रसन्नता है कि 'बालवाटिका' मासिक के बालसाहित्य पुरोधाओं पर केंद्रित प्रकाशित विशेषांकों की श्रृंखला में कल 12 अक्टूबर को एक और कड़ी जुड़ गयी जबकि प्रख्यात बालसाहित्य रचनाकर और प्रतिष्ठित बालपत्रिका के 27 वर्षों तक सहायक संपादक रहे श्री देवेंद्र कुमार जी पर केंद्रित विशेषांक का लोकार्पण उनके सान्निध्य में दिल्ली स्थित उनके निवास पर हुआ। यह उल्लेखनीय है कि दिल्ली में लोकार्पित होने वाला यह छठा विशेषांक है।
इस अवसर पर प्रख्यात् बालसाहित्य रचनाकर एवं आलोचक डॉ. दिविक रमेश, नंदन की पूर्व सहायक संपादक एवं प्रतिष्ठित बालसाहित्य रचनाकर क्षमा शर्मा, सुनीता तिवारी, जाने - माने बालसाहित्य रचनाकर और दैनिक हिंदुस्तान के सहायक संपादक श्याम सुशील, जवाहर व्यापार भवन के पूर्व हिंदी महाप्रबंधक किशोर कौशल, हिंदी और राजस्थानी के कवि तथा बालसाहित्य रचनाकर नंदकिशोर निर्झर आदि की उपस्थिति ने इस कार्यक्रम को अतिरिक्त गरिमा प्रदान की। श्रद्धेय देवेंद्र कुमार जी, डाॅ. दिविक रमेश जी सहित सभी की विचाराभिव्यकति अत्यंत प्रासंगिक और सार्थक रही।
इस अवसर पर डाॅ. शकुंतला कालरा जी ने देवेंद्र कुमार जी एवं बालवाटिका के संपादक डॉ.भैंरूलाल गर्ग को शाॅल ओढ़ा कर और अपनी पुस्तकें भेंट कर सम्मानित किया।
यद्यपि यह कार्यक्रम एकदम अनौपचारिक और घरेलू स्तर पर आयोजित था लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से किसी राष्ट्रीय संगोष्ठी से कम नहीं रहा। यों इस कार्यक्रम में चार प्रदेशों के की उपस्थिति ने इसे राष्ट्रीय स्तर का तो बना ही दिया।
देवेंद्र कुमार जी एवं उनके परिवार ने दिनभर जलपान - चाय - नाश्ता, भोजन आदि की दृष्टि से अत्यंत आत्मीयतापूर्ण जो आतिथ्य किया, वह हम कभी भूल नहीं पाएंँगे। ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं।
ताज्जुब की बात // ऋतुराज वर्षा@
ताज्जुब की बात / ऋतुराज वर्षा
देखकर जमाने को मुझे भी जीना आ गया।
दीदार कर लिया जब शंभू का एकबार,
फिर नहीं किसी की हमें दरका.र।
हुनर सारे ज़माने की सीखे बिना आ गया।
***************
आज कैसे-कैसे बदल रहे मिजाज लोगों की।
मगर कोई बात नहीं,
हमें डर किसी का नहीं,
हमें तो हर मसले से वाकिफ होना आ गया।
****************
खैर वह अपनी मनाये।
सोते हुए भी जिन्हें खौफ सतायें।
उनका ज़ख्म सदा के लिए पुराना हो गया।
हमें तो हर हाल में जिंदगी से याराना हो गया।
***************
मस्त रहे हम गर्दिश में भी,
नाम ऋतुराज वर्षा मेरा,
मानो बारिश की फुहारों का महीना आ गया।
*****************
सच कह दूं एक बात जीते थे हम जिन्हें देखकर,
वह बंगलें में पड़े हैं किराये देकर।
चक्कर देखो गणित और इतिहास का।
मालूम नहीं उन्हें निष्कर्ष अपने कर्तव्य का,
बस छह-पांच में अटके पड़े हैं।
आता नहीं कुछ भी
मानसपटल उनका खाली हो गया।
**************
फिर भी झूठी शान के लिए वह चाणक्य बन गया।
ताज्जुब की बात है,
सिसकियों से जिन्हें फुर्सत नहीं, दिन है कि रात है।
हमारी खुशियां देखकर उन्हें पसीना आ गया।
देखकर जमाने को मुझे भी जीना आ गया।
@ऋतुराज वर्षा@
महाभारत युद्ध का सबसे बड़ा खलनायक_कौन_?🌳*
*🌳(महाभारत युद्ध)
खलनायक_कौन_?
🌳*
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☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
*🌳आमतौर पर खलनायक एक ऐसा बुरा व्यक्ति होता है जिसमें आम मानवीय भावनाएं नहीं होती हैं। वह धर्म-विरुद्ध आचरण करता है और अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके अपने हितों की रक्षा कर अपने तरीके से जीवन या चीजों को संचालित करता है। उपरोक्त लिखी हुई बातों को ध्यान रखेंगे तो आपको पता चलेगा कि कौन खलनायक हो सकते हैं।*
*🌳कुरुक्षेत्र में लड़ा गया महाभारत का युद्ध भयंकर युद्ध था। इससे भारत का पतन हो गया। इस युद्ध में संपूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के राजाओं ने भी भाग लिया और सब के सब वीरगति को प्राप्त हो गए। लाखों महिलाएं विधवा हो गईं। इस युद्ध के परिणामस्वरूप भारत से वैदिक धर्म, समाज, संस्कृति और सभ्यता का पतन हो गया। इस युद्ध के बाद से ही अखंड भारत बहुधर्मी और बहुसंस्कृति का देश बनकर खंड-खंड होता चला गया।*
*🌳अब सवाल यह उठता है कि आखिर कौन इस युद्ध का जिम्मेदार था और कौन इस युद्ध का सबसे बड़ा खलनायक था? आलोचक कहते हैं कि पांडवों ने संपूर्ण युद्ध छलपूर्वक जीता और जो जीतता है इतिहास उसे ही नायक मानता है। ऐसे में यह कैसे तय होगा कि नायक कौन और खलनायक कौन?*
*🌳महाभारत युद्ध में सबसे बड़ा खलनायक कौन था? सभी इसका जवाब या तो शकुनि देंगे या फिर दुर्योधन। हो सकता है कि कुछ लोग धृतराष्ट्र या दु:शासन का नाम ले या यह भी हो सकता है कि कुछ लोग कर्ण या भीष्म का नाम लें।*
*🌳आओ हम जानते हैं... कौन था सबसे बड़ा खलनायक... यह जानने से पहले कौन कौन शामिल थे युद्ध में...???*
*🌳कौरवों की ओर से :-* कौरवों की ओर से दुर्योधन व उसके 99 भाइयों सहित भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, मद्रनरेश शल्य (श्रीराम की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए), भूरिश्रवा, अलम्बुष, कृतवर्मा कलिंगराज श्रुतायुध, शकुनि, भगदत्त, जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण और बृहद्वल युद्ध में शामिल थे।
*🌳पांडवों की ओर से :-* पांडवों की ओर से युधिष्ठिर व उनके 4 भाई भीम, नकुल, सहदेव, अर्जुन सहित सात्यकि, अभिमन्यु, घटोत्कच, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, पांड्यराज, युयुत्सु, कुंतीभोज, उत्तमौजा, शैब्य और अनूपराज नील युद्ध में शामिल थे।
*🌳इस तरह सभी महारथियों की सेनाओं को मिलाकर कुल 1 करोड़ से ज्यादा लोगों ने इस युद्ध में भाग लिया था। उस काल में धरती की जनसंख्या ज्यादा नहीं थी।*
*🌳कृष्ण की सेना लड़ी थी दुर्योधन की ओर से :-* पांडवों और कौरवों द्वारा यादवों से सहायता मांगने पर श्रीकृष्ण ने पहले तो युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की और फिर कहा कि एक तरफ मैं अकेला और दूसरी तरफ मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना होगी।
*🌳अब अर्जुन व दुर्योधन को इनमें से एक का चुनाव करना था। अर्जुन ने तो श्रीकृष्ण को ही चुना, तब श्रीकृष्ण ने अपनी एक अक्षौहिणी सेना दुर्योधन को दे दी और खुद अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया। इस प्रकार कौरवों ने 11 अक्षौहिणी तथा पांडवों ने 7 अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली।*
*🌳पहला खलनायक, भीष्म : -* कुछ विद्वान कहते हैं कि देवव्रत (भीष्म) को खलनायक माना जाना चाहिए। भीष्म ने अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका की भावनाओं को कुचलकर जो कार्य किया वह अमानवीय था। आज वे ऐसा करते तो जेल में होते। भीष्म ने ऐसे कई अपराध किए, जो किसी भी तरह से धर्म द्वारा उचित नहीं थे इसलिए कहा जाता है कि वे अधर्म के साथ होने के कारण आदर्श चरित्र नहीं हो सकते।
*🌳शांतनु सत्यवती के रूप और सौंदर्य से मुग्ध होकर उससे प्यार करने लगे थे और वे उससे विवाह करना चाहते थे लेकिन सत्यवती ने उनके समक्ष ऐसी शर्त रख दी थी जिसे कि वे पूरी नहीं कर सकते थे। इसके कारण वे दुखी और उदास रहते थे। जब भीष्म को इसका कारण पता चला तो उन्होंने सत्यवती की शर्त मानकर अपने पिता शांतनु का विवाह सत्यवती से करवा दिया था। सत्यवती के कारण ही भीष्म को आजीवन ब्रह्मचर्य रहने की कसम खानी पड़ी थी।*
*🌳सत्यवती के कहने पर ही भीष्म ने काशी नरेश की 3 पुत्रियों (अम्बा, अम्बालिका और अम्बिका) का अपहरण किया था। बाद में अम्बा को छोड़कर सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य से अम्बालिका और अम्बिका का विवाह करा दिया था।*
*🌳गांधारी और उनके पिता सुबल की इच्छा के विरुद्ध भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से करवाया था। माना जाता है कि इसीलिए गांधारी ने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। आखिर अंत में गांधारी को दावाग्नि में जलकर खुद के प्राणों का अंत करना पड़ा था।*
*🌳भरी सभा में जब द्रौपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था तो भीष्म चुप बैठे थे। भीष्म ने जानते-बुझते दुर्योधन और शकुनि के अनैतिक और छलपूर्ण खेल को चलने दिया। शरशैया पर भीष्म जब मृत्यु का सामना कर रहे थे, तब भीष्म ने द्रौपदी से इसके लिए क्षमा भी मांगी थी।*
*🌳जब कौरवों की सेना जीत रही थी ऐसे में भीष्म ने ऐन वक्त पर पांडवों को अपनी मृत्यु का राज बताकर कौरवों के साथ धोखा किया था?*
*🌳फिर भी भीष्म को किसी भी तरह से खलनायक नहीं माना जा सकता, क्योंकि भीष्म ने जो भी किया वह हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा और कुरुवंश को बचाने के लिए किया। तो फिर सबसे बड़ा खलनायक कौन था?*
*🌳दूसरा खलनायक, धृतराष्ट्र : -* सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुए। पहला अल्पावस्था में मर गया तो दूसरे का विवाह काशी नरेश की पुत्री अम्बिका और अम्बालिका से किया गया, लेकिन इन दोनों से विचित्रवीर्य को कोई संतान नहीं हुई तब सत्यवती ने अपने पराशर से उत्पन्न पुत्र वेदव्यास के माध्यम से अम्बिका और अम्बालिका से पुत्र उत्पन्न कराए। अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पांडु का जन्म हुआ। उसी दौरान सत्यवती ने एक दासी से भी वेदव्यास को 'नियोग' करने का कहा जिससे विदुर जन्मे।
*🌳पांडु तो शापवश जंगल चले गए, ऐसे में धृतरष्ट्र को सिंहासन मिला। किंवदंती है कि गांधारी धृतराष्ट्र से विवाह नहीं करना चाहती थी लेकिन भीष्म ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से कराया था। लेकिन जब विवाह हो ही गया तब गांधारी ने सबकुछ भूलकर अपना जीवन पति-सेवा में लगा दिया। जब गांधारी गर्भ से थी तब धृतराष्ट्र ने अपनी ही सेविका के साथ सहवास किया जिससे उनको युयुत्सु नाम का एक पुत्र मिला।*
*🌳गांधारी के लाख समझाने के बावजूद धृतराष्ट्र ने अपने श्वसुर (गांधारी के पिता) और उसके पुत्रों (गांधारी के भाई) को आजीवन कारागार में डाल दिया था। क्यों? इसके लिए पढ़े मामा शकुनि थे कौरवों के दुश्मन नामक लेख।*
*🌳वयोवृद्ध और ज्ञानी होने के बावजूद धृतराष्ट्र के मुंह से कभी न्यायसंगत बात नहीं निकली। पुत्रमोह में उन्होंने कभी गांधारी की न्यायोचित बात पर ध्यान नहीं दिया। गांधारी के अलावा संजय भी उनको न्यायोचित बातों से अवगत कराकर राज्य और धर्म के हितों की बात बताता था, लेकिन वे संजय की बातों को नहीं मानते थे। वे हमेशा ही शकुनि और दुर्योधन की बातों को ही सच मानते थे। वे जानते थे कि यह अधर्म और अन्याय कर रहे हैं फिर भी वे पुत्र का ही साथ देते थे। अधर्म का साथ देने वाला कैसे नहीं खलनायक हो सकता है?*
*🌳तीसरा खलनायक, दुर्योधन : -* दुर्योधन की जिद, अहंकार और लालच ने लोगों को युद्घ की आग में झोंक दिया था इसलिए दुर्योधन को महाभारत का खलनायक कहा जाता है। महाभारत की कथा में ऐसा प्रसंग भी आया है कि दुर्योधन ने काम-पीड़ित होकर कुंवारी कन्याओं का अपहरण किया था।
*🌳द्यूतक्रीड़ा में पांडवों के हार जाने पर जब दुर्योधन भरी सभा में द्रौपदी का का अपमान कर रहा था, तब गांधारी ने भी इसका विरोध किया था फिर भी दुर्योधन नहीं माना था। यह आचरण धर्म-विरुद्ध ही तो था। जब दुर्योधन को लगा कि अब तो युद्ध होने वाला है तो वह महाभारत युद्घ के अंतिम समय में अपनी माता के समक्ष नग्न खड़ा होने के लिए भी तैयार हो गया।*
*🌳महाभारत में दुर्योधन के अनाचार और अत्याचार के किस्से भरे पड़े हैं। पांडवों को बिना किसी अपराध के उसने ही तो जलाकर मारने की योजना को मंजूरी दी थी।*
*🌳चौथा खलनायक, अश्वत्थामा: -* माना जाता है कि अश्वत्थामा इस युद्ध का सबसे बड़ा खलनायक थे, क्योंकि उनके ही अप्रत्यक्ष संचालन में युद्ध चल रहा था। युद्ध में सबसे शक्तिशाली वही एकमात्र योद्धा थे। गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा युद्ध की संपूर्ण कलाओं के ज्ञाता थे। उन्हें संपूर्ण वेदों और धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। द्रोण ने अपने शिष्यों को हर तरह की शिक्षा दी थी लेकिन कुछ ऐसी विद्याएं और शिक्षाएं थीं, जो सिर्फ अश्वत्थामा ही जानते थे।
*🌳अश्वत्थामा महाभारत युद्ध में कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के 10 पुत्रों का वध किया।*
*🌳जब पिता-पुत्र की जोड़ी (द्रोण-अश्वत्थामा) से महाभारत युद्ध में पांडवों की सेना में भय व्याप्त हो गया था और सेना तितर-बितर हो गई थी, तब पांडवों की सेना की हार देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से छलनीति का सहारा लेने को कहा, लेकिन युधिष्ठिर इसके लिए तैयार नहीं हुए। सभी के कहने पर युधिष्ठिर माने।*
*🌳इस योजना के तहत युद्धभूमि पर यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'। जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा के मारे जाने की सत्यता जानना चाही, क्योंकि द्रोण जानते थे कि युधिष्ठिर कभी झूठ नहीं बोलेंगे। तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया- 'हां, अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।'*
*🌳जब युधिष्ठिर के मुख से 'हाथी' शब्द निकला, तब श्रीकृष्ण ने उसी समय जोर से शंखनाद कर दिया जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द नहीं सुन पाए और वे अपने प्रिय पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनकर हताश हो गए और उन्होंने अपने शस्त्र त्याग दिए और युद्धभूमि में आंखें बंद कर शोक अवस्था में भूमि पर बैठ गए।*
*🌳गुरु द्रोणाचार्य को इस अवस्था में देखकर द्रौपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह युद्ध की सबसे भयंकर घटना थी। इस छल ने अश्वत्थामा को क्रोधित कर दिया।*
*🌳अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया जिसके चलते पांडवों की सारी सेना मारी जाती है। कृष्ण ने पांडवों से कहा कि तुम तुरंत ही रथ से उतरकर इस नारायणास्त्र की शरण में चले जाओ, यही बचने का एकमात्र उपाय है। सभी पांडव भूमि पर घुटने टेककर हाथ जोड़कर बैठ जाते हैं। नारायण अस्त्र का प्रतिशोध नहीं करने से सभी बच जाते हैं।*
*🌳यह युद्ध का अंतिम दौर चल रहा था। दुर्योधन की जान संकट में पड़ गई थी। वह भीम से गदा युद्ध हार गया था। दुर्योधन के हारते ही पांडवों की जीत पक्की हो गई थी। सभी पांडव खेमे के लोग जीत की खुशी मना रहे थे। अश्वत्थामा दुर्योधन की यह हालत देखकर और दुखी हो जाता है।*
*🌳एक उल्लू द्वारा रात्रि को कौवे पर आक्रमण करने एक उल्लू उन सभी को मार देता है। यह घटना देखकर अश्वत्थामा के मन में भी यही विचार आता है और वह घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शिविर में पहुंचकर सोते हुए पांडवों के 5 पुत्रों को पांडव समझकर उनका सिर काट देता है। इस घटना से धृष्टद्युम्न जाग जाता है तो अश्वत्थामा उसका भी वध कर देता है।*
*🌳अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी निंदा करते हैं। अपने पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगती है। उसके विलाप को सुनकर अर्जुन उस नीच-कर्म हत्यारे ब्राह्मण पुत्र अश्वत्थामा के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा लेते हैं। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकलता है, तब श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव-धनुष लेकर अर्जुन उसका पीछा करता है। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण वह अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देता है।*
*🌳मजबूरी में अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ता है। ऋषियों की प्रार्थना पर अर्जुन तो अपना अस्त्र वापस ले लेता है लेकिन अश्वत्थामा अपना ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की विधवा उत्तरा की कोख की तरफ मोड़ देता है। कृष्ण अपनी शक्ति से उत्तरा के गर्भ को बचा लेते हैं।*
*🌳अंत में श्रीकृष्ण बोलते हैं, 'हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोए हुए, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।'*
*🌳श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनने के बाद भी अर्जुन को अपने गुरुपुत्र पर दया आ गई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष खड़ा कर दिया। पशु की तरह बंधे हुए गुरुपुत्र को देखकर द्रौपदी ने कहा, 'हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बंदी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्रशोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरंतर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्रलौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिए।'*
*🌳द्रौपदी के इन धर्मयुक्त वचनों को सुनकर सभी ने उसकी प्रशंसा की। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दंड न देना भी पाप है अतः तुम वही करो जो उचित है।'*
*🌳उनकी बात को समझकर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। बाद में श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 6 हजार साल तक भटकने का शाप दिया। अंत में अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।*
*🌳सबसे बड़ा खलनायक, शकुनि : -* बहुत से लोग कहते हैं कि शकुनि नहीं होता तो महाभारत का युद्ध नहीं होता। सब कुछ ठीक चल रहा था। कौरवों और पांडवों में किसी प्रकार का मतभेद नहीं था, लेकिन शकुनि ने दोनों के बीच प्रतिष्ठा और सम्मान की लड़ाई पैदा कर दी। शकुनि ने ही दुर्योधन के मन में पांडवों के प्रति वैरभाव बिठाया था। शकुनि ने सिर्फ यही कार्य नहीं किया, उसने दुर्योधन सहित धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों के चरित्र को बिगाड़ने का कार्य किया। उसका दिमाग छल, कपट और अनीति से परिपूर्ण था।
*🌳शकुनि मामा थे कौरवों के दुश्मन :-* गांधारी की इच्छा के विरुद्ध भीष्म ने उसका विवाह धृतराष्ट्र से कराया था। यह बात शकुनि भूला नहीं था। उसने अपने तड़पते पिता की मृत्यु को देखा था। उसके सामने ही उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया था। ऐसे में उसके मन में क्या धृतराष्ट्र और कौरवों के प्रति अच्छे भाव रह सकते हैं?
*🌳माना जाता है कि शकुनि कौरवों और पांडवों दोनों के ही दुश्मन थे और वे दोनों का ही नाश देखना चाहते थे, क्योंकि धृतराष्ट्र ने शकुनि के माता-पिता, भाई और बहन को कारागार में बंद कर भूखों मार दिया था।*
*🚩🚩🌺राधे_राधे🌺🚩🚩*
बुधवार, 12 अक्टूबर 2022
मीठी बोली भूल गया " / अनंग
मीठी बोली भूल गया /अनंग
बाजारों के चकाचौंध में , गोबर होली भूल गया।
खरी-खड़ी वह बोल रहा है,मीठी बोली भूल गया।।
नशा कमाने का लत ऐसा, क्या अपने क्या बेगाने।
आजादी का वह दीवाना ,हंसी-ठिठोली भूल गया।।
तरह-तरह की मजदूरी कर,जोड़ लिया है थोड़ा धन।
अलग मकान बनाने में वह,थी हमजोली भूल गया।।
भोज किया बापू भी आए,पर दिन भर मेहमान रहे।
एक गरीब बहन उसकी, जो थी मुंहबोली भूल गया।।
शहरीकरण भुला देगा , सारे संबंधों - नातों को।
माटी- गोबर -कीचड़ की वह, रंग-रंगोली भूल गया।।
घुघनी-रस में दिन कट जाता ,रात भुने आलू में जी।
सामूहिक जीवन में किसने,यह बिष घोली भूल गया।।
नून-मिर्च-हथरोटी खाकर , बलशाली था अब रोगी।
टुकड़ों पर पलने वाला वह ,अपनी टोली भूल गया।।
बेटी-बहन किसी घर की हो,उसको अपनी लगती थी।
बढ़कर कंधा देने वाला , प्यारी डोली भूल गया।।
सारे द्वार खुले थे अपने , बैठ गए तो सब अपना।
काका के संग वह रस-दाना,काकी भोली भूल गया।।
चौखट पर दीपक जलवाना , राही को पानी देना।
केक काटने के चक्कर में ,अक्षत-रोली भूल गया।।...
"अनंग "
महर्षि विश्वामित्र
महर्षि विश्वामित्र का असली नाम विश्वरथ था कुश वंश में पैदा होने के कारण उन्हें कौशिक कहते थे। वह एक क्षत्रिय राजा गाधि की संतान थे। महाराज कुश साक्षात प्रजापति के पुत्र थे। उनके चार पुत्रों में से एक पुत्र कुशनाभ थे। कुशनाभ के गाधि और फिर राजा गाधि के पुत्र विश्वरथ हुए। जो कालांतर में विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 4 में विश्वामित्र के जन्म की कथा का वर्णन हुआ है-
भृगुवंशी ऋचीक ऋषि का विवाह गाधि की पुत्री और विश्वामित्र की बहन सत्यवती के साथ हुआ था। दरअसल जब ऋचीक ने गाधि से उनकी कन्या सत्यवती का हाथ माँगा, तो उन्होंने टालने के हिसाब से शुल्क रूप में एक हजार दुर्लभ श्यामकर्ण घोड़े देने की शर्त रखी, तो ऋचीक ऋषि ने वरुण देव से लाकर उन्हें दे दिये। जिस जगह घोड़े प्रकट हुए थे, कन्नौज के पास गंगा तट पर स्थित वह उत्तम तट आज भी मानवों द्वारा अश्वतीर्थ कहलाता है।
इच्छित घोड़े पाकर आश्चर्यचकित हुए राजा गाधि ने शाप के भय से डरकर अपनी कन्या को वस्त्राभूषणों से विभूषित करके भृगुनन्दन ऋचीक से सत्यवती का विधिवत पाणिग्रहण कराया। वैसे तेजस्वी पति को पाकर उस कन्या को भी बड़ा हर्ष हुआ।
कालांतर में सत्यवती ने अपने पति से खुद के लिये और अपनी माता के लिये यशस्वी पुत्र की कामना की। तब ऋषि ने सत्यवती से कहा कि तुम्हारी माता ऋतुस्नान के पश्चात पीपल के वृक्ष का आलिंगन करे और तुम गूलर के वृक्ष का। इससे तुम दोनों को अभीष्ट पुत्र की प्राप्ति होगी। और फिर उन्होंने दो मंत्रपूत चरु तैयार किये। और दोनों को अलग-अलग खाने को कहा।
तब सत्यवती ने वह सब अपनी माता को बताया और दोनों के लिये तैयार किये हुए पृथक- पृथक चरुओं की भी चर्चा की। उस समय माता ने अपनी पुत्री सत्यवती से कहा- तुम्हारे पति ने जो मंत्रपूत चरु तुम्हारे लिये दिया है, वह तुम मुझे दे दो और मेरा चरु तुम ले लो। प्राय: सभी लोग अपने लिये श्रेष्ठ और सर्वगुणसम्पन्न पुत्र की इच्छा करते हैं। अवश्य ही भगवान ऋचीक ने भी चरु निर्माण करते समय ऐसा कुछ सोचा होगा। इसलिये तुम्हारे लिये नियत किये गये चरु और वृक्ष के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ी है। और फिर सत्यवती और उसकी माता ने उसी तरह उन दोनो चीजों का अदल- बदलकर उपयोग किया।
परिणामस्वरूप वे दोनों गर्भवती हो गयीं। ऋषि ने अपनी अंतर्दृष्टि से सब कुछ जान लिया। खिन्नमन से वे सत्यवती से बोले- तुमने और तुम्हारी माता ने अदला- बदली कर ली है, इसलिये तुम्हारी माता श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र को जन्म देगी और तुम भयंकर कर्म करने वाले क्षत्रिय की जननी होगी। तब सत्यवती शोक संतप्त होकर ऋचीक के चरणों में प्रणाम पूर्वक बोली कि मैं आपकी पत्नी हूं, अत: आपसे कृपा- प्रसाद की भीख चाहती हूँ। आप ऐसी कृपा करें जिससे मेरे गर्भ से क्षत्रिय पुत्र उत्पन्न न हो। मेरा पौत्र चाहे उग्रकर्मा क्षत्रिय स्वभाव का हो जाय, परंतु मेरा पुत्र वैसा न हो। तब ऋषिवर ने अपनी पत्नी से तथास्तु कहा, तदनन्तर सत्यवती ने जमदग्नि नामक गुणवान पुत्र को जन्म दिया। और गाधि की पत्नी ने ब्रह्मवादी विश्वामित्र को उत्पन्न किया। इसीलिये महातपस्वी विश्वामित्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो ब्राह्मणवंश के प्रवर्तक हुए।
विश्वामित्र जी बड़े प्रतापी राजा थे। एक दिन वह अपनी विशाल सेना के साथ घने जंगल की ओर गये और वहाँ पर ऋषिवर वशिष्ठ का आतिथ्य स्वीकार किया। राजा और उनके सैनिकों का वशिष्ठ जी ने विधिवत सत्कार किया। उन्होंने उन सभी को तरह तरह के व्यंजन अर्पित किये। भोजन करने के बाद राजा ने जिज्ञासा वश वशिष्ठ जी से पूछा कि आपने इतने लोगों का उच्च स्तर का भोजन प्रबंध कैसे किया? तब ऋषि ने बताया कि मेरे पास एक नंदिनी नाम की गाय है जो कि कामधेनु की पुत्री है। यह उसी की कृपा है। यह सुनकर राजा के मन में लालच आ गया और उन्होंने महर्षि से गाय देने का आग्रह किया किन्तु वशिष्ठ जी ने इंकार कर दिया। इतना सुनते ही राजा के क्रोध की सीमा न रही और उन्होंने सैनिकों को नंदिनी गाय को बलपूर्वक ले चलने का आदेश दे दिया। जब राजा के पुत्रों ने नंदिनी को बलपूर्वक ले जाना चाहा तो वशिष्ठ मुनि की आज्ञा से नंदिनी ने असंख्य सैनिकों को उत्पन्न कर दिया, जिन्होंने राजा की सारी सेना और उनके सौ में से निन्यानबे पुत्रों का संहार कर दिया।
इससे आहत होकर राजा ने सारा राजपाट अपने एकमात्र जीवित बचे पुत्र को सौंपकर स्वयं तपस्या करने निकल पड़े। अब उनके जीवन का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ वशिष्ठ का विनाश करना था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने उन्हें सभी शस्त्रों का ज्ञान दिया। तब राजा वरदान पाकर ऋषि वशिष्ठ से पुनः युद्ध करने को निकल पड़े। वशिष्ठ जी ने उनके सभी वार विफल कर दिए। जब विश्वामित्र के सारे दिव्यास्त्र असफल हो गये, तब राजा वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। तब वशिष्ठ ऋषि ने ब्रम्हास्त्र को भी ब्रह्मदण्ड से शांत कर दिया। तब राजा ने क्षत्रिय शक्ति को धिक्कारा:
धिग् बलं क्षत्री बलं, ब्रह्मतेजो बलं बलम्।
एकेन ब्रह्मदंडेन सर्वाणि शैन्यानि हतानि मे।।
अर्थात- क्षत्रिय की ताकत को धिक्कार है, ब्रह्मतेज शक्ति का भंडार है। (ताज्जुब है) सिर्फ एक ब्रह्मदण्ड से ही मेरी समस्त सेनाओं का विनाश कर दिया।
अपनी हार से लज्जित और व्यथित होकर राजा फिर से तपस्या करने निकल पड़े। अब उन्होंने ठान लिया कि अब ब्रह्मर्षि बनकर ही लौटना है। इस प्रकार विचार करके वे दक्षिण दिशा की ओर अपनी पत्नी के साथ चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी हजार वर्ष की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि- ब्रह्मर्षि आदि का नहीं, तो वे दुःखी हो गये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।
इस बीच इक्ष्वाकु वंश में त्रिशंकु नाम के एक राजा हुये थे। त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे अतः इसके लिये उन्होंने वशिष्ठ जी से अनुरोध किया, किन्तु वशिष्ठ जी ने इस कार्य के लिये अपनी असमर्थता जताई। त्रिशंकु ने यही प्रार्थना वशिष्ठ जी के पुत्रों से भी की, जो दक्षिण प्रान्त में घोर तपस्या कर रहे थे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कहा कि जिस काम को हमारे पिता नहीं कर सके, तू उसे हमसे कराकर हमारे पिता का अपमान कराना चाहता है। उनके इस प्रकार कहने से त्रिशंकु ने क्रोधित होकर वशिष्ठ जी के पुत्रों को अपशब्द कहे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप दे दिया।
त्रिशंकु तत्काल चाण्डाल बन गये तथा उनके मन्त्री तथा दरबारी उनका साथ छोंड़कर चले गये। फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर अपनी इच्छा को पूर्ण करने का अनुरोध किया। विश्वामित्र ने अपने उन चारों पुत्रों को बुलाया जो दक्षिण प्रान्त में अपनी पत्नी के साथ तपस्या करते हुये उन्हें प्राप्त हुये थे और उनसे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि वशिष्ठ के पुत्रों सहित वन में रहने वाले सब ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण दे आओ।
सभी ऋषि-मुनियों ने उनके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु वशिष्ठ जी के पुत्रों ने यह कहकर उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर विश्वामित्र जी ने क्रुद्ध होकर उन्हें कालपाश में बँध कर यमलोक जाने और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करने का शाप दे दिया और यज्ञ की तैयारी में लग गये।
विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठ जी के पुत्र यमलोक चले गये। वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्घ्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ। इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग के द्वार पर जा पहुँचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देखकर इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गये। त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से दूसरे स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिये लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे।
इन्द्र की बात सुनकर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने- अपने स्थानों को वापस चले गये। देवताओं के चले जाने के बाद विश्वामित्र भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने फिर हजार वर्ष की तपस्या की। परिणामस्वरूप ब्रह्मा जी ने उन्हें महर्षि की उपाधि से नवाजा। यह सुनकर विश्वामित्र का सर लज्जा से झुक गया, क्योंकि उनको तो ब्रह्मर्षि पद की दरकार थी।
अतएव वे मौन रहकर फिर दीर्घकालीन तपस्या में लीन हो गये। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्वास रोककर भयंकर तप किया। इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्माजी से विश्वामित्र को वांक्षित वरदान देने की प्रार्थना की। देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी उन्हें ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि जब तक वशिष्ठ जी आपको ब्रह्मर्षि नहीं मान लेते, तब तक आप ब्रह्मर्षि नहीं माने जाओगे।
घूम- फिर कर बात फिर वशिष्ठ जी पर आ गयी। अब विश्वामित्र क्रोध में घायल हो गये, और वशिष्ठजी को छल से मारने का मन बनाया। रात के धुप अँधेरे में वे तलवार लेकर वशिष्ठ जी की कुटिया के बाहर छिपकर वशिष्ठ के बाहर आने का इंतजार करने लगे। उधर कुटिया के अंदर वशिष्ठ जी से अरुन्धती जी विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि मान लेने की प्रार्थना कर रही थीं। इस पर वशिष्ठ जी बोले; विश्वामित्र के पास मुझसे अधिक शक्तियाँ हैं। मैं तो उसे सप्तर्षि मंडल में शामिल करना चाहता हूँ। किन्तु उसमें अभी भी विनम्रता नहीं है। जिस दिन वह यह गुण विकसित कर लेगा, उसी क्षण मैं उसको सप्तर्षि मंडल में शामिल करूँगा, और साथ ही ब्रह्मर्षि भी घोषित करूँगा। ऐसा सुनकर विश्वामित्र का अहंकार दूर हो गया और दौड़कर वे वशिष्ठ जी के पाँवों पर गिर पड़े। वशिष्ठ जी बोले; उठो ब्रह्मर्षि। और फिर वे ब्रह्मर्षि हो गये।
विश्वामित्र भारतीय पुराण साहित्य का अद्वितीय चरित्र हैं। विश्वामित्र ने राजा के रूप में राज्य विस्तार किया। साधक के रूप में साधना की। राजर्षि पद से ब्रह्मर्षि पद पाने वाले वे एकमात्र तपस्वी हैं। ब्रह्मा जी द्वारा ओंकार और चारों वेदों का ज्ञान उन्हें सहज ही प्राप्त हो गया था। वे ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62 सूक्तों के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के 24 गुरुओं में प्रथम अनुसंधानकर्ता थे। वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराण तथा अनेक ग्रन्थों में अनेक प्रकार से विश्वामित्र की कथा का उल्लेख है।
धार्मिक ग्रंथों में विश्वामित्र के साथ घटित घटनाओं में विश्वामित्र और वशिष्ठ का नन्दिनी को लेकर संघर्ष और विश्वामित्र का त्रिशंकु को सदेह देवलोक में भेजने का प्रयास प्रमुखता से मिलता है। साथ ही विश्वामित्र जी ने श्रीराम को लेकर वन में राक्षसों के वध की भूमिका तैयार किया तथा श्रीराम और लक्ष्मण को दिव्यास्त्रों की दीक्षा दी। उनके ही मार्गदर्शन में ताड़का- सुबाहु वध, मारीच मानभंग, अहिल्या उद्धार, धनुर्भंग और श्रीराम- जानकी विवाह सम्पन्न हुआ। उनकी तपस्या के दौरान इन्द्र के द्वारा भेजी गई मेनका अप्सरा तथा उसके साथ विश्वामित्र का संसर्ग और तदुपरांत शकुंतला नामक एक कन्या का जन्म, आदि गाथाओं का प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। शकुन्तला का माता- पिता दोनों ने त्याग कर दिया तब उसे कण्व ऋषि ने पाला। कालांतर में इसी शकुन्तला से कण्व के आश्रम में राजा दुष्यन्त ने गन्धर्व विवाह किया, जिससे भरत नाम का वीरपुत्र पैदा हुआ l
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🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺(7) 🌺🌺🌺🌺🌺🌺
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🕉🎺Chapter 5 Shalok 11 To 12🎺🕉
🎍🌈💥🎪🌷🌴 कर्म योगी 🌴🌷🎪💥🌈
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ (११)
🌹🎷भावार्थ🎷🌹 "कर्म-योगी" निष्काम भाव से शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा केवल आत्मा की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)
🎪💥भावार्थ💥🎪 "कर्म-योगी" सभी कर्म के फलों का त्याग करके परम-शान्ति को प्राप्त होता है और जो योग में स्थित नही वह कर्म-फ़ल को भोगने की इच्छा के कारण कर्म-फ़ल में आसक्त होकर बँध जाता है l
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स्वयं कमाओ, स्वयं खाओ यह प्रकृति है । (रजो गुण)
दूसरा कमाए, तुम छीन कर खाओ यह विकृती है।(तमो गुण )
स्वयं कमाओ सबको खिलाओ, यह देविक संस्कृति हैं ! (सतो गुण )
** देविक प्रवृतियों को धारण (Perception ) करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे **
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गोधन, गजधन, बाजधन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान ।।
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मनुष्य योनि का महत्व ,,,,,,,,
*नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
भावार्थ:-मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥
5॥
* सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥
भावार्थ:-ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥6॥
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"इतना भी आसान नहीं है , प्रभु की इबादत करना,"
"दिल से गुरुर जायेगा,तभी तो खुदा का नूर आयेगा।"
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दूध कब जहर बन जाता है ==
१. मछली २. प्याज ३. उड़द दाल ४. तिल ५. नीबू
६. दही ७. मूली ८. जामुन ९. करेला १०. नमक
इनके खाने के बाद या पहले दूध नहीं पीना चाहिए !
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब विधि हीं l
निज जन जानि राम
सोमवार, 10 अक्टूबर 2022
चरित्रहीन
#स्त्री तबतक '#चरित्रहीन' नहीं हो सकती जबतक कि पुरुष चरित्रहीन न हो। संन्यास लेने के बाद गौतमबुद्ध ने अनेक क्षेत्रों की यात्रा की। एक बार वे एक गांव गए। वहां एक स्त्री उनके पास आई और बोली आप तो कोई राजकुमार लगते हैं। क्या मैं जान सकती हूँ कि इस युवावस्था में सन्यासी वस्त्र पहनने का क्या कारण है ? बुद्ध ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि तीन प्रश्नों के हल ढूंढने के लिए उन्होंने संन्यास लिया। बुद्ध ने कहा- हमारा यह शरीर जो युवा व आकर्षक है वह जल्दी ही वृद्ध होगा फिर बीमार व अंत में मृत्यु के मुंह में चला जाएगा। मुझे वृद्धावस्था, बीमारी व मृत्यु के कारण का ज्ञान प्राप्त करना है। बुद्ध के विचारो से प्रभावित होकर उस स्त्री ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। शीघ्र ही यह बात पूरे गांव में फैल गई। गांववासी बुद्ध के पास आए और आग्रह किया कि वे इस स्त्री के घर भोजन करने न जाएं क्योंकि वह चरित्रहीन है। बुद्ध ने गांव के मुखिया से पूछा- क्या आप भी मानते हैं कि वह स्त्री चरित्रहीन है ? मुखिया ने कहा कि मैं शपथ लेकर कहता हूं कि वह बुरे चरित्र वाली स्त्री है।आप उसके घर न जाएं। बुद्ध ने मुखिया का दायां हाथ पकड़ा और उसे ताली बजाने को कहा। मुखिया ने कहा- मैं एक हाथ से ताली नहीं बजा सकता क्योंकि मेरा दूसरा हाथ आपके द्वारा पकड़ लिया गया है। बुद्ध बोले इसी प्रकार यह स्वयं चरित्रहीन कैसे हो सकती है जबतक कि इस गांव के पुरुष चरित्रहीन न हो। अगर गांव के सभी पुरुष अच्छे होते तो यह औरत ऐसी न होती इसलिए इसके चरित्र के लिए यहाँ के पुरुष जिम्मेदार हैं l यह सुनकर सभी लज्जित हो गये लेकिन आजकल हमारे समाज के पुरूष लज्जित नहीं गौरवान्वित महसूस करते है क्योंकि यही हमारे "पुरूष प्रधान" समाज की रीति एवं नीति है l
,....🖋 प्रो. कमलेश
साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )
14 दिसंबर, 2024 केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक...
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