बुधवार, 12 अक्टूबर 2022

महर्षि विश्वामित्र

 महर्षि विश्वामित्र का असली नाम विश्वरथ था कुश वंश में पैदा होने के कारण उन्हें  कौशिक कहते थे। वह एक क्षत्रिय राजा गाधि की संतान थे। महाराज कुश साक्षात प्रजापति के पुत्र थे। उनके चार पुत्रों में से एक पुत्र कुशनाभ थे। कुशनाभ के गाधि और फिर राजा गाधि के पुत्र विश्वरथ हुए। जो कालांतर में विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 4 में विश्वामित्र के जन्म की कथा का वर्णन हुआ है-


भृगुवंशी ऋचीक ऋषि का विवाह गाधि की पुत्री और विश्वामित्र की बहन सत्यवती के साथ हुआ था। दरअसल जब ऋचीक ने गाधि से उनकी कन्या सत्यवती का हाथ माँगा, तो उन्होंने टालने के हिसाब से शुल्‍क रूप में एक हजार दुर्लभ श्यामकर्ण घोड़े देने की शर्त रखी, तो ऋचीक ऋषि ने वरुण देव से लाकर उन्हें दे दिये। जिस जगह घोड़े प्रकट हुए थे, कन्‍नौज के पास गंगा तट पर स्थित वह उत्‍तम तट आज भी मानवों द्वारा अश्‍वतीर्थ कहलाता है।


इच्छित घोड़े पाकर आश्‍चर्यचकित हुए राजा गाधि ने शाप के भय से डरकर अपनी कन्‍या को वस्‍त्राभूषणों से विभूषित करके भृगुनन्‍दन ऋचीक से सत्यवती का विधिवत पाणिग्रहण कराया। वैसे तेजस्‍वी पति को पाकर उस कन्‍या को भी बड़ा हर्ष हुआ। 


कालांतर में सत्यवती ने अपने पति से खुद के लिये और अपनी माता के लिये यशस्वी पुत्र की कामना की। तब ऋषि ने सत्यवती से कहा कि तुम्‍हारी माता ऋतुस्‍नान के पश्‍चात पीपल के वृक्ष का आलिंगन करे और तुम गूलर के वृक्ष का। इससे तुम दोनों को अभीष्‍ट पुत्र की प्राप्ति होगी। और फिर उन्होंने दो मंत्रपूत चरु तैयार किये। और दोनों को अलग-अलग खाने को कहा।


तब सत्‍यवती ने वह सब अपनी माता को बताया और दोनों के लिये तैयार किये हुए पृथक- पृथक चरुओं की भी चर्चा की। उस समय माता ने अपनी पुत्री सत्‍यवती से कहा- तुम्‍हारे पति ने जो मंत्रपूत चरु तुम्‍हारे लिये दिया है, वह तुम मुझे दे दो और मेरा चरु तुम ले लो। प्राय: सभी लोग अपने लिये श्रेष्ठ और सर्वगुणसम्‍पन्‍न पुत्र की इच्‍छा करते हैं। अवश्‍य ही भगवान ऋचीक ने भी चरु निर्माण करते समय ऐसा कुछ सोचा होगा। इसलिये तुम्‍हारे लिये नियत किये गये चरु और वृक्ष के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ी है। और फिर सत्‍यवती और उसकी माता ने उसी तरह उन दोनो चीजों का अदल- बदलकर उपयोग किया। 


परिणामस्वरूप वे दोनों गर्भवती हो गयीं। ऋषि ने अपनी अंतर्दृष्टि से सब कुछ जान लिया। खिन्नमन से वे सत्यवती से बोले- तुमने और तुम्‍हारी माता ने अदला- बदली कर ली है, इसलिये तुम्‍हारी माता श्रेष्‍ठ ब्राह्मण पुत्र को जन्‍म देगी और तुम भयंकर कर्म करने वाले क्षत्रिय की जननी होगी। तब सत्यवती शोक संतप्त होकर ऋचीक के चरणों में प्रणाम पूर्वक बोली कि मैं आपकी पत्‍नी हूं, अत: आपसे कृपा- प्रसाद की भीख चाहती हूँ। आप ऐसी कृपा करें जिससे मेरे गर्भ से क्षत्रिय पुत्र उत्‍पन्‍न न हो। मेरा पौत्र चाहे उग्रकर्मा क्षत्रिय स्‍वभाव का हो जाय, परंतु मेरा पुत्र वैसा न हो। तब ऋषिवर ने अपनी पत्‍नी से तथास्तु कहा, तदनन्‍तर सत्‍यवती ने जमदग्नि नामक गुणवान पुत्र को जन्‍म दिया। और गाधि की पत्‍नी ने ब्रह्मवादी विश्वामित्र को उत्‍पन्‍न किया। इसीलिये महातपस्‍वी विश्वामित्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणत्‍व को प्राप्‍त हो ब्राह्मणवंश के प्रवर्तक हुए।

                                                                                                                                                     

विश्वामित्र जी बड़े प्रतापी राजा थे। एक दिन वह अपनी विशाल सेना के साथ घने जंगल की ओर गये और वहाँ पर ऋषिवर वशिष्ठ का आतिथ्य स्वीकार किया। राजा और उनके सैनिकों का वशिष्ठ जी ने विधिवत सत्कार किया। उन्होंने उन सभी को तरह तरह के व्यंजन अर्पित किये। भोजन करने के बाद राजा ने जिज्ञासा वश वशिष्ठ जी से पूछा कि आपने इतने लोगों का उच्च स्तर का भोजन प्रबंध कैसे किया? तब ऋषि ने बताया कि मेरे पास एक नंदिनी नाम की गाय है जो कि कामधेनु की पुत्री है। यह उसी की कृपा है। यह सुनकर राजा के मन में लालच आ गया और उन्होंने महर्षि से गाय देने का आग्रह किया किन्तु वशिष्ठ जी ने इंकार कर दिया। इतना सुनते ही राजा के क्रोध की सीमा न रही और उन्होंने सैनिकों को नंदिनी गाय को बलपूर्वक ले चलने का आदेश दे दिया। जब राजा के पुत्रों ने नंदिनी को बलपूर्वक ले जाना चाहा तो वशिष्ठ मुनि की आज्ञा से नंदिनी ने असंख्य सैनिकों को उत्पन्न कर दिया, जिन्होंने राजा की सारी सेना और उनके सौ में से निन्यानबे पुत्रों का संहार कर दिया। 


इससे आहत होकर राजा ने सारा राजपाट अपने एकमात्र जीवित बचे पुत्र को सौंपकर स्वयं तपस्या करने निकल पड़े। अब उनके जीवन का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ वशिष्ठ का विनाश करना था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने उन्हें सभी शस्त्रों का ज्ञान दिया। तब राजा वरदान पाकर ऋषि वशिष्ठ से पुनः युद्ध करने को निकल पड़े। वशिष्ठ जी ने उनके सभी वार विफल कर दिए। जब विश्वामित्र के सारे दिव्यास्त्र असफल हो गये, तब राजा वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। तब वशिष्ठ ऋषि ने ब्रम्हास्त्र को भी ब्रह्मदण्ड से शांत कर दिया। तब राजा ने क्षत्रिय शक्ति को धिक्कारा:


धिग् बलं क्षत्री बलं, ब्रह्मतेजो बलं बलम्।

एकेन ब्रह्मदंडेन सर्वाणि शैन्यानि हतानि मे।।


अर्थात- क्षत्रिय की ताकत को धिक्कार है, ब्रह्मतेज शक्ति का भंडार है। (ताज्जुब है) सिर्फ एक ब्रह्मदण्ड से ही मेरी समस्त सेनाओं का विनाश कर दिया।


अपनी हार से लज्जित और व्यथित होकर राजा फिर से तपस्या करने निकल पड़े। अब उन्होंने ठान लिया कि अब ब्रह्मर्षि बनकर ही लौटना है। इस प्रकार विचार करके वे दक्षिण दिशा की ओर अपनी पत्नी के साथ चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी हजार वर्ष की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि- ब्रह्मर्षि आदि का नहीं, तो वे दुःखी हो गये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।


इस बीच इक्ष्वाकु वंश में त्रिशंकु नाम के एक राजा हुये थे। त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे अतः इसके लिये उन्होंने वशिष्ठ जी से अनुरोध किया, किन्तु वशिष्ठ जी ने इस कार्य के लिये अपनी असमर्थता जताई। त्रिशंकु ने यही प्रार्थना वशिष्ठ जी के पुत्रों से भी की, जो दक्षिण प्रान्त में घोर तपस्या कर रहे थे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कहा कि जिस काम को हमारे पिता नहीं कर सके, तू उसे हमसे कराकर हमारे पिता का अपमान कराना चाहता है। उनके इस प्रकार कहने से त्रिशंकु ने क्रोधित होकर वशिष्ठ जी के पुत्रों को अपशब्द कहे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप दे दिया।


त्रिशंकु तत्काल चाण्डाल बन गये तथा उनके मन्त्री तथा दरबारी उनका साथ छोंड़कर चले गये। फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर अपनी इच्छा को पूर्ण करने का अनुरोध किया। विश्वामित्र ने अपने उन चारों पुत्रों को बुलाया जो दक्षिण प्रान्त में अपनी पत्नी के साथ तपस्या करते हुये उन्हें प्राप्त हुये थे और उनसे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि वशिष्ठ के पुत्रों सहित वन में रहने वाले सब ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण दे आओ।


सभी ऋषि-मुनियों ने उनके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु वशिष्ठ जी के पुत्रों ने यह कहकर उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर विश्वामित्र जी ने क्रुद्ध होकर उन्हें कालपाश में बँध कर यमलोक जाने और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करने का शाप दे दिया और यज्ञ की तैयारी में लग गये।


विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठ जी के पुत्र यमलोक चले गये। वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्घ्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ। इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग के द्वार पर जा पहुँचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देखकर इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गये। त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से दूसरे स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिये लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे।


इन्द्र की बात सुनकर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने- अपने स्थानों को वापस चले गये। देवताओं के चले जाने के बाद विश्वामित्र भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे‌।‌ उन्होंने फिर हजार वर्ष की तपस्या की। परिणामस्वरूप ब्रह्मा जी ने उन्हें महर्षि की उपाधि से नवाजा। यह सुनकर विश्वामित्र का सर लज्जा से झुक गया, क्योंकि उनको तो ब्रह्मर्षि पद की दरकार थी।


अतएव वे मौन रहकर फिर दीर्घकालीन तपस्या में लीन हो गये। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्वास रोककर भयंकर तप किया। इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्माजी से विश्वामित्र को वांक्षित वरदान देने की प्रार्थना की। देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी उन्हें ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि जब तक वशिष्ठ जी आपको ब्रह्मर्षि नहीं मान लेते, तब तक आप ब्रह्मर्षि नहीं माने जाओगे।


घूम- फिर कर बात फिर वशिष्ठ जी पर आ गयी। अब विश्वामित्र क्रोध में घायल हो गये, और वशिष्ठजी को छल से मारने का मन बनाया। रात के धुप अँधेरे में वे तलवार लेकर वशिष्ठ जी की कुटिया के बाहर छिपकर वशिष्ठ के बाहर आने का इंतजार करने लगे। उधर कुटिया के अंदर वशिष्ठ जी से अरुन्धती जी विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि मान लेने की प्रार्थना कर रही थीं। इस पर  वशिष्ठ जी बोले; विश्वामित्र के पास मुझसे अधिक शक्तियाँ हैं। मैं तो उसे सप्तर्षि मंडल में शामिल करना चाहता हूँ। किन्तु उसमें अभी भी विनम्रता नहीं है। जिस दिन वह यह गुण विकसित कर लेगा, उसी क्षण मैं उसको सप्तर्षि मंडल में शामिल करूँगा, और साथ ही ब्रह्मर्षि भी घोषित करूँगा। ऐसा सुनकर विश्वामित्र का अहंकार दूर हो गया और दौड़कर वे वशिष्ठ जी के पाँवों पर गिर पड़े। वशिष्ठ जी बोले; उठो ब्रह्मर्षि। और फिर वे ब्रह्मर्षि हो गये।


विश्वामित्र भारतीय पुराण साहित्य का अद्वितीय चरित्र हैं। विश्वामित्र ने राजा के रूप में राज्य विस्तार किया। साधक के रूप में साधना की। राजर्षि पद से ब्रह्मर्षि पद पाने वाले वे एकमात्र तपस्वी हैं। ब्रह्मा जी द्वारा ओंकार और चारों वेदों का ज्ञान उन्हें  सहज ही प्राप्त हो गया था। वे ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62 सूक्तों के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के 24 गुरुओं में प्रथम अनुसंधानकर्ता थे। वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराण तथा अनेक ग्रन्थों में अनेक प्रकार से विश्वामित्र की कथा का उल्लेख है।


धार्मिक ग्रंथों में विश्वामित्र के साथ घटित घटनाओं में विश्वामित्र और वशिष्ठ का नन्दिनी को लेकर संघर्ष और विश्वामित्र का त्रिशंकु को सदेह देवलोक में भेजने का प्रयास प्रमुखता से मिलता है। साथ ही विश्वामित्र जी ने श्रीराम को लेकर वन में राक्षसों के वध की भूमिका तैयार किया तथा श्रीराम और लक्ष्मण को दिव्यास्त्रों की दीक्षा दी। उनके ही मार्गदर्शन में ताड़का- सुबाहु वध, मारीच मानभंग, अहिल्या उद्धार, धनुर्भंग और श्रीराम- जानकी विवाह सम्पन्न हुआ। उनकी तपस्या के दौरान इन्द्र के द्वारा भेजी गई मेनका अप्सरा तथा उसके साथ विश्वामित्र का संसर्ग और तदुपरांत शकुंतला नामक एक कन्या का जन्म, आदि गाथाओं का प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। शकुन्तला का माता- पिता दोनों ने त्याग कर दिया तब उसे कण्व ऋषि ने पाला। कालांतर में इसी शकुन्तला से कण्व के आश्रम में राजा दुष्यन्त ने गन्धर्व विवाह किया, जिससे भरत नाम का वीरपुत्र पैदा हुआ l 


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🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺(7) 🌺🌺🌺🌺🌺🌺

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🕉🎺Chapter 5 Shalok 11 To 12🎺🕉

🎍🌈💥🎪🌷🌴 कर्म योगी 🌴🌷🎪💥🌈

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ (११)

🌹🎷भावार्थ🎷🌹 "कर्म-योगी" निष्काम भाव से शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा केवल आत्मा की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं।

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)

🎪💥भावार्थ💥🎪 "कर्म-योगी" सभी कर्म के फलों का त्याग करके परम-शान्ति को प्राप्त होता है और जो योग में स्थित नही वह कर्म-फ़ल को भोगने की इच्छा के कारण कर्म-फ़ल में आसक्त होकर बँध जाता है l

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स्वयं कमाओ, स्वयं खाओ यह प्रकृति है । (रजो गुण)

दूसरा कमाए, तुम छीन कर खाओ यह विकृती है।(तमो गुण )

स्वयं कमाओ सबको खिलाओ, यह देविक संस्कृति हैं ! (सतो गुण )

** देविक प्रवृतियों को धारण (Perception ) करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे **

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गोधन, गजधन, बाजधन और रतन धन खान।

जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान ।।

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मनुष्य योनि का महत्व ,,,,,,,,

*नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥

नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥

भावार्थ:-मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥

5॥

* सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥

काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥

भावार्थ:-ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥6॥

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"इतना भी आसान नहीं है , प्रभु की इबादत करना,"

"दिल से गुरुर जायेगा,तभी तो खुदा का नूर आयेगा।"

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दूध कब जहर बन जाता है ==

१. मछली २. प्याज ३. उड़द दाल ४. तिल ५. नीबू

६. दही ७. मूली ८. जामुन ९. करेला १०. नमक

इनके खाने के बाद या पहले दूध नहीं पीना चाहिए !

आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब विधि हीं l

निज जन जानि राम

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