कोशिश
तुम
हमेशा अकेली नजर आती हो
भट्ठी में फूलती
एक अदद रोटी की तरह
जिसे पाने के लिए
उगाता रहा हूं मैं
अपनी हथेलियों पर
अनगिनत छाले
काफी बचपन से
चिन्ता
कल ठीक यहीं पहंचे थे हम
-साथ-साथ चलते हुए
कल ठीक वहीं से शुरू किया था हमने चलना
जहां से चले हैं आज
क्या कल भी पहुंचना होगा हमें
-ठीक यहीं
ठीक वहीं से चलते हुए.
संशय
न तो गाती हुई नदी थी
न थिरकता हुआ झरना
न पत्तियों-पंखुड़ियों की जुबिंश से गूंजती हुई वादी
जब पूछा या तुमने
-'आपके साथ जीवन बिताने का निर्णय लेकर
पछताना तो नहीं पड़ेगा मुझे`
और कहा था मैंने-
'स्वयं से पूछ कर देखो`
नयी-नयी बन रही सड़क थी
धीमी रफ़तार में हचकोले खा-खाकर
चलते टेम्पो में सवार हम
साफ-साफ गहसूस कर रहे थे
-बिछे पत्थरों का तीखापन
धूलभरी गर्म हवाओं ने गुम कर रखे थे
-आगे के रास्ते
और लगाये थे अनगिनत थपेडे
तो क्या इन्हीं से घबरा कर तुम
शिकार हो गयी थी संशय का
नहीं तो फिर यह प्रश्न ही क्यों पूछा था तुमने
खूटें सा गड़ा मन
मिले थे जब
नहीं सुने थे ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द
न चिन्ता थी कि कैसे कटेगी गर्मी
जो पड़ेगी इस साल पिछली दो सदियों में सबसे ज्यादा
न जानते थे क्या होते हैं ग्रीन हाउस
फिर समझते क्या उसके उत्सर्जन और दुष्प्रभाव
सरसों के खिले फूलों ने करवा दिए थे अहसास
पाला-लाही के बीच भी बचा है बहुत कुछ
घुंघरु से बजे थे चने
और तान कर पालें उड़ी थीं नावें
पतंगों से भर गई थी छत
किलकारियों से उमग आया था रोआं एक-एक
बीते दिनों की बातें हैं सब
जानता हूं
खूंटे सा गड़ा मन
कूदे लाख - निकले तब ना.
रिश्ता
यह कैसा रिश्ता है प्रिय.
तुम खोना चााहती हो
-मेरे गहरे नीले विस्तार में
किन्तु दौड़ता हूं जब मैं
समेटने को बाहों में तुम्हें अपनी
धवल हो जाता हूं
-तुम्हारी देहयष्टि की तरह
यह कैसा रिश्ता है
रंगना चाहती हो तुम
-मेरे रंग में
और परिवर्तित हो जाता है रंग - मेरा
सुनिश्चित
कठिन है
एक अकेली लहर के लिए
प्रवाह में कहीं रूक पाना
कुछ कह पाना राह में आए चट्टान की छाती पर टेक कर सिर
धुन-बिखर जाती है खुद ही
तट
वह तो किसी लहर का नहीं होता
प्रसंग
डाली से टूटे हुए गुलाब
मुझे अजीब-सी बेचैनी से भर देते हैं
सूखकर झर जाने से पूर्व हजार-हजार डंकों की यातना भोगकर भी
उनके मुस्कुराने की कोशिश
मेरी रगों में मवाद-सा कुछ भर जाता है
औैर इसीलिए
जब कभी तुमने जूड़े की खातिर
लाने को कहा - एक गुलाब
मैंने की है कोशिश
बदल जाये प्रसंग
ठीक ऐसे ही दिन थे
ठीक ऐसे ही दिन थे
जब शुरू की थी हमने यात्रा
-साथ-साथ
आने-आने को थे : नीम को बौर
पकने-पकने को थे : महुए
और,उनकी गंध में रच-बस कर
मदमस्त अल्हड़-सी हुई हवा
उतर आयी थी हमारे नासापुटों तक
और, पैबस्त हो गयी थी
हमारी रक्त-शिराओं में
ठीक ऐसे ही दिन थे
बातों ही बातों में
आ गये थे हम, गंगा-तट तक
जहिर किया था अफसोस
घाट से पानी के दूर चले जाने पर
फिर मुझे छोड़
फलांगती घुटनों तक पैठ गयी थी तुम
किया था आचमन
और, पल-पल रिक्त होती अंजुरी में
संजो लायी थी चंद-बूंदें
और आपाद-मस्तक पवित्र किया था मुझे
फिर आंखें मींच कर
न जाने किससे और क्या मांगा था आशीर्वाद
और, उसी किसी क्षण में मैंने
घाट की देवी पर चढ़ाये किसी के सिंदूर से
बना दी एक बड़ी-सी बिन्दी
और चूम लिया था उसे
और, पता नहीं क्यों अनमनी हो गयी थी तुम
फिर छीले थे हमने
साथ लाये संतरे
और देर तक करते रहे थे पीछा
-एक दूसरे का
ठीक ऐसे ही दिन थे
गुनगुनी धूप में
समाने लगी थी गुलाल की तुर्शी
और तुमने निकाल कर पर्स में धरा रंग बदलने वाला चश्मा
चढ़ा लिया था आंखों पर
और
पूछा था मुझसे :
कैसे बर्दाश्त कर रही हैं, मेरी आंखें
सूरज का तेज
और यह भी
क्यों नहीं ले लेता मैं भी
मौसम के अनुकूल रंग बदलने वाला चश्मा
ठीक ऐसे ही दिन थे
स्वीकारोक्ति
न जाने किस आवेश में
कल जब तुमने रखे थे
पसीने से तर-बतर मेरी पेशानी पर अपने होठ
तेा सच कहता हूं-
मुझे वे तुलसी-दल से पावन नहीं लगे थे
मंदिर की घंटियों से नहीं गूंजे थे
कानों में धीमे से कहे
-तुम्हारे शब्द
खुद से लड़ते और भागते मुझे
छुपाने की कोशिश की थी
जब अपने वक्ष-स्थल में
तो गरवइया के बच्चे-सा दुबकने की कोशिश भी
नहीं की थी मैंने गरमाई पाकर
तुम्हारी सूनी मांग को देख
और दिन की तरह
न तो मुझे सागर-तट की याद आयी थी
और न उस पर सर पटकती फेनिल लहरों की
सच कहता हूं-
मेरे नासापुटों में भर गयी थी
सिंकती रोटी-सी गंध
और जागने लगा था
मेरे भीतर सोया राक्षस
अपनी पूरी आदिम प्रवृतियों के साथ
मेरी उदासी
एक पहाड़ी धुन सुनी
और मैं उदास हो गया
एक अल्हड़ क्वांरी नदी को
उतरते और झरते देखा
और मैं उदास हो गया
मैं उदास हो गया-
एक ताजा खिले फूल पर बैठे
मकरंद चूसते भौंरे को देखकर
मैं उदास हो गया-
घुटनों के बल चलते एक बच्चे को मुस्कुराते देखकर
तुम्हारी याद आई
और मैं उदास हो गया
शून्य से शुरू करते हुए
(1)
शून्य से शुरू करते हुए अपनी यात्रा
फिर से
सोचता हूं-
क्यों लौट गयी थी तुम
अकेली
साथ-साथ दूर तक चलकर
अच्छी तरह याद है मुझे
असमय हुई बारिश के गुजर जाने के बाद
खुले में आकर
तुम्हारी बायीं हथेली पर
तुम्हारी ही दी कलम से हस्ताक्षर किया था मैंने-मुकेश प्रत्यूष
और उसके ठीक नीचे
लिखा था तुमने अपना नाम
ठीक उसी क्षण
सात-सात रंगों में बांटती सूरज की रोशनी को
न जाने कहां से टपक गयी थी-एक बूंद
लिखे हमारे नामों के उपर
साक्षी है : आकाश
साक्षी हैं : धरती और दिशाएं
कि कुछ कहने को खुले थे तुम्हारे होठ
किन्तु रह गये थे कांप कर
भर आयी थीं आंखें
फिर अचानक भींच कर मुठ्ठी, मुडकर भागती चली गयी थी तुम
और विस्मित-सा खड़ा मैं रह गया था
यह तय करता - क्या और क्यों ले गयी बंधी मुठ्ठी में
हमारा नाम
या वह बूंद जो साक्षी था हमारी सहयात्रा का
शून्य से शुरू करते हुए
(2)
शून्य से शुरू करते हुए अपनी यात्रा
-फिर से
चाहता हूं : तुम्हे याद नहीं करूं
भूलना चाहता हूं तुम्हें
गंगा की उन लहरों की तरह
जिनकी बूंदों से अभिसिंचित करने को मुझे
भरी थी तुमने अंजुरी
और रिक्त हो वह
इससे पहले ही तय कर ली थी उन लहरों ने
एक लम्बी यात्रा
उसी किसी क्षण में
लगा दिया था मैंने एक गहरा लाल टीका सीमान्त पर
पहले घबराये और फिर ठठाकर हंसे थे हम
यह सोचकर और बताकर कि क्या होता
अगर फैलता हुआ वह पंहुच जाता
क्वांरी-सूनी मांग तक
चाहता हूं भूलना; किन्तु यही नहीं भूल पाता
सच कितना कठिन है
भोगे किसी क्षण को
अपनी पूरी जीवनऱ्यात्रा में भूल पाना
तो क्या
मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाउंगा – प्रिय ?
पहल किसने की
सपनों से डरता हुआ मैं
देखता हूं-
न जाने कितने-कितने सपने
कभी देखता हूं-
मैं बुन रहा हूं
-सिर पर एक अदद आसमान
और, तुम भर रही हो रंग उसमें
पसंद के अपनी - नीला, गहरा नीला और सफेद
जब मैं बुन चुका होता हूं आसमान
और भर चुकी होती हो तुम रंग उसमें
हम उगाते हैं : तारे
और दीखने भर रौशनी दे देते हैं उसे
हम उगाते हैं : चांद
और देते हैं रौशनी उतनी
जितनी में देख सकें एक-दूसरे को
फिर हम उगाते हैं : सूरज
और चाहते हैं दे देना
-ढेर सारी रौशनी उसे
ताकि देख सकें साफ-साफ
जहां तक दीख जाए
रौशनी पाते-पाते गर्म हो जाता है सूरज
हम सह नहीं पाते उसका तेज
भागते हैं हम
-अपने ही बुने, रंग भरे आसमान के नीचे से
और आकर उसकी हद से बाहर
चाहते हैं तय करना
-भागने की पहल किसने की
अचानक हमारे सामने आ जाता है -एक आदमकद शीशा
और हम नापने लगते हैं - अपनी-अपनी उंचाइयां उसमें
तभी शीशे से निकलते हैं
-दो,लम्बे-लम्बे, हाथ वर्जनाओं के
एक में होता है ढेर-सारा संशय-रत्न
तराशे हुए सलीके से
चौधियाने लगती हैं, हमारी आंखें
खुद को रोक नहीं पाती हो तुम
उठा लेती हो कई एक
और करने लगती हो कई-कई सवाल खुद से
इसी बीच शीशे से निकला दूसरा हाथ
उठाकर, उछाल देता है मुझे – सुदूर ; शून्य विस्तार में
अचानक दिखायी देती है
-मेरी ही हथेली
लटकती बिना किसी सहारे के
मिट गयी हैं - उसकी सारी की सारी रेखाएं
देखकर उदास नहीं होता हूं मैं
-मुझे याद है; रोटी की जुगाड़ की कोशिशें
तभी न जाने कहां से आ जाता है
एक धारदार हथियार
मेरे शेष बचे दूसरे हाथ में
मैं आर्केमीडिज की तरह चिल्ला उठता हूं
और उभारने लगता हूं रेखाएं
बारी-बारी से अपनी हथेली में
धन की; आयु की; पे्रम की. खूनेखून हो जाती है मेरी हथेली
किन्तु, रेखाएं तब भी नजर नहीं आतीं
नजर आता है : सिर्फ खून-ही-खून; खून-ही-खून
विश्वास
मैं कौधूंगा स्मृतियों में
दूर-दराज से आए और घनीभूत हुए बादल
बिखरेंगे जब बूंद-बूंद होकर
पैरों तले से फूटेगी और नासापुटों में भर जाएगी
बिसरी हुई एक चिन्ही-सी गंध
मैं कौधूंगा
जब चूएंगे महुए
झरेंगे हरसिंगार एक पूरी रात की अनवरत प्रतीक्षा के बाद
मैं कौधूंगा
जब लिखेगा कोई प्रेम-पत्र
घुटरुन लपकेगा कोई बच्चा
आरी की तीक्ष्णता-सी
मैं कौधूंगा, जरुर कौधूंगा
-स्मृतियों में .
स्मृतियों का दरवाजा मेरा
स्मृतियों का दरवाजा मेरा
है रंगा
चटख लाल पाढ़ वाले सफेद रंग से
डाल वहीं कुर्सी
बैठा हूं मैं - काल से अनन्त
देखता बूंदें टपकती
है नहीं चौड़ी हैंडिल कुर्सी की
मजबूत भी नहीं
फिर भी
निकल आ बैठती हो
फेरती उंगलियां
जाती हैं धीरे से जकड़ती
होता नहीं कुछ भी सायास
प्रत्यक्ष भी नहीं
सपनों में गड्ड-मड्ड
रहती है होती
सफेदी
दिखती है चांदनी मटमैली
गुजरता है जब ठीक चांद के बगल से
एक पक्षी सिकोड़े पंख
गर्दन उठाए
बिखर जाती हैं आहिस्ते से बूंदें
छिटकते ही अलग जलधार से
टपकते नभ या आंखों से
झलक जाती हैं बूंदें
लिखा जा सकता है कुछ भी सफेदी पर
यादों के सहारे
हो गई है दूर
उत्सुक- प्रश्नकुल रहती थीं जो आंखें
उच्चरित होने से पहले शब्द
रह जाते थे अक्सर कांप कर ही जिस पंखुरी पर
तैरती रहती थी गंध जिसकी देहयष्टि की हवा में
भूल दिन-दोपहरी की चिन्ता
छूटती थी जो कहानी गंगा के किनारे
सलवटों सी हर बार होती वह नई थी
रह पाता था कब विन्यास ही थोड़ा संभलकर
छोड़कर पतवार लहरों पर तिरे थे
उकेरे कुछ निशान भी रेत पर ही
चीर संतुष्टि की सतह को
उभर आते हैं वो सभी
अक्सर यादों के सहारे
बेजान सुधियों के
हो गया मुहरबंद
लगा कील
दरवाजा ऊंचा परकोटे का
निकल नहीं पाया मैं
रहते समय
रह गया खड़ा देखता
विस्मित गुजरता समय
चली गई जकड़ती
लताएं
बेड़ियो से ज्यादा सखत और मजबूत
करुं नहीं पाऊं मैं कोशिश
मुक्ति की इससे
हैं हो गए तैनात
असंख्य पहरेदार परिधि पर
बस रह गए हैं साथ मेरे
लगे दीमक
स्मृतियों के खुले गवाक्ष
आते हैं रह-रहकर उन्हीं से
झकोरे
और जाते हैं पलट
पन्ने
बेजान सुधियों के
आमंत्रण
सपनों की राह में बनने लगे हैं गड्ढे
बरस रही है
इस बार फिर आसमान से
आग
रातों में भी चल रही है लू
खोलकर शरीर का रोयां-रोयां
धरती कर रही जद्दोजहद जिन्दगी की
चल रही है धूल भरी आंधी
आसार नहीं है कि होगी इस बार भी मौनसून से मुलाकात
घाट से दूर चली गई है गंगा
उदास हैं देवी महीनों से चढ़ाया नहीं है किसी ने सिंदूर
आओ कि बिछ गई हैं नीमकौडि़यां
फट रहे जामून
और रह-रह कर चू रहे महुए
आओ कि मुश्किल हो रहा है
पहचानना हवाओं में मिली गंध को
धधकती रेत पर आचमन की प्रतीक्षा में खड़ा मैं
लिख लिख कर हवा में मिटा रहा हूं तुम्हारा नाम
आओ कि देखकर भी इस बार देख नहीं पाउंगा तुम्हारा देखा हुआ चेहरा
संकल्प है नहीं करूंगा इस बार हस्ताक्षर भी तुम्हारी हथेली पर तुम्हारी ही दी कलम से
आओ कि विदा का वक्त है
कहो कि शुभ हो यह अंधेरे से अंधेरे की यात्रा
जानते हुए भी कहा झूठ
कहो कि होगा पाथेय
आओ कि
चाहिए ही अब तुम्हें आना
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