मीठी बोली भूल गया /अनंग
बाजारों के चकाचौंध में , गोबर होली भूल गया।
खरी-खड़ी वह बोल रहा है,मीठी बोली भूल गया।।
नशा कमाने का लत ऐसा, क्या अपने क्या बेगाने।
आजादी का वह दीवाना ,हंसी-ठिठोली भूल गया।।
तरह-तरह की मजदूरी कर,जोड़ लिया है थोड़ा धन।
अलग मकान बनाने में वह,थी हमजोली भूल गया।।
भोज किया बापू भी आए,पर दिन भर मेहमान रहे।
एक गरीब बहन उसकी, जो थी मुंहबोली भूल गया।।
शहरीकरण भुला देगा , सारे संबंधों - नातों को।
माटी- गोबर -कीचड़ की वह, रंग-रंगोली भूल गया।।
घुघनी-रस में दिन कट जाता ,रात भुने आलू में जी।
सामूहिक जीवन में किसने,यह बिष घोली भूल गया।।
नून-मिर्च-हथरोटी खाकर , बलशाली था अब रोगी।
टुकड़ों पर पलने वाला वह ,अपनी टोली भूल गया।।
बेटी-बहन किसी घर की हो,उसको अपनी लगती थी।
बढ़कर कंधा देने वाला , प्यारी डोली भूल गया।।
सारे द्वार खुले थे अपने , बैठ गए तो सब अपना।
काका के संग वह रस-दाना,काकी भोली भूल गया।।
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