कवि, समीक्षक और संस्कृति कर्मी।विद्यासागर
विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।
आज दुनिया के लगभग 150 विश्वविद्यालयों और संस्थानों में हिंदी में पठन-पाठन एवं शोध के कार्य हो रहे हैं।विदेशों से कई हिंदी पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है।हाल में अबू धाबी के न्यायालयों में हिंदी को तीसरी भाषा का दर्जा दिया गया है।2008 के न्यूयार्क में हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के तौर पर शामिल करने की मांग की गई थी।फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ ने हाल में एक फैसला लेकर हिंदी में रेडियो और समाचार बुलेटिन का प्रसारण शुरू किया है।2016 में विश्व आर्थिक मंच ने दुनिया की दस सर्वाधिक बोली जाने वाली और महत्वपूर्ण भाषाओं की सूची में हिंदी को शामिल किया है।
वैश्वीकरण के इस चुनौतीपूर्ण समय में हिंदी का प्रयोग और प्रभाव वैश्विक पटल पर बना हुआ है।इंटरनेट पर हिंदी के सैकड़ों कंटेंट डेवेलप हुए हैं।हिंदी के उपभोक्ताओं की बढ़ती संख्या से समझ सकते हैं कि हिंदी का संजाल फैल रहा है।एक बड़ा सवाल यह है कि दुनिया के देशों में हिंदी का प्रयोग और शिक्षा में स्थान कितना बढ़ा है, क्योंकि एक तथ्य यह है कि कैंब्रिज विश्वविद्यालय जैसी कुछ जगहों पर दशकों से चल रहा हिंदी का पाठ्यक्रम स्थगित कर दिया गया है।विदेशों के भारतीय युवक-युवतियों में हिंदी सीखने की प्रवृत्ति कम हो रही है।
इस परिचर्चा में विदेश में रहने वाले विद्वानों के विचार हैं।यहां हम उनके देश में हिंदी की स्थिति और उपस्थिति के बारे में जान सकते हैं।
सवाल : भूमंडलीकरण के बाद पहले से बहुत अधिक अंग्रेजीमय हो चुके विश्व में हिंदी की क्या स्थिति है? भारतीय परिवारों में हिंदी की क्या स्थिति है? हिंदी शिक्षण के स्तर और स्थिति पर थोड़ा प्रकाश डालें।आप इधर क्या लिख रहे हैं?
फ्रेंचेस्का ऑर्सीनीलंदन यूनिवर्सिटी की भूतपूर्व प्रो़फेसर और हिंदी की सुप्रसिद्ध विदुषी।चर्चित पुस्तकें :‘हिंदी का लोकवृत्त, ‘बफ़ॉर दे डिवाइड’ और हाल में ‘हिंग्लिश लाइव’ (रविकांत के साथ)। |
यू.के. में विद्यार्थी हिंदी खोज लेते हैं
यू.के. में भारत से आनेवाले परिवार ज़्यादातर पंजाब या गुजरात से आए थे, या तो सीधे हिंदुस्तान से या पूर्वी अफ्रीका में बसकर उखड़ने के बाद।इसलिए उनकी मातृभाषा पंजाबी या गुजराती थी।फिर भी उनके बच्चों ने अंग्रेज़ी और घरेलू पंजाबी और गुजराती के साथ साथ हिंदी को भी किसी तरह, ख़ासकर फ़िल्मों के ज़रिए या फिर कम्यूनिटी सेंटर्स के मा़र्फत, अपनाया।कुछ लोग हिंदी प्रदेश से भी यहां आए, सो उनके घर में हिंदी बोली जाती थी।इसलिए, यूं देखा जाए तो यू.के. में हिंदी में लिखने और पढ़नेवालों की तादाद कम नहीं है, जिसकी गवाही ‘पुरवाई जैसी पत्रिका और ‘कथा यू.के.’ जैसी संस्था देती हैं, भले उनके सदस्य ज्यादातर बुजुर्ग होते हों।लंदन में जब जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल के हिंदी से संबंधित प्रोग्राम होते हैं, तो यू.के. का हिंदी समुदाय आकर इकट्ठा हो जाता है।
मैंने तीन दशक तक यू.के. के विश्वविद्यालयों में हिंदी और विशेषकर हिंदी साहित्य को पढ़ाया।इस सिलसिले में दुनिया भर के विद्यार्थियों को देखा।उनमें यू.के. के प्रवासी भारतीयों के बच्चे भी थे और भारत और पाकिस्तान से आए विद्यार्थी भी।दोनों को मौखिक हिंदी में रवानगी थी, मगर हिंदी में लिखाई-पढ़ाई का वास्ता काफ़ी सीमित था।साहित्य की रुचि, उन्होंने अंग्रेज़ी किताबों से ही पाई थी।रश्दी और अरुंधती रॉय को सबने पढ़ा था, निराला या रेणु या गीतांजलि श्री का नाम भी किसी ने नहीं सुना था, और सुनते भी कैसे? यू.के. के बच्चों को ख़ैर हिंदी साहित्य की कोई जानकारी थी ही नहीं, मगर भारत से आए बच्चों ने भी स्कूली दिनों के बाद हिंदी साहित्य से रिश्ता तोड़ा था।इसके प्रति उदासीन या निराश-से हो गए थे।
मेरा काम यह था कि उनको जताऊं कि हिंदी साहित्य में बहुत सारे अच्छे और दिलचस्प लेखक और किताबें मौजूद हैं।कभी किसी मुद्दे के बहाने तो कभी भाषा की बारीकियों को सिखाने के वास्ते उनको मन्नू भंडारी की कहानियां, फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’, कृष्णा सोबती का ‘दिलोदानिश’, और गीतांजलि श्री के ‘माई’ और ‘हमारा शहर उस बरस’ को पढ़ाती।जिनकी किसी एक साहित्यिक विधा में रुचि थी, उनको उसके हिंदी नमूने दिखाती।जब उनको दूसरे विषयों के लिए भी पर्चे लिखने होते तो उनको हिंदी के मजेदार पाठ सुझाती, ताकि उनको लगे कि दुनिया में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में भी लोग सोचते हैं, और उनको पढ़ने से दिमाग़ खुल जाता है।इसी तरह ये विद्यार्थी यू. के. में आकर हिंदी की पुनः खोज करते रहे।
भाषा को लेकर लोगों के दिमाग में कई अवधारणाएं हैं जो परस्पर-विरोधी हैं और अकसर कष्ट पैदा करती हैं।जैसे अगर आप अंग्रेजी को तरजीह देते हैं तो हिंदी को नाकाफी या तुच्छ समझकर।आप हिंदी राष्ट्रभाषा पर गर्व करेंगे तो आपको लगेगा कि उसके लिए उर्दू नकारना जरूरी है।साथ ही आप हिंदी की कोई एक किताब को हाथ नहीं लगाएंगे और अपने बच्चों से कहेंगे कि अंग्रेजी पर खास ध्यान दो।भाषा को लेकर इतनी उलझी हुई सोच रखना हिंदुस्तान में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में उस फैले गहरे यथार्थ से मुंह मोड़ना है, जिसके तहत हमारे परिवारों में, हमारे माहौल में और हमारे इतिहास में लोग एक से अधिक भाषा सीखते, बोलते और पढ़ते आए हैं।
क्या एक से अधिक भाषा पर गर्व करना नामुमकिन या मना है? क्या अंग्रेजी को सीखने के लिए यह जरूरी है कि मैं अपनी हिंदी, पंजाबी, भोजपुरी या इतालवी को भूल जाऊं, या उनको ठुकराऊं? कतई नहीं।हमारे पूर्वजों ने ऐसा नहीं किया था, और षड्भाषी होना विशेष गुण समझते थे।भूमंडलीकरण के इस दौर में अंग्रेजी काम और संपर्क की भाषा ज़रूर हो गई है, मगर उनके ज्यादातर बोलनेवाले मूल अंग्रेजी भाषी नहीं होते और यही उसकी सांस्कृतिक समृद्धि और पहचान है।
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