गुरुवार, 30 सितंबर 2021

क्षणिकाएँ: प्रेम, समाज और प्रेमी / आदित्य रहबर /

 


१.

प्रेम उस काँटे की तरह है

जो चुभता रहा है हमारे समाज को सदियों से 


जबकि होना पुष्प था 

जो खिलता रहे उन प्रत्येक आँखों में

जहाँ, 

नफ़रतों की रेत ने अपने पाँव पसार रखे हैं! 


२.

हम दो प्रेम करने वालों की जाति देखते हैं

जो नहीं मिल रही होती

हम दिल और मन नहीं देखते

जो कब की मिल चुकी है

हमारा समाज-

मन से ज्यादा जाति देखता है

यह जानते हुए कि

अंततः जरूरी मन का मिलना ही होता है! 


३.

कुछ प्रेमी इस लिए भी 

असफ़ल कहलाते हैं प्रेम में

कि उन्होंने उस समाज से बगावत नहीं की

जिसने उनकी जाति का हवाला देकर छिन लिया 

उनसे उनका प्रेम

बगावत सफ़ल होने का एकमात्र ही जरिया है

हमारे सभ्य समाज में! 


४.

"प्रेम करना अश्लील होना है

और ब्याह दिया जाना सबकी मर्जी से, संस्कार है"

ये वो हथकड़ी है

जिसने कितने ही प्रेम को

उम्रकैद की सज़ा दिलाई है! 


५.

हमारा समाज

एक परंपरागत न्यायालय है

जहाँ, 

आधुनिकता की नदी बगल से बहती है

जिसमें न्यायालय से सज़ा सुनाए गये

दोषियों के शव बहाए जाते हैं ! 


६.

 

दरअसल,

हमारा समाज ऊसर हो चुकी मिट्टी है 

जिसे एक किसान की जरूरत है 

जो कोड़ कर बना सके इसे फिर से उपजाऊ

जहाँ उपजाये जा सके फसल प्रेम के! 


७.

२१ वीं सदी में भी भूमि का ऊसर रह जाना

धब्बा है -

उन चेहरों पर

जो कविताएँ मात्र लिखते हैं

बजाय जीने के! 


• आदित्य रहबर


[तस्वीर: फिल्म- थंगा मगन]

मलबा / कल्पना सिंह

  


कल मैंने रात एक घर के मलबे में बितायी,

सबकी आंखें बचा कर, कि कोई मुझे देख न ले।

मैं भी शर्मिंदगी की एक हद!


अपनी कल्पना में एक नन्ही लड़की बन कर

अपने घर की छत पर एक चारपाई 

मैंने फिर से बिछाई


और गर्मी की रात,

चांदनी का लिहाफ ओढ़े तकती रही तारों को,

अपने कवि के जन्म के पहले दिनों की तरह।


सारे पहर जाग कर मैंने 

उन आवाज़ों की प्रतीक्षा की

जिन्हें सुने आज वर्षों बीत गए,


पर सब के सब रहे मौन ,

यहाँ तक की वे आत्माएँ भी नहीं आईं

जो कभी बसती थीं हमारे घर के अंधेरे कोनों में


बिना किसी को चोट पहुंचाए,

विवश करती यह सोचने पर कि

फिर ये सारे दर्द कहाँ से आये?


गहन अंधकार में मैंने फिर से

उस गर्भ में प्रवेश करने की चेष्टा की,

जिससे इस जन्म को पाया,


और उन उंगलियों को टटोला

 जिन्होंने मुझे चलना सिखाया।

पर आज मैं यहां अकेली कैसे?


अँधेरे में डूबे हर कोने में 

मैंने हर किसी को ढूँढा, 

और तारों में खो गई दादी को।


एक कहानी काश वह फिर से सुनाये 

तो नींद आए। एक कहानी से हे ईश्वर! 

किसी बच्चे का विश्वास कभी न उठ पाये!


© कल्पना सिंह

बुधवार, 29 सितंबर 2021

बस_अपने_लिए / हेमंत बंसल

मम्मी ये क्या कह रही हो! इस उम्र में क्या ये सब अच्छा लगता है. कुछ हमारे बारे में भी सोचो! समाज क्या कहेगा? आपकी बहु के मायके वाले हम पर हँसेगे."

ऋषभ ने एक साथ बहुत से उलाहने माँ के ऊपर दाग दिए. 

राखी ने एक नज़र ऋषभ व उसकी पत्नी को देखा. मौन तोड़कर बेटी से बोली : "रितिका, तुम्हें मम्मी से कोई शिकायत नहीं है क्या?"

"मम्मी, भैया ने जो सब कहा वो मेरी ओर से भी है. आप खुद सोचिये मेरे ससुराल वाले क्या कहेंगे. आपके दामाद और मैं कहीं मुँह नहीं दिखा पाएंगे !" रितिका ने भी भाई वाली शिकायतों पर मुहर लगा दी. 


राखी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया - "मेरे बच्चों तुम बहुत छोटे थे, ज़ब तुम्हारे पिता चल बसे. तब कोई समाज नहीं आया मेरी मदद करने. स्वयं मैंने नौकरी की. तुम लोगों को पढ़ाया, शादियां की. पर मुझे जीवन में क्या मिला? "


राखी उठकर खिड़की के पास आ गयी. ढलती शाम की गहराई सी राखी की सोच उसके शब्दों में साकार होने लगी: " तुम दोनों अपने जीवन में आगे बढ़ गए. मैं आज रिटायर हो चुकी हूँ. सारा दिन अकेले कमरे में पड़ी रहती हूँ. रितिका, तुम कभी कभी फ़ोन करती हो. पर क्या कभी तुमने मेरे पास बिना मतलब के बैठ कर मेरा अकेलापन बाँटने की कोशिश की"


"मम्मी, अब मैं अपने बच्चों, पति को छोड़कर आपके पास कैसे आ जाऊं! मेरी अपनी जिम्मेदारियां हैं. "

राखी हँस पड़ी. 

"जिम्मेदारियां ! हाँ सही है. ज़ब तुम्हारा बेटा, बेटी हुए, तब तुम दो - दो महीने मेरे पास रहीं. दामाद जी आराम से अकेले रह लिए. पर अब एक दिन भी मम्मी के पास बैठने की फुरसत नहीं. "


ऋषभ :" मम्मी, मैं और गरिमा तो आपके साथ रहते हैं न. क्या कमी है आपको. नौकर भी है."

"बेटा, दो समय खाना मिल जाना ही इंसान की जरूरत नहीं होती. जीवन से ओर भी आकांक्षा होती है. तुम ओर बहु सुबह जाते हो, शाम को आते हो फिर तुम लोगों की अपनी पार्टियां, फ्रेंड सर्कल सब. बस रविवार को दो मिनट पूछ लेते हो - मम्मी कुछ चाहिए तो नहीं ! क्या मेरा जीवन नौकर से मिले खाने, कमरे में लगे टीवी, मोबाइल ओर रविवार को तुमसे मिले दो बोल तक सीमित है. "


राखी ने भर आयी आँखों के आंसू अंदर ही समेटते हुए आगे कहा : " मेरी उम्र 58 साल है. यानी तुम सब व समाज की नज़र में बूढ़ी औरत! जिसे बस भजन करना चाहिए, बच्चों, पोते-पोतीयों  में ख़ुशी ढूंढ़नी चाहिए. लेकिन मेरी आकांक्षा कुछ अलग है."


राखी कुछ रुकी फिर बोली:" मैंने यह घर बेच दिया है. इससे मिला सारा पैसा मैं रखूंगी. रितिका, सारे जेवर तुम्हारे.जो फ्लैट किराये पर दिया हुआ था, वो खाली करवा लिया है. ऋषभ वो तुम्हारा है. तुम जल्दी ही वहाँ शिफ्ट हो जाओ."

ऋषभ, रितिक अवाक से मम्मी को देख रहे थे. 


राखी ने अंतिम फैसला सुनाया : "कल मैं और  नवीन जी विवाह कर रहे हैं. उसके बाद हम दोनों विश्व भ्रमण पर जा रहे हैं. तुम लोग विवाह में आओगे तो अच्छा लगेगा. नहीं भी आओगे तो कोई बात नहीं. मुझे बचा हुआ जीवन अब अपने लिए जीना है. "

ये कहते हुए राखी अपने कमरे में चली गयी. कमरे में लाल साड़ी टंगी हुई थी. मेज पर पासपोर्ट रखा था. बस अपने लिए जीने के सुंदर सपने के साथ राखी बिस्तर पर लेट गयी.🙏🙏🌹🌹

मंगलवार, 28 सितंबर 2021

ख्वाब / रतन वर्मा

 ख्वाब आंखों में बसते -बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे,

फ़लसफ़ा ज़िन्दगी का है शायद यही,

गुल की चाहत में कांटे ही चुनते रहे !


 खुशबुओं का भरम इतना मजबूत था ,

आईने में भी चेहरा न खुद का दिखा,

आंख में जल का छाया लिये उम्र भर,

सहरा-सहरा ही हम तो भटकते रहे,

ख्वाब आंखों में बसते-बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे....


टूटकर ख्वाब ने मुझको समझा दिया,

ना बहारों का था कुछ अता ही पता,

था खिज़ाओं से मैं इस तरह से घिरा,

आसमां से था आकर जमीं पे गिरा !

मुट्ठियों से थे सबकुछ फिसलते गये,

ख्वाब आंखों में बसते-बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे !


था पता, गुल खिला है, तो मुरझेगा भी,

है जो मधुमास, पतझड़ भी आयेगा ही,

फिर भी, भ्रम में ही ख़ुद को समेटे रहे,

आँख दर्पण के सम्मुख भी मूंदे रहे !

धूल चेहरे पे थी, साफ दर्पण किये,

ख्वाब आंखों में बसते-बिखरते रहे,

फिर भी ख्वाबों में ही हम भटकते रहे !


रतन वर्मा 

घर तो स्त्री प्रधान ही होता है

 जय श्री महालक्ष्मी🌹🌹👏


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


एक राजा था ।.. उसने एक सर्वे करनेका सोचा कि 

मेरे राज्य के लोगों की घर गृहस्थि पति से चलती है या पत्नि से..। 

उसने एक ईनाम रखा कि "  जिसके घर में पतिका हुकम चलता हो उसे मनपसंद घोडा़ ईनाम में मिलेगा और जिसके घर में पत्नि की सरकार हो वह एक सेब ले जाए.. ।

एक के बाद एक सभी नगरजन सेब उठाकर जाने लगे । राजाको चिंता होने लगी.. क्या मेरे राज्य में सभी सेब ही हैं ?

इतने में एक लम्बी लम्बी मुछों वाला, मोटा तगडा़ और लाल लाल आखोंवाला जवान आया और बोला 

" राजा जी मेरे घर में मेरा ही हुकम चलता है .. ला ओ घोडा़ मुझे दिजीए .."

राजा खुश हो गए और कहा जा अपना मनपसंद घोडा़ ले जा ..। जवान काला घोडा़ लेकर रवाना हो गया । 

घर गया और फिर थोडी़ देरमें दरबार में वापिस लौट आया।

राजा: " क्या हुआ जवामर्द ? वापिस क्यों आया !

जवान : " महाराज, घरवाली कहती है काला रंग अशुभ होता है, सफेद रंग शांति का प्रतिक होता है तो आप मुझे सफेद रंग का घोडा़ दिजिए

राजा: " घोडा़ रख ..और सेब लेकर चलती पकड़ ।

इसी तरह रात हो गई .. दरबार खाली हो गया लोग सेब लेकर चले गए ।

आधी रात को महामंत्री ने दरवाजा खटखटाया..

राजा : " बोलो महामंत्री कैसे आना हुआ ?

महामंत्री : " महाराज आपने सेब और घोडा़ ईनाम में रखा ,इसकी जगह एक मण अनाज या सोना महोर रखा होता तो लोग लोग कुछ दिन खा सकते या जेवर बना सकते ।

राजा :" मुझे तो ईनाम में यही रखना था लेकिन महारानी ने कहा कि सेब और घोडा़ ही ठीक है इसलिए वही रखा ।

महामंत्री : " महाराज आपके लिए सेब काट दुँ..!!

राजा को हँसी आ गई । और पुछा यह सवाल तुम दरबारमें या कल सुबह भी पुछ सकते थे । तो आधी रात को क्यों आये ??

महामंत्री : " मेरी धर्मपत्नि ने कहा अभी जाओ और पुछ के आओ सच्ची घटना का पता चले ..।

राजा ( बात काटकर ) : " महामंत्री जी , सेब आप खुद ले लोगे या घर भेज दिया जाए ।" 


 समाज चाहे पुरुषप्रधान हो लेकिन संसार स्त्रीप्रधान है।


सुप्रभात वंदन

🙏🏼 जय माता लक्ष्मी 🙏🏼

गया तीर्थ की महिमा

 ‘गयागमन मात्रेण पितृणामऋणं भवेत्।’


अर्थात्–’गयातीर्थ जाने मात्र से ही व्यक्ति  पितृऋण से मुक्त हो जाता है।’


‘गय’ असुर के नाम पर पड़ा गयातीर्थ का नाम


पूर्वकाल में गय नामक असुर ने दारुण तपस्या की, जिससे डरकर सभी देवताओं ने भगवान विष्णु से उसके वध की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा–’आप लोगों के कल्याण के लिए इसका महादेह गिराया जाएगा।’  एक बार गयासुर शिवपूजन के लिए क्षीरसमुद्र से कमल लेकर आ रहा था, तो भगवान विष्णु की माया से मोहित होकर कीकट देश में शयन करने लगा।


 उसी स्थिति में भगवान विष्णु की गदा से वह असुर मारा गया। भगवान विष्णु ने कहा कि गयासुर का देह पुण्यक्षेत्र के रूप में होगा। उस गयासुर के नाम पर ही ‘गयातीर्थ’ नाम प्रसिद्ध हुआ। गयासुर की पवित्र देह में ब्रह्मा, जनार्दन, भगवान शिव व प्रपितामह स्थित हैं। यहां पर भगवान विष्णु मुक्ति देने के लिए ‘गदाधर’ रूप में स्थित हैं।


गयासुर की पवित्र देह ही बन गयी गयातीर्थ


एक अन्य कथा के अनुसार गय नामक असुर ने उत्कट तप से भगवान विष्णु से यह वरदान प्राप्त किया कि जो भी उसको स्पर्श करेगा, वह पवित्र होकर विष्णुलोक को प्राप्त होगा। इस वरदान से यमलोक सूना हो गया और विष्णुलोक में अधर्मी जाने लगे। यमलोक की यह दशा देखकर यमराज ने त्रिदेवों से विनती की। तब ब्रह्माजी ने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर बहुत पवित्र है; अत: सभी देवता चाहते हैं कि तुम्हारी पीठ पर हवन-पूजन हो।


 यह सुनकर गयासुर बहुत प्रसन्न हुआ। विष्णुजी सहित सभी देव उसकी पीठ पर स्थित हो गए। जैसे ही गयासुर की पीठ पर हवन शुरु हुआ उसका सिर धड़ से अलग हो गया और शरीर हिलने लगा। तब देवताओं ने एक शिला उसके शरीर पर रख दी। भगवान विष्णु स्वयं उस शिला में प्रवेश कर गए। सभी देवताओं को अपनी पीठ पर स्थित देखकर गयासुर ने भगवान विष्णु से कहा कि–


’आप मुझे पत्थर की शिला बनाकर इस स्थान पर स्थिर कर दें और सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इस शिला पर विराजमान रहें। यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थ बन जाए।’


विष्णु ने वरदान देते हुए कहा–’गयासुर का देह मोक्षस्थली के रूप में होगा। यहां जो व्यक्ति भक्ति, यज्ञ, श्राद्ध, पिण्डदान व स्नान आदि करेगा, उसे स्वर्ग व ब्रह्मलोक की प्राप्ति होगी।’ इस तरह गयासुर के बलिदान से पांचकोश का गयाक्षेत्र मोक्षतीर्थ बन गया।


ब्रह्माजी ने पांच कोश में फैले उस गयातीर्थ का दान ब्राह्मणों को कर दिया। सभी देवताओं ने गयासुर को मरने बाद उसके शरीर में रहने का वरदान दिया था इसलिए गयाक्षेत्र में विभिन्न देवताओं के मन्दिर बने हैं–रामतीर्थ, अक्षयवट, गयाशीर्ष, क्रौंचपदतीर्थ, ब्रह्मेश्वर आदि। गयातीर्थ में दिन और रात प्रत्येक समय श्राद्ध किया जा सकता है।


भगवान विष्णु स्थित हैं गयातीर्थ में पितृदेवता के रूप में


आदिकाल से ही यहां पर आदिदेव भगवान गदाधर विष्णु पितृदेवता के रूप में शिलारूप में स्थित हैं। जिस प्रकार पृथ्वी पर स्थित सभी तीर्थों में गया श्रेष्ठ है उसी प्रकार शिला के रूप में विराजमान भगवान गदाधर श्रेष्ठ हैं। यहां पर ब्रह्मा आदि देवों ने भगवान गदाधर की पूजा की थी अत: जो मनुष्य भगवान गदाधर की पूजा करता है, उन्हें गंध, पुष्प, सुन्दर पुष्पमालाएं, धूप, नैवेद्य, वस्त्र, मुकुट, चामर, घण्टा, दर्पण, पिण्ड, अन्न आदि प्रदान करता है, वह धन-धान्य, आयु, आरोग्य, पुत्र-पौत्रादि, सम्पत्ति, श्रेय, विद्या और सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करता है।


 भगवान गदाधर की पूजा से राज्य चाहने वाला राज्य और शान्ति चाहने वाला शान्ति को प्राप्त कर लेता है। गयातीर्थ में स्नान व भगवान गदाधर का दर्शन करने से मनुष्य की इक्कीस पीढ़ियां ब्रह्मलोक को प्राप्त करती हैं और वह अपने तीनों ऋणों (देव, गुरु व पितृऋण) से मुक्त हो जाता है


क्यों चाहता है हर प्राणी गया में श्राद्ध और पिण्डदान?


गया में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहां पर तीर्थ न हो। पांचकोस के गयातीर्थ में जहां-कहीं पर भी पिण्डदान करने वाला मनुष्य अक्षयफल प्राप्त करके अपने पितरों को ब्रह्मलोक प्रदान करता है।


पंचकोशं गयाक्षेत्रं क्रोशमेकं गयाशिर:।

तत्र पिण्डप्रदानेन तृप्तिर्भवति शाश्वती।। (गरुड़पुराण)


▪️ ‘गयासिर’ जिसे ‘फल्गुतीर्थ’ भी कहते हैं, यहां पिण्डदान करने से पितरों को शाश्वत तृप्ति व परमगति प्राप्त होती है। पृथ्वी पर जितने भी तीर्थ, समुद्र और सरोवर हैं, वे सभी प्रतिदिन एक बार फल्गुतीर्थ आते हैं।


▪️फल्गुनदी के किनारे विष्णुपाद मन्दिर में एक शिला पर भगवान विष्णु के चरण हैं जो गयासुर के हिलते हुए शरीर को स्थिर करने के लिए भगवान विष्णु ने गयासुर की छाती पर रखे थे। ये ‘धर्मशिला’ के नाम से जाने जाते हैं।


▪️मंदिर परिसर में एक बरगद का वृक्ष है जिसे ‘अक्षयवट’ कहा जाता है, इस वृक्ष के नीचे मृतकों के अंतिम संस्‍कार की रस्‍में की जाती हैं। अक्षयवटतीर्थ में पितरों के लिए जो कुछ भी किया जाता है, वह अक्षय हो जाता है।


▪️प्रेतशिलातीर्थ–जिन बन्धु-बांधवों को प्रेतयोनि प्राप्त हो गई है, उनका यहां श्राद्ध करने से पितृगण प्रेतभाव से मुक्त हो जाते हैं।


▪️मकर-संक्रान्ति, चन्द्रग्रहण व सूर्यग्रहण के समय गयातीर्थ में जाकर पिण्डदान करने का दुर्लभ फल मिलता है। गयातीर्थ में श्राद्ध करने से मनुष्य के पंचमहापापों का नाश हो जाता है।


अस्वाभाविक मृत्यु वाले जीवों की गयातीर्थ में मुक्ति


–जिनका मृत्यु के बाद (शव न मिलने से) संस्कार नहीं हो पाता है,

–जो मनुष्य पशुओं द्वारा मारे जाते हैं,

–जिन मनुष्यों की चोर-डकैतों द्वारा हत्या हो जाती है,

–जिनकी मृत्यु सर्प के काटने से होती है।

उन सभी का गया में श्राद्ध करने से वे मुक्त होकर स्वर्ग चले जाते हैं, उनकी सद्गति हो जाती है।


पिण्डदान के समय करें यह प्रार्थना


हे गदाधर विष्णु! मैं पितृकार्य के लिए इस गयातीर्थ में आया हूँ। मेरे द्वारा किए गए इस पितृकार्य के आप साक्षी हों। हमारे कुल में जो पितर पिण्डदान एवं जल-तर्पण से वंचित रहे हैं, जो चूडाकर्म-संस्कारविहीन हैं, जो गर्भपात के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, जिनका अग्निदाह-संस्कार नहीं हुआ है, जिनकी अग्नि में जलकर मृत्यु हुई है, और जो दूसरे पितृगण हैं, वे मेरे द्वारा किए गए पिण्डदान से तृप्त हों, और तृप्त होकर परमगति को प्राप्त हों।


पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, पितामही, प्रपितामही, मातामह, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्धप्रमातामही, और अन्य पितृजनों को मेरे द्वारा दिया गया यह पिण्ड अक्षय होकर प्राप्त हो।


नरक के भय से डरे हुए पितृजन इसलिए पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा करते हैं कि गया में कोई भी मेरा पुत्र जाएगा तो हमारा उद्धार करेगा। यदि उसके पैरों से भी इस तीर्थ के जल का स्पर्श होगा, तो हमें निश्चित ही कुछ-न-कुछ सद्गति मिल ही जाएगी।


गया में किया जाता है अपना भी श्राद्ध


मनुष्य को इस गयाक्षेत्र में अपने लिए भी तिलरहित पिण्डदान करना चाहिए। भगवान जनार्दन के हाथ में अपने लिए पिण्डदान समर्पित कर कहें–


’हे जनार्दन भगवान विष्णु! मैंने आपके हाथों में वह पिण्ड प्रदान किया है, अत: परलोक में पहुंचने पर मुझे मोक्ष प्राप्त हो। ऐसा करने से मनुष्य पितृगणों के साथ स्वयं भी ब्रह्मलोक प्राप्त करता है।’


गयातीर्थ की महिमा इन शब्दों से जानी जा सकती है–


गृहाच्चलितमात्रस्य गयायां गमनं प्रति।

स्वर्गारोहण सोपानं पितृणां तु पदे पदे।। (गरुड़पुराण)


‘गया यात्रा के लिए मात्र घर से चलने वाले के एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनते जाते हैं।’

सोमवार, 27 सितंबर 2021

कंथा पर विचार विमर्श चर्चा गोष्ठी

 🍀  पक्की याद में ढलती एक शाम  🍀


🌺 लिखा हुआ छप जाए और उस पर विशेषज्ञ गण विमर्श के लिए भी जुट आएं, लेखन-सुख की यही तो पराकाष्ठा है! एक नाचीज़ लेखक के लिए इससे बड़ा कहां कोई अन्य सुख मुमकिन है ! 


🌹 बहरहाल, वाराणसी के लोहटिया स्थित रूपवाणी के स्टूडियो में रविवार (27 सितंबर 2021) की शाम तो जैसे औचक एक अनदेखा सपना सीधे साकार हो जाने जैसा ही अनसोचा अनमोल अनुभव दे गई ! 


🌺 "कंथा" (जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर उपन्यास ; राजकमल प्रकाशन) पर परिचर्चा के लिए पहुंचे विमर्शकारों में अध्यक्षा डॉ. चंद्रकला त्रिपाठी से तो वर्षों पहले बनारस में ही एक आयोजन में साक्षात्कार हो चुका था लेकिन मुख्य वक्ता डॉ. अवधेश प्रधान से लेकर बीज वक्तव्यकार डॉ. कमलेश वर्मा तक, अपने ही नगर के ख़ुद के जैसे लोग भी ऐसे निकले, जिनसे पहली भेंट यहीं मुमकिन हो रही थी ! 


ऐसे तो हम सामाजिक ठहरे !.... तीव्रता से महसूस हुआ, हमें अपनी सक्रियताओं के शिल्प पर सोचना तो चाहिए ही.... 


🌹 "कंथा" ने इतना तो किया कि अग्रणी-अग्रजों का भी ध्यान  खींचा !


कुछ यों कि पहली देखा-देखी और कुछ दूरी से परिचय-अभिवादन पर अग्रज साहित्यकार डॉ. अवधेश प्रधान ने उठते हुए हांक लगाई, "....श्यामल जी, ऐसे काम नहीं चलेगा.... आइए, गले मिलना होगा..."


...और पास पहुंचते ही आगे, "...हमें लगा था "कंथा" का लेखक बुज़ुर्ग होगा... आप तो जवान..." इसके साथ ही उपन्यास पर कुछ अंतरंग अनमोल वाक्य !


🌺 "कंथा" पर विमर्श कैसा रहा या किसने कैसे-क्या कुछ कहा-सुना, यह सब कहने-सुनने या पूछने-बताने की अब जरूरत कहां रह गई !.... 


राजकमल प्रकाशन ने इस पूरे कार्यक्रम को  लाइव रूप दे डाला, लिहाज़ा सम्पूर्ण वीडियो सुलभ है... 


इसका लिंक यह : 


https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=4533284053396982&id=100001462977966


Vyomesh Shukla Krishna Mohan Ravindra Tripathy Rakesh Kumar Singh Rupa Singh Rajkamal Prakashan Samuh आमोद महेश्वरी आमोद महेश्वरी - Amod Maheshwari Satyanand Nirupam Anupam Parihar

दृष्टि दोष

 --------// दृष्टि दोष //----------


एक नदी में कुछ ऋषि पुत्रियाँ नग्न-अर्धनग्न अवस्था में स्नान कर रही थीं । कुछ पानी के अंदर थी और कुछ किनारे बैठी हँसी ठिठोली करती हुईं अपना अपना शरीर साफ कर रही थीं । तभी उन्हें पदचाप सुनाई दी । देखा तो व्यास ऋषि इधर ही आ रहे थे । 


उनके निकट आते ही बाहर बैठीं ऋषिकन्याएँ  जल के अंदर चली गईं और उनके आगे बढ़ते ही फिर से बाहर आ गयी।  थोड़ा आगे जाकर ऋषि ने नदी से जल ग्रहण किया और वापस चले गए। इस बार फिर से कन्याएं जल में उतर गयीं । 


थोड़ी ही देर में उधर से पदचाप सुनाई पड़ने पर कन्याओं ने देखा कि व्यास ऋषि के युवा पुत्र शुकदेवजी आ रहे हैं । कन्याएं वैसी ही बैठी स्नान करती रहीं और ब्यास जी आगे निकल गए । तभी कन्यायों ने देखा कि व्यास ऋषि अचानक इधर ही आ रहे हैं तो वे पानी मे उतर गयीं ।


इसबार व्यास ऋषि वहाँ ठहरे और बोले - पुत्रियों! मुझे यह देखकर आश्चर्य हो रहा है कि मुझ बूढ़े को देखकर तुम सभी को लज्जा और झिझक का आभास हो रहा है किंतु मेरे युवा पुत्र को देखकर कुछ भी नहीं । ऐसा क्यों ?

एक कन्या ने गले तक जल में रहते हुए ही हाथ जोड़ते हुए कहा - क्षमा करें ऋषिवर! यह तो दृष्टि और विचारों के कारण ऐसा हो रहा है ।


ऋषि ,- मैं समझा नहीं । कृपया स्पष्ट कहें ।


कन्या - ऋषिवर, आपने हमें स्नान करते हुए न केवल देखा बल्कि हमारी क्रियाओं को भी संज्ञान में लिया जबकि वे आ रहे (एक तरफ संकेत करते हुए) शुकदेव जी ने न तो हमें स्नान करते हुए देखा और न हमारी क्रियाओं को संज्ञान में लिया ।


ऋषि - ऐसा कैसे सम्भव है कि शुकदेव ने तुम सभी को देखा ही न हो!


फिर समीप आने पर उन्होंने शुकदेव जी को रोककर पूछा - शुकदेव, क्या आपने इन कन्याओं को तट पर स्नान करते हुए नहीं देखा ?


शुकदेव जी - तात! कौन सा तट और कौन सी कन्याएं ! मैं तो प्रभुपद में निमग्न हूँ ।


और वे प्रणाम करते हुए आगे चले गए ।


ऋषि - क्षमा करना कन्याओं, आज मैं समझ गया कि शुकदेव क्यों श्रेष्ठ है ।


निष्कर्ष : ये दृष्टि ही तो है कि जब स्वयं की माँ, बहन या बेटी के गुह्य अंग दिखते हैं तब यह झुक जाती है और विचार भी उत्तेजक नहीं होते हैं बल्कि हम धीरे से या तो उस स्थान से हट जाते हैं या फिर अन्यत्र देखने लगते हैं। किन्तु यहीं पर यदि इनसे पृथक कोई अन्य स्त्री कुछ ऐसी ही दशा में होती है तो दृष्टि और विचारों में उलट प्रतिक्रिया होने लगती है । हम उनका पीछा भी करते हैं । दोष फिर भी स्त्री का .. भला क्यों ?


सभी यही कहते हैं कि हमारे घर की स्त्रियाँ ऐसी नहीं हैं किन्तु कभी दूसरों की दृष्टि और विचारों से भी उन्हें परख कर देख लेते तो शायद दोष किसका है समझ मे आ जाता । भइया जी, जो विचार और दृष्टि हम दूसरे की बहन बेटियों के लिए रखते हैं, दूसरों की  वैसी ही दृष्टि और विचार हमारी बहन बेटियों के लिए भी रहते हैं चाहे हम उन्हें कितने ही परदे और बंदिशों में रख लें।


दूसरों के कपड़े या भाव भंगिमा पर कटाक्ष करने से पहले हमें अपनी नज़र और विचारों को अनुशासित और संयमित रखना पड़ेगा । - 'जय' हो ।


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रविवार, 26 सितंबर 2021

रवि अरोड़ा की नजर से......

 देखो एक नदी जा रही है  / रवि अरोड़ा


सोशल मीडिया पर सुबह से डॉटर्स डे के मैसेज छाए हुए हैं । इन मैसेज के बीच हौले से किसी ने नदी दिवस का भी मैसेज भेज दिया । याद आया अरे आज तो नदी दिवस भी है । हालांकि ये दिवस विवस अपने समझ में नहीं आते और मुझे अच्छी तरह पता है कि ये बाजार के टोटके भर होते हैं । पश्चिम से आई इस संस्कृति को पश्चिम ने ही नाम दिया है हॉलमार्क डे । माना जाता है कि ग्रीटिंग कार्ड बेचने वाली कंपनी हॉलमार्क ने ही ऐसे दिवसों की इजाद की थी । इस दिन कार्ड खरीदने की फुर्सत भी लोगों के पास हो इसलिए ही इतवार को ही अधिकांश ऐसे दिवस मनाए जाते हैं । इसी कड़ी में डॉटर्स डे और रिवर डे सितंबर के चौथे रविवार को मनाए जाते हैं । हो सकता है दिवसों के इन बाजारी टोटकों के आप हिमायती न हों मगर पता नहीं क्यों मुझे इनमें कोई खास खराबी नज़र नहीं आती । धर्म और सस्कृति के नाम पर यूं भी तो हजार खुराफातें हम करते ही हैं , ऐसे में दो चार दिन और ये पाखंड कर लिया तो क्या फर्क पड़ता है । 


खैर , बेटी और नदी के संदेश मिले तो न जाने क्यों मन उनके बीच तुलना सी करने लगा । हैरानी हुई कि इन दोनों के बीच समानताएं ही समानताएं हैं । सच कहूं तो एक में ऐसा कुछ भी नहीं जो दूसरी में न हो । दुनिया की तमाम संस्कृतियां नदियों के इर्द गिर्द जन्मी तो वे महिलाएं यानी बेटियां ही थीं जिन्होंने उन्हें सुरक्षित रखा । हमारी अपनी भारतीय संस्कृति में तो नदी को मां का ही दर्जा दिया गया जो स्वयं एक बेटी भी है । हम नदियों को पूजते हैं तो कन्याओं के भी पांव बघारते हैं । दोनो ही हमारे जीवन को संवारती हैं और फिर भी अनुशासित रहते हुए  युग युगांतर से अपने लक्ष्य की ओर बिना रुके बढ़ती रहती हैं । बेशक हम लोग इन दोनों के मार्ग में रोड़े अटकाते रहते हैं और उनके अस्तित्व को तरह तरह के बांध बनाकर चुनौतियां देते रहते हैं मगर फिर भी उनके प्रवाह को हम स्थाई तौर पर कभी  बाधित नही कर पाते । हां हमारी खुआफातें बढ़ें तो अपने तट तोड़ना दोनो को आता है । अब उनकी अठखेलियों को हम उनकी जीवंतता न मान कर यदि कुछ और कहने लगें तो यह उनके प्रति ज्यादती न होगी तो और क्या होगी ? दुर्भाग्य ही है कि आज के हालात दोनों के लिए अच्छे नहीं हैं । नदियां खतरे में हैं तो बेटियां भी कहां सुरक्षित हैं । अखबार रंगे रहते हैं बेटियों के प्रति अत्याचार की खबरों से । नदी भी कोई साफ सुथरी अब कहां बची ? दोनो के लिए खतरा हैं वे लोग जो उन्हें अपनी संपत्ति समझते हैं ।  दोनो के लिए उनके अपने ही खतरा हैं । वही दुश्मन हैं जो सुरक्षा का दावा करते हैं । क्या विडंबना है कि हमारी बेटियों और हमारी नदियों दोनो का भाग्य भी हूबहू एक जैसा ही है । 


बैठा हिसाब लगा रहा हूं कि कुदरत ने भी बेटियों और नदियों को एक ही पाले में क्यों रखा है ? जिन संस्कृतियों ने बेटियों की कद्र नहीं की उनको कुदरत ने नदियां भी तो नहीं दीं । जिन्होंने अपनी बेटियों का सम्मान नहीं किया उनके हिस्से नदियां भी तो मैली ही आईं । जहां जहां बेटियों के रास्ते रोक गए उन मुल्कों और संस्कृतियों के हिस्से की नदियां भी अपने महासागर तक कहां पहुंची और किसी खारे पानी की झील अथवा रेत में खुद को गर्क करती नज़र आईं ? वैसे अगर मेरी बात आपको भाषण जैसी न लगे तो आप एक प्रयोग करना । कोई नदी दिखे तो समझना किसी की बेटी है और कोई बेटी दिखे तो मन ही मन कहना देखो एक नदी जा रही है । इससे दोनो का भला होगा ।

शनिवार, 25 सितंबर 2021

श्राद्ध के 6 पवित्र लाभ और तुलसी का महत्व - कृष्ण मेहता

 

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भविष्य पुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों का है वर्णन 

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तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितर गण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरुढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।

पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न -----------------------------------

श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है... 

यमराजजी का कहना है कि–

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* श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।

* पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।

* परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।

* श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।

* पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।

* श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता वरन् वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।

भविष्यपुराण के अन्तर्गत बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन हैं। यह बारह प्रकार के श्राद्ध हैं-

1. नित्य- प्रतिदिन किए जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं।

2. नैमित्तिक- वार्षिक तिथि पर किए जाने वाले श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं।

3. काम्य- किसी कामना के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं।

4. नान्दी- किसी मांगलिक अवसर पर किए जाने वाले श्राद्ध को नान्दी श्राद्ध कहते हैं।

5. पार्वण - पितृपक्ष, अमावस्या एवं तिथि आदि पर किए जाने वाले श्राद्ध को पार्वण श्राद्ध कहते हैं।

6. सपिण्डन- त्रिवार्षिक श्राद्ध जिसमें प्रेतपिण्ड का पितृपिण्ड में सम्मिलन कराया जाता है, सपिण्डन श्राद्ध कहलाता है।

7. गोष्ठी- पारिवारिक या स्वजातीय समूह में जो श्राद्ध किया जाता है उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।

8. शुद्धयर्थ- शुद्धि हेतु जो श्राद्ध किया जाता है उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। इसमें ब्राह्मण-भोज आवश्यक होता है।

9. कर्मांग- षोडष संस्कारों के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।

10. दैविक - देवताओं के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।

11. यात्रार्थ- तीर्थ स्थानों में जो श्राद्ध किया जाता है उसे यात्रार्थ श्राद्ध कहते हैं। 

12. पुष्ट्यर्थ- स्वयं एवं पारिवारिक सुख-समृद्धि व उन्नति के लिए जो श्राद्ध किया जाता है उसे पुष्ट्यर्थ श्राद्ध कहते हैं।

पंडित कृष्ण मेहता ने कहा की,,,देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।' इस मन्त्र का श्राद्ध के आरम्भ और अन्त में तीन बार जप करे । पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिए । इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनो लोकों के पितर तृप्त होते हैं । श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का सूत देना चाहिए । ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है । विद्वान पुरुष, जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दें; क्योंकि उससे पितरों को तृप्ति नहीं होती और दाता के लिए भी अन्याय का फल प्राप्त होता है । पिता आदि में से जो जीवित हो, उसको पिण्ड नहीं देना चाहिए, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम भोजन कराना चाहिए । भोग की इच्छा रखने वाला पुरुष श्राद्ध के पश्चात पिण्ड को अग्नि में दाल दे और जिसे पुत्र की अभिलाषा हो, वह माध्यम अर्थात पितामह के पिण्ड को मंत्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नी को हाथ में दे दे और पत्नी उसे खा ले । जो उत्तम कान्ति की इच्छा रखने वाला हो, वह श्राद्ध के अनन्तर सब पिण्ड गौवों को खिला दे। बुद्धि, यश और कीर्ति चाहने वाला पुरुष पिण्डों को जल में दाल दे । दीर्घायु की अभिलाषा वाला पुरुष उसे कौवो को दे दे । कुमारशाला की इच्छा रखनेवाला पुरुष वह पिण्ड मूगों को दे दे । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणो से "पिण्ड उठाओ" ऐसी आज्ञा लेले; उसके बाद पिण्डों को उठाये । अतः ऋषियों की बताई हुई विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करें; अन्यथा दोष लगता है और पितरों को भी नहीं मिलता ।

अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध की सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है । जो अपने वैभव के अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त, सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर देता है ।

मुनियों ने पूछा: ब्रह्मन !  जिसके पिता तो जीवित हों, किन्तु पितामह और प्रपितामह की मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए यह विस्तारपूर्वक बताइये ।

व्यास जी बोले: पिता जिनके लिए श्राद्ध करते हैं, उनके लिए स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है । ऐसा करने से लौकिक और वैदिक धर्म की हानि नहीं होती ।

मुनियों ने पूछा: विप्रवर ! जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए? यह बताने की कृपा करें ।

व्यास जी बोले: पिता को पिण्ड दे, पितामह को प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामह को भी पिण्ड दे दे । यही शास्त्रों का निर्णय है । मरे हुए को पिण्ड देने और जीवित को भोजन कराने का विधान है । उस अवस्था में सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता ।

मेहनती Employee* का मतलब क्या ???

 *मेहनती  Employee* का मतलब क्या ??? 


उत्तर : *तेजपत्ता*


कोई भी सब्जी बनाते समय सबसे पहले उसे ही डाला जाता है और पूरे समय वो सब्जी के साथ रहता है

लेकिन... 

उसी सब्जी को परोसते ओर खाते समय सबसे पहले उसे ही खींचकर बाहर फेंका जाता है !!! 


😭😭😇😇


 *सफल Boss* का मतलब क्या ??? 


उत्तर: *हरा धनिया*


उसे पता ही नहीं होता है कि क्या बन रहा है और सब्जी बन जाने के बाद उसे परोसने के समय डाला जाता है

और...

फिर सब्जी के सारे स्वाद का श्रेय उसे ही दिया जाता है !!! 


😀😀😜😜😂😂


एक प्रकार और है


 *चतुर  Employee*


वो हींग की तरह होता है जो केवल नाम के लिये चुटकी भर काम में हाथ लगाता है लेकिन चखने वाले के हाथ में गहरी (चाटुकारिता की) खुशबू छोड़ जाता है। अंत में  वही अच्छी Rating और Commendation  पाता है।

😜😃😃


और कुछ Employee अदरक की तरह होते हैं जिन्हें शुरू में ही कूटा जाता है और जब चाय (Organisation) में स्वाद आ जाता है तो छान के बाहर निकाल दिया जाता है...॥


So True..😃😜😉

          🙏नमस्कार🙏

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

घास का तिनका और दशरथ वचन

 रामायण में एक घास के तिनके का भी रहस्य है, जिससे ज्यादातर लोग अनजान हैं l


 प्रस्तुति - सत्यनारायण प्रसाद अनंत 


रावण ने जब माँ सीता जी का हरण करके लंका ले गया तब लंका मे सीता जी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगी। रावण बार बार आकर माँ सीता जी को धमकाता था, लेकिन माँ सीता जी कुछ नहीं बोलती थी। यहाँ तक की रावण ने श्री राम जी के वेश भूषा मे आकर माँ सीता जी को 

भ्रमित करने की भी कोशिश की लेकिन फिर भी सफल नहीं हुआ,

रावण थक हार कर जब अपने शयन कक्ष मे गया तो मंदोदरी ने उससे कहा आप  तो राम का वेश धर कर गये थे, फिर क्या हुआ।

रावण बोला जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आ रही थी ।

रावण अपनी समस्त ताकत लगा चुका था लेकिन जिस जगत जननी माँ को आज तक कोई नहीं समझ सका, उन्हें रावण भी कैसे समझ पाता !

रावण एक बार फिर आया और बोला मैं तुमसे सीधे सीधे संवाद करता हूँ लेकिन तुम कैसी नारी हो कि मेरे आते ही घास का तिनका उठाकर उसे ही घूर-घूर कर देखने लगती हो,

क्या घास का तिनका तुम्हें राम से भी ज्यादा प्यारा है?  रावण के 

इस प्रश्न को सुनकर माँ सीता जी बिलकुल चुप हो गयी और उनकी

आँखों से आसुओं की धार बह पड़ी।

इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि

जब श्री राम जी का विवाह माँ सीता जी के साथ हुआ,तब सीता जी का बड़े आदर सत्कार के साथ गृह प्रवेश भी हुआ। बहुत उत्सव मनाया गया।    *प्रथानुसार नव वधू विवाह पश्चात जब ससुराल आती है तो उसके हाथ से कुछ मीठा पकवान बनवाया जाता है, ताकि जीवन भर घर पर मिठास बनी रहे* 

इसलिए माँ सीता जी ने उस दिन अपने हाथों से घर पर खीर बनाई और समस्त परिवार, राजा दशरथ एवं तीनों रानियों  सहित चारों भाईयों और ऋषि संत भी भोजन पर आमंत्रित थे।

माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया। सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली,सीता जी बड़े गौर स सब देख रही थी।

ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया जिसे माँ सीता जी ने देख लिया। लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें ये प्रश्न आ गया। माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा  वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया। सीता जी ने सोचा 'अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा'।

लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी 

के इस चमत्कार को देख रहे थे। फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुचकर माँ सीता जी को बुलवाया ।

फिर उन्होंने सीताजी जे कहा कि मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था ।

आप साक्षात जगत जननी स्वरूपा हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना।

आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी कभी मत देखना।

इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थी।

*तृण धर ओट कहत वैदेही*

*सुमिरि अवधपति परम् सनेही*


*यही है उस तिनके का रहस्य* ! 

इसलिये माता सीता जी चाहती तो रावण को उस जगह पर ही राख़ कर 

सकती थी, लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन एवं भगवान श्रीराम को रावण-वध का श्रेय दिलाने हेतु वो शांत रही !

ऐसी विशलहृदया थीं हमारी जानकी माता !


🙏🏻🙏🏻💐जय जय सीताराम💐🙏🏻🙏🏻

यूं हवाओं को बदनाम न कर / सुनील सक्सेना



                           


       :- सुनील सक्सेना                         


        वे पैदाइशी शायर हैं । उनके खानदान में उनसे पहले न कोई शायर हुआ न कोई अफसाना निगार  । यानी नेपोटिज्‍म वाला कोई चक्‍कर नहीं है । वे जन्‍म के समय जब  रोए थे,  तो उनका रूदन  शायराना अंदाज में हुआ था । उनके रोने का लहजा ऐसा मानो  किसी गजल को तरन्‍नुम में पढ़ रहे हों ।  वे जितने जोर से रोते घरवाले उन्‍हें चुप करने के लिए उतनी ही जोर से तालियां बजाते ।  उन्‍हें लगता कि उनका  शेर  मुक्‍कमल हो गया । वे रोना बंद कर देते थे । उनकी इस जन्‍मजात प्रतिभा को देखते हुए घरवालों ने उनका  नाम ही “शायर” रख दिया । शायर नाम होने का फायदा ये हुआ कि वे शायरी करें या न करें, पर वे  शायर हैं । 


        उम्र के साथ उनकी मकबुलियत बढ़ने लगी । शोहरत की ये फितरत होती है कि वो फनकार से अपनी कीमत वसूलती है । कुछ झण्‍डाबरदार हिंदी- उर्दू को लेकर मैदान में उतर गये । भाषाएं जहर बुझे तीरों की तरह मारक होती हैं । सीधे दिल पर चोट करती हैं । जुबानों की नूराकुश्‍ती में सियासतदानों को गहरी दिलचस्‍पी होती है । जब मजहब और कौम के मसाइल ठंडे पड़ जाते हैं तब भाषा की चिंगारी से शोले भड़काकर हाथ सेंके जाते हैं ।  सो जनाब शायर को अपने वतन के प्रति निष्‍ठा, देशभक्ति साबित करने के लिए शायरी के साथ-साथ कविता में भी हाथ आजमाना पड़ा । चुनांचे वे कवि भी हो गये ।


        आज शायर साहब कुछ उदास दिखे  । न… न… इसलिए नहीं कि शेर के काफिये नहीं मिल रहे हैं, या कविता का विषय नहीं सूझ रहा है,  या बिम्‍ब नहीं रच पा रहे हैं, या छंद नहीं बन रहा है, या तुकबंदी नहीं जम रही है, या अकविता टाइप की रचना नहीं रच पा रहे हैं, या वे कई दिनों से कहीं छप नहीं रहे हैं,  काव्‍य गोष्‍ठी नहीं हो रही है, कवि सम्‍मेलन और मुशायरे बंद हैं,  ऐसी कोई वजह नहीं है । शायर साहब की उदासी का सबब ये है कि कोरोना की तीसरी लहर में अब “हवाओं” को बदनाम करने की साजिश रची जा रही है ।


        हवाओं पर ये तोहमत लगाई जा रही है कि “कोरोना वायरस” हवाओं का  हमसफर है । वो हवाओं के साथ रहता है, उठता है, बैठता चलता है, मरता नहीं, वो जावेद है, अमर है । हवाएं जिधर का रूख अख्तियार कर लें, कोरोना वायरस उसी ओर चल देता है । इसलिए हवाओं से बचें । घर में परदानशीं बनकर रहें ।


        अब ये भी खूब रही कि निजाम अपनी नाकामयाबियों  का इल्‍जाम हवाओं पर लगा दे ।  ये वही हवाएं है जब लहर बनकर चलती हैं तो सत्‍ता पलट देती हैं । ये वो हवाएं हैं जिसने माशुका की जुल्‍फें लहराई तो काली घटा छा गई । ये वही हवाएं हैं जिसने महबूबा का आंचल जरा सा  ढलका दिया और कयामत आ गई । ये वही हवा है जिसने प्रेयसी के संगेमरमर बदन को छुआ और चमन में बहार आगई ।  जनाब शायर ये सब सोचकर व्‍यथित हैं ।


        शायर साहब की शरीक-ए-हयात ने पूछा – “ये क्‍या रोनी सूरत बना रखी है जनाब ने ? मिजाज तो ठीक हैं ?”


        वे बोले – “बस पूछो मत बेगम,  अब तो हद हो गई..”  


        “आपने हद अभी देखी ही कहां हैं मियां । हद की कोई हद नहीं होती जनाबे आली । एक हद पार होती है, तो नई हद बन जाती है..” बेगम ने हद को परिभाषित करते हुए शायर साहब को काढ़े का गिलास थमा दिया ।     


        “बेगम ! ये कैसा निजाम है..? उन्‍होंने फरमाया घर में रहो । हम रहने लगे । दो गज की दूरी रखो, हमने रख ली । अब हवाओं पर इल्‍जाम ? कल कोई दानिशमंद खोज कर लेगा कि कोरोना देखने से फैलता है, तो आंख पर पट्टी बांध लो । कोई साइंसदां रिसर्च में ये बतायेगा कि कोरोना सुनने से फैलता है,  कान में रूई डालकर रखो । सुनना बंद कर दो । मतलब न बोलो, न सुनो, न देखो । जो हो रहा है, उसे बस सहते रहो । खामोश रहो । तमाशबीन बनकर अपनी तबाही का मंजर देखते रहो । ये कहां का इंसाफ है बेगम ?” जनाब शायर का गला दर्द से भर गया ।


        “मियां ये सियासत है । आप भी कहां दीवारों से अपना सर फोड़ रहे हैं । चलिए उठिये । भूल गये आज आपको फेसबुक पर “लाइव” गजल पढ़नी है ।” बेगम ने लेपटॉप ऑन किया । शायर साहब लाइव हो गये इस शेर के साथ “न लगा अपनी हार का इल्‍जाम मेरे सिर पर, अभी बाकी है उसका फैसला  इसी सरजमीं पर”


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बुधवार, 22 सितंबर 2021

उजाला या अँधेरा: / मुकेश कुमार

बात यही कोई पचीस-तीस साल पुरानी है जब गाँव में सही से सड़क भी नहीं बनी थी और ना ही हर तरफ बिजली पहुँच पायी थी. 

हाँ गाँव के कुछ धनी लोग जरुर थे जिन्होंने बिजली के लिए जनरेटर और मनोरंजन के लिए टीवी का इंतजाम कर रखा था. अधिकतर लोग सरकारी नौकरी वाले ही थे, उनका ऑफिस कस्बे में था सो सारी उपलब्ध सुविधाओं का पुरा खबर रहता था उन्हें.

अँधेरा हुआ नहीं की फट-फट की आवाज़ से गूंजने लगती थी उनके घर के बगल वाली झोपडी जिसमे जनरेटर रखा होता था. 


वो अँधेरा भी कमाल का था, एक ही समय में गाँव को दो हिस्सों में बाँट जाता था. एक तरफ जहाँ ढिबरी जलती हुई दिखती तो दूसरी तरफ़ जगमगाती रौशनी में चमकता हुआ सब कुछ. 

गाँव के दोनों तरफ दूर से देखो तो लगता था मानो वो जनरेटर ढिबरी की रौशनी का मजाक उडा रहा हो.

एक तरफ जगमगाती रौशनी में लोग खेलते या फिर जमावड़ा लगा कर बैठे नज़र आते, तो दुसरी तरफ़ क्या हो रहा है ए बता पाना भी मुश्किल.


गाँव के दुसरे हिस्से को देख ऐसा लगता था मानो अँधेरे को गुलाम बना रखा हो उन्होंने, जब तक मन करे तब तक अँधेरे को चीरते हुए बड़ी-बड़ी बत्तियां जलाते और फिर बड़े से कमरे में रखी हुई टीवी पर सब एक साथ फिल्म देखने का लुत्फ़ उठाते थे. उस समय टीवी पर सिर्फ़ दूरदर्शन आता था, शुक्रवार की शाम को चित्रहार पर नए-पुराने गाने और रात को पुरानी फ़िल्में.


इधर गाँव के दूसरे तरफ ढिबरी की रौशनी में कुछ औरतें खाना पकाती, कुछ बुजुर्ग रिश्तों को अपनी अनुभव देते, कुछ लोग बच्चे को पढ़ाते नजर आते थे.

जो बच्चे बड़े थे वो अपने से छोटे बच्चों को भी पढ़ा रहे थे. रौशनी तो ज्यादा नहीं होती है ढिबरी से लेकिन हाँ जब अगल-बगल हर तरफ ढिबरी जलती हुई नज़र आती तो लगता था जैसे दिवाली की रात हो. 

वक़्त गुजरता रहा और बच्चे बड़े होते गए गाँव के इस तरफ भी और उस तरफ भी. गाँव के स्कूल के स्कूल से पढ़ाई पूरी होते ही दोनों तरफ के बच्चों ने कस्बे के हाई स्कूल में दाखिला लिया. यहाँ भी दोनों तरफ के बच्चों ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और कॉलेज के लिए दूसरे शहर भी गए.

वक़्त जितना लगना था उतना ही लगा और फिर दोनों तरफ के कुछ बच्चों ने अपनी उच्चतम पढ़ाई पूरी कर ली.


गाँव के इस तरफ वाले बच्चों ने ज्यादा मेहनत की इसलिए उनमे से एक जिला अधिकारी बन गया और उसकी पहली पोस्टिंग उसी के जिले में हुई. 

उस अधिकारी के देख-रेख के वजह से काफी कम समय में ही उस गाँव के दोनों तरफ की सारी सड़कें पक्की बन गयी और हर तरफ बिजली भी आ गयी.


एक दिन वो जिला-अधिकारी अपने गाँव आया हुआ था तो उस से मिलने कुछ लोग उस तरफ से भी आये. 

अधिकारी से मिल कर जाते वक़्त उस तरफ के एक बुजुर्ग ने पूछा "बेटे तुम ढिबरी में पढ़ते हुए बड़े अधिकारी बन गए और हमारे बच्चे तेज़ रौशनी में भी पढ़ कर कुछ ना बन सके ऐसा क्यों?"


अब मैं क्या बताऊँ काका आपके उम्र को देखते हुए "छोटी मुँह और बड़ी बात हो जाएगी" 

लेकिन आपने पुछा है तो बताना जरुरी है ताकि उस तरफ़ के बच्चों में भी सुधार हो और कुछ करने का जज़्बा जागे.

काका, जहाँ अँधेरा होता है वहिं लोग रौशनी की तलाश में निकलते हैं.

हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं था इसलिए हमने सिर्फ़ अपना सम्मान पाने पर ध्यान दिया और आपके बच्चों के पास सब कुछ पहले से ही था इसलिए उन्होंने कुछ पाने पर ध्यान नहीं दिया.


अनजान लेखक (मुकेश कुमार)

भावना संवेदना

 !! संवेदनशीलता !!

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एक पोस्टमैन ने एक घर के दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा,”चिट्ठी ले लीजिये।” अंदर से एक बालिका की आवाज आई,”आ रही हूँ।” लेकिन तीन-चार मिनट तक कोई न आया तो पोस्टमैन ने फिर कहा,”अरे भाई! मकान में कोई है क्या,अपनी चिट्ठी ले लो।” 


लड़की की फिर आवाज आई,”पोस्टमैन साहब,दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए,मैं आ रही हूँ।” पोस्टमैन ने कहा,”नहीं,मैं खड़ा हूँ,रजिस्टर्ड चिट्ठी है,पावती पर तुम्हारे साइन चाहिये।” करीबन छह-सात मिनट बाद दरवाजा खुला। 


पोस्टमैन इस देरी के लिए झल्लाया हुआ तो था ही और उस पर चिल्लाने वाला था लेकिन दरवाजा खुलते ही वह चौंक गया, सामने एक अपाहिज कन्या जिसके पांव नहीं थे,सामने थी। पोस्टमैन चुपचाप पत्र देकर और उसके साइन लेकर चला गया। 


हफ़्ते, दो हफ़्ते में जब कभी उस लड़की के लिए डाक आती, पोस्टमैन एक आवाज देता और जब तक वह कन्या न आती तब तक खड़ा रहता। एक दिन कन्या ने पोस्टमैन को नंगे पाँव देखा। 


दीपावली नजदीक आ रही थी। उसने सोचा पोस्टमैन को क्या ईनाम दूँ। एक दिन जब पोस्टमैन डाक देकर चला गया,तब उस लड़की ने, जहां मिट्टी में पोस्टमैन के पाँव के निशान बने थे, उन पर काग़ज़ रख कर उन पाँवों का चित्र उतार लिया। अगले दिन उसने अपने यहाँ काम करने वाली बाई से उस नाप के जूते मंगवा लिये। 


दीपावली आई और उसके अगले दिन पोस्टमैन ने गली के सब लोगों से तो ईनाम माँगा और सोचा कि अब इस बिटिया से क्या इनाम लेना? 


पर गली में आया हूँ तो उससे मिल ही लूँ। उसने दरवाजा खटखटाया। अंदर से आवाज आई,”कौन?” पोस्टमैन,उत्तर मिला। 


बालिका हाथ में एक गिफ्ट पैक लेकर आई और कहा,”अंकल,मेरी तरफ से दीपावली पर आपको यह भेंट है।” पोस्टमैन ने कहा,”तुम तो मेरे लिए बेटी के समान हो,तुमसे मैं गिफ्ट कैसे लूँ?” कन्या ने आग्रह किया कि मेरी इस गिफ्ट के लिए मना नहीं करें।” ठीक है कहते हुए पोस्टमैन ने पैकेट ले लिया। बालिका ने कहा,”अंकल इस पैकेट को घर ले जाकर खोलना।


घर जाकर जब उसने पैकेट खोला तो विस्मित रह गया,क्योंकि उसमें एक जोड़ी जूते थे।उसकी आँखें भर आई। अगले दिन वह ऑफिस पहुंचा और पोस्टमास्टर से फरियाद की कि उसका तबादला फ़ौरन कर दिया जाए।

 पोस्टमास्टर ने कारण पूछा, तो पोस्टमैन ने वे जूते टेबल पर रखते हुए सारी कहानी सुनाई और भीगी आँखों और रुंधे कंठ से कहा,”आज के बाद मैं उस गली में नहीं जा सकूँगा। उस अपाहिज बच्ची ने तो मेरे नंगे पाँवों को तो जूते दे दिये पर मैं उसे पाँव कैसे दे पाऊँगा?”


संवेदनशीलता का यह श्रेष्ठ दृष्टांत है। संवेदनशीलता… यानि,दूसरों के दुःख-दर्द को समझना,अनुभव करना और उसके दुःख-दर्द में भागीदारी करना,उसमें सम्मलित होना। यह ऐसा मानवीय गुण है जिसके बिना इंसान अधूरा है।

 ईश्वर से प्रार्थना है कि वह हमें संवेदनशीलता रूपी आभूषण प्रदान करें ताकि हम दूसरों के दुःख-दर्द को कम करने में योगदान कर सकें।

 संकट की घड़ी में कोई यह नहीं समझे कि वह अकेला है,अपितु उसे महसूस हो कि सारी मानवता उसके साथ है।


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

मंगलवार, 21 सितंबर 2021

सेंधा नमक के फायदे

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     *🎊आज का सामान्य ज्ञान🎊*


*🎛️क्या आपको पता है खाने में श्रेष्ठ नमक कौन-सा होता है?🎛️*


आयुर्वेद के अनुसार सेंधा नमक सर्वश्रेष्ठ है । लाखों वर्ष पुराना समुद्री नमक जो पृथ्वी की गहराई में दबकर पत्थर बन जाता है, वही सेंधा नमक है । यह रुचिकर, स्वास्थ्यप्रद व आँखों के लिए हितकर है ।


*🔮सेंधा नमक के लाभ👉🏻*

जहां विज्ञान बताता है कि आधुनिक आयोडीनयुक्त नमक श्रेष्ठ है वहीँ भारत का प्राचीन आयुर्वेद कहता है कि आयोडीनयुक्त नमक से सेंधा नमक श्रेष्ठ है । यह कोशिकाओं के द्वारा सरलता से अवशोषित किया जाता है । शरीर में जो 84 प्राकृतिक खनिज तत्त्व होते हैं, वे सब इसमें पाये जाते हैं ।


*(1)* शरीर में जल-स्तर का नियमन करता है, जिससे शरीर की क्रियाओं में मदद मिलती है ।


*(2)* रक्तमें शर्करा के प्रमाण को स्वास्थ्य के अनुरूप रखता है ।


*(3)* पाचन संस्थान में पचे हुए तत्त्वों के अवशोषण में मदद करता है ।


*(4)* श्वसन तंत्र के कार्यों में मदद करता है और उसे स्वस्थ रखता है ।


*(5)* साइनस की पीड़ा को कम करता है ।


*(6)* मांसपेशियों की ऐंठन को कम करता है ।


*(7)* अस्थियों को मजबूत करता है ।


*(8)* स्वास्थ्यप्रद प्राकृतिक नींद लेने में मदद करता है ।


*(9)* पानी के साथ यह रक्तचाप के नियमन के लिए आवश्यक है ।


*(10)* मूत्रपिंड व पित्ताशय की पथरी रोकने में रासायनिक नमक की अपेक्षा अधिक उपयोगी ।




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होनी अनहोनी होनी

 ••।। हाेनी, होकर रहती है ।।••


एक समय की बात है। एक बहुत ही ज्ञानी पण्डित था। वह अपने एक बचपन के घनिष्‍ट मित्र से मिलने के लिए किसी दूसरे गाँव जा रहा था जो कि बचपन से ही गूंगा व एक पैर से अपाहिज था। उसका गांव काफी दूर था और रास्‍ते में कई और छोटे-छोटे गांव भी पडते थे।


पण्डित अपनी धुन में चला जा रहा था कि रास्‍ते में उसे एक आदमी मिल गया, जो दिखने मे बडा ही हष्‍ठ-पुष्‍ठ था, वह भी पण्डित के साथ ही चलने लगा। पण्डित ने सोचा कि चलो अच्‍छा ही है, साथ-साथ चलने से रास्‍ता जल्‍दी कट जायेगा। पण्डित ने उस आदमी से उसका नाम पूछा तो उस आदमी ने अपना नाम महाकालबताया। पण्डित को ये नाम बडा अजीब लगा, लेकिन उसने नाम के विषय में और कुछ पूछना उचित नहीं समझा। ‍दोनों धीरे-धीरे चलते रहे तभी रास्‍त में एक गाँव आया। महाकाल ने पण्डित से कहा- तुम आगे चलो, मुझे इस गाँव मे एक संदेशा देना है। मैं तुमसे आगे मिलता हुं।


“ठीक है” कहकर पण्डित अपनी धुन में चलता रहा तभी एक भैंसे ने एक आदमी को मार दिया और जैसे ही भैंसे ने आदमी को मारा, लगभग तुरन्‍त ही महाकाल वापस पण्डित के पास पहुंच गया।


चलते-चलते दोनों एक दूसरे गांव के बाहर पहुंचे जहां एक छोटा सा मन्दिर था। ठहरने की व्‍यवस्‍था ठीक लग रही थी और क्‍योंकि पण्डित के मित्र का गांव अभी काफी दूर था साथ ही रात्रि होने वाली थी, सो पण्डित ने कहा- रात्रि होने वाली है।  पूरा दिन चले हैं, थकावट भी बहुत हो चुकी है इसलिए आज की रात हम इसी मन्दिर में रूक जाते हैं। भूख भी लगी है, सो भोजन भी कर लेते हैं और थोडा विश्राम करके सुबह फिर से प्रस्‍थान करेंगे।


महाकाल ने जवाब दिया- ठीक है, लेकिन मुझे इस गाँव में किसी को कुछ सामान देना है, सो मैं देकर आता हुं, तब तक तुम भोजन कर लो, मैं बाद मे खा लुंगा।”


और इतना कहकर वह चला गया लेकिन उसके जाते ही कुछ देर बाद उस गाँव से धुंआ उठना शुरू हुआ और धीरे-धीरे पूरे गांव में आग लग गई थी । पण्डित को आर्श्‍चय हुआ। उसने मन ही मन सोचा कि- जहां भी ये महाकाल जाता है, वहां किसी न किसी तरह की हानि क्‍यों हो जाती है? जरूर कुछ गडबड है।


लेकिन उसने महाकाल से रात्रि में इस बात का कोई जिक्र नहीं किया। सुबह दोनों ने फिर से अपने गन्‍तव्‍य की ओर चलना शुरू किया। कुछ देर बाद एक और गाँव आया और महाकाल ने फिर से पण्डित से कहा कि- पण्डित जी… आप आगे चलें। मुझे इस गांव में भी कुछ काम है, सो मैं आपसे आगे मिलता हुँ’।


इतना कहकर महाकाल जाने लगा। लेकिन इस बार पण्डित आगे नहीं बढा बल्कि खडे होकर महाकाल को देखता रहा कि वह कहां जाता है और करता क्‍या है।


तभी लोगों की आवाजें सुनाई देने लगीं कि एक आदमी को सांप ने डस लिया और उस व्‍यक्ति की मृत्‍यु हो गई। ठीक उसी समय महाकाल फिर से पण्डित के पास पहुंच गया। लेकिन इस बार पण्डित को सहन न हुआ। उसने महाकाल से पूछ ही लिया कि- तुम जिस गांव में भी जाते हो, वहां कोई न कोई नुकसान हो जाता है? क्‍या तुम मुझे बता सकते हो कि आखिर ऐसा क्‍याें होता है?


महाकाल ने जवाब दिया: पण्डित जी… आप मुझे बडे ज्ञानी मालुम पडे थे, इसीलिए मैं आपके साथ चलने लगा था क्‍योंकि ज्ञानियाें का संग हमेंशा अच्‍छा होता है। लेकिन क्‍या सचमुच आप अभी तक नहीं समझे कि मैं कौन हुँ?


पण्डित ने कहा: मैं समझ तो चुका हुँ, लेकिन कुछ शंका है, सो यदि आप ही अपना उपयुक्‍त परिचय दे दें, तो मेरे लिए आसानी होगी।


महाकल ने जवाब दिया कि- मैं यमदूत हुँ और यमराज की आज्ञा से उन लोगों के प्राण हरण करता हुँ जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है।


हालांकि पण्डित को पहले से ही इसी बात की शंका थी। फिर भी महाकाल के मुंह से ये बात सुनकर पण्डित थोडा घबरा गया लेकिन फिर हिम्‍मत करके पूछा कि- अगर ऐसी बात है और तुम सचमुच ही यमदूत हो, तो बताओ अगली मृत्‍यु किसकी है?


यमदूत ने जवाब दिया कि- अगली मृत्‍यु तुम्‍हारे उसी मित्र की है, जिसे तुम मिलने जा रहे हो और उसकी मृत्‍यु का कारण भी तुम ही होगे।


ये बात सुनकर पण्डित ठिठक गया और बडे पशोपेश में पड गया कि यदि वास्‍तव में वह महाकाल एक यमदूत हुआ तो उसकी बात सही होगी और उसके कारण मेरे बचपन के सबसे घनिष्‍ट मित्र की मृत्‍यु हो जाएगी। इसलिए बेहतर यही है कि मैं अपने मित्र से मिलने ही न जाऊं, कम से कम मैं तो उसकी मृत्‍यु का कारण नहीं बनुंगा। तभी महाकाल ने कहा कि-


तुम जो सोंच रहे हो, वो मुझे भी पता है लेकिन तुम्‍हारे अपने मित्र से मिलने न जाने के विचार से नियति नहीं बदल जाएगी। तुम्‍हारे मित्र की मृत्‍यु निश्चित है और वह अगले कुछ ही क्षणों में घटित होने वाली है।


महाकाल के मुख से ये बात सुनते ही पण्डित को झटका लगा क्‍योंकि महाकाल ने उसके मन की बात जान ली थी जो कि किसी सामान्‍य व्‍यक्ति के लिए तो सम्‍भव ही नहीं थी। फलस्‍वरूप पण्डित को विश्‍वास हो गया कि महाकाल सचमुच यमदूत ही है। इसलिए वह अपने मित्र की मृत्‍यु का कारण न बने इस हेतु वह तुरन्‍त पीछे मुडा और फिर से अपने गांव की तरफ लौटने लगा।


परन्‍तु जैसे ही वह मुडा, सामने से उसे उसका मित्र उसी की ओर तेजी से आता हुआ दिखाई दिया जो कि पण्डित को देखकर अत्‍यधिक प्रसन्‍न लग रहा था। अपने मित्र के आने की गति को देख पण्डित को ऐसा लगा जैसे कि उसका मित्र काफी समय से उसके पीछे-पीछे ही आ रहा था लेकिन क्‍योंकि वह बचपन से ही गूूंगा व एक पैर से अपाहिज था, इसलिए न तो पण्डित तक पहुंच पा रहा था न ही पण्डित को आवाज देकर रोक पा रहा था।


लेकिन जैसे ही वह पण्डित के पास पहुंचा, अचानक न जाने क्‍या हुआ और उसकी मृत्‍यु हो गर्इ। पण्डित हक्‍का-बक्‍का सा आश्‍चर्य भरी नजरों से महाकाल की ओर देखने लगा जैसे कि पूछ रहा हो कि आखिर हुआ क्‍या उसके मित्र को। महाकाल, पण्डित के मन की बात समझ गया और बोला-


तुम्‍हारा मित्र पिछले गांव से ही तुम्‍हारे पीछे-पीछे आ रहा था लेकिन तुम समझ ही सकते हो कि वह अपाहिज व गूंगा होने की वजह से ही तुम तक नहीं पहुंच सका। उसने अपनी सारी ताकत लगाकर तुम तक पहुंचने की कोशिश की लेकिन बुढापे में बचपन जैसी शक्ति नहीं होती शरीर में, इसलिए हृदयाघात की वजह से तुम्‍हारे मित्र की मृत्‍यु हो गई और उसकी वजह हो तुम क्‍योंकि वह तुमसे मिलने हेतु तुम तक पहुंचने के लिए ही अपनी सीमाओं को लांघते हुए तुम्‍हारे पीछे भाग रहा था।


अब पण्डित को पूरी तरह से विश्‍वास हो गया कि महाकाल सचमुच ही यमदूत है और जीवों के प्राण हरण करना ही उसका काम है। चूंकि पण्डित एक ज्ञानी व्‍यक्ति था और जानता था कि मृत्‍यु पर किसी का कोई बस नहीं चल सकता व सभी को एक न एक दिन मरना ही है, इसलिए उसने जल्‍दी ही अपने आपको सम्‍भाल लिया लेकिन सहसा ही उसके मन में अपनी स्‍वयं की मृत्‍यु के बारे में जानने की उत्‍सुकता हुई। इसलिए उसने महाकाल से पूछा- अगर मृत्‍यु मेरे मित्र की होनी थी, तो तुम शुरू से ही मेरे साथ क्‍यों चल रहे थे?


महाकाल ने जवाब दिया- मैं, तो सभी के साथ चलता हुं और हर क्षण चलता रहता हुं, केवल लोग मुझे पहचान नहीं पाते क्‍योंकि लोगों के पास अपनी समस्‍याओं के अलावा किसी और व्‍यक्ति, वस्‍तु या घटना के संदर्भ में सोंचने या उसे देखने, समझने का समय ही नहीं है।


पण्डित ने आगे पूछा- तो क्‍या तुम बता सकते हो कि मेरी मृत्‍यु कब और कैसे होगी?


महाकाल ने कहा- हालांकि किसी भी सामान्‍य जीव के लिए ये जानना उपयुक्‍त नहीं है, क्‍योंकि कोई भी जीव अपनी मृत्‍यु के संदर्भ में जानकर व्‍यथित ही होता है, लेकिन तुम ज्ञानी व्‍यक्ति हो और अपने मित्र की मृत्‍यु को जितनी आसानी से तुमने स्‍वीकार कर लिया है, उसे देख मुझे ये लगता है कि तुम अपनी मृत्‍यु के बारे में जानकर भी व्‍यथित नहीं होगे। सो, तुम्‍हारी मृत्‍यु आज से ठीक छ: माह बाद आज ही के दिन लेकिन किसी दूसरे राजा के राज्‍य में फांसी लगने से होगी और आश्‍चर्य की बात ये है कि तुम स्‍वयं खुशी से फांसी को स्‍वीकार करोगे। इतना कहकर महाकाल जाने लगा क्‍योंकि अब उसके पास पण्डित के साथ चलते रहने का कोई कारण नहीं था।


पण्डित ने अपने मित्र का यथास्थिति जो भी कर्मकाण्‍ड सम्‍भव था,  किया और फिर से अपने गांव लौट आया। लेकिन कोई व्‍यक्ति चाहे जितना भी ज्ञानी क्‍यों न हो, अपनी मृत्‍यु के संदर्भ में जानने के बाद कुछ तो व्‍यथित होता ही है और उस मृत्‍यु से बचने के लिए कुछ न कुछ तो करता ही है सो पण्डित ने भी किया।


चूंकि पण्डित विद्वान था इसलिए उसकी ख्‍याति उसके राज्‍य के राजा तक थी। उसने सोंचा कि राजा के पास तो कई ज्ञानी मंत्राी होते हैं आैर वे उसकी इस मृत्‍यु से सम्‍बंधित समस्‍या का भी कोई न कोई समाधान तो निकाल ही देंगे। इसलिए वह पण्डित राजा के दरबार में पहुंचा और राजा को सारी बात बताई। राजा ने पण्डित की समस्‍या को अपने मंत्रियों के साथ बांटा और उनसे सलाह मांगी।


अन्‍त में सभी की सलाह से ये तय हुआ कि यदि पण्डित की बात सही है, तो जरूर उसकी मृत्‍यु 6 महीने बाद होगी लेकिन मृत्‍यु तब होगी, जबकि वह किसी दूसरे राज्‍य में जाएगा। यदि वह किसी दूसरे राज्‍य जाए ही न, तो मृत्‍यु नहीं होगी। ये सलाह राजा को भी उपयुक्‍त लगी सो उसने पण्डित के लिए महल में ही रहने हेतु उपयुक्‍त व्‍यवस्‍था करवा दी। अब राजा की आज्ञा के बिना कोई भी व्‍यक्ति उस पण्डित से नहीं मिल सकता था लेकिन स्‍वयं पण्डित कहीं भी आ-जा सकता था ताकि उसे ये न लगे कि वह राजा की कैद में है। हालांकि वह स्‍वयं ही डर के मारे कहीं आता-जाता नहीं था।


धीरे-धीरे पण्डित की मृत्‍यु का समय नजदीक आने लगा और आखिर वह दिन भी आ गया, जब पण्डित की मृत्‍यु होनी थी। सो, जिस दिन पण्डित की मृत्‍यु होनी थी, उससे पिछली रात पण्डित डर के मारे जल्‍दी ही सो गया ताकि जल्‍दी से जल्‍दी वह रात और अगला दिन बीत जाए और उसकी मृत्‍यु टल जाए। लेकिन स्‍वयं पण्डित को नींद में चलने की बीमारी थी और इस बीमारी के बारे में वह स्‍वयं भी नहीं जानता था, इसलिए राजा या किसी और से इस बीमारी का जिक्र करने अथवा किसी चिकित्‍सक से इस बीमारी का र्इलाज करवाने का तो प्रश्‍न ही नहीं था।


चूंकि पण्डित अपनी मृत्‍यु को लेकर बहुत चिन्तित था और नींद में चलने की बीमारी का दौरा अक्‍सर तभी पडता है, जब ठीक से नींद नहीं आ रही होती, सो उसी रात पण्डित रात को नींद में चलने का दौरा पडा, वह उठा और राजा के महल से निकलकर अस्‍तबल में आ गया। चूंकि वह राजा का खास मेहमान था, इसलिए किसी भी पहरेदार ने उसे न ताे रोका न किसी तरह की पूछताछ की। अस्‍तबल में पहुंचकर वह सबसे तेज दौडने वाले घोडे पर सवार होकर नींद की बेहोशी में ही राज्‍य की सीमा से बाहर दूसरे राज्‍य की सीमा में चला गया। इतना ही नहीं, वह दूसरे राज्‍य के राजा के महल में पहुंच गया और संयोग हुआ ये कि उस महल में भी किसी पहरेदार ने उसे नहीं रोका न ही कोई पूछताछ की क्‍योंकि सभी लोग रात के अन्तिम प्रहर की गहरी नींद में थे।


वह पण्डित सीधे राजा के शयनकक्ष्‍ा में पहुंच गया। रानी के एक ओर उस राज्‍य का राजा सो रहा था, दूसरी आेर स्‍वयं पण्डित जाकर लेट गया। सुबह हुई, तो राजा ने पण्डित को रानी की बगल में सोया हुआ देखा। राजा बहुत क्रोधित हुआ। पण्डित काे गिरफ्तार कर लिया गया।


पण्डित को तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह आखिर दूसरे राज्‍य में और सीधे ही राजा के शयनकक्ष में कैसे पहुंच गया। लेकिन वहां उसकी सुनने वाला कौन था। राजा ने पण्डित को राजदरबार में हाजिर करने का हुक्‍म दिया। कुछ समय बाद राजा का दरबार लगा, जहां राजा ने पण्डित को देखा और देखते ही इतना क्रोधित हुआ कि पण्डित को फांसी पर चढा दिए जाने का फरमान सुना दिया।


फांसी की सजा सुनकर पण्डित कांप गया। फिर भी हिम्‍मत कर उसने राजा से कहा कि- महाराज… मैं नहीं जानता कि मैं इस राज्‍य में कैसे पहुंचा। मैं ये भी नहीं जानता कि मैं आपके शयनकक्ष में कैसे आ गया और आपके राज्‍य के किसी भी पहरेदार ने मुझे रोका क्‍यों नहीं, लेकिन मैं इतना जानता हुं कि आज मेरी मृत्‍यु होनी थी और होने जा रही है।


राजा को ये बात थोडी अटपटी लगी। उसने पूछा- तुम्‍हें कैसे पता कि आज तुम्‍हारी मृत्‍यु होनी थी? कहना क्‍या चाहते हो तुम?


राजा के सवाल के जवाब में पण्डित से पिछले 6 महीनों की पूरी कहानी बता दी और कहा कि- महाराज… मेरा क्‍या, किसी भी सामान्‍य व्‍यक्ति का इतना साहस कैसे हो सकता है कि वह राजा की उपस्थिति में राजा के ही कक्ष में रानी के बगल में सो जाए। ये तो सरासर आत्‍महत्‍या ही होगी और मैं दूसरे राज्‍य से इस राज्‍य में आत्‍महत्‍या करने क्‍यों आऊंगा।


राजा को पण्डित की बात थोडी उपयुक्‍त लगी लेकिन राजा ने सोंचा कि शायद वह पण्डित मृत्‍यु से बचने के लिए ही महाकाल और अपनी मृत्‍यु की भविष्‍यवाणी का बहाना बना रहा है। इसलिए उसने पण्डित से कहा कि – यदि तुम्‍हारी बात सत्‍य है, और आज तुम्‍हारी मृत्‍यु का दिन है, जैसाकि महाकाल ने तुमसे कहा है, तो तुम्‍हारी मृत्‍यु का कारण मैं नहीं बनुंगा लेकिन यदि तुम झूठ कह रहे हो, तो निश्चित ही आज तुम्‍हारी मृत्‍यु का दिन है।


चूंकि पडौस्‍ाी राज्‍य का राजा उसका मित्र था, इसलिए उसने तुरन्‍त कुछ सिपाहियों के साथ दूसरे राज्‍य के राजा के पास पत्र भेजा और पण्डित की बात की सत्‍यता का प्रमाण मांगा।


शाम तक भेजे गए सैनिक फिर से लौटे और उन्‍होंने आकर बताया कि- महाराज… पण्डित जो कह रहा है, वह सच है। दूसरे राज्‍य के राजा ने पण्डित को अपने महल में ही रहने की सम्‍पूर्ण व्‍यवस्‍था दे रखी थी और पिछले 6 महीने से ये पण्डित राजा का मेहमान था। कल रात राजा स्‍वयं इससे अन्तिम बार इसके शयन कक्ष में मिले थे और उसके बाद ये इस राज्‍य में कैसे पहुंच गया, इसकी जानकारी किसी को नहीं है। इसलिए उस राज्‍य के राजा के अनुसार पण्डित को फांसी की सजा दिया जाना उचित नहीं है।


लेकिन अब राजा के लिए एक नई समस्‍या आ गई। चूंकि उसने बिना पूरी बात जाने ही पण्डित को फांसी की सजा सुना दी थी, इसलिए अब यदि पण्डित को फांसी न दी जाए, तो राजा के कथन का अपमान हो और यदि राजा द्वारा दी गई सजा का मान रखा जाए, तो पण्डित की बेवजह मृत्‍यु हो जाए।


राजा ने अपनी इस समस्‍या का जिक्र अपने अन्‍य मंत्रियों से किया और सभी मंत्रियों ने आपस में चर्चा कर ये सुझाव दिया कि- महाराज… आप पण्डित को कच्‍चे सूत के एक धागे से फांसी लगवा दें। इससे आपके वचन का मान भी रहेगा और सूत के धागे से लगी फांसी से पण्डित की मृत्‍यु भी नहीं होगी, जिससे उसके प्राण भी बच जाऐंगे।


राजा को ये विचार उपयुक्‍त लगा और उसने ऐसा ही आदेश सुनाया। पण्डित के लिए सूत के धागे का फांसी का फन्‍दा बनाया गया और नियमानुसार पण्डित को फांसी पर चढाया जाने लगा। सभी खुश थे कि न तो पण्डित मरेगा न राजा का वचन झूठा पडेगा। पण्डित को भी विश्‍वास था कि सूत के धागे से तो उसकी मृत्‍यु नहीं ही होगी इसलिए वह भी खुशी-खुशी फांसी चढने को तैयार था, जैसाकि महाकाल ने उसे कहा था।


लेकिन जैसे ही पण्डित को फांसी दी गई, सूत का धागा तो टूट गया लेकिन टूटने से पहले उसने अपना काम कर दिया। पण्डित के गले की नस कट चुकी थी उस सूत के धागे से और पण्डित जमीन पर पडा तडप रहा था, हर धडकन के साथ उसके गले से खून की फूहार निकल रही थी और देखते ही देखते कुछ ही क्षणों में पण्डित का शरीर पूरी तरह से शान्‍त हो गया। सभी लोग आश्‍चर्यचकित, हक्‍के-बक्‍के से पण्डित को मरते हुए देखते रहे। किसी को भी विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि एक कमजाेर से सूत के धागे से किसी की मृत्‍यु हो सकती है लेकिन घटना घट चुकी थी, नियति ने अपना काम कर दिया था।

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     जो होना होता है, वह होकर ही रहता है। हम चाहे जितनी सावधानियां बरतें या चाहे जितने ऊपाय कर लें, लेकिन हर घटना और उस घटना का सारा ताना-बाना पहले से निश्चित है जिसे हम रत्‍ती भर भी इधर-उधर नहीं कर सकते। इसीलिए ईश्‍वर ने हमें भविष्‍य जानने की क्षमता नहीं दी है, ताकि हम अपने जीवन को ज्‍यादा बेहतर तरीके से जी सकें और यही बात उस पण्डित पर भी लागु होती है। यदि पण्डित ने महाकाल से अपनी मृत्‍यु के बारे में न पूछा होता, तो अगले 6 महीने तक वह राजा के महल में कैद होकर हर रोज डर-डर कर जीने की बजाय ज्‍यादा बेहतर जिन्‍दगी जीता।


प्रकृति ने जो भी कुछ बनाया है और उसे जैसा बनाया है, वह सबकुछ किसी न किसी कारण से वैसा है और उसके वैसा होने पर सवाल उठाना गलत है क्‍योंकि हर व्‍यक्ति, वस्‍तु या स्थिति का सम्‍बंध किसी न किसी घटना से है, जिसे घटित होना है।


उदाहरण के लिए पण्डित की मृत्‍यु का सम्‍बंध उसके मित्र से था क्‍योंकि यदि वह उसके मित्र से मिलने न जा रहा होता, तो उसे रास्‍ते में महाकाल न मिलता और पण्डित उससे अपनी मृत्‍यु से सम्‍बंधित सवाल न पूछता। जबकि यदि पण्डित अपने मित्र से मिलने न जाता और पण्डित का मित्र बचपन से ही गूंगा व अपाहिज न होता, तो उसकी मृत्‍यु न होती क्‍योंकि उस स्थिति में वह अपने मित्र को पीछे से आवाज देकर रोक सकता था। यानी बपचन से प्रकृति ने उसे जो अपंगता दी थी, उसका सम्‍बंध उसकी मृत्‍यु से था।


इसी तरह से पण्डित को नींद में चलने की बीमारी है, इस बात का पता यदि स्‍वयं पण्डित को पहले से होता, तो वह इस बात का जिक्र राजा से जरूर करता, परिणामस्‍वरूप वह राजा के महल से निकलता तो कोई न कोई पहरेदार उसे जरूर रोक लेता अथवा राजा ने कुछ ऐसी व्‍यवस्‍था जरूर की होती, ताकि पण्डित नींद में उठकर कहीं न जा सके।


यानी हर घटना के घटित होने के लिए प्रकृति पहले से ही सारे बीज बो देती है जो अपने निश्चित समय पर अंकुरित होकर उस घटना के घटित होने में अपना योगदान देते हैं। इसलिए प्रकृति से लडने का कोई मतलब नहीं है क्‍योंकि हमें नहीं पता कि किस घटना के घटित होने के लिए कौन-कौन से कारण होंगे और उन कारणों से सम्‍बंधित बीज कब, कहां और कैसे बोए गए हैं और इसी को हम सरल शब्‍दों में भाग्‍य कहते हैं।


ये कहानी आपको कैसी लगी? क्‍या आपने भी कभी ये महसूस किया है कि प्रकृति की सभी घटनाऐं पहले से निश्चित हैं और आपके कुछ करने अथवा न करने से कहीं कोई फर्क नहीं पडता बल्कि सबकुछ अपने आप अपने अनुसार घटित होता है?


🌹🌹जय जय श्री राम🌹🌹

(साभार- Sampurna Nand Pandey )

प्रेम

 ऎसा भी प्रेम  / Must read this moral story👇

       

एक फकीर बहुत दिनों तक बादशाह के साथ रहा बादशाह का बहुत प्रेम उस फकीर पर हो गया। 


प्रेम भी इतना कि बादशाह रात को भी उसे अपने कमरे में सुलाता। 


कोई भी काम होता, दोनों साथ-साथ ही करते।


एक दिन दोनों शिकार खेलने गए और रास्ता भटक गए। 


भूखे-प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुंचे।


 पेड़ पर एक ही फल लगा था।


 बादशाह ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा। 


बादशाह ने फल के छह टुकड़े किए और अपनी आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा फकीर को दिया।


 फकीर ने टुकड़ा खाया और बोला, 'बहुत स्वादिष्ट ऎसा फल कभी नहीं खाया। 


एक टुकड़ा और दे दें।


 दूसरा टुकड़ा भी फकीर को मिल गया। 


फकीर ने एक टुकड़ा और बादशाह से मांग लिया। 


इसी तरह फकीर ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए।


 जब फकीर ने आखिरी टुकड़ा मांगा, तो बादशाह ने कहा, 'यह सीमा से बाहर है। 


आखिर मैं भी तो भूखा हूं।


 मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते।'.


और सम्राट ने फल का टुकड़ा मुंह में रख लिया। 


मुंह में रखते ही राजा ने उसे थूक दिया, क्योंकि वह कड़वा था।


राजा बोला, 'तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए?' 


उस फकीर का उत्तर था, 


'जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूं?


 सब टुकड़े इसलिए लेता गया ताकि आपको पता न चले।


 दोस्तों जँहा मित्रता हो वँहा संदेह न हो ।

सोमवार, 20 सितंबर 2021

काक भशुण्डी प्रकरण

 एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा।।

कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।

कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई।।

किन्तु

*कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा*। 

*सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा*।।

परिणाम ?

सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्दपि सो सब भांति अयाना।।


श्रीराम जी के ये काकभुशुण्डि जी के प्रति उपरोक्त कथन आज भी प्रासंगिक है। 

कोई पुत्र बहुत शिक्षित हुआ,

कोई धनवान हुआ,

तो पिता के लिए गर्व की बात होती है किन्तु यदि वही उतना प्रिय नहीं जितना एक पिता के भक्त पुत्र । क्योंकि जो अधिक धनवान, विद्वान हुआ वह माता पिता को छोड़कर परदेश में बस जाएगा लेकिन सेवा वही करेगा जो धनवान, विद्वान, बुद्धिमान कम था और घर पर माता पिता के पास रहता हो।

आजकल काँपते हुए शरीर से भी बड़े गर्व से बताते हैं कि मेरा पुत्र अमेरिका में डॉक्टर है, किन्तु आप जब बिमार पड़ते हैं तो वो कितना काम आता है?

गुणवान धनवान है तो पितृभक्त नहीं,

(माता पिता के सेवा नहीं करता)

और जो सेवा करता है वह गुणवान धनवान नहीं,

यही तो है विषमता।

(गंगा जी में बहती लाशों में अधिकांश वैसे ही गुणवान धनवान संतान के माता पिता के रहते हैं।)

इसीलिए पितृ भक्त संतान भले ही समाज की दृष्टि में मूर्ख हो किन्तु पिता के लिए वही अत्यंत प्रिय है, उपयोगी है।

कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा।सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।

माता पिता के सेवा करने वाले संतान को दूसरा अन्य धर्म यहां तक कि भगवान के विग्रह सेवा करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि स्वयं भगवान उन माता पिता को माध्यम बनाकर प्रत्यक्ष आशीर्वाद दे रहे हैं -

सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। 

जद्दपि सो सब भांति अयाना।।

ऐसे *अयाना* (तथाकथित अज्ञानी) पर भगवान भी न्योछावर।


बस भगवान के पवित्र भावना वाले निर्मल मन वाले सेवक ऐसे ही होते हैं 

🙏🙏🙏

सीताराम जय सीताराम

 सीताराम जय सीताराम

प्रार्थना

 हमारी प्रात: काल की प्रार्थना

💐🌷💐🌷💐🌷💐🌷💐

*श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।*

*बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।*

*बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।*

*बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।*

 

*चौपाई :*

 

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।

जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।


रामदूत अतुलित बल धामा।

अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।

 

महाबीर बिक्रम बजरंगी।

कुमति निवार सुमति के संगी।।

 

कंचन बरन बिराज सुबेसा।

कानन कुंडल कुंचित केसा।।

 

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।

कांधे मूंज जनेऊ साजै।

 

संकर सुवन केसरीनंदन।

तेज प्रताप महा जग बन्दन।।

 

विद्यावान गुनी अति चातुर।

राम काज करिबे को आतुर।।

 

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

राम लखन सीता मन बसिया।।

 

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।

बिकट रूप धरि लंक जरावा।।

 

भीम रूप धरि असुर संहारे।

रामचंद्र के काज संवारे।।

 

लाय सजीवन लखन जियाये।

श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

 

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

 

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।

अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।

 

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।

नारद सारद सहित अहीसा।।

 

जम कुबेर दिगपाल जहां ते।

कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

 

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।

राम मिलाय राज पद दीन्हा।।

 

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।

लंकेस्वर भए सब जग जाना।।

 

जुग सहस्र जोजन पर भानू।

लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

 

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।

जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।

 

दुर्गम काज जगत के जेते।

सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।

 

राम दुआरे तुम रखवारे।

होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।

 

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।

तुम रक्षक काहू को डर ना।।

 

आपन तेज सम्हारो आपै।

तीनों लोक हांक तें कांपै।।

 

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

महाबीर जब नाम सुनावै।।

 

नासै रोग हरै सब पीरा।

जपत निरंतर हनुमत बीरा।।

 

संकट तें हनुमान छुड़ावै।

मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।

 

सब पर राम तपस्वी राजा।

तिन के काज सकल तुम साजा।

 

और मनोरथ जो कोई लावै।

सोइ अमित जीवन फल पावै।।

 

चारों जुग परताप तुम्हारा।

है परसिद्ध जगत उजियारा।।

 

साधु-संत के तुम रखवारे।

असुर निकंदन राम दुलारे।।

 

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।

अस बर दीन जानकी माता।।

 

राम रसायन तुम्हरे पासा।

सदा रहो रघुपति के दासा।।

 

तुम्हरे भजन राम को पावै।

जनम-जनम के दुख बिसरावै।।

 

अन्तकाल रघुबर पुर जाई।

जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।।

 

और देवता चित्त न धरई।

हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

 

संकट कटै मिटै सब पीरा।

जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।

 

जै जै जै हनुमान गोसाईं।

कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।

 

जो सत बार पाठ कर कोई।

छूटहि बंदि महा सुख होई।।

 

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।

होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

 

तुलसीदास सदा हरि चेरा।

कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।। 

 

दोहा :

 

*पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।*

*राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।*

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रविवार, 19 सितंबर 2021

84 कोश की यात्रा का मतलब

 जानिए क्या है 84 #कोसी यात्रा और हर व्यक्ति को क्यों करनी चाहिए यह यात्रा?

वेद-पुराणों में ब्रज की 84 कोस की परिक्रमा का बहुत महत्व है, ब्रज भूमि भगवान श्रीकृष्ण एवं उनकी शक्ति राधा रानी की लीला भूमि है। इस परिक्रमा के बारे में वारह पुराण में बताया गया है कि पृथ्वी पर 66 अरब तीर्थ हैं और वे सभी चातुर्मास में ब्रज में आकर निवास करते हैं। करीब 268 किलोमीटर परिक्रमा मार्ग में परिक्रमार्थियों के विश्राम के लिए 25 पड़ावस्थल हैं। इस पूरी परिक्रमा में करीब 1300 के आसपास गांव पड़ते हैं। कृष्ण की लीलाओं से जुड़ी 1100 सरोवरें, 36 वन-उपवन, पहाड़-पर्वत पड़ते हैं। बालकृष्ण की लीलाओं के साक्षी उन स्थल और देवालयों के दर्शन भी परिक्रमार्थी करते हैं, जिनके दर्शन शायद पहले ही कभी किए हों। परिक्रमा के दौरान श्रद्धालुओं को यमुना नदी को भी पार करना होता है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने मैया यशोदा और नंदबाबा के दर्शनों के लिए सभी तीर्थों को ब्रज में ही बुला लिया था। 84 कोस की परिक्रमा लगाने से 84 लाख योनियों से छुटकारा पाने के लिए है। परिक्रमा लगाने से एक-एक कदम पर जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं।

शिवपूजन सहाय

 

शिवपूजन सहाय के सम्मान में जारी डाक टिकट


प्रारम्भिक शिक्षा आरा (बिहार) में हुई। फिर १९२१ से कलकत्ता में पत्रकारिता आरम्भ की। 1924 में लखनऊ में प्रेमचंद के साथ 'माधुरी' का सम्पादन किया। 1926 से 1933 तक काशी में प्रवास और पत्रकारिता तथा लेखन। 1934 से 1939 तक पुस्तक भंडार, लहेरिया सराय में सम्पादन-कार्य किया। 1939 से 1949 तक राजेंद्र कॉलेज, छपरा में हिंदी के प्राध्यापक रहे। 1950 से 1959 तक पटना में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निदेशक रहे। 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा दी. लिट्. की मानद उपाधि।

इनके लिखे हुए प्रारम्भिक लेख 'लक्ष्मी', 'मनोरंजन' तथा 'पाटलीपुत्र' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। शिवपूजन सहाय ने 1934 ई. में 'लहेरियासराय' (दरभंगा) जाकर मासिक पत्र 'बालक' का सम्पादन किया। स्वतंत्रता के बाद शिवपूजन सहाय बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक तथा बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से प्रकाशित 'साहित्य' नामक शोध-समीक्षाप्रधान त्रैमासिक पत्र के सम्पादक थे।

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

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