शनिवार, 3 दिसंबर 2022

मधुबाला

 कवि और जनता का संबंध स्वस्थ काव्य के सृजन के लिए अत्यंत आवश्यक है।यह संबंध तभी बना रह सकता है जब कवि आत्मविश्वासी हो और उसे जनता की सुरुचि में आस्था हो।जहाँ इसका अभाव है वहाँ तरह-तरह के विकार उत्पन्न हो जाते हैं- आप मेरी भूमिका लिख दीजिए, आप मेरी रचना पर सम्मति दे दीजिए, आप मेरी समालोचना कर दीजिए;कविताएँ तो मैंने उच्च कोटि की लिखीं पर जनता में उसे समझने की बुद्धि ही नहीं है, मुझे समझनेवाली जनता का अभी जन्म ही नहीं हुआ है, मुझे तो लोग दो सौ बरस बाद समझेंगे, मेरी कविता इतनी मौलिक है कि उसे परखने के लिए एक विशेष वर्ग का पाठक चाहिए आदि, आदि।इसका सबसे विकृत रूप आज ऐसे अनेक कवियों में देखा जाता है जिनके पाठक तो हैं तीन पर समालोचक तेरह।उनकी कविताओं की चर्चा निर्जीव स्याही से मुर्दा काग़ज़ों पर तो बहुत होती है पर सजीव धड़कते हुए हृदय से उनकी प्रतिध्वनियाँ नहीं आतीं।.....प्रजातंत्र की स्वतंत्रता साहित्य के राज्य का अपेल सिद्धांत है।वहाँ न तानाशाही चलती है और न गुरुडम चलता है।

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 डॉ. हरिवंशराय बच्चन

('मधुबाला' के आठवें संस्करण की भूमिका से)

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