गीतिका/सजल
*रोक दो!*
संस्कृतियों का क्षरण रोक दो!
अंधकार आवरण रोक दो!!
बिन विवाह सहवास के लिए,
किसी पुरुष का वरण रोक दो!
पश्चिम की सभ्यता विषैली,
संबंधों का मरण रोक दो!
'श्रद्धा-आफताब' से सीखो,
ऐसा हर आचरण रोक दो!
वृत्ति-आसुरी और राक्षसी,
करना सीता-हरण रोक दो!
हरी-भरी हो धरती सारी,
दूषित पर्यावरण रोक दो!
कवियों! ऐसी कलम चलाओ,
मानवता पर ग्रहण रोक दो!
:
*लिव-इन को है मिली मान्यता,फिर क्यों रोना-धोना*
साथ-साथ रहना खाना है, पाणिग्रहण बिन सोना।
संस्कृतियों का क्षरण यही है, संस्कार का खोना।
संबंधों के पैंतिस टुकड़े, कर जंगल में बोना।
लिव-इन को है मिली मान्यता, फिर क्यों रोना-धोना।।
छोड़ दिए तुम मात-पिता को, कथित प्रेम में पड़कर।
अनजानी राहों के राही,बने हुए हो भगकर।
कैसे भूल गए घर सुंदर, अपना सुखद सलोना।
लिव-इन को है मिली मान्यता, फिर क्यों रोना-धोना।।
माना प्रेम सरस होता है, पर जब पावन होता।
गंगा जल- सा प्रेमी जन का, तन-मन सदा भिंगोता।
देह-यष्टि का आकर्षण तो,मात्र मोह का होना।
लिव-इन को है मिली मान्यता, फिर क्यों रोना-धोना।।
प्रेमपाश में अगर फँसाने, लव-जेहादी आएँ।
सावधान तुम रहो बेटियों!, तुमको लुभा न पाएँ
भौतिकता की आँधी में मत, अपना आपा खोना।
लिव-इन को है मिली मान्यता, फिर क्यों रोना-धोना।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें