गीत :
#अँजुरी_भर_अंगारा / प्रवीण परिमल
यदि तुमने कुछ दिया मुझे, तो
अँजुरी भर अंगारा!
पीर हुई पर्वत- सी दिल की
उर में उठे फफोले,
मिले नेह के बदले तुमसे
सिर्फ दहकते शोले।
अमृत- सा जीवन- जल मेरा
किया तुम्हीं ने खारा!
सहज भाव से कभी न तुमने
निर्मित किया घरौंदा,
मेरे स्वप्निल ताजमहल को
फिर भी तुमने रौंदा
अपना तन- मन- धन तिस पर भी
मैंने तुम पर वारा।
लाँघ गई लक्ष्मण- रेखा, पर
हुई नहीं तुम सीता,
अपने मन से रही कुतरती
रामायण औ' गीता।
रही तुम्हारे लिए शिला बस,
गिरजा या गुरुद्वारा!
कौन तुम्हें समझाए, क्योंकर
गीत हुए दर्दीले,
तृप्ति- द्वार पर पड़े- पड़े क्यों
सूखे अक्षत पीले!
घनी दुपहरी में ही तुमने
फैलाया अँधियारा!
बूँद- बूँद कर रहा पिघलता
घटता गया हिमालय,
द्रवित नहीं पर हुआ तुम्हारे
अंतः का देवालय।
भाग्य- पटल पर लिखा नियति का
लेख न तनिक सँवारा।
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