लिखना कला है तो पढ़ना भी किसी कलात्मक अनुभव से कम नहीं है। मैं रोज़मर्रा का यात्री था। बहादुर गढ़ से मिंटो ब्रिज स्टेशन तक। रेलगाड़ी में बेतहाशा भीड़ होती। मैं अपने झोले से किताब निकालता। ज़रा सी जगह तलाश करता।एक दुनिया बीड़ी सिगरेट और ताश खेलनेवालों की। दूसरी मेरी, ख़ामोश, मरियल और किताब की दुनिया।
उस मुश्किल सफर में मैंने ख़ूब किताबें पढ़ीं और ज्यादातर पर लिखा भी।
इधर उम्र ज्यादा हो गई है, पढ़ना कम।
पत्रिकाओं में छपी रचनाएं पढ़ता रहा हूं। कुछ अरसा पहले शम्पा शाह ने निर्मल वर्मा पर अंक संपादित किया था कथादेश के लिए। दो बार पढ़ डाला। वो जब भी कोई काम करती हैं, हमारे लिए ज़रूरी हो जाता है।
कथादेश में ही अजीत कौर ने जो बलवंत गार्गी का इंटरव्यू लिया था, वो पढ़ा।दो अदीब जब अदब के नये इमकान तलाश करते हैं तो ऐसा मंज़र बन जाता है। बलवंत गार्गी, वही, नंगी धूप वाले। अफसानानिगार और रंगकर्मी।वो जीनियस, फ़क्कड, खिलंदड़े, अध्येता, यारबाश। अजित कौर ने इंटरव्यू के दौरान जो माहौल रचा है, बेमिसाल।
बिल्कुल इसी स्तर के इंटरव्यू, खुशवंत सिंह और कृष्णा सोबती के भी हैं। आपने न पढ़े हों तो ज़रूर पढ़ना। कथादेश के उसी अंक में आलम जावेद खान की कविताएं भी ताज़दम हैं।
लीक को तोड़ती हुई। नया मिज़ाज रचती हु ई।
वनमाली कथा
वनमाली कथा ने जो इस दरमियान, ठहरी हुई झील की लहरों में जो कंकर उछाल कर न सिर्फ़ लहरों को जगाया है बल्कि हलचल सी पैदा की है।
अब तक नौ अंक निकले हैं और ख़ूब निकले हैं।
नौ अंक के निकलते निकलते इस बेहद जरूरी पत्रिका को दो बड़े सम्मान मिल चुके हैं।
यह शर्फ पत्रिका के संपादक कुणाल सिंह को जाता है।वो अदबशनास, गहरी समझ के युवा संपादक हैं।
इधर, वनमाली कथा की कुछ कहानियां पढ़ने का Jइत्तेफाक हासिल हुआ।नीलाक्षी सिंह, राहुल श्रीवास्तव, अनघ शर्मा, मनोज पाण्डेय, मो आरिफ़ ,और हंस में छपी कुणाल सिंह की कहानी
ये तमाम नौजवान कथा लेखक, कहानियों में ज़िन्दगी की ऐसे तलाश करते हैं जैसे एक नया ज़िंदगीनामा रच रहे हों। कुणाल सिंह ने नयी तकनीक और तकनीकी भाषाK को कहानी परिसर बना दिया तो मनोज पाण्डेय ने गणेश नीलाक्षी ने रोशन और बुआ, आरिफ़ ने अब्दुल के ज़रिए , समाज के कोने कंतरों में झांककर देखने और कथानक तैयार करने का साहस किया है। पाकिस्तान के पास मोहम्मद मंशा याद थे, हमारे पास मो आरिफ़।
सभी की कोशिश यही है कि इस संगो ख़िश्त की दुनिया में थोड़ी सी मुहब्बत बची रहे।
लीलाधर मंडलोई की डायरी कमाल की है। उनकी डायरी की किताब पर मैंने लिखा भी था।
इधर वो ज्यादा फिलाफ़र हो गये महसूस होते हैं।
विजय शर्मा विश्व सिनेमा पर बहुत सशक्त लिखती रही हैं। यहां उन्होंने गोदार पर लिखा है संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण। उन्होंने गान विद द विंड फिल्म पर भी अमर उजाला में बहुत शानदार लिखा है।
दो अंक मिले नहीं थे। कल एन एस डी से लाया था।
मुमकिन हुआ तो संतोष चौबे की लम्बी कहानी और कविताओं पर लिखूंगा।
वनमाली कथा का उसने कहा था कालम बहुत दिलकश है।
आवरण जैसे ज़िन्दगी की नज़्में
और उर्दू शायर का ये शेर
गुज़िश्ता वक़्त की यादों को फिर करो ताज़ा
नये चिराग जलाओ बहुत अंधेरा है
आप सब दोस्त लफ़्ज़ों के चिराग ही तो जला रहे हैं।
बहुत शुभकामनाएं।
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