देश के जाने माने हिंदी के साहित्यकार कवि, संपादक समालोचक, डॉ. भारत यायावर ने कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता, जो निराला जी को समर्पित है।.. जिसे वे अपने जीवन काल में बार-बार गुनगुनाया करते थे।
कविता के मायने व अर्थ को.. वे किस रूप में लेते हैं ? उसका वर्णन किस तरह करते हैं ? साहित्य के लिए यह एक अमिट वर्णन बन गया है।
कविताएं तो खुब लिखी जा रही हैं। पढ़ी भी जा रही हैं। कई कविताएं पाठकों की समझ से बाहर चली जाती है। बार-बार पढ़ने के बाद भी कविताओं का अर्थ समझ में नहीं आ पाता है। कई कविताएं पढ़ने के साथ ही भाव साफ-साफ समझ में आने लगती है। कई कविताओं के अर्थ बार बार पढ़ने के बावजूद कविताओं की पंक्तियों से बाहर आ नहीं पाती हैं।
इन दिनों मुक्त छंद की कविताओं की बाढ़ सी आ गई है। यह सिर्फ यह बार सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में आई हुए है। मुफ्त छंद की कविता की शुरुआत को गति प्रदान करने में निराला की कविताएं प्रतिमान के रूप में सामने आई थीं। तब से लगातार मुक्त छंद की कविताएं लिखी जा रही हैं।
भारत यायावर देश के एक जाने-माने कवि थे । आज भी इनकी कविताएं बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। लोग इनकी कविताओं में जीवन, तड़प और मुस्कुराहट तलाशते रहते हैं। इनकी कविताएं मुक्त छंद में रहती जरूर हैं, लेकिन बहुत ही सहजता के साथ अपनी बातों को कह गुजरती है। भारत यायावर एक कवि के साथ एक अच्छे कविताओं के पाठक थे। वे हमेशा नए एवं पुराने कवियों की कविताओं को पढ़ते रहते थे। वे कवि की पंक्तियों के मर्म व भाव को समझने का प्रयास करते रहे थे। भारत यायावर की नजर कवि केदारनाथ सिंह की पंक्तियों पर पड़ी । कवि केदारनाथ सिंह देश के जाने-माने कवियों में एक थे। उनकी पंक्तियां भाव से भरी होती हैं। लेकिन समझने का नजरिया और भाव भी होनी चाहिए।
'दुखता रहता है,अब यह जीवन' शीर्षक की यह कविता कवि केदारनाथ सिंह की प्रमुख कविताओं में एक है । यह कविता कवि निराला जी को समर्पित है ।
भारत यायावर ने उक्त कविता के भाव को कम से कम पंक्तियों में इतनी सहजता और विद्वता पूर्ण तरीके से समझाने की कोशिश की है, पढ़कर मन गदगद हो जाता है।
आज मैं कवि केदारनाथ सिंह की उक्त पंक्तियां और भारत यायावर की उक्त कविता पर अर्थपूर्ण विवेचना आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं ।
उम्मीद है, आपको पसंद आएगा।
निराला को याद करते हुए
********************
निराला को याद करते हुए केदारनाथ सिंह ने एक कविता लिखी है, जिसे मैं प्राय: गुनगुनाता हूं।यह मेरी पसंदीदा कविता है।कल मेरे परम प्रिय मित्र अनिल जनविजय से बातचीत के दौरान मैंने कहा था कि मैं केदारनाथ सिंह की कविता पर टिप्पणी लिखूंगा। पहले यह कविता फिर से पढ़ने की आपसे गुजारिश करूंगा :
उठता हाहाकार जिधर है
उसी तरफ अपना भी घर है
खुश हूं -- आती है रह-रह कर
जीने की सुगंध बह-बहकर
उसी ओर कुछ झुका-झुका- सा
सोच रहा हूं रुका - रुका - सा
गोली दगे न हाथापाई
अपनी है यह अज़ब लडाई
रोज़ उसी दर्जी के घर तक
एक प्रश्न से सौ उत्तर तक
रोज़ कहीं टाँके पड़ते हैं
रोज़ उघड़ जाती है सीवन
" दुखता रहता है अब जीवन!"
केदारनाथ सिंह की कविताएं कई-कई बार पाठ करने के बाद भी जल्दी खुलती नहीं हैं। उनके अर्थ और मर्म तक कैसे पहुंचा जाए, प्रवेशद्वार पर ताला लगा हुआ है। कुंजी के रूप में निराला का एक वाक्य है :
दुखता रहता है यह जीवन!
जीवन का दुखना ही दुखी जीवन की पहचान है।इस दुखी जीवन पर प्रेमचंद का एक निबंध है, जिसमें उन्होंने अपनी भाव-संवेदना बुद्ध को समर्पित की है।दुखते जीवन का गहरा एहसास निराला ही नहीं, प्रेमचंद में भी है। जीवन को सही रूप में महसूस करते रहने की यह एक प्रक्रिया है।दुखिया दास कबीर ही नहीं हाहा करते भारतेंदु भी हैं, जो दुर्दशा को विकल मन से पहचान करते हैं। हाहाकार मैथिलीशरण शरण गुप्त की भारती में भी दिखाई देता है । आहत हृदय में शरबद्ध क्रौंच पक्षी वाल्मीकि की तरह हर युग के रचनाकार के भीतर करुण विलाप करता दिखाई देता है। केदारनाथ सिंह हाहाकार की तरफ ही अपना घर होने का इशारा कर इसी परंपरा से संबद्ध होने की घोषणा करते हैं तो दरअसल वे जीवन के गहरे रूप से जुड़े होने की संकल्पना को ही प्रकट करते हैं।
इस दुखते जीवन में भी कभी-कभार जीने की सुगंध बहकर आती है, यह आह्लादित करती है। जीवन का यह भी एक पक्ष है। जीवन खुशियों के इसी पक्ष की ओर झुका रहना चाहता है, लेकिन इससे गतिशीलता बाधित होती है।वह नहीं चाहता कि जीवन की सुख-सुविधा की ओर रुका हुआ झुका रहे।
दुखते जीवन की गहरी संवेदना से युक्त कवि इस सद्भाव से संचालित है कि इस जीवन में प्रेम और सदाचार हो। अपनत्व की भावना को स्थापित करना ही उसका संघर्ष है।न कहीं गोली चले और न हाथापाई हो, यह उसकी विचित्र किस्म की लड़ाई है।
जीवन में टूट-फूट होता रहता है। इसमें तरह-तरह की परेशानियां आती रहती हैं। रोज़ टांके पड़ना और सिलाई का उघड़ जाना लगा रहता है। ऐसे में मरम्मत करने वाले दर्जी के घर दौड़ लगाने की रोज़-रोज़ की आवश्यकता बनी रहती है।
इस दुखते रहने वाले जीवन के साथ मिलकर चलने वाले रचनाकार की प्रतिभा निरंतर निखरती है और जीवन को भी संवारती है।
केदारनाथ सिंह की कविता कबीर की वाणी की तरह चुनौती देती है, कहै कबीर कोई विरला बूझै।
नामवर सिंह ने कहा है कि जब बिना मेहनत के रोटी भी नहीं मिलती तो कविता में छुपा अर्थ और मूल्य कैसे मिल सकता है? कविता ही नहीं कोई साधारण से साधारण वस्तु भी अपने में कई रहस्यों को समेटे हुए रहती है। उससे विरले लोग ही जूझ पाते हैं। समुद्र के गहरे तल में जाकर ही मोती की खोज संभव होती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें