प्रेम की अविरल "सरिता" मैं तू है सागर,
मैं तेरी लहरों में मिलना चाहती हूं।
आंजुरी में शुभ्र पावन नीर हूं मैं,
खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।
देख कुंदन सा मेरा चमका हुआ तन,
फूल की लड़ियों सा महका है मेरा मन।
दूसरा टिकता नहीं नयनों में कोई,
पा गई जनमों जनम का मैं रतन धन।
मैं दिये की भांति जलना चाहती हूं,
खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।
बाहुओं के वलय को विस्तार दे दे,
रूक न तू निर्भीक सारा प्यार दे दे।
मन विकल है व्यग्र है व्याकुल बहुत है,
प्रेम का अपने मुझे उपहार दे दे।
नख से शिख तक तेरी रहना चाहती हूं,
मैं तेरी लहरों में मिलना चाहती हूं।
छोड़कर तुझको मैं कैसे रह सकूंगी,
विरह के क्षण न किसी से कह सकूंगी।
तू ही मेरा लक्ष्य है ये जानती हूं,
याद कर तुझको निरन्तर बह सकूंगी।
स्वप्न सारे पूर्ण करना चाहती हूं,
खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।
प्रेम की अविरल नदी मैं तू है सागर,
मैं तेरी लहरों में मिलना चाहती हूं।
आंजुरी में शुभ्र पावन नीर हूं मैं,
खुद ही चरणों में उतरना चाहती हूं।
अक्षिता प्रताप
ग्रेटर नोएडा, गौतमबुद्ध नगर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें