सोमवार, 21 नवंबर 2022

रवि अरोड़ा की नजर से.....

 ट्रेन की सीटी और संग्रहालय / रवि अरोड़ा



ट्रेन की आवाज़ अलग अलग लोगों के मन में अलग अलग भाव जगाती है। किसी को यह मधुर लगती है तो किसी को भयावह । कोई इससे वक्त का अंदाजा लगाता है तो कोई दार्शनिकनुमा व्यक्ति इससे प्रेरणा पाता है। किसी को इसमें संगीत का गुमान होता है तो कई ऐसे लोग भी हैं जिन्हें रेलगाड़ी की सीटी की आवाज से कोई अपना याद आ जाता है। मगर एक ट्रेन की आवाज़ ऐसी भी है जो सिर से पांव तक सिहरन पैदा करती है और उसकी सीटी ऐसी चीत्कार सी करती है कि रूह कांप उठे। मैं बात कर रहा हूं अमृतसर के पार्टीशन म्यूजियम में प्रदर्शित एक फिल्म की जिसमें बस एक ट्रेन है जो बंटवारे के समय शरणार्थियों से लदी भारत और पाकिस्तान के बीच कहीं से गुजर रही है। शरणार्थी जितने ट्रेन के भीतर होंगे उससे कई गुना अधिक उसकी छत पर दिखते हैं। एक बड़ी स्क्रीन पर दर्शाई जा रही मात्र दो मिनट की इस फिल्म में ट्रेन की सीटी बार बार कुछ ऐसे बजती है मानो अनगिनत लोग दर्द से चिंघाड़ रहे हों।


 पांच साल पहले अमृतसर के टाउन हॉल में बना था यह अनोखा संग्रहालय मगर इसे देखने का अवसर अब जाकर मिला । दर्द को सहेज कर रखने की जो मिसाल इस म्यूजियम ने कायम की है वैसी पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगी। भारत पाकिस्तान के बीच 1947 में हुए बंटवारे जिसमें कम से कम दस लाख लोग मारे गए और डेढ़ करोड़ लोग विस्थापित हुए, की हजारों कहानियां समेटे हुए है यह संग्रहालय । विभाजन से प्रभावित लोगों के कपडे, बर्तन, दस्तावेज और इस्तेमाल की छोटी से छोटी पांच हजार वस्तुओं को बड़े करीने से संजोया गया है इस म्यूजियम में। ये सभी वस्तुएं वह हैं जिन्हें स्वयं पीड़ितों ने इस संग्रहालय के लिए दान किया है। दंगों और विस्थापन से प्रभावित लोगों के इंटरव्यू और टूटे और लूटे गए घरों का संग्रहालय में बनाया गया स्वरूप मजबूत दिल वालों को भी भावुक करने को काफी नज़र आता है।  खास बात यह है कि यह संग्रहालय इतिहास के उस पीड़ादायक माहौल में आपको बिना किसी पक्षपात के ले जाता है। संग्रहालय में जिन लोगों का दर्द है उनका कोई धर्म नहीं है। वे केवल इंसान हैं जिन्हें कुछ कथित बड़े लोगों की अति महत्वकांक्षा ऐसा नासूर दे गई जो कभी भर ही नहीं पाया । वे लाखों महिलाऐं  जिनके साथ बंटवारे में बलात्कार हुआ अथवा अपनी अस्मत बचाने को जिन्होंने कुओं में कूदकर जान दे दी, उनकी अनकही कहानियों को बयां करता एक ऐसा कुआं भी इस म्यूजियम में बनाया गया है जिसमें झांकने को बड़े कलेजे की दरकार होती है।


इतिहास गवाह है कि अंग्रेज वकील सर सिरिल रेडक्लिफ जो भारत की भौगोलिक स्थिति से पूरी तरह अनजान था, ने कागज़ पर लकीर खींच कर ही बंटवारे की रस्म अदायगी कर दी थी । वायसरॉय माउंटबेटन ने भी आज़ादी की घोषणा पहले की और बंटवारे को बाद में अंजाम दिया । नतीजा भारत और पाकिस्तान दोनो की उन नई सरकारों को दंगे रोकने की जिम्मेदारी उठानी पड़ी जिन्हें यह भी नहीं पता था कि पुलिस, फ़ौज और ब्यूरोक्रेसी का कौन आदमी उसके देश में रहेगा और कौन दूसरे मुल्क जायेगा । परिणाम स्वरूप मानव इतिहास की सबसे बड़ी आबादी बदल हत्याओं, लूटपाट और बलात्कारों की भेंट चढ़ गई । इस म्यूजियम को देखने के बाद मेरा बेटा इतना आक्रोशित था कि उसे इस बात पर भी एतराज होने लगा कि इस म्यूज़ियम में उसके साथ कुछ अंग्रेज भी विभाजन की दर्दनाक तस्वीरें क्यों देख रहे हैं। वह गुस्से से बोल उठा कि इन लोगों को यहां घुसने की हिम्मत ही कैसे हो गई ।



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