सूर के कृष्ण सबसे अलग ,अनूठे और विलक्षण हैं। सूर ने अपनी कल्पना सृष्टि से जैसा कृष्ण को रचा है वैसा शायद ही कोई अन्य कवि कर पाया हो। उनके कृष्ण सबसे निराले हैं स्वतंत्र,स्वछंद और समत्वधर्मी। वे सिद्धांतों में नहीं,आचरण में समतावादी हैं। सबसे पहले एक शर्त होती है समतावादी के लिए कि वह किसी भी तरह के आभिजात्य से मुक्त हो । कृष्ण उस पशुचारण अवस्था के हैं जब कृषि व्यापार से पैदा हुआ सामंती आभिजात्य व्यक्ति की प्रवृत्तियों में शामिल नहीं हुआ था। सूर के कृष्ण उसी आदिम स्थिति में गोपग्वालों के साथ गाय चराते हैं और आदिम अवस्था में स्त्रियों के स्वातंत्र्य को पूरा सम्मान देते हैं। हमारी नज़र में सूर के कृष्ण जैसा समत्ववादी कला-पुरुष कदाचित साहित्य में दूसरा नहीं है। एक बार की बात है कि यशोदा अपने सुपुत्र के लिए घर में मेवा पकवान तैयार करती हैं और अभिलाषा करती हैं कि कृष्ण उनको बहुत चाव से खायेंगे।जब वह उन मेवा पकवानों को अपने प्रिय पुत्र के सामने बड़े लाड़ चाव से परोसती हैं तो कृष्ण साफ़ कहते हैं कि यह मेरी रुचि का भोजन नहीं है। मैं मेवा पकवान नहीं खा सकता। मुझे तो दधिमाखन से अच्छा कुछ लगता ही नहीं।मेरी मेवा पकवानों में कोई रुचि नहीं है।सूर अपने कृष्ण से कहलवाते हैं-----+
मैया री मोहै माखन भाबै।
जो मेबा पकवान कहत तू मोहि नहीं रुचि आबै।
ब्रज जुबती इक पाछै ठाड़ी, सुनत स्याम की बात।
मन मन कहत कबहुं अपने घर देखौं माखन खात।
बैठे आंय मथनिया के ढिंग,तब मैं रहों छिपानीU।
सूरदास प्रभु अंतर्जामी, ग्वालिनि मन की जानी।।
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