सोमवार, 7 नवंबर 2022

करतारपुर साहेब से लौट कर ( भाग 1-6)

 सिक्खों से कुछ सीखो जी / रवि अरोड़ा 



दीपावली पर इस बार स्वर्ण मन्दिर अमृतसर में था। इस बड़े त्योहार के चलते हरि मंदिर साहब को रंग बिरंगी खूबसूरत लाइटों से भरपूर सजाया गया था । दिवाली और छुट्टी का दिन होने के कारण परिसर में बेहद भीड़ थी मगर फिर भी कहीं धक्का मुक्की, आपा धापी अथवा किसी किस्म की अव्यवस्था नज़र नहीं आई। दुनिया की सबसे बड़ी सामुदायिक किचन यानि गुरू राम दास रसोई में अटूट लंगर सदा की तरह निर्बाध चल रहा था। आमतौर पर इस लंगर में प्रति दिन एक लाख लोग निशुल्क खाना खाते हैं मगर त्यौहार के चलते यह संख्या अनुमानित तौर पर डेढ़ गुना अधिक तो रही ही होगी मगर फिर भी कहीं कोई बदइंतजामी नजर नहीं आई। जिसे देखो वही हाथ जोड़े भक्ति भाव में खड़ा था और सेवा कार्यों में जुटे लोग भी हाथ बांधे खड़े थे मगर सहयोग के लिए । सिर्फ हरि मन्दिर साहिब की ही बात क्यों करें, देश दुनिया का ऐसा कौन सा गुरुद्वारा है जहां ऐसा दृश्य प्रति दिन दिखाई न देता हो। 


इस बार कई सालों के बाद स्वर्ण मंदिर दर्शन के लिए आना हुआ । हर बार की तरह इस बार भी बहुत कुछ बदला बदला मिला । श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या और दर्शनों को और अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए पिछ्ले कई दशकों से कोई न कोई बड़ा परिवर्तन हरबार देखता ही चला आ रहा हूं। नहीं परिवर्तित हो रही तो वह है सिक्खों की सेवा की प्रवृति। कहीं कोई पंडा पुरोहित नहीं, कहीं कोई वीआईपी दर्शन नहीं। पूरे परिसर में ले देकर दान के लिए बस दो गोलक, एक ग्रंथ साहिब के पास और एक परिक्रमा स्थल पर। आप प्रसाद दस रुपए का लें अथवा लाख रुपए का कढ़ाह डोने में उतना ही मिलेगा। कहीं कोई भेदभाव नहीं और कहीं अमीर को गरीब पर वरीयता नहीं। सैंकड़ों साल पहले गुरू नानक और अन्य गुरुओं ने जो शिक्षा दी उसी के अनुरूप स्त्री-पुरूष, अमीर-गरीब, ऊंच- नीच और धर्मी- अधर्मी का कोई भेद नहीं। संगत और पंगत के सिद्धांत के अनुरूप सभी एक साथ एक ही सरोवर में स्नान करो, एक साथ बैठ कर भोजन करो और फिर एक साथ बैठ कर प्रभु का सुमिरन करो। 


हालांकि धर्म कर्म में मेरा अधिक विश्वास नहीं है मगर पारिवारिक माहौल और संस्कारों के चलते सभी धर्मों के अधिकांश धार्मिक स्थलों पर हो आया हूं। लगभग सभी जगह गंदगी और अव्यवस्था का बोलबाला और अमीर गरीब का भेद नजर आया । बेशक चर्च भी खुद को संभाले हुए हैं मगर उनकी मंशा को इस देश में हमेशा से शक की नज़र से देखा गया है। ले देकर गुरुद्वारे ही बचे हैं जहां अभी तक कोई रोग नहीं लगा है। हालांकि अन्य धर्मों के मुकाबले सिख नया धर्म है और चंद सौ वर्षों में बड़ी कुरीतियां अपनी जड़ें जमा भी नहीं पातीं मगर सेवा और भक्ति की परम्परा से सिख कौम इंच भर भी विचलित होती दिखाई नहीं देती। कोरोना काल और अन्य आपदाओं के समय भी सिक्खों ने समाज की सेवा में बढ़ चढ़ कर हाथ बंटाया है। काश हिंदू धर्म के रहनुमा भी इनसे सीखें और पूजा पाठ के अतिरिक्त इंसानियत की सेवा में भी कुछ योगदान दें। क्या ही अच्छा हो कि हमारे मठ और बड़े मंदिर अपनी अरबों खरबों रुपए की दौलत सरकार को सौंप दें और देश की माली हालत को सुधारने में एक सकारात्मक भूमिका निभाएं। चलिए ये भी नहीं तो कम से कम भगवान के दर्शनों के नाम पर पैसे तो न वसूलें । गरीब को भी तो थोडा बहुत सम्मान दें और फिर बेशक जितना चाहें अमीर और ताकतवर के चरणों में लोट लगाएं।


 करतारपुर साहेब से लौट कर



हालांकि करतारपुर कॉरीडोर को खुले हुए पूरे तीन साल हो चुके हैं मगर मैं अब कहीं जाकर पाकिस्तान स्थित करतारपुर साहेब गुरुद्वारे के दर्शन कर पाया । बहुत गहरी इच्छा थी इस यात्रा पर जाने की मगर क्या करता कोरोना के चलते लगभग बीस महीने तो यह कॉरीडोर यूं भी बंद ही रहा और बाकी समय अपनी निजी समस्याओं से जूझने में व्यतीत हो गया। खास बात यह भी है कि मेरे बच्चे भी इस यात्रा के लिए लालायित थे। जब से उन्हें पता चला कि पाकिस्तान की इस यात्रा में पासपोर्ट पर इस पड़ौसी मुल्क की मुहर नहीं लगती तब से उनकी यह इच्छा और अधिक प्रबल हो गई। अब कौन नहीं जानता कि एक बार पाकिस्तान की मुहर पासपोर्ट पर लग जाए तो अमेरीका, आस्ट्रेलिया और यूरोप तो क्या छोटे मोटे देश भी अपने यहां आसानी से घूसने नहीं देते । हालांकि मैं और मेरे दोनो बच्चे धर्म कर्म में बहुत कमजोर हैं मगर पर्यटन को ही सही मगर हम धार्मिक स्थलों पर अकसर हो आते हैं। हां पत्नी यदि आज इस दुनिया में होती तो वह जरूर पूरे भक्ति भाव और श्रद्धा से करतारपुर के दर्शन करती । उसी का साथ निभाने को मैंने देश के अधिकांश धार्मिक स्थल देखे हैं। खैर, बात करतारपुर साहेब गुरूद्वारे की हो रही है तो अपने शब्द वहीं तक महदूद रखता हूं। 


करतारपुर कॉरीडोर के मार्फत पाकिस्तान जाने को लेकर बड़ी आशंका थी कि पता नहीं अनुमति मिलेगी भी अथवा नहीं ? इस गुरूद्वारे में तो यूं भी पूरी दुनिया से सिक्ख आते होंगे और चूंकि हमने सबसे बडे़ त्यौहार दीपावली पर वहां जाना तय किया है तो पता नहीं कितनी भीड़ वहां मिलेगी ? भारतीय होने के नाते पाकिस्तानियों के व्यवहार को लेकर चिंता थी सो अलग। हालांकि उनके बाबत बहुत सारी जानकारी मैं पहले से जुटा कर गया था मगर फिर भी अपनी आंखों से जब तक देख न लो, किसी बात पर आसानी से विश्वास भी तो नहीं होता। बीस दिन पहले ऑन लाईन रजिस्ट्रेशन के बाद गृह मंत्रालय और स्थानीय खुफिया विभाग से प्रपत्रों की जांच तो करा ली थी मगर यात्रा से चार दिन पहले अनुमति पत्र जब तक नहीं मिला यह तय ही नहीं हो पाया कि इस बार हम दीपावली गुरुनानक की निर्वाण स्थली पर मना पाएंगे अथवा नहीं। वैसे तो भारत की सीमा से मात्र चार किलोमीटर दूर है करतारपुर का गुरुद्वारा दरबार साहेब मगर लगभग आधी सदी तक जैसे हमसे हजारों किलोमीटर दूर ही था । आजादी के बाद अधिकांश सिक्खों द्वारा हिन्दुस्तान के इस भू भाग में आकर बसने के निर्णय के बाद पश्चिमी पंजाब ( अब पाकिस्तान )  में रह गई मुठ्ठी भर सिख आबादी अपने गुरुद्वारों की ढंग से देखभाल भी तो नहीं कर पाई। सन 1947 से सन 2000 तक तो यह पवित्र स्थान बंद ही रहा और  स्थानीय लोग अपने मवेशी यहां बांधते थे तथा गुरू घर की जमीन पर भी स्थानीय काश्तकारों का अवैध कब्जा था । साल 2004 से इसे भारतीय श्रद्धालुओं के लिए खोला गया और 2019 को कहीं जाकर इस कॉरिडोर से वीजा मुक्त आवाजाही का मार्ग खुला । कॉरीडोर हेतु भारतीय पक्ष में विकास कार्य का शिलान्यास करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महती कार्य को जर्मनी को दो भागों में बांटने वाली बर्लिन की दीवार ढहाए जाने जितना महत्वपूर्ण बताया था । मगर यह सवाल मौजू है कि क्या वाकई भारत पाकिस्तान के बीच की कोई दीवार इस कॉरीडोर के बनने से ढही है ? क्या सचमुच इस कॉरीडोर से करतारपुर साहेब की यात्रा सुगम हुई है ? क्या वाकई भारत और पाकिस्तान की सरकारें चाहती हैं कि दोनो देशों के आम नागरिक एक दूसरे से निर्बाध तरीके से मिलें और यह कॉरीडोर दोनो देशों के बीच सौहार्द पैदा करने में सहायक हो ? ऐसे तमाम सवाल हैं जो बेलाग लम्बी चर्चा की मांग करते हैं । 

क्रमश:



करतारपुर से लौट कर 

( भाग दो )


रवि अरोड़ा


अमृतसर से भारतीय सीमा के लिए हमने टैक्सी का सहारा लिया। आमतौर पर सभी को यही करना पड़ता है। सार्वजनिक परिवहन का कोई जरिया है नहीं और बाहर से आया कोई व्यक्ति पराए शहर में अपना वाहन भला कहां से लाएगा ? लौटते समय भी सीमा पर कोई वाहन मिलता नहीं इसलिए शाम तक के लिए ही सबको टैक्सी बुक करनी पड़ती है । ज़ाहिर है कि यह काम खर्चीला होता है। लगभग 65 किलोमीटर की एक तरफ की यात्रा और दिन भर सवारी का इंतज़ार करने के कम से कम तीन हजार तो टैक्सी वाले वसूलते ही हैं। अमृतसर से अजनाला होते हुए भारत पाक सीमा पर पहुंचते समय सड़क की हालत को देख कर कतई नहीं लगा कि हम किसी बहुप्रचारित यात्रा पर जा रहे हैं और इस यात्रा के नाम पर देश के नेताओं ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं। बेशक यह कॉरिडोर खुले हुए तीन साल हो चुके हैं मगर भारत की ओर सड़कों पर अभी तक काम चल रहा है। दो स्थानों पर छोटे पुल बन रहे थे तो कम से कम तीन जगह सड़क की मरम्मत का काम चल रहा था । हालांकि वापसी में टैक्सी चालक ने कोई दूसरा मार्ग पकड़ा मगर मुख्य मार्ग की हालत देख कर तो मन खिन्न ही हो गया।


करतारपुर कॉरिडोर की पहला निशान बॉर्डर से सात किलोमीटर पहले ही दिखाई दिया जहां नई चार लेन सड़क का निर्माण किया गया है। साल 2019 की 26 नवंबर को मोदी जी ने यहीं पर इस कॉरिडोर का शिलान्यास किया था । यह सड़क हमें सीधा इमिग्रेशन सेंटर तक ले गई। यहां पहुंच कर तो ऐसा लगा जैसे हम किसी हवाई अड्डे पर आ गए हों। हवाई अड्डा भी ऐसा जो कई मामलों में दिल्ली हवाई अड्डे के टर्मिनल 3 को मात दे । हवाई अड्डे जैसी ही कदम कदम पर जांच और विदेश यात्रा के लिए की जाने वाली सारी औपचारिकताएं। नियमानुसार एक व्यक्ति केवल ग्यारह हज़ार रूपए ही करतारपुर ले जा सकता है मगर मेरे बच्चों ने खरीदारी को कुछ ज्यादा ही पैसे रख लिए थे सो वापिस जाकर टैक्सी चालक को अतिरिक्त पैसे सौंपने पड़े। हालांकि घोषित रूप से जरूरी प्रपत्रों में पासपोर्ट शामिल नहीं है मगर पासपोर्ट, आधार और यात्रा के लिए मिले इलैक्ट्रोनिक ट्रैवल ऑथोराईजेशन के बिना यात्रा नहीं हो सकती। चूंकि पाकिस्तान में पोलियो का प्रकोप है इसलिए हमें पोलियो की दवा भी पिलवाई गई। एक अलग काउंटर पर प्रति दिन के यात्रियों का रोजनामचा लिखा जा रहा था । हम उस काउंटर पर दोपहर के लगभग एक बजे पहुंचे थे तो मैंने देखा कि मेरा यात्री संख्या 63 था । यानि मेरे परिवार के अतिरिक्त उस समय तक मात्र साठ अन्य यात्री करतारपुर साहेब गए थे । उधर, सुरक्षा कर्मी हमें बार बार चेता रहे थे कि आप लोग बहुत लेट हो गए हैं और हमें वहां से हर सूरत चार बजे तक वापिस आना होगा । हालांकि घोषित रूप से शाम छह बजे तक तीर्थयात्री करतारपुर साहेब रुक सकते हैं मगर अनुपालन साढ़े चार बजे तक के हिसाब से ही कराया जा रहा है । इतना बड़ा गुरुद्वारा जो देश दुनिया की ढाई करोड़ से अधिक सिख बिरादरी और उससे भी अधिक संख्या में नानक नाम लेवा आबादी की श्रद्धा का केन्द्र हो और उसके दर्शनाभिलाषी मात्र 63 लोग ? और वह भी इतने बड़े त्यौहार के अवसर पर ? ऐसा कैसे हो सकता है कि 70 किलोमीटर  दूर स्थित गोल्डन टैंपल में रोजाना लाखों लोग देश दुनिया से पहुंचते हों और लगभग उतने ही प्रसिद्ध और एक तरह से उससे भी अधिक ऐतिहासिक महत्व वाले इस गुरूद्वारे में मात्र 63 की संख्या ? क्या यह पाकिस्तान का कोई ढकोसला है और उसने दुनिया को दिखाने के लिए तो कॉरीडोर खोल दिया और जमीनी स्तर पर हमें वहां की सरकार आने नहीं देती ? क्या कम संख्या में श्रद्धालुओं के करतारपुर जाने के लिए हमारी ही सरकार जिम्मेदार है और क्या वही कदम कदम पर अड़चने लगाती है? आखिर क्या वजह है कि आठ सौ करोड़ रूपए खर्च होने के बावजूद इस कॉरिडोर का लाभ नहीं लिया जा रहा ? इस कॉरिडोर के उद्घाटन के समय दोनो देश की सरकारों ने दावा किया था कि फिलहाल पांच हजार यात्री प्रतिदिन करतारपुर आयेंगे और बहुत जल्द यात्रियों की संख्या दस हजार कर दी जाएगी और वास्तव में यात्रियों की संख्या इतनी कम ? सवाल बहुत बड़ा था और मेरा पूरा दिन इसी से जूझने में बीता ।

क्रमश :



 करतारपुर से लौट कर

( भाग तीन )


रवि अरोड़ा


भारतीय इमिग्रेशन सेंटर पर सीमा सुरक्षा बल का कड़ा पहरा था । हालांकि गिनती तो नहीं की जा सकी मगर सुरक्षा कर्मियों समेत तमाम स्टाफ और सफाई कर्मियों को मिला लें तो कम से कम दो ढाई सौ लोग तो जरूर रहे होंगे। भारतीय टीम द्वारा हमें इलेक्ट्रिक वाहन के मार्फत सीमा पर स्थित पाकिस्तान इमिग्रेशन सेंटर तक पहुंचाया गया । बेशक तमाम अन्य सुविधाओं की तरह यह भी निशुल्क थी। पाकिस्तान पहुंचते ही लोग, भाषा, पहनावा और व्यवहार एक दम बदल गया । भारतीय कर्मचारी में जहां हमें इस यात्रा पर भेजने के लिए कोई उत्साह नहीं था वहीं मात्र सौ मीटर दूर पाकिस्तानी चेहरों पर बला की मुस्कान थी। चूंकि मेरे पूर्वज पश्चिमी पंजाब के ही रहने वाले थे अतः स्थानीय पंजाबी भाषा में सिद्धस्त होने का लाभ मैंने उठाया और उनकी ज़बान में खूब गपशप की । हमारे प्रपत्रों की जांच की मात्र औपचारिकता ही उधर निभाई गई । हां यह जरूर था कि प्रति यात्री बीस डॉलर की दर से उन्होंने हमसे फीस अवश्य वसूली। इसके बाद यहां भी छह सीट वाली उनकी एक इलैक्ट्रिक गाड़ी मौजूद थी जो हमें लेकर करतारपुर के लिए चल दी । हालांकि भारत की तरह यहां भी अनेक एसी बसें खड़ी थीं मगर तीन लोगों के लिए भला बस की भी कोई क्या जरूरत महसूस करता । 


सुंदर और साफ सुथरी सड़क पर धीरे धीरे हमारा वाहन करतारपुर साहेब की ओर बढ़ रहा था। सड़क के दोनो ओर कंटीले तारों की बाड़ थी । दूर दूर तक कोई आबादी अथवा यातायात भी नहीं था । लगभग एक किलोमीटर आगे बढ़ते ही रावी नदी आ गई । यह वही नदी है जिसके किनारे कभी मेरे पूर्वज रहा करते थे । उनका पैतृक शहर ओकाड़ा भी वहां से मात्र डेढ़ सौ किलोमीटर दूर था । ज़ाहिर है कि रावी को देखते ही मन पंजाब की उन कथाओं में खो गया जिसे सुनते सुनते मैं बड़ा हुआ हूं। रावी नदी पार करते ही करतारपुर का दरबार साहेब गुरुद्वारा नज़र आना शुरू हो गया । इस पूरे क्षेत्र को बाबा नानक ने ही आबाद किया था । रावी के किनारे ही उनका वह आध्यात्मिक स्थल था जहां अब गुरुद्वारा है। रावी के किनारे ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था। बताते हैं कि उस जगह पर उनकी समाधि भी थी मगर नदी के धारा बदलने से वह स्थान पानी में समा गया । हालांकि इस ऐतिहासिक गुरुद्वारा में भी बाबा नानक की समाधि है मगर उसके बाबत अनेक अन्य कथाएं हैं। जैसे जैसे हम गुरुद्वारे के निकट पहुंच रहे थे , उसके बडे़ आकार का एहसास हो रहा था । फिलवक्त यह गुरुद्वारा 42 एकड़ भूमि पर विकसित है मगर पाकिस्तान सरकार ने उसके लिए पूरे चार सौ एकड़ भूमि अधिग्रहित की है। गुरूद्वारा परिसर के लिए अधिग्रहित जमीन कितनी बड़ी है इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि अयोध्या के निर्माणाधीन राम मंदिर का परिसर कुल सत्तर एकड़ है। 


खैर, गुरूद्वारा परिसर में एक गाइड हमारा इंतजार कर रहा था। वह स्थानीय पर्यटन विभाग का कर्मचारी था । उसने हमें पूरे परिसर के बाबत विस्तार से बताया और फिर हमें भ्रमण के लिए अकेला छोड़ दिया । सबसे पहले हम परिसर के केन्द्र में बने गुरुद्वारे में ही गए । बेशक पूरा परिसर बहुत बड़ा है मगर इस गुरुद्वारे का मूल स्वरूप सुरक्षित रखने की गरज से उसमे कोई खास छेड़छाड़ नहीं की गई है। पहली मंजिल पर जहां गुरू ग्रंथ साहब का प्रकाश हो रहा है वह कमरा तो मात्र बीस फुट बाई पच्चीस फुट का ही है और उसने एक वक्त में बामुश्किल पचास आदमी ही खड़े हो सकते हैं। गुरुद्वारे में माथा टेक कर हम लोग पूरे परिसर को देखने निकले तो वहां एक से बढ़ कर एक चौंकाने वाली चीजें हमें नजर आईं।

क्रमश:



करतारपुर साहेब से लौट कर

( भाग चार )


रवि अरोड़ा


करतारपुर गुरुद्वारा परिसर में श्रद्धालुओं के लिए देखने योग्य एक से बढ़ कर एक चीजें हैं। सबसे महत्वपूर्ण तो बाबा नानक की मजार ही है जो पिछले पांच सौ सालों से यहां श्रद्धा का बड़ा केन्द्र है। सिख और हिंदू संगत के अतिरिक्त स्थानीय मुस्लिम आबादी भी इस मजार पर बड़ी संख्या में माथा टेकने आती है। बाबा नानक के जीते जी ही मुस्लिमों ने उन्हें पीर की संज्ञा दे दी थी और आज भी वे स्थानीय मुस्लिम आबादी के दिलों में बसते हैं। यह मजार ठीक वहीं है जहां बाबा नानक ने अपना शरीर छोड़ा था। पास में ही रहट युक्त एक कुंआ भी है। बताया जाता है कि इसी से बाबा अपने खेतों की सिंचाई करते थे। गुरुद्वारे के जीर्णोद्धार के समय पांच सौ साल पुराना एक और कुआं मिला था और माना गया कि यह भी बाबा नानक से संबंधित है। पाकिस्तान सरकार ने सिक्खों की परम्परा के अनुरूप परिसर में सरोवर का भी निर्माण करवाया है। हालांकि सिख धर्म की मान्यताओं के अनुरूप स्त्रियों और पुरुषों के लिए एक ही सरोवर न बनवा कर दोनो के लिए अलग अलग सरोवर बनवाए गए हैं। जाहिर है कि इस मामले में सिक्ख नहीं इस्लामिक जीवन शैली को तरजीह दी गई है। परिसर में बहुत बड़ा लंगर हॉल भी है जहां एक साथ दो हजार लोग बैठ कर भोजन कर सकते हैं। लगभग इतने ही यात्रियों के ठहरने को भी कमरे और डॉरमेट्री वहां है । अब इस कॉरीडोर का निर्माण और गुरुद्वारे का जीर्णोद्धार राजनेताओं ने कराया है तो जाहिर है कि राजनीति भी यहां अपने पदचिन्ह छोड़ गई है।


पाकिस्तान सरकार ने दावा किया था कि करतारपुर दुनिया का सबसे बड़ा गुरुद्वारा बनने जा रहा है। अपनी इस घोषणा को यथार्थवादी दिखाने को उसने गुरुद्वारे के लिए कुल 1450 एकड़ भूमि चिन्हित की थी मगर अधिग्रहण अभी तक मात्र चार सौ एकड़ भूमि का ही हुआ है। दावा किया गया था कि गुरुद्वारे के पास पांच सितारा होटल और अन्य सुविधाएं भी होंगी मगर इमरान खान सरकार के गिरने के बाद पाकिस्तान में अब इनका नामलेवा भी कोई नहीं बचा है। पाकिस्तान में कुल 195 बडे़ गुरुद्वारे हैं और लगभग सभी का संचालन और देखभाल पाकिस्तान सिख गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी करती है मगर करतारपुर साहेब से कमेटी को दूर ही रखा गया है और स्वयं सरकार इसका संचालन कर रही है। यहां तक कि नौ सदस्यीय संचालन समिति में एक भी सिख नहीं है। सबसे बड़ी राजनीतिक शरारत तो स्वयं इमरान ख़ान सरकार ने की और  गुरुद्वारे के ठीक बगल में एक चबूतरा सा बना कर उसपर एक बोर्ड लगा दिया कि साल 1971 की लड़ाई में भारत ने इस गुरुद्वारे को नष्ट करने के लिए यहां एक बम फेंका था मगर गुरू महाराज की कृपा से गुरुद्वारे का रत्ती भर भी नुकसान नहीं हुआ । पाकिस्तान की यह हरकत वहां आए हरेक नानक नाम लेवा को नागवार गुजरती होगी मगर इसका कोई खास विरोध अभी तक नहीं हुआ है । भला यह कोई कैसे मान सकता है कि भारतीय सेना, जिसमें सिख बड़ी तादाद में हैं, वह अपने इतने महत्त्वपूर्ण धर्मस्थल को नष्ट करने की चेष्टा करेगी। खैर, इसके बाद हम लोग लंगर हॉल में गए जहां हमारे अतिरिक्त बस दो दंपति और थे । साफ सुथरी शानदार रसोई में तैयार किया गया लजीज़ भोजन हमारे सामने था और मैं दावे से कह सकता हूं कि यह भोजन भारत के किसी भी बड़े से बड़े गुरुद्वारे में परोसे गए लंगर से रत्ती भर भी कमतर नहीं था।

क्रमश:



करतारपुर से लौट कर

( भाग पांच )


रवि अरोड़ा


करतारपुर साहेब में सबसे अधिक जो बात आकर्षित करती है, वह है पाकिस्तानियों का हम भारतीयों के प्रति व्यवहार। वे लोग भारतीयों से ऐसे मिलते हैं जैसे मेले में बिछड़े दो भाई हों। शनिवार और इतवार को सैंकड़ों की तादाद में पाकिस्तानी इस गुरुद्वारे में केवल भारतीयों से मिलने की गरज से ही आते हैं। निकट का सबसे बड़ा शहर है नारोवाल और वहां के लोग सबसे अधिक यहाँ पहुंचते हैं। हालांकि लाहौर और फैसलाबाद समेत कराची जैसे बड़े शहरों के लोग भी इसी उद्देश्य से यहां आते हैं। भारतीयों के लिए कोई मिठाई लेकर आता है तो कोई घर से लजीज़ खाना बनवा कर लाता है। भारतीयों को देखते ही पाकिस्तानी अदब से दुआ सलाम जरूर करता है। हालांकि वहां के हिंदू पुरुष भी अब पठानी सलवार कुर्ता पहनते हैं और हिंदू महिलाएं भी सिर ढक कर रखती हैं मगर फिर भी हाव भाव से साफ पता चलता है कि उनमें अधिकांश मुस्लिम होते हैं। भारतीयों के साथ हाथ मिलाने और उनके साथ तस्वीर खिंचवाने का भी पाकिस्तानियों में अच्छा खासा क्रेज है। 


पता नहीं मुझे क्या सनक हुई कि मैं मिलने वाले हर पाकिस्तानी से उसके शहर का नाम पूछने लगा । मुझे रावलपिंडी, लाहौर,मुल्तान, सरगोधा, गुजरात ( वहां का एक बड़ा शहर)  टोबा टेक सिंह, नारोवाल, सियालकोट, कराची और कुछ अन्य शहरों के लोग मिले। इन सभी से मैंने टूटी फूटी ही सही मगर उनके जिले की बोली के अनुरूप पंजाबी में बात की। पंजाबी की इन तमाम उपबोलियों में बात करने का मुझे बचपन से ही शौक है। सराइकी भाषा भी काम चलाऊ बोल लेता हूं जो पाकिस्तान के एक बड़े भूभाग में बोली जाती है अतः स्थानीय लोगों से संवाद करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आई। भाषा का लाभ लोगों से खुल कर कुछ उगलवाने में भी काम आया । वैसे सच तो यह ही है कि स्थानीय लोग हम भारतीयों से बात करने को उत्सुक रहते हैं और मुझ जैसे बतरसी लोगों से तो आसानी से ही खुल जाते हैं। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सभी पाकिस्तानी यहां हम लोगों से मिलने ही आते हैं, धार्मिक भाव से भी बड़ी संगत यहां पहुंचती है। यह भी सच है कि ऐसे लोग जिनके पाकिस्तान में रिश्तेदार अथवा मित्र हैं और चाह कर भी उन्हें वहां जाने का वीजा नहीं मिलता वे उन्हें करतार पुर साहेब बुला लेते हैं और बिना किसी झंझट के दोनो देशों के ये लोग पूरा दिन यहां साथ बिताते हैं। अखबारों के हवाले से मिली जानकारी के अनुसार बंटवारे में बिछड़े आठ परिवार भी इस गुरुद्वारे की बदौलत अब तक आपस में मिल चुके हैं।


पूरा परिसर घूमने के बाद हम लोग चारदीवारी के भीतर ही बनाए गए छोटे से बाजार में पहुंचे। वहां लगभग बीस अस्थाई दुकानें हमें नजर आईं। कोई कपड़े बेच रहा था तो कोई लकड़ी का सामान। किसी दुकान पर मुल्तान का डिब्बा बंद मशहूर कराची हलवा बिक रहा था तो किसी पर महिलाओं के श्रृंगार की वस्तुएं अथवा स्मृति चिन्ह। लाहौर निवासी एक दुकानदार एहसान से मैंने जब यह कहा कि तुम्हारे पास नया क्या है, ये सब जो तुम बेच रहे हो वह तो हमें भारत में भी मिल जायेगा । इस पर उस दुकानदार ने कुछ ऐसा कहा कि मैं उसे गले लगाने से खुद को रोक नहीं पाया । लगभग तीस पैंतीस वर्षीय यह दुकानदार एहसान बोला- वीर जी यह प्यार आपको वहां नहीं मिलेगा । 



करतारपुर से लौटकर

( अंतिम भाग )



रवि अरोड़ा


हर बात को कुरेद कुरेद कर जानने की जिज्ञासा और अखबार नवीसी के अनुभव का परिणाम यह हुआ कि दोपहर होते तक गुरुद्वारे का एक सुरक्षा कर्मी मुझे इंटरव्यू दे रहा था । नारोवाल निवासी इस सुरक्षा कर्मी आसिफ़ से मैं मूलत: यही जानना चाहता था इतना बड़ा गुरुद्वारा,  इतनी बड़ी लागत, सीमा के दोनो ओर हुई भरपूर राजनीति और जम कर प्रचार प्रसार के बावजूद यहां भारतीयों की आमद इतनी कम क्यों है ? इस पर आसिफ़ का कहना था कि पाकिस्तान सरकार तो चाहती है मगर भारत सरकार ही अपने लोगों को यहां भेजने में रोड़े अटकाती है। बकौल उसके पाकिस्तान सरकार ने भारत से कई बार कहा है कि अपने लोगों को वह केवल आधार कार्ड के मार्फत ही भेज दे मगर भारत की ओर से पासपोर्ट के बिना यहां आने का आवेदन ही नहीं किया जा सकता । इसके अतिरिक्त भारत में पुलिस और अन्य विभागों की जांचों के चलते भी अनेक आवेदक चाह कर भी यहां नही आ पाते । आसिफ के अनुसार पाकिस्तान सिख गुरूद्वारा प्रबंध कमेटी ने भी भारत से अनुरोध किया है कि सभी ऐच्छिक श्रद्धालुओं को वह वहां भेजे और इसके लिए पाकिस्तान सरकार बीस डॉलर के अपने प्रवेश शुल्क को भी मुआफ करने को तैयार है। 


आसिफ़ ने ही बताया कि पाकिस्तान सरकार की ओर से यहां लगभग एक हजार लोग विभिन्न कार्यों के लिए रोजाना तैनात रहते हैं। लगभग साढ़े सात सौ तो स्थानीय सीमा सुरक्षा बल के ही जवान हैं और बाकी सभी सेवादार हैं। भारत की ओर भी सैंकड़ों लोगों की तैनाती मैं देख कर आया था । यानि दोनो सरकारों की ओर से लगभग डेढ़ हजार सरकारी स्टाफ का खर्च और भारतीय श्रद्धालुओं की संख्या मात्र उंगलियों पर गिनने योग्य ? आसिफ और अन्य लोगों ने बताया कि यहां केवल सौ डेढ़ सौ भारतीय ही रोज आते हैं। हां शनिवार और इतवार को जरूर यह संख्या दोगुनी हो जाती है। बेशक बैसाखी और गुरुपर्व आदि पर दो ढाई हजार भारतीय यहां पहुंचते हैं मगर उनमें अधिकांश वही होते हैं जो बकायदा वीजा लेकर वाघा बॉर्डर से पाकिस्तान आए हुए होते हैं । उन दिनों में भी करतारपुर कॉरीडोर से आने वालों की संख्या चार सौ पार नहीं करती। यानि जिस उद्देश्य से यह कॉरीडोर बनाया गया वह कहीं पीछे छूट गया ।


सिख धर्म के प्रथम गुरु बाबा नानक के बारे में अधिक न जानने वालों को बता दूं कि बाबा की मृत्यु के पश्चात उनके मुरीद मुसलमानों ने उनके फूल जहां दफनाए थे उसी जगह करतारपुर का गुरुद्वारा दरबार साहेब है और जहां हिंदुओं ने उनका अंतिम संस्कार किया वह जगह भारत के गुरुदासपुर जिले में है और वहां पर डेरा बाबा नानक गुरुद्वारा है। दोनो गुरुद्वारों में मात्र सात किलो मीटर की दूरी है। बंटवारे के समय अंग्रेज अफसर रेडक्लिफ की बेवकूफी से एक ही महत्व के दो स्थान अलग अलग देशों में चले गए । उधर, पाकिस्तान सरकार ने तो अपने गुरूद्वारे की काया पलट कर दी है मगर भारत का गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक सदियों से अभी भी इसके इंतजार में है। भारत के सिख करतार पुर साहेब बिना वीजा के जा सकते हैं मगर पाकिस्तान के सिक्खों को डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे के दर्शन को अभी भी वीजा लेना पड़ता है। हालांकि अपने अपने देश से श्रद्धालु दूसरे देश के गुरुद्वारे को दूरबीन से देखते रहते हैं मगर उनकी मांग है कि इस कॉरीडोर से दोनो गुरुद्वारों को जोड़ा जाए ताकि बाबा नानक की स्मृतियां वे और अच्छे से संजो सकें। आगामी आठ नवम्बर को बाबा नानक का जन्म दिवस है । क्या ही अच्छा हो कि इस अवसर पर दोनो देश की सरकारें करोड़ों नानक नाम लेवा संगत को यह तोहफा दे सकें। 

समाप्त

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...